Namo Arihanta - 12 books and stories free download online pdf in Hindi

नमो अरिहंता - भाग 12

(12)

संयोग

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आनंद जब वहाँ पहुँचे मेला उखड़ रहा था। यह मेला प्रतिवर्ष होली पर फाल्गुन सुदी चौदस से चैत्र वदी तीज तक विशेष रूप से लगाया जाता है और इसी मौके पर पंचकल्याणक महोत्सव आदि हुआ करते हैं।

चूँकि उत्तर भारत को छोड़कर दक्षिणांचल और विशेषकर महाराष्ट्र (बंबई) में होली कतई फीकी रहती है। ऐसे ही जैन धर्म में होली मनाने का रिवाज नहीं है। गोया यह शूद्रों का त्योहार है, इसीलिए होली पर जैनसमुदाय जो कि औसतन वणिक समाज है- बाजारबंदी के कारण अपने निकटतम तीर्थ क्षेत्रों में सपरिवार चला जाता है।

सो, होली के अवसर पर आयोजित सोनागिरि के प्रसिद्ध मेले से भगवान् चंद्रप्रभु के गर्भ कल्याणक, जन्म कल्याणक, दीक्षा कल्याणक और मोक्ष कल्याणक तिथियों का कोई तालमेल नहीं है, तब भी इसी अवसर पर यह मेला बदस्तूर भरता है और इसमें पंचकल्याणक आदि महोत्सव भी विशेष तौर पर हो ही जाते हैं।

नीली कोठी वाले सेठ की प्रथम संतान अंजलि ब्याही तो गंगापुरसिटी में गई थी और होली पर वह राजस्थान क्षेत्र के अपने निकटवर्ती चूलगिरी, महावीरजी ही नहीं, दूरवर्ती आबू पर्वत या स्वर्ण नगरी (जैसलमेर) भी जा सकती थी, किंतु उसे मोह था माइके से। इसलिए इस होली पर उसने मध्यप्रदेश के प्रमुख जैन तीर्थस्थल सोनागिरि की ओर सप्रयास प्रयाण किया था। वह अपनी मारुति में गोहद तक स्वीटी, हस्बैंड और ड्रायवर के साथ ही आई थी, किंतु वहाँ से उसकी कार में थुलथुल सेठानी, छरहरे सेठ और दुबली सुधा भी ठंस गई। प्रीति आना नहीं चाहती थी, किंतु जीजाजी का आग्रह-गोया उन्हें अंजलि से ज्यादा रुचि प्रीति में थी, खींच लाया।

वे लोग यहाँ भिंड वाली धर्मशाला में ऊपर की मंजिल के दो कमरे घेर कर डेरा डाले हुए थे।

स्याद्वाद नगर के विशाल पंडाल में आठोयाम नाटक, कीर्तन, प्रतियोगिताएँ, कवि-सम्मेलन, प्रवचन आदि कुछ-न-कुछ चला ही करता। मूलनायक प्रतिमा के दर्शनार्थ नित्यप्रति वे लोग पहाड़ पर जाते ही थे। पर प्रीति का चेहरा सदा बुझा-बुझा-सा बना रहता। अब तक किसी बात पर आश्चर्य व्यक्त करने, मुँह फाड़ने का उसे कोई अवसर हाथ नहीं लगा था। कोई ऐसा विषय भी उपस्थित नहीं हुआ था कि वह संवेदित होती। सो, एक स्थायी निराशा जो उसके चेहरे पर बरसों से तारी है, छँटने में नहीं आती!

इसके उलट दिन भर की इस भागमभाग और भीड़भाड़ और कनफोड़ू काँयकाँय में उसका जी और घबराता। वह रोज दुआ माँगती कि यह सब जल्द खत्म हो और वह गोहद पहुँचे! जैसे कि अपने एकांत में रहना अच्छा लगता हो उसे!

