Leela - 13 in Hindi Novel Episodes by अशोक असफल books and stories PDF | लीला - (भाग-13) लीला - (भाग-13) 474 1.2k टाकीज पर आकर उसने योजनानुरूप एक लेडीज और दो फर्स्ट क्लास के टिकट ले लिये। और लीला अपना टिकट हाथ में लिये लेडीज क्लास की ओर बढ़ गई तो वह भी भीड़भाड़ भरी गैलरी में प्रकाश का हाथ खींचता हुआ उसे फर्स्ट क्लास में ले आया। अंदर भीड़ भरी हुई थी। जिसे जहाँ जगह मिल रही थी, कुर्सियाँ घेर रहा था। ना टिकट पे नम्बर, ना सीट पे! उसने भी एक कुरसी घेर कर प्रकाश के हवाले कर दी, बोला, ‘‘मैं और कहीं देखता हूं, तुम उठना मत...।’’ प्रकाश का पहला अनुभव था, वह डरा हुआ था। नज़रें उसी पर टिकी थीं। अजान मुस्तैदी से पीछे की ओर बढ़ गया और खंभे के पीछे वाली खाली कुरसी पर छुपकर बैठ गया! परदा वहाँ से आधा दिखता था। पर परदा उसे देखना कहाँ था? न्यूजरील चालू हो गई तो वह अँधेरे का लाभ उठाकर गेट से बाहर निकल आया और पंख लगाकर क्वार्टर की ओर उड़ने लगा। लीला रिक्शा लेकर पहले ही आ गई थी! और छिन-छिन बाट जोहती किवाड़ों से चिपकी खड़ी थी। प्यार और चोरी के जुड़वाँ एहसास से ख़ासा घबराहट हो रही थी। इसलिए, पायदान पर चढ़ अजान ने जब गेट खटकाया, दिल में धड़धड़ मच गई...। तिस पर आते ही उसने कसकर चपेट ली! इस अनोखी युक्ति पर वह उसका क़ायल हो गया था...। लीला ज्यों-त्यों उसकी गिरफ़्त से छूट बेडरूम में जाकर चेंज करने लगी। वस्त्रों की सरसराहट और देहगंध से अजान को भीनी-भीनी बरसात का एहसास हो उठा! परदे की ओट से वह देखने लगा उसे, जो सूनी माँग और बिना पुते ओठों के बावजूद अत्यंत कमनीय लग रही थी, जैसे अभी ब्याही नहीं गई! परदा उठाकर हठात् वह सम्मुख आ गया! लीला धक् से रह गई...। आँखें सुरमई, ओठ शरबती और सलज्ज मुस्कान से चेहरा सुरम्य हो आया। आँचल बाँह में छुपा झट से बत्ती बुझा दी! तभी प्रकसा ज़ोर-ज़ोर से किवाड़ बजाने लगा...। फ़िल्म छोड़कर वह भी अजान के पीछे लग लिया था! क्वार्टर भीतर से बंद मिला तो रोष में पिछवाड़े से आँगन में कूदकर सीधा बेडरूम के गेट पर आ धमका! इतना तो जान ही गया कि ये लोग मुझे बुद्धू बनाके वहाँ पे छोड़ आए और अब यहाँ घुसे-घुसे कुछ ग़लत-सलत कर रहे हैं! दोनों सक्ते में आ गए। उत्तेजना एकदम गुठला गई। मरे से अजान ने उठकर झुकी नज़र से दरवाज़ा खोल दिया! और जैसे, मुँह छुपाने लीला टायलेट में घुस गई...। प्रकाश ने किसी की ओर देखा भी नहीं...। रात किसी ने खाना भी नहीं खाया। सफ़र अधूरा छूट जाने से अजान और लीला को तो ठीक से नींद भी नहीं आई। वे जल्दी उठकर फ्रेश होने लगे। शाम की दुर्घटना पर धीरे-धीरे बतियाते हुए...। प्रकाश नींद से जागकर उठकर बैठ गया। ब्रश करने और नहाने तक नहीं गया! कुर्सी में धँसकर अख़बार पढ़ने लगा। दिन खटाई में बिता दिया उसने। दोनों को आसपास देख देह सुलग रही थी। सोच रहा था, जासें तो भली है, जिजी बैठि जायँ कहूँ! मद्दन को टोटो नईं परो बिरादरी में...विदा करिवे मेंई भलाई है। मैके-ससुरे दोऊ कुल की नाक बचि जागी...।’ और लीला भी कल से पढ़ नहीं पाई थी। भाई की खिन्नता उससे छुपी नहीं थी। अगर राजीवाजी से करती तो यही भाई उसे गोद में धरकर पालकी में बिठाता और एक मर्द के संग सोने के लिये ख़ुद मसहरीदार पलंग लाकर देता! पर अजान के भीतर ना जाने कौन-सा शक्तिशाली चुम्बक छुपा था कि वह लोहे के टुकड़े-सी खिंची चली जा रही थी। बरसों के सब्र का बाँध अब तेजी से दरक रहा था। शाम को दूध आ गया तो उसने मिनी गैस-स्टोव पर उबालने के लिये रख दिया। वहीं किताब लेकर बैठ गई। पिछले दिनों में ऐसे छोटे-मोटे काम प्रकाश से ले लिया करती थी। प्रकाश वहीं टहल रहा था। अंततः उसी ने मौन तोड़ा, ‘‘तुम जाइ पढ़ो, हम तपाइ लेंगे!’’ ‘‘उफन नईं जाइ!’’ उसने उठते-उठते ताक़ीद की और स्टडी में जाकर बैठ गई। अजान वहाँ पहले से बैठा था। तमाम आगा-पीछा सोच कर लीला ने धीरे से कहा, ‘‘चलो, कहीं बाहर हो आएँ अपन!’’ ‘‘कहाँ?’’ वह बुझ चुका था। ‘‘हनीमून पर ही चलें!’’ लीला ने मुस्कराते हुए कहा तो अजान की आँखें चमक उठीं। चेहरा खिल गया और दिल में मीठी-सी चुभन उठने लगी। अब तक उसने सिर्फ नाम सुना था ‘हनीमून’! नींद ग़ायब हो गई। फ़िल्मों में देखे हनीमून के सीन और ऐशोआराम नज़र में छाकर रह गए। और लीला ने भी हनीमून का प्रस्ताव यों ही नहीं रख दिया था! उसका तो बड़ा पुराना सपना था ये! लाल सिंह के संग फ़ौजी क्वार्टर में रहने वाला सपना...। वही सपना जो शहीद कालानी के इस क्वार्टर में आकर भी पूरा नहीं हुआ। यहाँ तो लोगों ने उस पर इतना थूका है कि देह पर अब और थूकने को जगह नहीं बची! तब उन्होंने अगले ही दिन नए-नए डिजाइनों के कपड़े, जूते-चप्पल, हैट, चश्मा, बिस्तरबंद, अटैची, बैग, थर्मस आदि तमाम अटरम-शटरम ख़रीद लिया...। अब, प्रकसा को कैसे बुद्धू बनाया जाय, इस पर चित्त अड़ गया! पचते-पचते आख़िरकार लीला ने ही रास्ता निकाला। अख़बार दिखलाते शाम को वह उससे बोली, ‘‘लला! अबकी उज्जेनी में 84 साल पीछें ऐसो महापरब परो है। तुम कहो तो कुंभ कों कढ़ि जायँ-हम! भईं से ¬कारेसुर के दस्सनऊ करि आइँगे।’’ इस पर वह नासमझ मुँह फाड़ ताकने लगा तो वह संकोच से भर गिड़गिड़ाई, ‘‘सहारे कों इन्हें लएँ जाइ रहे...’’ और वह बुत् बना सुनता रहा, कोई प्रतिक्रिया न दी तो आँखें भरलीं, ‘‘आजु वे होते तो काए कऊ के मोंह् तन चिताउते!’’ प्रकसा फिर बुद्धू बन गया और अजान सिंह क़ायल। अलस्सुबह ही दोनों सजकर दूरस्थ पर्यटन-स्थल के लिये रवाने हो गए! दो-तीन दिन की उस लगातार यात्रा में वे एक-दूसरे के ऊपर ऐसे गिरे पड़ रहे थे, जैसे, खजुराहो के मंदिर देखकर लौटे हों! तब न उन्हें दूसरे यात्री दिख रहे थे, न बस और ट्रेन की खिड़कियों से ग़ुज़रते पहाड़, नदियाँ, जंगल, झरने और शहर-गाँव! उन्हें दिख रहा था, सिर्फ एक होटल। होटल का भी एक अदद कमरा...। बड़ा आलीशान कमरा। शाही डबलबेड, गुदगुदा सोफा, संगमरमर जड़ा लैट-बाथ! और दूसरी ओर भव्य बालकनी। जहाँ से दूर तलक चमकती चाँदी की रेख-सी पड़ी पहाड़ी नदी को निहारा जा सके! और उनकी आँखें चौड़ा गई थीं यही देखते-देखते कि दोनों ओर की दीवारों और बेड के ऊपर की छत निर्मल आईनों से मढ़ी है! (क्रमशः) ‹ Previous Chapterलीला - (भाग-12) › Next Chapterलीला - (भाग-14) Download Our App Rate & Review Send Review Be the first to write a Review! More Interesting Options Short Stories Spiritual Stories Novel Episodes Motivational Stories Classic Stories Children Stories Humour stories Magazine Poems Travel stories Women Focused Drama Love Stories Detective stories Social Stories Adventure Stories Human Science Philosophy Health Biography Cooking Recipe Letter Horror Stories Film Reviews Mythological Stories Book Reviews Thriller Science-Fiction Business Sports Animals Astrology Science Anything अशोक असफल Follow Novel by अशोक असफल in Hindi Novel Episodes Total Episodes : 30 Share You May Also Like लीला - (भाग-1) by अशोक असफल लीला - (भाग-2) by अशोक असफल लीला - (भाग-3) by अशोक असफल लीला - (भाग-4) by अशोक असफल लीला - (भाग-5) by अशोक असफल लीला - (भाग-6) by अशोक असफल लीला - (भाग-7) by अशोक असफल लीला - (भाग-8) by अशोक असफल लीला - (भाग-9) by अशोक असफल लीला - (भाग-10) by अशोक असफल