Namo Arihanta - 13 books and stories free download online pdf in Hindi

नमो अरिहंता - भाग 13

(13)

मुक्तिकामी

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प्रीति के जाने के बाद आनंद बिना उस दिशा में देखे, बिना उस घटना पर विचार किए, अपने मन में किसी स्मिृति को न बसाकर पहाड़ की ओर चल दिए।

प्रवेश द्वार पर द्वार-रक्षक ने उन्हें चप्पल छोड़ जाने को कहा और तब एक कोने में चप्पलें उन्होंने इस निश्चय के साथ उतार दीं कि अब इन्हें कभी धारण नहीं करेंगे।

प्रवेश करते ही उन्हें अपने बायीं ओर बीसपंथी कोठी का कोट नजर आया। दायीं ओर के मंदिर में नेमिनाथजी खड्गासन में मौजूद थे। औचक आनंद को कुछ ऐसी अनुभूति हुई कि वे स्वर्गधाम में प्रवेश कर गये हैं। तभी उनकी नजर सामने के ऊँचे आसमान से बतियाते हाथीगेट पर पड़ी। उसकी दोनों शिला-बाजुओं में शुभ्र गज उत्कीर्ण थे। उसके ऊपर के पुलनुमा मंदिर में नेमिनाथजी पर्यक में विराजमान थे। मंदिर पर के सरिया ध्वज लहरा रहा था। दरवज्जे के बायें स्तंभ पर खुदा, ‘गिरिवर ऊपर सोहते सतहत्तर जिनधांम, अर्घ देउ शुभ भाव से, करहु तिन्हें प्रणाम!’ और दायें पर, ‘इंद्रादिक सेवित वरुण, महासेन के नंद, कनक थाल भर अर्घ ले, पूजौ त्रिभुवन चंद्र!’ पढ़कर आनंद की आत्मा मोहित हो उठी।

वे हाथीगेट पार कर मुख्य पथ की सीढ़ीदार चढ़ाई पर सरपट चढ़ उठे। दायें-बायें मंदिर-दर-मंदिर। प्रफुल्लित आनंद स्वर्गारोहण पर थे, गोया। पहाड़ के सेमल, नीम, इमली, गंधसफेदा, बेरिया, चाँदनी, बबूल, गुड़हल, चिनोल, कनेर, दुधैया, आँवला, आम, कपूर और खैर उन्हें स्वर्ग के पेड़ प्रतीत हो रहे थे। जिन पर सूर्यास्त की छटा उनके भीतर उतर गई थी। मेंहदी और हरसिंगार, सवा और बारहमासी की कतारों में उनका मन बच्चों की भाँति किलक उठा था।

यत्र-तत्र-सर्वत्र मंदिर और छतरियाँ, टोंक और स्तंभ उन्हें बहुत अद्भुत जान पड़ रहे थे। क्या समां था-सुगंधित फिजशं और सुरमई उजाले का!

कितना मनोहर, नयनाभिराम दृश्य था-क्षितिज के छोरों तक बहुवर्णीं बादलों के संगम में मंदिरों की चोटियों का!

नीचे सब ओेर काली और धौरी और पीली-सी प्राचीन चट्टानें। सब

ओर विचित्र से परिक्रमा पथ। मानो स्वीमिंग फूल की पट्टियाँ हों और हों रेलवे लाइन के ओव्हरब्रिज जिन पर चिप्स-टाइल्स इंच-इंच जड़े हुए। दोनों बाजू सुंदर रेलिंग।

कहाँ रहे आनंद तुम अब तक? वे पछताए मन-ही-मन। और आगे आकर चंद्रप्रभु के मंदिर के सम्मुख समवशरण का मॉडल देखकर तो निहाल ही हो गये।

उन्हें रोमांच हो आया कि वे अजाने ही इस हुंडा अवसर्पिणी के दुखमा-सुखमा नामक चौथे काल के नौ करोड़ सागरोपम काल में अनायास प्रवेश कर गये हैं। उन्हें लगा कि इस मानस्तंभ पर अभी इस क्षण पर्यक में विराजमान हैं चंद्रप्रभु। चारों दिशाओं में समभाव से एक साथ देखते हुए। उनके नेत्र लगातार आधे खुले हैं! पलकें नहीं झपक रही हैं! कि उनके शरीर का वर्ण सुवर्ण का सा है! उनकी दिव्य देह से सब ओर सुगंधि-सी उड़ रही है। और घोर आश्चर्य कि- उनकी छाया तक नहीं पड़ रही।