अपने रूटीन से मेला जब उखड़ने लगा और वे लौटने वाले हुए तभी उन्हीं के लवेंचू समाज के प्रदेश में निर्माण मंत्री बन चुके ग्वालियर के सुप्रसिद्ध ‘ऐमेले-नेताजी’ ‘चंद्रभूषण उद्यान’ का उद्घाटन करने सोनागिरि पधार गये!

भीड़ के रेले पर रेले उनके दर्शनार्थ धा पड़े, गोया इतिहास ने दूसरी आजादी के द्वार खोल दिए थे। पहली आजादी तो कांग्रेस यानी नेहरू परिवार के चेंबर में दम तोड़ चुकी थी और अब जेपी की जनता पार्टी ने उस चेंबर की इंदिरा नामक खिड़की तोड़कर दूसरी आजादी का गुल खिला दिया था। कि तब के जनसंघी आनंद के भाईजी, दानाओली निवासी खूबचंद जैन आज प्रदेश के लोक निर्माण मंत्री बन कर सोनागिरि आ पधारे थे। उन्होंने अपनी भूरी दाढ़ी कटवा ली। और भूरी मूंछें भी बिल्कुल हलकी करवा ली थीं। उनकी कार आनंद के बिल्कुल बगल से गुजर आई थी, जब वे स्टेशन से सोनागिरि की पदयात्रा पर थे। पर लालबत्तियों की सर्रसर्र में तब वे यह कतई न जान पाए कि ऐसा अजूबा भी घट गया है!

नेताजी आकर सीधे रेस्ट हाउस चले गये। विश्राम कर घंटे भर बाद उठे, गोया थक गये हों! नाश्तापानी कर उठे, गोया 19 महीने जेल में भूखे-प्यासे ही तो बने रहे थे। लोगों की अर्जियों के मार्फत उनके दुःखदर्द सुन उठे, गोया असली रहनुमा तो वे ही थे! पहाड़ की मूलनायक प्रतिमा तो प्रतिमा भर है।...

आनंद इतनी देर में लगभग 5 कोट मुनियों की मुक्ति भूमि सोनागिरिजी के मुख्य द्वार में पदार्पण कर चुके थे। और यहीं से आरंभ हुई तलहटी के मंदिरों और धर्मशालाओं की श्रृंखला पार करते हुए वे संरक्षिणी कमेटी धर्मशाला के सामने के चबूतरे पर आकर ठहर गये, क्योंकि यहाँ भीड़ का पारावार न था। नेताजी की जय-जयकार के नारों से दिशाएँ काँप रही थीं। आनंद ने अपने आगे लगे सिरों की जालियों से ताक-झाँककर बमुश्किल देखा-नेताजी बीजक से लाल परदा सरका रहे थे। तालियों और नारों की बरसात हो रही थी और शिलान्यास वाले पत्थर पर खुदी थी यह इबारत-

‘श्री प्रबंधकारिणी कमेटी, श्री दिगंबर जैन बरैया संस्थान सोनागिरि स्व.श्री 108 श्री चंद्रभूषणजी महाराज भट्टारक गादी सोनागिरि की पुण्यस्मृति में चंद्रभूषण उद्यान का शिलान्यास माननीय श्री खूबचंदजी जैन निर्माण मंत्री मध्यप्रदेश शासन द्वारा किया गया। दिनांक 28 मार्च, 1978’’

तब आनंद ने नजर उठाकर देखा-दायीं ओर भट्टारक कोठी यानी मंदिर नंबर 8 व 9 के प्रांगण में स्थापित अंतिम भट्टारक चंद्रभूषण महाराज की पीतवर्णी मूर्ति को। और फिर मंत्रीजी यानी नेताजी अर्थात् भाईजी को निर्निमेष ताक उठे।कि अब चौथेकाल में उदयोन्मुख सूर्य की भाँति दिपदिपाता चेहरा लिए हुए जय-जयकार के बीच जो पहाड़ की यात्रा पर निकल पड़े थे।...

