Suhagan - (Story of Vijay Sharma) books and stories free download online pdf in Hindi

सुहागन--(विजय शर्मा की कहानी)

सुहागन--(विजय शर्मा की कहानी)

पूरा घर भांय-भांय कर रहा था। कमरे में नारायणदत्त अकेले थे। उनके सामने गहनों का डिब्बा खुला पड़ा था, गहने इधर-उधर बिखरे पड़े थे। सामने से गायत्री उनकी ओर चली आ रही थी, मुस्कुराती हुई। नारायणदत्त को अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हुआ। पर वही थी, धीरे-धीरे उनकी ओर बढ़ती हुई। उन्होंने बांयी ओर देखा, बाईं ओर से गायत्री चली आ रही थी, मुस्कुराती हुई, धीरे-धीरे उनकी ओर बढ़ती हुई।

``मुस्कुरा क्यों रही हो? बोलो।'' वो पूछना चाहते थे मगर उनके गले से आवाज़ नहीं निकली। वह मुस्कुराती हुई उनकी ओर बढ़ती रही। नारायणदत्त ने दाईं ओर देखा, वह उधर से चली आ रही थी, मुस्कुराती हुई, धीरे-धीरे उनकी ओर बढ़ती हुई। नारायणदत्त ने पीछे मुड़कर देखा वह चली आ रही थी, मुस्कुराती हुई, धीरे-धीरे उनकी ओर बढ़ती हुई।

नारायणदत्त चीखना चाहते थे, चिल्लाना चाहते थे। वे चीखे-चिल्लाये भी पर उनके गले से कोई शब्द न निकला, निकला तो बस गों-गों का दबा-घुटा स्वर। अलमारी, सीढ़ी, कमरे की हर दीवार, हर कोने से गायत्री चली आ रही थी, मुस्कुराती हुई, धीरे-धीरे उनकी ओर बढ़ती हुई। नारायणदत्त उठ कर भागना चाहते थे, भाग न सके, उनका शरीर लोहे की तरह भारी हो गया था। वे उठना चाहते थे, उठ न सके। उनका दम घुट रहा था, छाती पत्थर से दबी लग रही थी, गले में गोला फंसा हुआ था। वे अपने सिर के बाल नोचना चाहते थे मगर उनका हाथ सीसे की तरह जड़ हो गए थे, उठे नहीं। गर्दन सर का बोझ न सम्हाल सकी, घुटने से जा लगी, रीढ़ टूटी कमान की तरह झुक गई। उनके मुंह से लार और आंखों से आंसू बहने लगे।

"बड़ी भागवान थी", "भगवान सबको ऐसी मौत दे", "कहां होते हैं किसी के ऐसे भाग्य", "पति के कंधों पर जाएगी", "पति मुखाग्नि देगा", "सीधे स्वर्ग जाएगी, सुहागन मरी है।" इससे ज़्यादा एक औरत को क्या चाहिए, भरी मांग जा रही है।" नारायणदत्त की घरवाली गुज़र गई सुन कर लोगों ने ऐसा कहा। लोग नारायणदत्त के घर की ओर चल पड़े। पुरुष बाहर इकठ्ठे होने लगे जहां नारायणदत्त सिर झुकाए बैठे थे। स्त्रियाँ अंदर चली जाने लगीं जहां गायत्री का शरीर पड़ा था। सुहागिनों के मन में उसके प्रति ईर्ष्या थी।