वे उपदेश कर रहे हैं अपनी निरक्षरी ध्वनि में, और हमें अपनी भाषा में सुनायी पड़ रहा है! वह भाषा जो अम्मा ने सिखलाई थी, ‘रोटी है- अट्टा! पानी है-पप्पा! दुद्धू है- दूध! भगवानजी हैं- आसमान में! चंदा-मामा! सूरज-बाबा! जाकर बाबा, मामा को देते हैं भेज! जाकर मामा, बाबा को देते हैं भेज! ऐसे होते हैं दिन-रात। रोने से हौव्वा आता है सो जाओ सुख नींद, परी ले जाएगी। लोक-लोक की सैर कराकर अम्मा को दे जायेगी।’

और ताज्जुब कि- सुगंधित वायु चल रही है। सुगंधित जल बरस रहा है। चारों ओर स्वर्ण कमल खिल रहे हैं। आकाश में जै-जैकार हो रही है।

कम-से-कम पाँच हजार धनुष की ऊँचाई पर हैं आनंद। तीस हजार सीढ़ियाँ लाँघकर आए हैं। बारह योजन के विस्तार में है समवशरण। दायें नंग कुमार खड़े हैं, बायें अनंग कुमार और बीच में बाहुबली न जाने कहाँ से आकर खड़े हो गये हैं! ये तो आदिनाथजी से भी पहले निर्वाण प्राप्त कर गये थे।

नंग और अनंग कुमार-जो राजपुत्र हैं! युद्ध जीत कर लौट रहे थे, बैरी को बंदी बना कर सुना कि प्रभु का समवशरण आया है- आ गये कौतूहलवश! और यहाँ आकर, जैसे- घोर जाति-विरोधी जीव भी-सिंह-हाथी, बिल्ली-चूहा, मेंढक-सर्प तक बैर-भाव-मुक्त हो जाते हैं, वैसे ही नंग, अनंग कुमार भी विकार मुक्त हो गये। मुनि दीक्षा ले ली! आत्मसाधना कर निर्वाण को प्राप्त हो गये।

‘बोऽलो-चंद्रप्रभू कीऽ’

‘जयऽ! जयऽ! जै ऽऽऽ’

पुलकित आनंद के मुँह से अनायास निकला तब अनायास ही चेत हुआ कि यह तो पंचमकाल है। वह तो अतीत की बात थी। प्रांगण के मध्य में आज तो समवशरण का मॉडल भर है। नंग, अनंग और बाहुबली की खड़गासन मूर्तियाँ हैं ये तो। ये तो पत्थर का मानस्तंभ है। पाषाण की ही मूर्ति है चंद्रप्रभु की। और प्रांगण की फेंसिंगनुमा तीन ओर के बिननुमा मंदिरों में तीर्थंकरों की चौबीसी है।

मंदिर बंद हो गया, इसलिये आनंद खड़े रह गये थे समवशरण में, मूलनायक प्रतिमा के दर्शन से वंचित। सूरज छुपकर अंधेरे को भेज गया था। चौथ थी, सो चंद्रमा अभी आ नहीं पाया था। आनंद चल पड़े कुंड के बगल से। सोचा नीचे जाकर विश्राम करेंगे। मगर थोड़ा चलकर एक मंदिर के करीब से गुजरते तो किसी के जोर-जोर से बोलने की आवाज सुन पड़़ी।

वे ठिठक गये। यह समवशरण के बायीं ओर का मंदिर नंबर 58 था।

वे भीतर चले गये। अंधेरा था।

कुछ देर बाद आँखों को दिखा-एक आदमी गैलरी में पड़ा अपना सिर खुजला रहा है।

आनंद को आया देख वह हड़बड़ाकर उठ बैठा, ‘कौन ऽ!’ उसने लगभग लताड़ा, ‘कौन है!’

