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रामचरित मानस-तुलसीदास की जन्म- स्थली राजापुर गौडा क्यों

6 गोस्वामी तुलसीदास की जन्म- स्थली राजापुर गौडा ही क्यों?

रामगोपाल भावुक

कथाकार ए असफल और मैं दोनों ही मेरी कृति रत्नावली के संशोधित संसकरण के विमोचन हेतु गौंड रेल्वे स्टेशन पर ठसाठस भरी कुशीनगर एक्सप्रेस से उतरे। रात भर की परेशानी से व्यथित तो थे ही, इसीलिये जल्दी ही गन्तव्य पर पहुँचने की व्याकुलता थी। मैंने ही वहाँ के प्रबन्धक सूर्यपाल सिंह जी को फोन लगाया। वे यथा समय स्टेशन पर आ गये थे। कुछ ही क्षणो में हम धोती कुरता पहने गम्भीर मुद्रा में हल्की सी मुश्कराहट लिये अवधी व्यक्तित्व के सामने खड़े थे। उन्हें पहिचानने में देर नहीं लगी। हम समझ गये ये ही इस नगर के प्रसिद्ध साहित्यकर डॉ सूर्यपाल सिंह जी हैं। उन्होंने हाथ बढ़ाकर हाथ मिलाया। अब हम उनके पीछे- पीछे चलकर एक ओटो में आकर बैठ गये। अम्वेडकर चौराहे से होते हुये हम उनके निवास पर आ गये। उनके घर में प्रवेश करते ही रातभर की सारी थकान तिरोहित हो गई।

उनका घर हिन्दी साहित्य की सुवास से सुवासित, अलमारियाँ पुस्तकों से भरी। टेविल पर कम्पूटर। यह देखकर वे लेखकीय और पत्रिकारता के सजग प्रहरी लगने लगे। बातों- बातों में पता चला वे एक पत्रिका पूर्वापर त्रैमासिक का प्रकाशन भी करते हैं। कुछ ही क्षणों में वह पत्रिका मेरे हाथ में थी। मैं उसे उलट- पलट कर देखने लगा। पत्रिका स्तरीय लेखों से सुसज्जित। इससे सूर्यपाल सिंह जी कें प्रति श्रद्धा के भाव मेरे हृदय में प्रस्फुटित हो उठे।

दस बजे कार्यक्रम में पहुँचना था। उनकी गाडी का ड्रायवर आ गया। उसने चलने के लिये गाड़ी लगा दी।

कार्यक्रम स्थल थोड़ी ही दूरी पर था। नगर के प्रसिद्ध लाल बहादुर शास्त्री महाविद्यालय के ललिता शास्त्री सभागार में कार्यक्रम रखा गया था।

कार्यक्रम में नगर के सात आठ लेखकों-कवियें की कृतियों के साथ रत्नावली उपन्यास एवं किस्सा कोताह पत्रिका का भी विमोचन किया गया। उसके बाद ‘तुलसी दास एवं रत्नावली के नायकत्व की उत्तर मीमांसा’ विषय पर चर्चा आयेजित की गई। जिसमें रत्नावली उपन्यास के आधार पर जेएनयू से पधारे प्रो सुधीर प्रताप सिंह एवं बजरंग बिहारी तिवारी जैसे मनीषियों ने इस विषय पर प्रकाश डाला। सभी वक्ता अपने भाषण में गोस्वामी तुलसीदास की जन्म स्थली की पड़ताल करने का प्रयास भी करते रहे। लगभग एक बजे तक कार्यक्रम चलता रहा। उसके वाद महाविद्यालय के प्रांगण में दोपहर का भोजन सभी के साथ करने का सौभाग्या मिला। उसके बाद दूर- दूर से पधारे विद्वाानों का काव्य पाठ भी सुनने को मिला।