उसके शरीर को नहला कर आंगन में रख दिया गया। शरीर पर लाल साड़ी लपेटी गई, होंठ रंगे गए, हाथ-हाथ भर चूड़ियां कलाई में चढ़ा दी गईं, पैरों में महावर रचा दी गईं। मांग भरने के लिए सुहागिनें आगे आने लगीं, वे झुककर चुटकी भर सिंदूर उसकी मांग में डालतीं, उसके पैर छूतीं और हाथ जोड़कर ईश्वर से प्रार्थना करतीं, "हे भगवान! मुझे भी पति से पहले उठा लेना, सुहागन मरूं।" वे पल्लू से अपनी आंखें पोंछतीं जातीं, कोई-कोई जोर से रो रही थी, कोई मुंह पर आंचल रक्खे सूनी आंखों से एकटक देख रही थी। इसी समय किसी सयानी ने देखा, "अरे! इसकी नाक छूछी है।" उस स्त्री ने नारायणदत्त के पास जाकर कहा, सुहागन की नाक सूनी नहीं रहनी चाहिए, उसे कील पहना दें। नारायणदत्त यंत्रचालित से अलमारी के पास गए, यज्ञोपवीत से बंधी चाभी से उन्होंने अलमारी का ताला खोला, उसमें रक्खे गहनों का डिब्बा निकाला, ढेरों गहने थे, एक छोटी सी लौंग निकाली और लाकर गायत्री की नाक में डाल दी। उनके हाथ कांप रहे थे। "इसे उतार दो" उन्हें सुनाई पड़ा। कहां से आई यह आवाज़? क्या गायत्री बोली? क्या उसकी आत्मा ने कहा यह? कहते हैं शरीर छोड़ने के बाद भी आत्मा काफ़ी समय तक वहीं आसपास मंडराती रहती है अ़रे! यह तो उन्हीं की आवाज़ है, पर वे तो बोले नहीं। कहां से आई यह आवाज़? उनके माथे पर पसीना चुहचुहा आया।

"देखो! नाक में कील पड़ते ही चेहरा कैसा चमक उठा। लगता है सो रही है, अभी उठ कर बैठ जाएगी।" किसी स्त्री ने कहा। नारायण दत्त को लगा वह ज़िन्दा है और मुस्कुरा रही है। वे वहां से हट कर फिर सिर पर हाथ रखकर बाहर जा बैठे।

बाहर अर्थी सजाई जा रही थी। आसपड़ोस के लोग मिलकर तैयारी कर रहे थे। लोगों को लगा नारायणदत्त पत्नी की मृत्यु से सकते में आ गए हैं अत: उनसे किसी ने कुछ करने को न कहा। वैसे भी कुछ लोग इस तरह के कामों में कुशल होते हैं, उन्हें अवसर की तलाश रहती है, मौका मिलते ही कुछ लोग आज्ञा देने की भूमिका हथिया लेते हैं, आदेश देना प्रारंभ कर देते हैं, कुछ और लोग तत्काल उनकी आज्ञा का तत्परता से पालन करने लगते हैं। सोच विचार की ज़िम्मेदारी औरों पर छोड़ कर आदेश मानने का अपना सुख है। आनन फानन में हरा बांस आ गया, टिटकी बन गई, उस पर विमान सजाया जाने लगा। फूल-पत्ती, झंडी-पताका माला सजने लगी। आखिरकार सुहागन की अर्थी थी। पुरुषों के हाथ तेजी से चल रहे थे। मरने के बाद मिट्टी जतनी जल्दी ठिकाने लगा दी जाए अच्छा है। बाकी की सामग्री भी आ गई और देखते-देखते अर्थी उठाने का समय आ गया। लोगों ने नारायणदत्त को बुलाया क्योंकि यह विधान तो उन्हें ही निबाहना था। वे मूर्तिवत् उठ आए। उन्होंने अर्थी को कंधा लगाया। तीन और लोगों ने आगे बढ़ कर बाकी के हिस्से कंधों पर थाम लिए, तभी किसी ने जोर से कहा 'ओम् नाम' समूह ने पूरा किया 'सत्य है' खील बतासे और पैसे लुटाते अर्थी चल पड़ी। पांच कदम चलने के बाद एक और आदमी ने नारायणदत्त से अर्थी अपने कंधे पर ले ली। नारायण दत्त अर्थी के साथ-साथ चलते रहे।

दूर नहीं जाना था, पास में था श्मशान। वे अर्थी के साथ वहां पहुंचे। साथ आए आर्य समाज के पंडित ने जो-जो बताया नारायण दत्त ने वैसा ही कर दिया। कंधे पर घट लेकर अर्थी की परिक्रमा की, घट फोड़ा और मुखाग्नि दी। चिता धूं-धूं कर जल उठी। पंडित ने कपाल-क्रिया करने को कहा नारायणदत्त ने वह भी कर दी। चिता ठंडी होने तक बहुत से लोग जा चुके थे। बचे-खुचे लोगों के साथ वे घर लौट आए।