आनंद किधर जायें?

सोच ही रहे थे कि किसी के मुलायम पैर पर कठोर पाँव पड़ गया उनका।

यह प्रीति थी।

बसंत ढल गया था।

आनंद विस्मित रह गये।

‘प्रीति! तुम यहाँ भी।’ उनके ओठ फड़क कर रह गये।

गहमागहमी में, भीड़ की लहरों में, धक्कामुक्की में सेठ-सेठानी, जीजा-जीजी, सुधा-स्वीटी सभी पहाड़ चढ़ उठे थे।...

रह गई थी प्रीति ठिठककर आनंद के सामने।

कि जो तगड़े और सुंदर थे, किंतु अभी जिनका चाँद-सा मुखड़ा काली घनी दाढ़ी-मूँछों के भीतर छुपा हुआ था।

‘पहचाना! कैसे हैं सब लोग’ उनके मुँह से अकस्मात् निकल गया।

प्रीति अवाक् खड़ी थी। कुछ-कुछ होश में आती हुई, पहचानूँगी नहीं-वह जैसे जागी! उसने मानो खुद से कहा, भेष बदलने से क्या होगा, छुप नहीं पाओगे... पर प्रत्यक्षतः चौंक गई, कहा उसने,

‘आनंद तुम!’ और गौर से देखने लगी उन्हें।

वे उसकी चिर-परिचित मूँगिया पेंट और रेड शर्ट या सफेद कुर्ता-पायजामा की जगह फकत एक बंडी-धोती पहने थे।...

धोती इतनी बड़ी थी या कि आनंद बिना काँचे पहने थे जो उसका एक छोर अपने गले में दुपट्टे की तरह डाल रखा है उन्होंने और प्रीति को लगा कि सचमुच ब्रह्मचारी बन गये हैं वे! उसकी परिचित सिर्फ एक पहचान शेष रह गई है गोहद के आनंद बिहारी की और वह थी उनकी वही पुरानी हवाई चप्पल! शायद, बदल गई हो पर वैसी ही दुस्समुस्स!

‘क्या देखती हो, प्रीति!’ आनंद ने ध्यान तोड़ा।

‘तुम इतने दिन कहाँ रहे, आनंद!’ प्रीति का जख़्म हरिया गया, दाढ़ी-मूँछ रख ली है अब तो!

कुछ भीड़ मंत्री के पीछे चली गई थी और कुछ जो स्थानीय थी, अपनी-अपनी चर्या में लग गई। यात्री जो सिर्फ शिलान्यास देखने रुक गये थे, धर्मशालाओं में जाकर वापसी की तैयारियाँ कर उठे। चबूतरा अब खाली पड़ गया था। आनंद चैन से दो पल बैठ गये।

प्रीति ने अपने सलवार सूट के बजाय दीदी की पिंक कलर की साड़ी पहन रखी थी। आनंद ने उड़ती-सी नजर डाली उसके बदन पर-सुहाग का कोई चिह्न बना नहीं था अभी!

‘मम्मी-पापा आये हैं, ना!’ आनंद ने पूछा।

‘सभी।’ प्रीति ने अत्यंत गूढ़ और संक्षिप्त-सा उत्तर दिया और फिर से कुरेदा, ‘कहाँ रहे तुम आनंद?’