दूसरे दिन चाय-नास्ते के बाद मैं और असफल जी मोटर साइकल से गोस्वामी तुलसीदास जी की जन्म स्थली के दर्शन करने के लिये निकल पड़े ।याद आने लगी, रत्नावली की खोज में राजापुर जिला वॉंदा की, यमुना नदी के किनारे बने गोस्वामी तुलसीदास जी के गृह निवास की। वहीं अयोध्या काण्ड की हस्त लिखित प्रति देखने को भी मिली। गोस्वामी तुलसी दास की सुन्दर हस्त-लिपि मैं उसे देखते ही रह गया।

डॉ संपूर्णानन्द जैसे नीर-क्षीर विवेकी विद्वान ने इस प्रति के लिए तिजोरी की व्यवस्था की है। इस स्थल को ही गीताप्रेस गोरखपुर ने गोस्वामी तुलसी दास की जन्म स्थली स्वीकार किया है, किन्तु मेरे सामने कुछ तथ्य ऐसे रहे हैं जिनके कारण मैं उसे जन्म स्थाली स्वीकार न करके उनकी कर्म- स्थली स्वीकार कर पा रहा हूँ। गोस्वामी जी चित्रकूट में बारह वर्ष तक रहे। बाद में भी उनका चि़त्रकूट आना-जाना लगा रहा। इस क्षेत्र में इन्होंने दो हनुमान मन्दिरों की स्थापना की है। एक नंदीतौरा में, दूसरा यमुना किनारे संकट मोचन हनुमान मन्दिर। दोनों मूतियाँ गोस्वामी जी द्वारा स्थापित एवं पूजित मानी जाती है। यहॉ डॉ वंशीधर त्रिपाठी ने जो यमुना किनारे हनुमान मन्दिर की बात कही है, यदि वह मन्दिर कही है तो वह राजापुर जिला वॉदा में ही है। गोस्वामी तुलसी दास द्वारा स्थापित हनुमान मन्दिर के पुजारी से मेरी बातंे हुई हैं।

मुझे यह पूरा विश्वास हो गया कि गोस्वामी तुलसी दास का निवास राजापुर जिला वॉदा रहा है।

उनका लघु वय का तापस ही उनको लेकर यहाँ क्यों न आया हो।

तेही अवसर एक तापस आवा।

त्ेाज पुंज लधु वयस सुहावा।।

जब उनके इष्ट श्रीराम जी इसी पथ से चित्रकूट जाते हैं तो कवि अपने उस तपस्वी की स्मृति भूूल नहीं पाते हैं।.....और मानस में विना किसी प्रसंग के उसे सामने ले आते हैं।

इन्हीं कारणों से मैंने राजापुर जिला वॉदा में रत्नावली का निवास स्वीकार किया है किन्तु इस राजापुर के पास कोई शूकर क्षेत्र तथा नरहरिदास के नाम से कोई आश्रम नहीं है। यह स्थल अयोध्या से बहुत दूर है, किन्तु राजापुर वॉदा से गोस्वामी तुलसी दास का गहरा रिस्ता रहा है।

यह सब सोचते हुये हम लखनऊ रोड पर गौंडा से बारह किलो मीटर चलकर बालपुर कस्वे में पहुँच गये। यहाँ से भी बाँयी ओर की सड़क पर चलते हुए पुनः बारह किलोमीटर चलकर परसपुर कस्वे को पार किया। हमें पसका पहंँुचने के लिये आठ किलोमीटर और चलना पड़ा। अब हम पसका के त्रिमुहानी बाले संगम पर खड़े थे। अयोध्या की चौरासी कोस की परिक्रमा का यह पड़ाव स्थल है। यहाँ स्नना करने का बड़ा ही महत्व है। हमें वहाँ जल का प्रवाह नहीं दिखा तो हमने एक राहगीर से घाघरा एवं सरयू नदी के संगम का पता चलाया। हम आगे बढ़ गये। नौ किलोमीटर और आगे चलने पर चन्द्रपुर गाँव में जा पहुँचे। आगे रेत ही रेत थी तो हमने अपनी मोटर साइकल एक स्थान पर रख दी और पैदल ही संगम पर पहुँचने के लिये चल दिये। पहले धूल भरे पथ से चलते हुए संगम की गीली रेत में आगे बढ़ते रहे, इस तरह हम मुख्य संगम पर पहुँच गये। संगम पर स्नान करने प्रवेश किया तो घुटनों- घुटनों कीचड़ में धस गये। प्रयास करने पर एक जगह मिल गई ,जहाँ प्रवेश करने पर कीचड नहीं थी। हम दोनों ने आराम से वहीं पर स्नना किया। दैनिक पूजा अर्चना से निवृत हुए और प्रकृति का आनन्द लेते हुए लौट पडे। अब तक ग्यारह बज चुके थे। हम पुनः पसका लौट पड़े। पसका में भगवान वारह का मन्दिर है। उसकी सीढ़ियाँ चढ़ते हुए मुझे तुलसीदास जी का यह दोहा याद आने लगा-‘तुलसीदास जी मानस में लिखते हैं-