जाने के पहले लोगों ने उन्हें दुनिया की रीत समझाई, साथ में जोड़ा, "आप स्वयं विद्वान हैं, जाने वाली चली गई, सबको एक दिन जाना है।" नारायणदत्त कुछ न बोले बुत बने बैठे रहे। कुछ लोगों को उनकी चिंता हुई, आपस में कहने लगे, "पत्नी जाने का बड़ा गहरा सदमा लगा है, कहीं दिमाग पर असर न हो जाए। एक बूंद आंसू नहीं गिरा। रो लेते तो दिल का बोझ हल्का हो जाता, अंदर की घुटन निकल जाती, गुमसुम रहना नुकसान कर सकता है। औरतें अपना दु:ख रोकर हल्का कर लेती हैं, पुरुष भीतर-भीतर घुलता रहता है दु:ख पीकर।" किसी और ने कहा, "विद्वान पुरुष ठहरे, दुनिया जहां को उपदेश देते हैं, वेद-पुराण-गीता सिखाते हैं, समझदार हैं एकाध दिन में स्वयं संभल जाएंगे।" अंतिम आदमी भी उन्हें ढाड़स बंधा, अपना कर्तव्य निभाने की रीत पूरी कर चला गया। उनकी आंखें सूनी रहीं, सूखी रहीं।

वे घर में निपट अकेले रह गए तभी वह कमरे से लगे जीने से नीचे उतर कर उनकी ओर आने लगी, मुस्कुराती हुई।

करीब पांच साल पूर्व नारायणदत्त गायत्री को ब्याह कर लाए थे इस घर में, उसके बाद उसकी अर्थी निकली इस घर से। विवाह के समय वह चौदह वर्ष की सुकुमार बालिका थी और नारायणदत्त पैंतीस वर्ष के सुदृढ़ एवं सुदर्शन पुरुष। कसरती शरीर था, गुरुकुल से पढ़ कर निकले थे। ज्ञान से तपे हुए उद्भट विद्वान। अपनी विद्वत्ता के समक्ष किसी को न मानने वाले। माता-पिता बचपन में गुज़र गए थे। बाल ब्रह्मचारी चाचा पंडित देवीदत्त ने पाल-पोस कर बड़ा किया था। चाचा की कही बातें भतीजे के लिए ब्रह्मवाक्य थीं। बड़ा कठोर स्वभाव था चाचा का, जिसे भतीजे ने घोंट कर पी लिया था। क्रोधी के साथ-साथ चाचा एक नंबर के कंजूस भी थे, नारायणदत्त पाई-पाई दांत से पकड़ते। खाना बनाते समय आलू दाल के संग उबालते, इंधन बचता, आलू का छिलका उतारने पर गूदा संग में जाने का नुकसान नहीं होता। दोनों खूब सफ़ाई पसंद थे, सप्ताह में एक दिन पूरा घर फिनाइल से धोते।

पंडित देवीदत्त की सारी आशाएं भतीजे पर केंद्रित थीं। वे स्वयं विद्वान थे, उन्हें पूरा विश्वास था कि नारायणदत्त कुल का नाम रौशन करेंगे। नारायणदत्त बाहर से लौट कर अपनी समस्त दान-दक्षिणा चाचा के चरणों में समर्पित कर देते तो पंडित देवीदत्त गद्गद हो आशीषों की झड़ी लगा देते। उन्हें संतोष था उनकी तपस्या अकारथ नहीं गई थी। नारायणदत्त की ख्याति दूर-दूर तक थी, जब वे प्रवचन देते श्रोता मंत्रमुग्ध होकर सुनते। शास्त्रार्थ में उन्हें कोई पराजित नहीं कर सकता था। वे दहाड़ते हुए मूर्ति पूजा का ऐसा तर्कपूर्ण खंडन करते कि कट्टर से कट्टर सनातनी भी उनका कायल हो जाता। उनके प्रवचन सनातन धर्म पर करारी चोट और चुटकियों के लिए प्रसिद्ध थे। वे कर्मकांड की जम कर धज्जियां उड़ाते इसके लिए वे साम-दाम-दंड-भेद किसी भी नीति का सहारा लेने से न हिचकते।