‘यह ज्यादा महत्त्वपूर्ण नहीं कि कहाँ और कैसे रहा मैं’ आनंद ने स्थिर भाव से कहा, ‘पर द्रव्य अभी तक नहीं छूटा। इसे साथ लिए घूम रहा हूँ।’ उन्होंने झोला प्रीति को दे दिया।

प्रीति ने निकाल कर देखा उसका सामान; एक लंगोट-बनियान, दो-तीन पास बुकें डाकखाने और बैंक वगैरह की। थोड़ी-सी नगदी और एक-दो किताबें।

‘इसे तुम अपने साथ ले जाओ!’ प्रीति को चौंका दिया उन्होंने, ‘अब मैं परमधाम में आ गया हूँ, मुझे कुछ भी नहीं रखना देह के सिवा। इसे भी छोड़ने का अभ्यास करना है- क्रमशः।’

‘ओह! क्या हुआ तुम्हें?’ प्रीति की आँखें डबडबा गईं।

निर्मोह आनंद उठ कर जाने लगे।

अधीर प्रीति उनके साथ हो ली।...

दिल्ली वाली धर्मशाला के बगल में एक ऊँचा टीनशेड था। तीन ओर से खुला हुआ। उसी में एक मुनि दीवार की ओर मुख किये खड़गासन में शास्त्र रट रहे थे। आनंद घने कौतूहल से घिर गये।

मुनि के दूसरी ओर तख़्त पर एक अन्य वृद्धमुनि पद्मासन में विराजमान थे। पीछी उनके बगल में रखी थी।

श्रद्धावनत आनंद ने आकर उन्हें माथा टेका।

मुनि ने पीछी उठाकर उनके सिर पर धरी। आनंद देर तक उसी अवस्था में झुके रहे कि जैसे- रोते हुए बालक को माँ दिख जाय तो वह औैर भी पछाड़ खा उठता है, साँस तक सध जाती है।

प्रीति के दिख जाने पर आनंद वैराग्य की ओर बरसाती नदी की भाँति दौड़ पड़े थे। जैसे वह रजस्वला छूत की हिचक से भरी खुद को पाकसाफ करने सागर को धा पड़ती है!

‘मेरा संसार छूट गया है मुझे अपनी शरण में रख लीजिये।’

मुनि ने पूछा, ‘कहाँ से आए हो?’

आनंद चुप।

प्रीति उनकी बगल में बैठ गई।

‘तुम्हारा भाई है?’ मुनि ने कोमलता से पूछा।

वह हिचकिचा गई, क्या परिचय दे? कौन-सी संज्ञा दे अपने अंतरसंबंध को!

‘रिश्तेदार हैं।’ उसके जो भी समझ में आया कह दिया।

‘कहाँ से आये हो तुम लोग?’

‘गोहद से।’

‘गोहद! भिंड वाला न’ मुनि ने आँखें झपकाकर पूछा। उन्हें कम सूझता था। वे प्रीति को आँखें सिकोड़कर देख रहे थे।

‘हाँ!’ प्रीति ने गर्दन हिलाई।

‘भिंड वाली धर्मशाला में रुके होगे!’ उन्होंने तहकीकात की।

‘नहीं, मम्मी-पापा भी हैं!’ प्रीति का चेहरा रक्ताभ हो आया।

‘अच्छा!’ मुनि आश्वस्त हुए, फिर बोले, ‘क्या चक्कर है इसका?’

‘मुझे दीक्षा चाहिये!’ आनंद बीच में झपटे।

‘वो तो आचार्य श्री देंगे,’ मुनि ने आँखें झपकाईं, फिर जैसे एकदम हटक दिया, ‘छूटते ही मुनिदीच्छा!’ फिर वे बच्चों की तरह हँसने लगे, ‘पहले प्रतिमाएँ साधो!’

‘कौन-सी?’

‘होती हैं। एक से लेकर ग्यारह तक। ब्रह्मचारी बनो, फिर क्षुल्लक, ऐलक! जब साध लोगे शरीर धीरे-धीरे तब दी जायेगी मुनिदीच्छा बड़ा कठिन तप है!’

