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चक्र - 5

चक्र (भाग 5)

इंद्रियों पर काबू पाने योग करें

अगले दिन मैं प्रातःकाल ही शिविर में पहुंच गया। लता मुझे पाकर ऐसे खिल गई जैसे, सूर्य-रश्मि को पाकर कमल-पुष्प। थोड़ी देर बाद वह अपने तंबू से अपना सफेद झोला उठा लाई। जिसमें से उसने कम्पित हाथों से मुझे एक सफेद लिफाफा निकाल कर दे दिया। आशंकित मन, मैं उसे एक कोने में जाकर पढ़ने लगाः

“फिर आई जुदाई की रात... मैं तुमसे जुदा होना नही चाहती! तुमको पा न सकी क्योंकि/यह मेरी खुदाई नही चाहती! मिलकर बिछुड़ना ही था इक दिन/तो यह मुलाकात क्यों हुई? उल्फत में ठोकरें थीं, दर्द था, रुसवाई थी/तो हसीन सपने क्यों दिखाए? क्यों हसरतें जवां हुईं? क्यों उमंगो ने पींगे भरीं? जब आंखों में चाहत के बादल नहीं थे तो, क्यों अरमानों की बरसात हुई...! मिलन के बाद जुदाई क्यों है...?”

मुझे अपना श्वास रुकता-सा महसूस होने लगा...। अक्सर तो मैं अपने पूर्वजों के कारण ही पतित हुआ, जिन्होंने काम का ऐसा मोहक वर्णन किया, जिन्होंने मेरे चित्त में स्त्री की ऐसी उत्तेजक छवि बसा दी! कि उन्होंने मुझे एक ऐसी दिव्य दृष्टि पकड़ा दी, जो उसे सात परतों के भीतर भी नग्न देख ले! आखिर मैं समझता क्यों नहीं कि मुझे उसकी इच्छा के विरुद्व कुछ भी करना नहीं चाहिये, भले वह प्यार हो या उपचार...। खैर।

उस दिन तो नहीं। पर और ऐसे ही दो-चार प्रयासों के बाद, उसका पलायन रोकने में मैं कामयाब हो गया। घरवालों को मुझ पर पहले से ही अखण्ड विश्वास था, अब तो और भी घनी परतें चढ़ गईं। समझाने और पढ़ाने के बहाने अब मैं घंटों उसके साथ अकेला बैठ सकता था। छत पर एक बरसाती थी...। उसमें एक टेबिल-कुर्सी, पलंग और एक बिजली का पंखा था। कभी वह पलंग पर लेट जाती और मैं कुरसी पर बैठा लैक्चर देता रहता और कभी मैं पलंग पर आराम फरमा उठता और वह टेबिल पर निश्चिंतता पूर्वक पढ़ने लगती!

सोचता था, उसे संसार में लौटा लाऊं एक बार, फिर धीरे-धीरे अपना दामन छुड़ा लूंगा...। मगर इस तरह मेरी खुद की बेचैनी सिर पर चढ़कर बोलने लगी थी। आलम ये कि वह दो-चार दिन नहीं मिले तो हाल बेहाल हो जाता! और तब मैं खुद को उसी के हवाले छोड़ देता। जो मुझे सुखासन पर बिठा देती। कहती- आसन का बड़ा महत्व है, आसन सध जाय तो श्वास पर नियंत्रण के बाद धारणा कर ध्यान लगा देने से ‘राजयोग समाधि’ फलित हो जाती है! राजयोग सभी योगों का राजा है क्योंकि इसमें सभी योग समाहित हैं। जैसे- संन्यास योग जिसमें बुराइयों का संन्यास किया जाता है, ज्ञान योग जिसमें प्रॉपर ज्ञान होता है कि कैसे मेडिटेशन द्वारा अपनी शक्तियों को जागृत करें और भक्तियोग जिसमें मन के भावों को परमात्मा से संबंध जोड़कर याद किया जाता है।’

पर मुझसे कुछ सध नहीं रहा था। एक दिन खीज कर मैंने उससे कहा कि- मेरा मन तो नींद और बेडरूम से जुड़ा है?’ और वह नासमझ प्रशिक्षक की तरह समझाने लगी कि- फिर आप रसोई में, जहां नींद की संभावना नहीं या बालकनी/लॉन में ध्यान कर लिया कीजिये। नियमित, एक ही स्थान और समय पर करने से ध्यान लगने लगता है। धीरे-धीरे अवधि बढ़ाते जाइये, इससे दक्षता हासिल हो जाती है!’