ऐसी ही एक शास्त्रार्थ सभा में विजयी होने पर एक सज्जन ने मुग्ध होकर उन्हें विजयमाल पहनाई और उनके माता-पिता के संबंध में जिज्ञासा प्रकट की। जब ज्ञात हुआ कि नारायणदत्त के समस्त कर्ता-धर्ता उनके चाचा हैं तो वे सज्जन चाचा को घेरने जा पहुंचे। उन्होंने अपनी गुणी सुशील कन्या की बाबत बताया। कहा बच्ची बिन मां की है, उन्होंने उसे पान-फूल की तरह सहेज कर रक्खा है, बड़े लाड़-प्यार से पली है वे अब उसे किसी सुपात्र को सौंप कर निश्चिंत हो जाना चाहते हैं, नारायणदत्त से अच्छा पात्र उन्हें कहां मिलेगा अत: वे शिघ्रातिशीघ्र उसके हाथ पीले करना चाहते हैं। अंधा क्या चाहे दो आंखें पंडित देवीदत्त को बात जंच गई। वे सज्जन आर्य समाजी थे साथ ही ब्राह्मण भी। पंडित देवीदत्त कट्टर आर्य समाजी थे। आर्य समाज में जातिप्रथा तथा छूआछूत नहीं है, फिर भी शादी-विवाह के मामलों इन बातों का ध्यान रखना पड़ता है। बहू घर आएगी तो भोजन बनाने का खटराग नहीं करना पड़ेगा, समय पर बना बनाया भोजन मिल जाएगा, बहू आकर घर-बार संभाल लेगी। सुघड़ गृहिणी से घर घर जैसा लगने लगेगा। वे भी अपने दायित्व से मुक्त हो जाएंगे, यही सोच कर उन्होंने तत्काल हामी भर दी। इस तरह गायत्री के पिता अपनी पुत्री का हाथ नारायणदत्त के हाथ में सौंप कर अपने कर्तव्य से निवृत्त हो गए। रिश्ते-नाते की स्त्रियों ने कहा, -'सास ननद नहीं है गायत्री राज करेगी ससुराल में।'

और इस तरह गायत्री ब्याह कर नारायणदत्त के घर आ गई। नए घर के कठोर नियम-क़ायदों से नारायणदत्त ने उसे जल्दी परिचित करा दिया। खिड़की का परदा उठाकर या सरका कर नहीं रखना, कुंडी खड़कने पर दौड़कर दरवाज़ा खोलने जाने की ज़रूरत नहीं, दरवाज़े पर खड़ी होना अच्छा नहीं। आर्य समाजी होने के कारण वे परदे के सख्त खिलाफ़ थे पर पत्नी किसी पर पुरुष से बात करे यह वे सहन नहीं कर सकते थे। वे हिदायत देते, 'आंख नीची करके बात किया करो, भले घर की स्त्रियाँ आंख में आंख डाल कर बात नहीं करती, भले घर की स्त्रियाँ जोर से नहीं हँसती, भले घर की स्त्रियां खिड़की-छज्जे पर खड़ी नहीं होतीं।' उन्हें कहानी, उपन्यास की पुस्तकों से सख्त चिढ़ थी घर में पढ़ने के लिए सत्यार्थ प्रकाश, स्वामी दयानंद सरस्वती की जीवनी थी। पंडित देवीदत्त भी समझाते, 'गायत्री मंत्र का जाप किया करो, इससे चित्त शांत रहता है। गीता, वेद, उपनिषद पढ़ा करो, जहां न समझ आए मुझसे पूछ लिया करो।' वे उसे सामने बिठाकर संध्या करवाते, हारमोनियम पर भजन गाना सिखाते। इस तरह असूर्यंपश्या गायत्री के लिए विधि कम निषेध ज़्यादा की एक लंबी सूची थी।