आनंद सहम से गये, बोले, ‘मैं आनंद’

‘कौन?’ उसने फिर कहा।

‘मैं आनंद ऽऽ!’ आवाज गूँज कर रह गई। उसने सुना नहीं।

बहरा है, शायद! उन्हें लगा, झुककर कान में जोर से कहा, ‘मैं आनंदऽ आनंदऽऽ!’

‘कौन आनंद?’ उसने उतने ही जोर से पूछा। तब तक बिजली आ गई। दालान में उजाला फैल गया।

आनंद ने देखा, वह एक बूढ़ा आदमी है। उसके सिर और दाढ़ी के छोटे-छोटे बाल कुछ मटमैले से हैं।

दालान एक लंबी-सी गैलरीनुमा जगह है जिसका एक द्वार मुख्य पथ की ओर और दूसरा समवशरण की ओर है। जिसमें भीतर की ओर तीन द्वार हैं। पहले में खड्गासन में आदिनाथ, दूसरे में पार्श्वनाथ और तीसरे में महावीर स्वामी दृष्टिगोचर हो रहे हैं।

बूढ़ा आनंद को ब्रह्मचारी समझ कर कहता है, ‘पहले यहाँ चोरी हो गई थी। चंद्रप्रभु के पूजा के कमरे का ताला तोड़कर चोर सामान चुरा ले गये। मंदिर की दान-पेटी भी ले गये। मैं क्षुल्लक हूँ! यहीं सोता हूँ। मुनि कल्याणसागर भी आता होगा।’

बूढ़ा दाँतों के अभाव में अटपटी, भोली-सी बोली बोल रहा था।

आनंद ने पूछा, ‘आप मुनि नहीं बने?’

उसने दोनों हाथ और गर्दन न में हिलाए, ‘मुनि नहीं बनूँगा।’

‘क्यों?’ आनंद ने कान में जोर से पूछा।

‘मेरी ये उँगली खराब हो गई है अंजुलि नहीं मार पाऊँगा। खाना नहीं खा पाऊँगा! मुनि नहीं बनूँगाऽ!’ उसने जोर से कहा, आवाज गूँजकर रह गई। तीनों तीर्थंकर चुपचाप खड़े सुन रहे थे।

पूछा आनंद ने, ‘कैसे कट गई उँगली?’ सहलाई उँगली।

क्षुल्लक ने कहा, ‘इसमें चटाई की फाँस घुस गई थी। मैंने चाकू से काट दिया। नाखून उखड़ गया। कमेटी वाले डॉक्टर ने ट्यूब लगाने को कहा, कोई लाया नहीं। फिर गलाव पड़ गया। अभी नहीं सूखा!’ उसने उँगली आँखों के नजदीक करके देखी।

आनंद के हृदय में दया उमड़ पड़ी। मन व्यथित हो गया।

‘तुम दवा ला देना। मैं भीख नहीं माँगूँगा।’ बूढ़े ने कहा।

‘आपकी आँखों में मोतियाबिंद आ गया है, महाराज!’ आनंद ने कुरेदा।

‘मैंने चौदह साल पहले दीक्षा ली थी। कल्याण सागर महाराज जमुनिया वाले से, इस मुनि कल्याण सागर से नहीं!’

‘हाँ-समझ रहा हूँ।’ आनंद ने कहा।

वह बोला, ‘चौपाटी पार्श्वनाथ नंदसिंह के पास समाधि है महाराज की। समाधि पर महीनों रहा फिर यहाँ आ गया। त्यागीव्रती आश्रम में 8 नंबर कमरे में रहता हूँ। कोई देख-रेख, दवा-दारू नहीं कर रहा, अब चला जाऊँगा किसी ब्रह्मचारी को लेकर।’

‘कहाँ?’ आनंद ने जोर से पूछा।

‘मोतियाबिंद ऑपरेशन कराना है!’

‘कहाँ जाओगे? बच्चे-बच्चे हैं!’