मैं पुनि निज गुररुसन सुनी कथा जो सूकर खेत।

समझी नहिं तसि बालपन तब अति रहेउँ अचेत।।

इस तरह गोस्वामी तुलसी दास की जन्म स्थली सूकर क्षेत्र सोरों होने में सन्देह नहीं रह जाता। वहीं नरहरिदास का आश्रम भी है। यहीं कासगंज में शूकर शोध संस्थान भी है। गोस्वामी तुलसी दास का मानस में यह सोरठा-

बँदउँ गुरुपदकंज कृपा सिन्धु नर रूपहरि।

वहाँ के लोग वदरिया नामक स्थान पर रत्नावली का मैका मानते हैं। वहाँ आज भी कुछ पाठक परिवार पहते हैं। कुछ मनीषियों ने पूरी तरह सौरों को गोस्वामी तुलसी दास की जन्म स्थली स्वीकार कर लिया है।

मेरी रत्नावली पर शोध यात्रा अन्तिम पड़ाव पर पहुँच रही थी कि सूकर क्षेत्र कासगंज से उमेश कुमार पाठक, जी का तुलसीदास जी की जन्म स्थली के सम्बन्ध पत्र मिला ,जिसमें उनके दो लेख एक ‘अवध पुरी का चरित प्रकासा’ दूसरा ‘तुलसीदास जी के आविर्भावकाल’ के सम्बन्ध में लिखा गया है।

इसके साथ ‘तुलसी जन्म-भूमि एक मौलिक चिन्तन’ एवं ‘तुलसी जन्मभूमि:शोध परक समीक्षा ’इस तरह दो पुस्तकें श्री प्रेम नारायण गुप्त जी द्वारा लिखित भी मिलीं है। इन कृतियों मंे रामचरित मानस में प्रयुक्त सोकरवी के शब्दों के माध्यम से प्रमाण सहित अपनी बात रखी है। वे मानते हैं कि रामचरित मानस अवघी भाषा का ग्रंथ न होकर सोकरवी का ही ग्रंथ है। इन दोनों कृतियों में अवधी और सौरों की भाषा में अन्तर की वृहद चर्चा की है, इनमें किन-किन शब्दों का चलन ब्रज क्षेत्र में है जिनका रामचरित मानस में तुलसी दास जी ने प्रयोग किया है।

श्री गुप्त जी ने भाषा के जिस स्तर की बात कही है उससे लगता है ऐसा सूक्ष्म भाषाई प्रभाव किसी के बचपन में सम्भव नहीं हो सकता। प्रोढ़ अबस्था में ही ऐसे सूक्ष्म प्रभाव सम्भव है।

मैं यह मानता हूँ- बचपन की अबोध अवस्था में, भाषा का प्रारम्भिक रूप हीें उसके जहन में प्रवेश कर पाता है। भाषा की बनावट का रूप तो समझ के साथ बढ़ता चला जाता है। तुलसी दास जी प्रकाण्ड विद्वान थे। वे क्या ब और व, ष और ख में भेद नहीं जानते होंगे। निश्चय ही उन्होंने जान-बूझकर ऐसे प्रयोग किये हैं।

इस सबके बावजूद तुलसीदास जी का समस्त काव्य अवधी शब्द बाहुल्य है। इससे उनसे अवध क्षेत्र की निकटता परिलक्षित तो होती ही है।