डरी सहमी गायत्री सिर झुकाकर आदेश पालन में प्राणप्रण से जुटी रहती, मगर चाचा भतीजे को प्रसन्न करना टेढ़ी खीर था। दोनों की दिनचर्या बड़ी नियमित थी, दोनों समय के बड़े पाबंद थे। सुबह उठकर नहाना और फिर हवन करने आसन पर बैठना। इसके पूर्व गायत्री को घर झाड़पोंछ कर हवन की तैयारी करनी होती। आसन लगाना, हवन कुंड धो-मांजकर औंधाकर रखना, आम की सूखी टहनियों को बराबर-बराबर तोड़कर समिधा बनाना, हवन सामग्री, घी, चीनी, जल आदि रखना। ज़रा-सी भी चूक होने पर पंडित देवीदत्त गरजने लगते, उनकी जिह्वा आग उगलती थी, जब तब खड़ाऊँ उठाकर दौड़ते, मारने की धमकी देते। हालांकि उन्होंने कभी गायत्री को मारा नहीं पर वह थर-थर कांपती रहती। नारायणदत्त चाचा के सामने चूं न करते, वैसे उनका पारा भी सदा चढ़ा रहता। मारते वे भी न थे पर बात-बात पर हंटर फटकारते, चमड़ी उधेड़ लेने की धमकी देते। तिस पर गायत्री को रोने की मनाही थी। टसुए बहाना, मुंह लटका कर रखना, इन सबसे घर में अशुभ फैलता है, ये सब चोंचले उन्हें पसंद न थे।

हवन के बाद नाश्ते में दोनों पांच-पांच बादाम, थोड़ी किशमिश और एक-एक गिलास गरम दूध पीते। दूध न ज़्यादा गरम हो न ज़्यादा ठंडा। दूध के साथ उन दोनों का तापमान सही रखने के लिए गायत्री को रसोई घर के कई चक्कर लगाने पड़ते। एक बार लाकर दिया गिलास का दूध पी लिया जाए ऐसा कभी नहीं हुआ। रात को सोने के पहले भी ऐसा ही चक्कर चलता। रसोईघर से बरतनों की आवाज़ नहीं आनी चाहिए, झनक-पटक का क्या मतलब। ये भले घर के लक्षण नहीं हैं। नाश्ते के बाद दोनों अध्ययन में जुट जाते, अक्सर समाजी आ जाते तो चर्चा होने लगती। ठीक एक बजे भोजन का नियम था। भोजन की थाली करीने से सजी होनी चाहिए। एक ओर कटा हुआ आधा नींबू का टुकड़ा, कायदे से सजी सूखी सब्ज़ी, घी पड़ी एक कटोरी दाल और दो फुलके चुपड़े हुए। सप्ताह में एक दिन चावल। जाड़े में धनिया टमाटर, गर्मी में पुदीने की चटनी। सादा जीवन उच्च विचार। नारायणदत्त शाम को आर्यसमाज मंदिर जाते। रात को खाना खाकर संध्या, गायत्री का जाप कर सो जाते। उन्हें अक्सर शास्त्रार्थ एवं प्रवचन तथा पुरोहिताई के लिए शहर से बाहर जाना पड़ता, तब पंडित देवीदत्त की चौकसी और सख्त हो जाती।