‘महाराज जी, ये मुनि महाराज खड़े-खड़े क्या कर रहे हैं?’ प्रीति अपने कौतूहल को न दबा सकी।

वृद्धमुनि का जैसे वात्सल्य उमड़ पड़ा, ‘कोई बच्चा जब पाठ भूल जाता है तो मास्टर मुर्गी बना देता है कि नहीं खड़ा कर देता है कि नहीं स्टूल पे!’ वे मुस्कराये। उनकी मुस्कान बहुत भोली लगी प्रीति को। उनकी दाढ़ी थी हलकी-सी और मूँछें साफ थीं। वे बिल्कुल मुल्लाजी लग रहे थे।...

‘ये हमारा शिष्य है। इसने चौथेकाल में दीच्छा ली है। गाँधीनगर दिल्ली का है। वहाँ आचार्यजी का प्रवचन चल रहा था रामलीला मैदान में और ये एकदम अड़ गया कि दीच्छा लूँगा। घर के सब माताजी लोग, बच्चे-नाती-पोते खूब मना करते रहे। पर बहुत भीड़ थी। नहीं माना, अड़ गया। वस्त्र खोलने लगा। तब आचार्यजी ने कहा, इसकी बिनौली निकालो, कल।फिर इससे बोले, ‘कल हो जायेगा तुम्हारा दीच्छा संस्कार।’

‘महाराजजी! चौथेकाल की दीक्षा क्या होती है?’ आनंद ने सिर उठाया।

‘चौथाकाल जेई,’ मुनि बोले, ‘अब इनकी उमर पचासेक साल तो होइगी! इसे चौथे काल की ही दीच्छा कहेंगे जो बालब्रह्मचारी हो, ब्याह से पहले दीच्छा ले ले-वो प्रथम काल की। प्रथम काल में दीच्छा हमने ली थी!’ वे फिर से बच्चों की तरह भोली हँसी हँसे।

प्रीति ने आनंद को उठ चलने का इशारा किया।

वृद्धमुनि उठकर बाहर के चबूतरे पर टहलने लगे। और जो मुनि खड़गासन में शास्त्र याद कर रहे थे, वे अपने आसन पर बैठकर जिनवाणी बाँच उठे।

आनंद जाने लगे तो उन्होंने इशारे से बुलाया। आनंद ने पूरी श्रद्धा के साथ आकर उन्हें भी माथा नवाया। मुनि ने पीछी फटकार कर आशीर्वाद दिया और बोले, ‘बैठ जाओ!’

‘तुम भी बैठ जाओ।’ उन्होंने प्रीति से अपेक्षाकृत कोमलता से कहा, ‘मैंने तुम लोगों की सब बातें सुन ली हैं। देखो, मेरे से कुछ छिपाना नहीं। सब जान जाता हूँ! तुम लोगों में प्यार का रिश्ता है अब घबड़ाने की जरूरत नहीं है, तुम दोनों ही संघ में आ जाओ।’

प्रीति खुश हो गई।

आनंद डर गये, बोले, ‘मैं संसार छोड़कर आना चाहता हूँ।’

‘अरे! तो, यहाँ कौन तुम्हारे पीछे पड़ा है! वो अलग रहेगी’ मुनि क्रोधित से हुए, ‘तुम पहले प्रतिमायें तो साधो! बहुत कठिन हे मुनि-पंथ। दीच्छा तो सरल है, ले-लो। पर निभालो तब ना!’ उन्होंने प्रीति की ओर देखा।

‘महाराजजी, आप खड़े-खड़े क्या कर रहे थे अभी?’

‘शास्त्र का अभ्यास करना पड़ता है।’

‘हो जाता है, याद?’