‘‘और इस दक्षता का हासिल-क्या?’’

“आत्मा के सभी पाप समाप्त हो जाते हैं, वह पावन बन जाती है। जिन इंद्रियों के हम दास हैं, वे हमारी गुलाम हो जाती हैं!’’ उसने जोर देकर कहा।

मैं हैरान रह गया कि उस अबोध को समझा पाना कितना कठिन है! मिनी स्कर्ट-ब्लाउज में इस वक्त वह टीनएजर्स ही लग रही थी...। पर मेरे सोच से इतर हठात वह विहँसती-सी बोली, ‘‘कभी शिवमंदिर गए हैं आप! वहां देखा है कि शिव कितने शांत-चित्त स्थापित हैं सैलसुता के पावन आसन पर! इतने कि घोर अशांत चित्त भी प्रवेश पाते ही गहरी शांति से भर उठे!’’

मेरा ध्यान उसके शब्दों की गहराई पर नहीं, सुंदर देहयष्टि पर था, ‘‘तो क्या, तुम्हारे साथ योग करने से वह अखण्ड शांति मुझे भी सुलभ हो जाएगी...?’’

"अवश्य!" कहते झट पद्मासन में विराजमान हो नेत्र मूंद ध्यान में डूब गई और मैं उसका आकर्षक वक्ष, सुडौल जंघाएं और पतली कमर देख-देख उत्तेजित हो उठा। अंततः रहा नहीं गया, सो हाथ बढ़ा कमर भुजपाश में भर उसे अपनी गोद में धर लिया, जैसे साधना का अंतिम चक्र पूरा करके रहूंगा! अब तक तो सुखासन या पद्मासन में बैठ मन्त्र जाप करते अंदर के काम-भाव को ऊर्ध्वगामी कर दिव्य ऊर्जा को प्राप्त करने का जतन करता रहा। पर आज तो सम-भोग की क्रिया सम्पन्न कर अलौकिक अनुभव प्राप्त करना होगा!

"ये क्या करने लगे, सर!" वह बाँहों में कसमसायी।

"अनुभव कराना होगा तुम्हें कि- फेस और न्यूट्रल के टकराने से कैसी चिंगारी निकलती है! कैसा ब्रह्मसुख मिलता है!" मैंने उसके रसीले अधर अपने अधरों में लेते कहा।

सुनकर जैसे सन्न रह गई। फिर कोई निर्णय ले मेरे कोमल हृदय पर अपना सख्त सिर गड़ा पीछे हट गई और मुस्कराने लगी, "नहीं वत्स! वहां तो सदाशिव ज्योर्तिलिंग के रूप मे विराजमान हैं जगदम्बिका की पावन दीपयोनि में! यहां तुम स्त्री जननेन्द्रिय में पुरुष जननेन्द्रिय का वास चाहते हो!"

"तुम कभी समझोगी नहीं!" मैंने कटुता से कहा और उठकर चलने को उद्धत।

"समझूँगी, आप समझाएंगे तो..." मुस्कराते उसने हाथ पकड़ने की कोशिश की।

"न...कभी नहीं समझोगी।" मैंने तिक्त स्वर में कहा और फिर कभी उसके दर पे न आने का निश्चय कर वहां से चला आया।

उसे राजी कर पाने की बनिस्वत तो आकाश में छेद कर देना या चलनी में दूध दुह लेना सरल था! दिन विरह के संताप में कटने लगे। क्योंकि मन का निग्रह भी मेरे हाथ से बाहर की बात थी...। कोरी बकवास सिद्ध हो रहा था, समत्व योग! जिसमें भावनाओं व विवेक का बैलेंस करना सिखाया गया था...। यहां तो मेरे हठयोग पर उसका बुद्धि योग हावी था!