गायत्री के इस घर में आने के बाद शीघ्र ही नारायणदत्त ने उसे आदेश दिया, 'गहने उतार कर रख दो, घर में इन्हें पहने रहने का क्या काम, बेकार घिसकर ख़राब हो जाएंगे।' जिस दिन उन्होंने यह बात कही संयोग से उसी दिन उन्हें एक सप्ताह के लिए शहर से बाहर जाना था। नारायणदत्त जब एक सप्ताह बाद बहर से लौटे सजी-धजी गायत्री उनकी प्रतीक्षा कर रही थी। उसने सिर धोया था, रेशमी साड़ी और गहने पहने थे। घर में घुसते ही उनकी दृष्टि गायत्री पर पड़ी। अभी तक उसने उनके आदेश का पालन नहीं किया, उसकी हिम्मत कैसे हुई उनकी बात टालने की? उनका क्रोध उबल पड़ा। आव देखा न ताव उसकी बांह मरोड़कर खींचते हुए कमरे तक ले आए। " मैंने कहा था गहने उतार कर रख दो, घिस जाएंगे। पतुरिया की तरह बनाव-शृंगार क्यों कर रखा है।" नारायणदत्त विक्षिप्त की भांति उसके गहने उतारकर डिब्बे में रखने लगे। स्तंभित बालिका वधू स्वयं उनकी सहायता करने लगी। डिब्बा अलमारी में रख उन्होंने अलमारी में ताला लगा दिया और चाभी अपने यज्ञोपवीत में गठिया ली। "ख़बरदार जो कभी गहनों का नाम लिया।" उन्होंने ताकीद की। ऐसे मौकों पर देवीदत्त आंखें मूंद लेते, पति-पत्नी के बीच बोलना उन्हें शोभा नहीं देता था, वैसे भी आज वे भतीजे से पूरी तरह सहमत थे, घर में ज़ेवर लादे रहने का क्या मतलब? बेकार ख़राब हो जाएंगे। गायत्री बहुत देर तक इस आकस्मिक आक्रमण को समझ न पाई, सुन्न रह गई। जब होश आया तो जाकर पति के लिए एक गिलास पानी ले आई, उन्हें बाहर से आकर पानी पीने की आदत थी।

जिंद़गी अपने ढर्रे पर चल निकली। नारायणदत्त आयु में इतने बड़े थे कि गायत्री से पति-पत्नी के नाते बराबरी का व्यवहार करने की बात उनके मस्तिष्क में न आती। उम्र का इतना अंतर होने और पति होने के कारण गायत्री उन्हें अपना परमेश्वर मानती। उनकी आज्ञा का पालन अपना कर्तव्य। पंडित देवीदत्त श्वसुर थे, पुराने ज़माने के आदमी ठहरे, थोड़े सख्त स्वभाव के थे तो क्या हुआ। बड़े बुजुर्गों का आदर करना उसे सिखाया गया था। चाचा - भतीजे को गायत्री का कहीं आना-जाना पसंद ना था। "बेकार गल्चौर करके समय क्यों बर्बाद करना। समय गंवाने के लिए नहीं है। उसका सदुपयोग होना चाहिए।" ऐसा उनका मानना था। उसके पिता के पास वे लोग राजी-खुशी का समाचार भेज देते हैं, उसे पत्र लिखने की क्या आवश्यकता है, ऐसा उनका विचार था।

पंडित देवीदत्त गायत्री की पहरेदारी बहुत दिन न कर पाए। दो बरस पहले वे एक सभा में सम्मिलित होने हरिद्वार गए थे वहीं उन्हें हैजा हो गया और वे चल बसे। नारायणदत्त वहीं जाकर उनकी अस्थि गंगा में प्रवाहित हर आए। जब तक पंडित देवीदत्त जिंदा थे नारायणदत्त निश्चिंत होकर बाहर जाते। अब जब वे न रहे उन्हें खटका लगा रहता। जब बाहर जाते, चाहें कुछ देर के लिए तो लौटकर खोद-खोद कर पूछते कौन आया था? कहीं गायत्री ने बात करने के लिए पूरा दरवाज़ा तो नहीं खोला? किसी को अंदर तो नहीं आने दिया? बाहर जाने के नाम से उनका जी धुक-धुक करने लगता मगर शहर से बाहर गए बिना चारा न था यही तो उनकी आय का साधन था। उन्होंने एक खेल खेलना शुरू किया। आठ दिन की कह कर जाते, चार दिन में लौट आते, चार दिन का ही काम होता। वे जब-तब औचक गायत्री की जांच करना चाहते थे। गायत्री को उनके इस खेल की भनक न थी, उसके मन में पति के प्रति अगाध प्रेम और विश्वास था।