‘बड़ी मुश्किल से! थोड़ा-बहुत हो गया, तो हो गया। पर तुम्हें चिंता की जरूरत नहीं है,’ उन्होंने प्रीति को आश्वस्त करना चाहा, ‘हमारा अलग संघ बन जायेगा तीन-चार लोगों का। इनसे मेरी वैसे भी नहीं बनती,’ उन्होंने वृद्ध मुनि की ओर इशारा किया, ‘ये मेरे गुरु नहीं, गुरुभाई हैं! हमारे आचार्यजी तो आजकल पावापुरी में हैं।

मुझे भी निकलना है बस, यहाँ से’ फिर वे प्रीति की ओर झुकते हुए-से बोले, ‘तुम तो ब्रह्मचारिणी की दीच्छा ले लो नारियल भेंट करके ! अपन तीनों लोगों का संघ हो जायेगा। पर देखो, मुझ से कुछ छुपाना नहीं! सच्ची-सच्ची बता देना। चाहे जैसे रहो दोनोंधर्म की आड़ में सब छुप जाता है, बस-बच्चा नहीं करना।’

आनंद को घिन होने लगी। कहाँ, कचरे में-गंदगी में आ फँसे! लगा कि इंटेलेक्चुअल की हर जगह कीमत है। जो विद्वान् मुनिगण हैं वे विहार पर हैं..महान् चातुर्मास होते हैं उनके ! धर्मोपदेश परिक्रमा पर रहते हैं वे।... और कूड़मगज यहाँ पड़े हैं, तीर्थों में!’ पर प्रत्यक्षतः उन्होंने कोई अवहेलना नहीं की। बात को स्पष्ट किया, ‘इन्हें मत घसीटो। ये तो घर रहेंगी। गृहस्थिन बनेंगी। मुझे अकेले आना है, इस राह पर तो। शास्त्र सीखने हैं! विद्या जरूरी है।’

मुनि ने आक्रमण-सा किया, बोले, ‘क्यों, इनसे क्या चिढ़ है तुम्हें? जे नहीं करेंगी अपना आत्मकल्याण! तुम बाधक क्यों बनते हो अगर ज्यादा करोगे तो मैं इन्हें अपने संघ में रख लूँगा। तुम्हें जहाँ जाना हो, जाओ’

वे आवेश में आ चुके थे। आनंद कोई पंगा नहीं लेना चाहते थे। प्रीति मंद-मंद मुस्करा रही थी।

फिर बोले मुनि महाराज, ‘समझ से काम लो, अभी भोगो संसार! अभी तुमने देखा ही क्या है? जाना ही क्या है? मैं तो बाल-बच्चों को निबटा कर आया हूँ! मेरी मानो, ब्रह्मचारी बन जाओ। ये ब्रह्मचारिणी बन जाएँगी। हम कहीं किसी मंदिर-नसिया पर शास्त्र-अध्ययन के लिए ठहर लेंगे। साल-दो-साल पढ़ाई मुझे भी तो करनी है! भाई मैं तो सच कहता हूँ’

आनंद ने महसूस किया, अब वे एकदम सच बोल रहे थे, हृदय से! समझायशी खुसर-पुसर के लहजे में, जैसे, कोई फुसलाता है, ‘देखो, समाज के पास बड़ा पैसा है। कमी नहीं है हमारे लिए पंडित लग जाएगा। और तुम तो,’ वे प्रीति की ओर उन्मुख हुए, ‘ऐसा बोलोगी, ऐसा कि- महाराज, भीड़ की नब्ज रुक जाया करेगी! आखिर पढ़े-लिखे लोग हो तुम लोग। बड़ी-बड़ी पोलें हैं इसमें वो ठाठबाट हैं, वो इज्जत-शोहरत है कि धन्नासेठों की क्या होगी? बस, जरा बोलना सीख लो। शास्त्र पढ़ लो। मुनि का भेष, क्षुल्लक, ऐल्लक का भेष-जे सब तो माध्यम है जब शरीर को साध लोगे तब दीच्छा हो जायेगी। मेरी दीच्छा दो मिनट में हो गई थी,’ उन्होंने चुटकी-सी बजाई। वे किसी पहलवान की भाँति, अखाड़ेबाज की तरह बोल रहे थे, जैसे- कौटिल्य-चंद्रगुप्त की भाँति सन्नद्ध थे सेना निर्माण के लिए। और उन्हें तरस भी आ रहा था प्रीति पर-