वहाँ एक राजापुर नामका छोटा सा गाँव भी है। वहाँ के लोग उस गाँव की भाषा अवधी मानते हैं। ऐसा कैसे सम्भव है सौकरी क्षेत्र में केवल एक गाँव की भाषा अवधी, यह बात असम्भव सी लगती है।

यह सोचते हुए हम अवध क्षेत्र कें भगवान वारह की दिव्य प्रतिमा के समक्ष शीष झुका कर उनकी वन्दना कर रहे थे।

वहाँ से चलकर उसी कस्वे में नरहरि दास का आश्रम भी है। मैं अपनी शोध यात्रा में सात बर्ष पूर्व यहाँ आया था। उस समय रामचरित मानस के सातों काण्डों के अंश मुझे इस मन्दिर में देखने को मिले थे। यहाँ एक महिला मिली, उसने बतलाया कि यहाँ चोरी हो गई, इसलिये ये सातों काण्ड पुलिस ने अपने संरक्षण में ले लिये हैं। इस मन्दिर के सामक्ष प्रचीन बरगद का वृक्ष अपनी उपस्थिति दर्शा रहा था। यहाँ के लोगों ने यह बतलाया कि यह बरगद का वृक्ष तुलसी दास जी ने अपने हाथों से लगाया था।

मैं और असफल जी इन विषयों पर चर्चा करते हुये गोंडा जनपद में स्थित राजापुर की ओर प्रस्थान कर चुके थे। यह स्थल पसका से सात किलोमीटर की ही दूरी पर स्थित है।

डॉ0 वंशीधर त्रिपाठी ने अपने लेख में गोस्वामी तुलसी दास का जन्म स्थान राजापुर जिला गोंड़ा स्वीकार किया है। इस स्थल के पास ही ‘‘पसका’’ नामक स्थान से भगवान शूकर के प्रगट होने की कथा जुड़ी है। उसके पास में ही बाबा नरहरिदास का आश्रम भी है। इससे भी यह अनुमान लगाया जा सकता है कि गोस्वामी तुलसी दास की जन्मभूमि इसी क्षेत्र में रही होगी।

करीव एक घन्टे में हम राजापुर के तुलसी मन्दिर के प्रागण में खड़े थे। मन्दिर में रामचरित मानस का अखंड पाठ चल रहा था। मन्दिर के अन्दर राम जानकी की मूर्ति स्थापित है। वहीं तुलसीदास जी की प्रतिमा भी है, लेकिन मन्दिर का निर्माण नया है। उसके सामने तुलसी दास के वंशज परिवार के पुजारी निवास करते हैं। हमें उनसे मिलने का भी अवसर मिल गया था। असफल जी तो रामयण का पाठ करने बैठ गये थे। मैंने भी उनकें साथ बैठकर एक दोहे का परायण किया किन्तु चित्त लक्ष्य पर टिका था। इसलिये असफल जी को उठने का इसारा किया। यह बात उन्हें बहुत बुरी लगी। वे रामयण के परम भक्त है। वे तो रात भर पाठ करते रहते तो भी न उठते। खैर वे उठे तब तक वहाँ उपस्थित लोगों ने लाई-चने नास्ते के लिये मगवा लिये। हमने प्रेम से उसे ग्रहण किया। हम जहाँ बैठे थे उसी प्रांगण में कुछ दिन पहले मुरारीबापू कथा कह कर गये हैं । सुना है वहीं फिर से कथा कहने आ रहे है। निश्चय ही उन्होंने भी इस मन्दिर को प्रमाणिक माना होगा तभी वे यहाँ पुनः आने की बात कर रहे हैं। इसी मन्दिर से शासन की ओर से नव्वे वीधा जमीन माफी की लगी है। तुमसीदास जी के वंशजों के अनेक घर इस गाँव में आज भी निवास कर रहे हैं। यहाँ से सन्तुूष्ट होकर हम रत्नावली की खोज में निकल पड़े।