एक दिन नारायणदत्त घर से बाहर गए, उनके बाहर जाने के कुछ देर बाद एक सज्जन दूसरे शहर से उनसे मिलने आए। बुजुर्ग व्यक्ति थे, थके थे, गायत्री के यह कहने पर कि नारायणदत्त थोड़ी देर में लौटेंगे, वे बरामदे पड़ी कुर्सी पर बैठकर प्रतीक्षा करने लगे। प्यास लगने पर गायत्री ने उन्हें पानी दिया और जब काफ़ी देर हो गई तो अपनी गाड़ी का समय होने पर उठकर चले गए। जाते समय कहते गए, "आज कदाचित दर्शनों का संयोग नहीं था, फिर कभी आऊंगा।' नारायणदत्त को किसी कारण देर हो गई। जब लौटे कुर्सी के पास खाली गिलास देखकर उनका माथा ठनका। उन्होंने गायत्री से पूछताछ की, गायत्री ने उन्हें पूरी बात बता दी।

क्रोध में नारायणदत्त ने गायत्री को काफ़ी उल्टा-सीधा कहा, 'क्या ज़रूरत थी, पराए मर्द को घर में बिठाने की, क्या मुंह में जिह्वा नहीं थी यदि कह देती कि घर में कोई नहीं है तो किसी का साहस कैसे होता रुके रहने का। कुलीन स्त्रियां पति की अनुपस्थिति में पराए पुरुषों को घर में नहीं बिठाती।' पहली बार गायत्री के मर्म को चोट लगी थी। उसके मन में विरोध ने सिर उठाया था। उसने उनकी ओर जिस दृष्टि से देखा उसमें दृढ़ता थी, मगर वह मुंह से कुछ न बोली। अगर नारायणदत्त उसकी वह दृष्टि देख पाते तो उन्हें ज्ञात होता कि यह वह गायत्री नहीं है जिसे वे अब तक अस्तित्वहीन मान कर व्यवहार करते आए हैं उन्होंने गायत्री की दृष्टि लक्षित न की, वे कपड़े बदलने के लिए मुड़कर कमरे में जा चुके थे। देख भी लेते तो पता नहीं कितना और क्या समझते। हाय रे विद्वान पुरुष का अहंकार! उसे अपने अहं के समक्ष दूसरे का आत्मसम्मान दीखता ही नहीं है। आज गायत्री के स्त्रीत्व को चोट लगी थी, स्त्री के दर्प को पुरुष की शंका की चिंगारी ने सुलगा दिया था। उसकी संयत मर्यादा की कुंडली जाग उठी थी। मगर नारायणदत्त ने अवसर खो दिया था अन्यथा नारी शक्ति का भान उन्हें अवश्य होता।

कुछ दिनों बाद वे शहर से बाहर गए हुए थे। तीसरे दिन जब गायत्री कमरा साफ़ कर रही थी, वह गुनगुना रही थी। सुबह उसकी सहज संज्ञा ने उसे बताया था कि वह मां बनने वाली है। वह पति को यह समाचार देने को उत्सुक थी। वह मगन मन सफ़ाई कर रही थी, उसका हाथ लगने से अलमारी का पल्ला खुल गया। नारायणदत्त अलमारी में ताला लगाना भूल गए थे। अलमारी खुली देखकर गायत्री पल्ला बंद करने जा रही थी कि उसकी दृष्टि गहनों के डिब्बे पर पड़ी। उसके मन में गहने देखने की उत्सुकता जाग उठी, आखिरकार ये उसके गहने थे। उसमें उसकी मां के गहने थे जिन्हें वह मायके से अपने साथ लाई थी, जिन पर उसका अधिकार था। उसमें उसकी सास के गहने थे, पता नहीं वह बेचारी कभी उन्हें पहन पाई होगी या नहीं। सास के गहने भी उसी के हैं। ये उसका स्त्रीधन हैं, वह उनकी स्वामिनी है। ये उसे विरासत में मिले हैं। उसके हृदय में अधिकार की, स्वामित्व की भावना सिर उठा रही थी। उसने डिब्बा अलमारी से निकालकर पलंग पर रख लिया। उसके हाथ कांप रहे थे मानों चोरी कर रही हो। उसने कांपते हाथों से डिब्बा खोला। ढेर सारे गहने उसकी आंखों में झिलमिला उठे।