‘अभी तुमने भोगा ही क्या है! अभी इस बेचारी ने देखा ही क्या है! संघ के अंदर आ-जाओ, खुल कर खाओ-खेलो! अभ्यास करो शास्त्र का, देह साधने का तुम तो,’ वे प्रीति पर फिर आसक्त से होते, बोले, ‘अच्छी-अच्छी माताजियों के मान मारोगी! समां बाँध दिया करोगी। मंच पर तुम्हीं तुम होगी। जै-जैकार होगी चारों ओर, लोग हाथों पे धरे फिरेंगे।’

और वे लोकैषणा की कामना में डूब कर कल्पना लोक में विचर उठे। आनंद ने कहा, ‘क्षमा करें, हमारा उद्देश्य यही नहीं, और हम वो नहीं हैं जो आप पर प्रकट हो गया है पूर्वानुभवों के कारण’

‘क्या गलत समझा है, मैंने!’ वे आनंद पर चढ़ बैठे, ‘प्यार नहीं है, तुम लोगों में? या इसे देख कर (उन्होंने स्वयं को इंगित कर कहा), तुम्हें मेरे शरीर में कोई विकार उत्पन्न हुआ जान पड़ा ऽ!’

आक्रोश में उन्होंने गोद में से पीछी उठा ली। गुप्तांग पर नजर पड़ते ही प्रीति ने आँखें फेर लीं। वे यकायक खड़े हो गये। उनकी जननेंद्रिय ढली हुई थी। कतई सुप्तावस्था में। फिर वे बैठकर उसी झन्नाटे में बोले, ‘शास्त्र-ज्ञान कर धर्मोपदेश न करोगे समाज को अपनी शोभा से, छवि से, चारित्र के बल से आकर्षित न करोगे तो वह धर्म पर कैसे चलेगा! जैन में तो यही परंपरा है। तुम हो कौन?’

‘ब्राह्मण!’ आनंद सकपका गये।

‘तो क्या हुआ,’ वे आत्मसात् करते हुए बोले, ‘विद्या सागर महाराज, सुदर्शन सागर महाराज कितने ही मुनिगण ब्राह्मण हैं! कितने ही भट्टारक ब्राह्मण थे! ये तो और भी अच्छा है- हमारे कितने ही पंडित, उपाध्याय ब्राह्मण होते आए हैं। तुम लोग तो वैसे भी श्रेष्ठकुल में जन्म लिए, विद्या-बुद्धि के धनी हो! सरस्वती विराजती है तुम्हारी जिह्ना पर! आ-जाओ निःसंकोच और देखो इस पंथ का मजा! मुनि न बनना तो पंडित-उपाध्याय ही बन जाना उपाध्याय तो मुनियों से भी बड़े होते हैं। आत्मकल्याण अकेले का नहीं होता। इस पंचमभव की जनता को भी तो धरम पर चलाना है कि नहीं?’

उनके प्रहारों से आनंद हत्वाक् थे। प्रीति खुश हो रही थी कि चलो तुम्हें किसी ने बुद्धि तो दी! तुम्हारी अफीम तो उतारी।...

किंतु आनंद को वे मुनि महाराज अब दयनीय लग उठे थे! वे अब कोई जिज्ञासा और तर्क नहीं रखना चाहते थे। पर मुनि उन्हें उठने नहीं दे रहे थे, समझा रहे थे, जैसे कोई पाठ पढ़ा रहे हों-

‘अभी तुमने जाना ही क्या है, अज्ञान तो काई की तरह छाया हुआ है हमारे जीव पर। जैसे, जल पर छायी काई को उँगली से हटाओ और उँगली हटते ही वो फिर जस की तस जम जाये ऐसे ही सत्संग से, शास्त्र से, ध्यान से अज्ञान हटता तो है, पर क्षणिक देर के लिये! स्थायी अज्ञान फिर हावी हो जाता है हम पर। संसार अज्ञानमय जो है! तभी तो निरंतर ध्यान की, शास्त्र की, सत्संग की जरूरत है। वह बिना संघ में आये नहीं सधने का।’

