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दरमियाना - 7

दरमियाना

भाग - ७

मेरे सवाल के जवाब में उसका सवाल आया था । सटाक-से मेरे सामने रखे गये इस सवाल ने वाकई मुझे झकझोर दिया था – सच है, क्या जानता हूँ मैं इसके बारे में ?... और उसने कितनी हिकारत से मेरे सवाल को इग्नोर कर दिया था ।... ठीक ही तो किया था -- ‘राहुल’ के बारे में जानने से पहले तो मुझे इसके बारे में जानना चाहिए था ।... उसकी उठी नजरें अभी भी उसके सवाल का जवाब माँग रही थीं, मेरा सवाल शायद उसके तईं इतना जरूरी नहीं था ।

मैं जबसे इसे जानता हूँ, मैंने पहली बार इसे इतना संजीदा देखा था -- यह वो संध्या तो नहीं थी, जिसकी कमर पर मैंने हाथ रखा था और वह सिहर गई थी । अपने सवाल को छोड़, उसके सवाल का जवाब देना मुझे बलात् लगा था, फिर भी मैंने शब्द बटोरने का प्रयास किया, "हाँ... हाँ वो... यही कि तुम...तुम... एक अच्छी इंसान हो... और... और जो भी हो -- मेरा मतलब... संध्या या संजय... अपनी जिन्दगी, अपनी तरह से जीना चाहती हो -- बस यही, और क्या ?"

"आप मुझे क्या मानते हैं, या मेरे बारे में क्या जानते हैं... यह तो मैं नहीं जानती ।... मगर हाँ, मैं आपको भैया जरूर मानती हूँ ।" उसकी आवाज में एक आत्मविश्वास था । मैं कहीं से उसे मसखरा या उपहास की वस्तु नहीं समझ सका था -- भले ही स्त्री समझता या पुरुष ! ... या फिर इन दोनों के बीच -- कुछ भी ! ...अभी तक उसने मेरे घर पर अपनी हथेलियाँ नहीं टकराई थीं । हालांकि उस दिन, अपनी गुरू रेशमा से बात करते हुए वह ऐसा कर चुकी थी, जब मेंने उसे पहली बार देखा था ।

तभी वह उठी और एक कुर्सी खींच कर ठीक मेरे सामने बैठ गई । मेरे घुटने पर हाथ रखा और कहने लगी, "मैं आपको आज सब कुछ बाताऊँगी भैया... पर क्या आप मेरी बात आराम से सुन सकेंगे ?..." एक नमी-सी उसकी आँखों में उभर आई थी, जिसे उसने आगे बढ़ने की इजाजत नहीं दी थी ।

"हाँ... तुम बोलो, मैं सुनूँगा.. " मेरे पास इसके अलावा और कोई रास्ता नहीं था ।

"अपनी तारा माँ के बारे में क्या जानते हैं आप ? और मेरी गुरू... उनके बारे में ?" आज मैं किसी और ही संध्या से मिल रहा था । उसने कहना जारी रखा, "मैं उम्मीद करती हूँ -- मेरे बारे में कुछ भी जान कर, आप मुझसे नफरत नहीं करेंगे ।... मैं आपसे बहुत प्यार करती हूँ... आपको बहुत मानती हूँ । मेरा मतलब, मैं दिल से आपकी बहुत इज्जत करती हूँ ।... इसलिए सोचती हूँ कि मैं जो कुछ भी कहूँगी, आप बुरा नहीं मानेंगे ।..."

मैंने अपने घुटने पर रखे उसके हाथ को हल्के-से दबाया । फिर उसके कंधे पर हाथ रख दिया, "हाँ कहो... कुछ भी कहो, मैं बुरा नहीं मानेंगे ।"

"भैया, मैं हिजड़ा हूँ ।... यही कहते हैं सब हमें... फिर संध्या या संजय... ऐसा कोई भी नाम बेमाने हैं ।... सच पूछें तो हमारी जिंदगी नरक है । हम हर माँ के लिए एक स्वस्थ बच्चे की कामना करते हैं, दुआ माँगते हैं, पर हम... पता नहीं क्यों ऊपर वाला कुछ हमारे जैसे बच्चे भी इस दुनिया में भेज देता है ।... जो दूसरों के लिए ऐसा बच्चा न देने की दुआ माँगते हैं ।... हम माँगते हैं कि हे भगवान, हमारे जैसा किसी और को मत भेजना, किसी एक तरफ रखना... " उसका गला भर्रा गया था । उसने एक गहरी साँस ली और गिलास में रखे पानी को सिप किया ।