‘डोकरी अकेली है,’ उसने एक उँगली दिखायी, ‘कमेटी पैसा दे देगी तो ठीक, नहीं बच्ची देगी। बचपन में साइकिल से स्कूल जा रहा था। टक्कर लग गई। ताँगे के नीचे घुस गया था। पेट में साइकिल का हेंडिल लग गया,’ उसने पेट दिखाया आनंद को, ‘गाँठ पड़ गई है।’

आनंद ने टटोला।

‘अब तो ठीक है, ऑपरेशन करा दिया। लड़की ने पैसा दिया था।’

‘लड़की कहाँ है?’ आनंद ने फिर जोर से पूछा।

‘लड़की आँवला स्टेशन के पास सुअरी डोम में है। मैं जबलपुर का था। सुनाचर देहात है, वहाँ का। दुकानदारी करता था। डाकू ने लूट लिया। एक लड़का-लड़की मार डाले। मैंने भागकर गोरेगाँव आकर मकान बना लिया। फिर दीक्षा लेकर छोड़ दिया।’

उसके चेहरे पर विषाद की रेखाएँ उभर आई थीं। याचक स्वर में बोला, ‘तुम्हारे पास रुपया है? ट्यूब ला देना।’

उसने उँगली दिखायी, ‘भीख नहीं माँगूँगा।’

‘अब आप समाधि नहीं लेंगे?’ आनंद ने उसके कान से मुँह सटा कर पूछा।

‘नहींऽऽ!’ वह हल्ला-सा करता हुआ बोला, ‘संल्लेखना नहीं लूँगा। गुरु महाराज ने कहा है, अभी मेरा टाइम नहीं आया।’

वह खामोश हो गया। उसके चेहरे पर मौत की छाया डोल रही थी। वह भयातुर था।

आनंद ने प्रसंग बदला, ‘हाथ वगैरह देखते हैं!’

‘जानता हूँ-बताता नहीं हूँ। लोग रुपया दे देते हैं। मैं भीख नहीं लेता। तुम दवाई ला देना।’

तभी वहाँ एक मुनि महाराज आ गये।

यही कल्याण सागर थे।

आनंद ने माथा टेका। उन्होंने पीछे को हटकर पीछी फटकारी। पूछा, ‘कहाँ से आये,’ ‘कौन हो?’ आदि!

और आनंद ने परिचय देकर वहीं विश्राम की अनुमति ले ली। रात में मुनि मौन व्रत पालते हैं, इसलिए वे चुपचाप सो गये।

अब वे सोनागिरि धाम में, चंद्रप्रभु के चरण-कमल की शीतल छाया में रमण करना सीख रहे थे।

दिल्ली वाली धर्मशाला में शौच की उत्तम व्यवस्था थी, आनंद साफ-सुथरे होकर बाहर निकल आये वहाँ से। सामने ही बीसपंथी कोठी का मुख्य दरवाजा था, जिस पर एक कपड़े का बैनर लगा हुआ था-

‘105 आर्यिका रत्न चंद्रमती माताजी एवं 105 आर्यिका दक्षमती माताजी’

आनंद सीढ़ियाँ चढ़कर स्वस्तिक अंकित के सरिया ध्वज को पारकर मंदिर के सिंहद्वार में प्रवेश कर गये।

मंदिर जैसे किला हो!

ड्योढ़ी के भीतर एक ओर स्थायी दानदाताओं की लंबी-लंबी सूचियाँ, गोया दरबारियों के नाम दूसरी ओर आचार्य महावीरकीर्तिजी के चित्र के नीचे ब्लेकबोर्ड पर आज के पूजा आयोजक, मानो युद्ध के लिये कूच करने वाले सेनापतियों के नाम-ग्वालियर, राउर किला उड़ीसा, सवारिया वाला जयपुर आदि-अनेकानेक!

और भीतर इतना बड़ा दालान कि एक मुश्त उनकी नजर में नहीं समा रहा.।

दालान के दोनों बाजुओं से अन्य कई लंबे-लंबे दालानों की शृंखला। बीच में टॉकीजनुमा टीनशेड-यज्ञवेदी। फिर इन सबके सामने एक बड़ा-सा दालान, जिसके भीतर बीच के द्वार के भीतर अनंतनाथ भगवान् की भव्य मूर्ति! काष्ठ-मूर्ति! कोई डेढ़ हजार वर्ष पुरानी।...