इस गाँव राजापुर से सरयू नदी के पार छह-सात किलोमीटर की दूरी पर चरसड़ी में पठकन पुरवा नामक छोटा सा पुरा हैै। कहते हैं-पण्डित दीनबन्धु पाठक उसी गाँव के रहने वाले थे। वहाँ आज भी इन्हीं के गौत्र के कुछ पाठक परिवार रहते हैं। हम इस गाँव में पहुँच गये। चरसड़ी गाँव के प्रधान श्री राम कुमार पाठक जी से मिले। उन्होंने बतलाया-यहाँ से पाँच किलोमीटर की दूरी पर प्रचीनकाल के कचनापुर क्षेत्र के पठकन पुरवा में रत्नावली का मैका मानते हैं। वे लोग इस गाँव से वहाँ पहुँच गये हैं अथवा वहाँ से हम लोग यहाँ आ गये हैं, लेकिन यह सच है हम सरयूपारी ब्रह्मण हैं। तुलसीदास जी थी सरयूपारी ही थे। अतः यह समन्वय ठीक है। राम कुमार पाठक जी ने बतलाया- हम अपने पुरखों से सुनते तो चले आ रहे हैं कि तुलसी दास जी की ससुराल हमारे ही यहाँ थी। यों हम दीनवन्धु पाठक ही वंशज हैं।’

इस कथन के बाद वे बोले-‘यहाँ पाँच किलोमीटर की दूरी पर नारायणपुर नामका कस्वा है। मैं चाहता हँू आप लोग उस गाँव के विद्वान महावीर प्रसाद दुवे बैदय जी से जरूर मिलें। उन्होंने इस पर शोध कार्य किया है। राम कुमार पाठक जी ने उनसे हमारी मोवाइल से बात भी करा दी। इससे उनके पास पहुँचने में आसानी रही। असफल जी ने तो बैद्य जी का एक इन्ठरव्यू ही अपनी पत्रिका ‘किस्स कोताह’ के लिये अपने मोवाइल में रिकार्ड कर लिया।

बैद्य जी भी तुलसी दास जी की जन्म स्थली इसी राजापुर को मानते हैं। उन्होंने बतलाया-‘ रत्नावली के मैका परिवार चरसड़ी गाँव के प्रधान श्री राम कुमार पाठक जी से सम्वन्धित रहा है। लगभग एक-डेढ़ घन्टे तक उनसे इसी विषय पर चर्चा होती रही।

दिन अस्त होने को हो रहा था। हमें गौंडा पहुँचना था इसलिये हम लोगों ने भारी मन से बैद्य जी से विदा ली। मोटर साइकल वापस लौटने के लिये सड़क पर दौड़ने लगी। मेरी स्मृतियाँ जाग उठी-रत्नावली उपन्यास के लिखते समय पं0रामचन्द्र शुक्ल ,पूर्व न्यायधीश का लेख‘अवधी विभूषण गोस्वामी तुलसी दास’ एवं डॉ0वंशीधर त्रिपाठी का लेख‘गोस्वामी तुलसी दास की जन्म भूमि राजापुर गोंडा भी पढ़ा है।

इसके साथ ही डॉ0 महावीरदीन पाण्डे के निर्देशन में डॉ0 श्री नारायण तिवारी के द्वारा की गयर्ी्र शोध ‘गोण्डा जनपद की विद्वत्परम्परा एक सर्वोक्षणात्मक अनुशीलन’ पर भी गहरी द्रष्टि डाली है।

अब मैं इन तीनों तथ्यों के बाद एक बात और आपके सामने और रखना चाहता हूँ- इन तीनों स्थानों सें अयोध्या की दूरी निश्चित करें तो गौन्डा स्थित राजापुर अयोध्या के सबसे अधिक निकट है। यह पूर्णरूप से अवधी भाषी क्षेत्र है। यहाँ से वँादा स्थित राजापुर 350 किलोमीटर की दूरी पर एवं सोरों की यहाँ से दूरी 200 किलोमीटर है। तुलसी के जन्म के सात-आठ वषर््ा की उम्र तक इतनी दूर के प्रवास का कहीं कोई अवधी भाषा का समन्वय नहीं बैठता।