"मैं जब पैदा हुई थी, तो माँ बहुत खुश थी । उसे लगा था कि बेटा हुआ है । मैं उस समय वैसा ही थी... मतलब, वैसा ही था ।" उसने फिर कहना शुरू किया, "मैं ‘अकुआ’ थी -- आपकी भाषा में कहूँ तो -- लड़के जैसी । यानी मेरे भी लिंग था, जो जन्म के समय मुझे लड़का बता रहा था ।... मेरी परवरिश भी उसी रूप में शुरू हुई । लड़के वाले कपड़े बनाये गये... और खिलौने भी लड़कों वाले ।

"नाम भी रखा गया -- संजय !... शुरू में किसी को कुछ भी अलग-सा, अजीब-सा नहीं लगा । मुझे भी नहीं ।... मगर धीरे-धीरे मैंने महसूस किया कि मैं उन लड़कों से कुछ अलग हूँ, जो मेरे आसपास थे ।... मुझे लड़कों में या उनके खेलों में कोई रूची नहीं थी ।... मैं आसपास की लड़कियों में अपने को ज्यादा अच्छा महसूस करती ।...

"फिर मेरे अपने घर में भी एक बहन आ गई थी । उसी के साथ खेलना मुझे अच्छा लगता और उसे खिलाना भी ।... खिलौने उसके लिए ही आते, पर वे मुझे भी अच्छे लगते ।... वही गुड़िया को तैयार करना या घर-घर खेलना । उसकी सहेलियाँ भी हमारे साथ खेलतीं । उनका साथ भी अच्छा लगता ।...

"बहन जब कुछ बड़ी होने लगी, तो उसकी फ्राक मैं भी पहन लेती ।... माँ की बिंदिया छिपाकर अपने माथे पर लगा लेती ।... पकड़े जाने पर माँ की डाँट खाती और पिता की मार ।... कई बार इस तरह देख लिए जाने के बाद वे मुझसे चिढ़ने लगे थे ।...

"फिर एक भाई भी हुआ । वह जन्म से तो मेरी ही तरह था... यानी लिंग सहित... मगर धीरे-धीरे बड़े होते हुए मैंने महसूस किया कि वह ‘मेरे जैसा’ नहीं है । माँ-बाप का झुकाव भी उसकी तरफ होने लगा । मैं और ज्यादा इग्नोर किया जाने लगा । हाँ, मेरी बहन मुझे अपने ज्यादा नजदीक लगती । उसका लगाव भी मुझसे ही ज्यादा था ।

"बहन और भाई मुझसे छोटे थे, इसलिए वे मुझे नहीं समझ पा रहे थे । मगर मैं उन दोनों के बीच का फर्क समझने लगा था... और सोचने लगा था कि मैं इनके बीच कहाँ हूँ !"

मैं अवाक् था । उसे सुनने के अलावा मुझे कुछ नहीं सूझ रहा था । बोलता भी तो क्या ? तारा और रेशमा की संगत में भी मैं यह सब नहीं समझ पाया था । मेरे सामने किसी तिलिस्म की परतें धीरे-धीरे खुल रही थीं । यह सब कुछ मेरे लिए रहस्यमयी था... अनजाना, अबूझा । मैं किसी तरह का कोई हस्तक्षेप नहीं करना चाहता था ।

उसने अपनी आँखों के कोरों से बह निकलने वाले रिसाव को रोका और फिर कहने लगी, "यानी कुल मिलाकर मेरा जन्म एक पुरूष के रूप में हुआ था, पर ऐसा मुझे कभी लगा नहीं । मैं अपनी हम उम्र लड़कियों के साथ ज्यादा सहज महसूस करने लगा । वे लड़कियाँ भी शायद मेरे साथ सहज ही महसूस करतीं ।

"उनमें से कुछ को मासिक शुरू हो गया था । पहले-पहल उन्होंने मुझसे छिपाया, मगर फिर वे भी नॅार्मल हो गईं । हालांकि वे जानने लगी थीं कि शरीर से मैं उनके जैसा नहीं हूँ । किन्तु वे कैसी भी बात मेरे सामने कर लिया करतीं । उनमें से कुछ, लड़कों की बातें भी करने लगी थीं, जिन्हें सुन कर मुझे भी ‘उन जैसा ही कुछ’ होता था । वे मेरे सामने कपड़े बदल लिया करतीं, मगर मैं ऐसा नहीं कर पाता था । शायद ‘अकुआ’ होने की वजह से ।

"यानी जिस पर, खुद किसी को भी या उसके घर वालों को नाज हुआ करता... वह मेरे लिए शर्म का सबब बन गया ।... इसी लिए मेरी प्रताड़ना शुरू हो गई । घर में, स्कूल में और हर कहीं । माँ को मैंने कई बार सुबकते देखा था, इसी वजह से । पापा तो मुझसे बेहद नफरत करने लगे थे । " उसने एक गहरी साँस ली । आगे वह कुछ बोल नहीं पा रही थी । शायद पिता का जिक्र आ गया था, इसलिए ।

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