और इस मंदिर के पीछे विशाल आँगन।

मंदिर की दीवारों में, दालानों में सर्वत्र टाइल्सनुमा काँच जड़ा हुआ! सीमेंट-कांक्रीट का तो नामोनिशान नहीं। आनंद की आँखें चौड़ा गईं। वे हैरत से भर गये। हिंदुस्तान वाकई अचम्भों का देश है!

एक ओर सोने-चाँदी से निर्मित गोल कोटदार तीन मंजिला चौबीसी थी, जिसकी प्रत्येक मंजिल में गोलाई में तीर्थंकर-मंदिर थे। और उस चौबीसी मॉडल में सबसे ऊपर कमल के आकार के सिंहासन पर सोने के महावीर स्वामी बैठे थे। जिनके ऊपर एक संपूर्ण वृक्ष की छाया थी।

और आनंद ने विस्मय से देखा-उस वृक्ष की टहनियों में सीताफल, अमरूद, अनार, अंगूर तथा आम झुंड के झुंड लटक रहे थे। वृक्ष पर तोते और अन्य तमाम चिड़ियाँ मौजूद थीं। वृक्ष का समूचा आकार छतरी की तरह गोल था, जिसके किनारों पर छत्र लटक रहे थे!

आनंद लौट आये।

सिंहद्वार से तलहटी के मंदिरों के कलश लुक-छुपकर देख रहे थे उन्हें। पर अब वे माताजी वगैरह से मिलकर जल्द-से-जल्द अपनी दीक्षा की व्यवस्था करवा लेना चाहते थे। सीढ़ियाँ उतरकर बगल वाले आश्रम में मुड़ गये।

पता चला, माताजी लोग आहार ले रही हैं! आनंद संकुचित से गैलरी में एक ओर खड़े हो रहे। जाली से बाहर आँगन की खुली धूप में सफेद धोतियाँ सूख रही थीं।

‘ब्रह्मचारियों और श्रावकों की होंगी! माताजी लोग के लिए तो स्नान वर्जित है’ उन्होंने सोचा। तभी एक आदमी ने आकर पूछा, ‘माताजी से मिलना है?’

‘जी हाँ!’ आनंद ने कहा।

वह मुड़ गया तो आनंद ने अंदाजा लगाया, यह उस लड़के का संबंधी होगा जो उन्हें कमरे में जाने से यह कह कर रोक गया था कि माताजी लोग आहार ले रही हैं!

ये श्रावक-श्राविकाएँ और उनके बच्चे माताजी और उनके संघ की सेवा में हैं इन दिनों। इन्होंने नेम लिया होगा कि- जब तक माताजी का संघ यहाँ रहेगा, हम चौका लगाएँगे!

‘चलिये, आहार ले लीजिये!’ वह आदमी फिर से नमूदार हुआ।

आनंद ने इनकार नहीं किया, उसके पीछे चले गये। वे माँगते नहीं थे, न भोजन की इच्छा करते थे। बस यों ही रोज कहीं-न-कहीं व्यवस्था हो जाया करती थी। शाम को उन्हें यूँ भी जरूरत महसूस न होती। आरंभ से ही व्रतों के कारण और फिर मामाजी के चौके के रूटीन ने उन्हें एक टाइम भोजन का आदी-सा बना दिया है। जेल-जीवन में भी वे इसी नियम का पालन करते रहे और बाद के दिनों में तो जब जहाँ परसादी मिल गई भंडारे वगैरह में, अनिच्छित भाव से पा ली। जैसे- वाहन में ईंधन वैसे ही पेट में दो रोटी! फिर चल उठे खटर-पटर। इसमें स्वाद, इच्छा और लालसा का क्या काम! उन्हें तो खयाल भी न रहता कि अमुक समय भोजन का होता है!

इधर माताजी वगैरह आहार लेकर अपने कमरे में लौट आई थीं। दोनों माताजी की वेष्टन चौकी अगल-बगल में थी। आसपास शास्त्रों का ढेर लगा था। ब्रह्मचारी लोग उनके ऊपर कपड़े का पंखा झल रहे थे। कुछ श्रावकगण आकर प्रणाम करके बैठ गये थे। आनंद जब तक वहाँ आए, एकांत न बचा था। अर्थात् माताजी बिजी हो गई थीं।...