अगर वह गहने पहन ले तो क्या होगा? उसे सजी संवरी देखकर पति की क्या प्रतिक्रिया होगी? और जब वह उन्हें शुभ समाचार देगी तो वे कैसा व्यवहार करेंगे? अभी उनके लौटने में काफ़ी दिन बाकी थे, वह चाहती थी वे अभी आ जाएं और वह उन्हें यह मंगल सूचना दे दे। उसने पाजेब निकाली और पांव में पहन ली, पांव खिल उठे। हाथों में चूड़ियां और कंगन डाल लिए, कलाई विहंस उठी। गले में सतलड़ा हार डालते दमक मुंह तक पहुंच गई। वह गहनों का डिब्बा लिए शृंगार मेज के सामने पहुंच गई। शीशे में देखकर झुमके पहन लिए, माँगटीका बालों में अटका लिया। नथ पहनने में दिक्कत आई, काफ़ी दिनों से कुछ न पहनने से छेद मुंद चला था पर जल्द ही नथ की कील उसमें चली गई, उसकी नाक लाल हो गई, आंखों में पानी आ गया, लेकिन नथ की लटकन ने होंठों पर सिहरन पैदा कर दी। वह स्वयं को दर्पण में निहारने लगी। मातृत्व की सुगबुगाहट ने उसके चेहरे पर ग़ज़ब की लुनाई ला दी थी। दर्पण में देखती, ऊपर से नीचे तक गहनों से सजी गायत्री को देखकर वह मुग्ध हो गई, कितनी सुंदर लग रही थी वह।

तभी दरवाज़े की कुंडी खड़की। गायत्री कुंडी की इस आवाज़ से भली-भांति परिचित थी उसका दिल धक्क से रह गया। उसे मालूम है कि यदि पहली आवाज़ में द्वार न खुले तो नारायणदत्त को क्रोध आ जाता है। वह पीपल के पत्ते की भांति कांप रही थी मगर उसने पक्का कर लिया कि वह गहने पहने रहेगी। गहने पहने हुए वह द्वार खोलेगी और जो भी होगा उसका सामना करेगी। वह धड़कते दिल से कुंडी खोलने गई और कुंडी खोलकर सामने से जरा हटकर खड़ी हो गई। आज उसने पति की आंखों में आंख डालकर देखा, कितना कुछ था उसकी आंखों में। नारायणदत्त अपनी आंखों पर पतिया न सके। उनका पारा चढ़ गया। गायत्री की इतनी हिम्मत कि वह उनकी आज्ञा का उल्लंघन करे। फिर जब वे थे नहीं तो उनकी अनुपस्थिति में ये सजावट किसके लिए? क्यों यह शृंगार-पटार? वे स्वयं को काबू में न रख सके हाथ छोड़ बैठे।

नारायणदत्त बराबर हंटर फटकारते थे पर यह पहला अवसर था जब उन्होंने गायत्री पर हाथ उठाया था। गायत्री को इससे पहले किसी ने कानी अंगुली से भी नहीं छुआ था। आज भी उसे शरीर से ज़्यादा उसकी आत्मा पर चोट लगी थी। शाम तक उसे ज्वर हो आया, जो रात के साथ बढ़ता गया। वह बाई में बड़बड़ाने लगी, "दरवाज़ा खोल दो, खिड़की खोल दो।" कभी कहती, "गहने रख दो।" और भी काफ़ी कुछ असंबद्ध बोलती रही। दूसरे दिन भी जब ज्वर नहीं उतरा तो नारायणदत्त वैद्य जी को ज्वर की बात बता कर दवा ले आए। दवा का कोई असर नहीं हुआ। गायत्री ज्वर में तपती रही, तड़पती रही, बड़बड़ाती रही। तीसरे दिन उसकी देह अकड़ने लगी और रात भर तड़प कर चौथे दिन भोर में वह मोहमाया से छूट गई। सुहागन मरी थी गायत्री।

और अब नारायणदत्त विक्षिप्तावस्था में गहने बिखेरे बैठे थे और चारों ओर से गायत्री चली आ रही थी, धीरे-धीरे उनकी ओर बढ़ती हुई, मुस्कुराती हुई।

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समाप्त.....
विजय शर्मा....