डॉ वंशीधर त्रिपाठी के इस एक तर्क ने मुझे निरुत्तर कर दिया हैं। वे लिखते हैं-‘‘ गोस्वामी तुलसी दास की जन्मभूमि गेंान्डा स्थित राजापुर ही है। इसका सबसे प्रबल प्रमाण तो यह है कि गोस्वामी जी ने अपने सम्पूर्ण साहित्य की रचना गोंडा जनपद की क्षेत्रीय भाषा अवधी में की है। अवधी गेंाडा जनपद की आँचलिक भाषा है। प्रत्येक आँचलिक अथवा क्षेत्रिय भाषा में बोलने और लिखने का ढंग अलग-अलग होता है। आँचलिक भाषाओं का टकसाली प्रयोग वे ही लोग कर पाते हैं जिनका बाल्यकाल सतत् आँचलिक क्षेत्रों में बीतता है। हिन्दी, संस्कृत और अंग्रेजी जैसी भाषाओं की बात और है। ये अंचलोत्तर भाषायें हैं। इनका प्रयोग सभी अँचलों के लोग करते हैं। ’’

डॉ वंशीधर त्रिपाठी जी इसी लेख में आगे लिखते हैं-‘‘काशी क्षेत्र की भाषा भेाजपुरी है। तीन-तीन विश्व विद्यालय होने के कारण काशी में भारत के विभिन्न अँचलों से विद्वान आते हैं। दशकों तक भोजपुरी के संपर्क में रहते हैं, पर खाटी भेाजपुरी न वे बोल पाते हैं, न लिख पाते हैं। हमारे कई मराठी, कुमाऊँनी, बंगाली, मद्रासी मित्र हैं जो विगत तीन दशकों से काशी में रह रहे हैं। ये सभी लोग खड़ी हिन्दी का प्रयोग तो बड़ी कुशलता से करते हैं पर जब यदा-कदा भेाजपुरी का प्रयोग करते है ंतो स्पष्ट होजाता है कि वे इस क्षेत्र में बाहर से आये हैं।’’

गोस्वामी जी का सारा साहित्य खाँटी अवधी में है। अकेले यही तथ्य इस बात की घोषणा करता है कि गोस्वामी जी का बचपन अवधी क्षेत्र में बीता होगा।

मेरा कहना है कि सौरों की भाषा एवं संस्कृति पर बृज क्षेत्र का प्रभाव है। यदि सैेरों अथवा राजापुर वाँदा में उनका बचपन व्यतीत हुआ होता तो वे र्सौरों की बोली जिस पर बृजभाषा का अत्याधिक प्रभाव है ‘सैाकरवी’ अथवा राजापुर वाँदा की बोली ‘वुन्देली ’में ही अपने साहित्य की रचना करते ।

इस तथ्य के आधार पर उनकी जन्मभूमि गेंाडा स्थित राजापुर ही है।

गोस्वामी तुलसी दास बारह वषों तक चित्रकूट में रहे। यही समय उनका राजापुर वाँदा में व्यतीत हुआ,डॉ श्री नारायण तिवारी की शोध‘‘गोण्डा जनपद की विद्वत्परम्परा एक सर्वोक्षणात्मक अनुशीलन’’’में यह स्पष्ट रुप से स्वाकार किया है कि इसमें सन्देह नहीं है तुलसी की कर्म स्थली चित्रकूट के निकट राजापुर ही है। इसी कारण रत्नावली की मनोदशा की कथा कहने के लिए चित्रकूट के निकट का यह स्थान मुझे अधिक उचित लगा है। कुछ मनीषी रामचरितमानस के प्रसंगों में उनकी जन्म स्थली खोजने के प्रयास में हैं। अब हमारी मोटर साइकल डॉ सूर्यपाल सिंह जी के घर के सामने खड़ी थी। 0000000

सम्पर्क -कमलेश्वर कालोनी (डबरा)

भवभूति नगर जि0 ग्वालियर, म0 प्र0 475110

मो0 9425715707