आनंद ने प्रीति की ओर देखा-कि चलो, चलें! नहीं तो इनकी वाणी आज विराम नहीं पाने वाली। मगर प्रीति को मजा आ रहा था। प्रमुदित मन विचार रही थी वह, कि चलो! ये ठीक रहा, खूब सबक मिला तुम्हें आज!

मुनि अविरल कह रहे थे, ‘अगर तुम्हें परमात्मा के नजदीक जाना है, उसे पाना है तो बच्चे की तरह तुतलाना सीखना होगा। उसकी भाँति निर्विकार होना होगा।

कि जैसे- तुम घर में चड्डी-बनियान पहने बैठे हो, और कोई आ जाये अकस्मात् तो दौड़ पड़ते हो तन ढकने के लिये लुंगी, तहमद, पायजामा, कमीज खोज उठते हो फौरन। पर एक शिशु ऐसा नहीं करता, क्योंकि- उसे भान ही नहीं है अपनी इंद्रिय का। वह तो निर्विकार है। साधु ऐसा ही होता है। तुम रहकर तो देखो मेरे साथ, तुम्हारी तो इच्छा भी नहीं होगी इनकी तरफ देखने की। तुम तो खुद आत्मसाधना में लीन हो जाओगे। मर जायेंगी तुम्हारी इंद्रियाँ खुद ही। पर पहले बच्चे की तरह भोले तो बनो, दीवार न खड़ी करो कि ये नहीं करूँगा, वो नहीं करूँगा। ये पाप है, ये माया है, ये अधर्म है तुतलाना शुरू कर दो तो पता लग जायेगा कि मन सहज हो गया है। बाल सुलभ हो गया। कोई चिंता-फिकिर ही नहीं है। कोई मान-अपमान ही नही है, कोई माया, कोई छल-कपट ही नहीं है। जगत् पावन है, निर्मल है। सभी परमात्मा के अंश हैं।’

टीनशेड के सामने, दायें-बायें गहमा-गहमी थी, शोर था। श्रावकों की भीड़ थी। मुनि का उपदेश रुकता नहीं, जो आकर उन्हें कोई प्रणाम न करता!

ये जन, सेठ-सेठानी, जीजा-जीजी और सुधा थे। अंजलि की गोद में स्वीटी थी। हलाकान सेठ ने क्रोध में कहा था प्रीति से, ‘तुम यहाँ बैठी हो पहाड़ से धर्मशाला तक ढूँढ़-ढूँढ़कर तुम्हें तंग हो गये हमलोग क्या दिमाग खराब हो गया है, तेरा! हम से कह तो दिया होता कि यहाँ बैठे हैं?’

उनकी लताड़ के आगे मुनि महाराज को भी कुछ कहने का साहस न हुआ। वे उसी भाँति बरसते हुए बोले, ‘अब चलो, बैठो गाड़ी में!’

उन्होंने आनंद को नहीं देख पाया था। देख तो लिया होगा, पहचान नहीं पाये थे। और यह ठीक ही रहा।

प्रीति घबड़ा-सी गई पापा के प्रहार से। वह आनंद की ओर कातर नेत्रों से देखती हुई कार की ओर चल दी। उसे यह भी ध्यान न रहा कि आनंद का थैला अब भी उसके हाथ में है! संध्या हो गई है!

और वे लोग चले गये।

आनंद उठकर टीनशेड से बाहर निकल आये। मुनि महाराज अबूझ से अपने आसन पर जमे रहे। प्रसंग की यह परिणति देखकर मन उनका भी खिन्न हो गया था।

(क्रमशः)