आनंद एक कोने में दुबककर बैठ गये, गोया।

उनके सामने चौकी पर धरे शास्त्रों के उस पार बड़ी माताजी की उम्र 60-70 बरस की थी और छोटी की 28-30 की।

छोटी पर जो ब्रह्मचारी पंखा झल रहा था, वह भी 30-32 का होगा! जबकि बड़ी पर एक छोटी उम्र की ब्रह्मचारिणी पंखा झल रही थी।

सेठनुमा श्रावक पूछ रहा था, ‘उपाय बताइये माताजी, उपाय! बड़े कष्टों में घिर गया हूँ।’

शांतभाव से निवारण करें!’ बड़ी माताजी बोलीं, ‘किस तरह के दुःख हैं, कहें!’

‘आप तो देख के आई हैं,’ सेठ बोला, ‘घर में ही जिनालय है. आगे बाड़े पर पंद्रह-बीस दुकानें हैं। सड़क ऊँची हो गई है, सो नालियाँ रुक जाने से, गटर के ओवरफिल से पानी भर जाता है दुकानों में, घर में, मंदिर में। बरसात में तो बाढ़-सी आ जाती है। तीन मंजिला है, नहीं तो तुड़वाकर ऊँचा उठवा देते।’

उसके चेहरे पर परेशानी के बादल हैं, जिन्हें अपनी हथेली दिखाकर तिरोहित कर कहती हैं माताजी, ‘आस-पड़ोस में बात करके सब लोग मिल के ठीक कर लो।’

‘कुछ ठीक नहीं होता,’ वह अधीर है, ‘बहुत किया कोशिश कमेटी के कान पर जूँ नहीं रेंगता धंधे में भी मंदी है। सरकार गिर गई, सो एकदम शेयर लुढ़क गया। कंगाली नजर आती है अब तो’

‘अच्छा-शांति विधान पाठ करालो।’ माताजी ने उपाय बताया, ‘घर में ही हो जायेगा। 26 दिन चलेगा। साधारण में करालो।’

सेठ माथा टेक कर चला गया।

पंखा झलते ब्रह्मचारी ने आनंद को इशारे से बुलाया, कहा, ‘आइये, आगे आइये-आप कहिये!’

आनंद कोने से निकलकर बड़ी माताजी की चौकी के पास आ गये। छोटी ने उन्हें एक नजर देखा, फिर अपने आगे बैठे श्रावकों में व्यस्त हो गईं।

आनंद ने विनम्र स्वर में कहा, ‘यती धर्म पालना चाहता हूँ। दीक्षा लेना चाहता हूँ।’

माताजी बोलीं, ‘दीक्षा तो आचार्य श्री देंगे। पहले प्रतिमाओं की धारणा तो करो!’

आनंद ने सोचा कि संसार छोड़ने का अभ्यास करना ही तो प्रतिमाओं के पालन में आता होगा! और छोटे-छोटे नियम पालना जिससे कि हिंसा आदि न हो, इतना तो वे सहज ही कर लेंगे। मुख्यतः तो उन्हें दीक्षा लेकर आत्मकल्याण का उपाय करना है। असली मुनिधर्म वही है। वे जल्दी से उस राह के राही बन जाना चाहते थे। पर कोई उन्हें अपने पास तक नहीं फटकने दे रहा! उनके चेहरे पर एक बेबसी घिर आई।

माताजी के ऊपर पंखा झलती युवा ब्रह्मचारिणी ने उन्हें गौर से देखा, आनंद के माथे पर पसीने की नन्हीं बूंदें झिलमिला रही थीं।

माताजी ग्रंथ पलटने लगीं।

आनंद ने पूछा, ‘फिर मेरी शुरूआत कहाँ से होगी!’

माताजी बोलीं, ‘जैनाश्रमाश्च। अर्थात् जैन में चार आश्रम हैं-ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ और भिक्षु। ब्रह्मचारिणः पंचविधाः अर्थात् ब्रह्मचारी पाँच प्रकार के होते हैं-उपनयन, अवलंबन, अदीक्षा, गूढ़ तथा नैष्ठिक। यज्ञोपवीत धारण करके विद्याध्ययन करने वाले उपनयन ब्रह्मचारी हैं। क्षुल्लक रूप में समस्त शास्त्रों का अध्ययन करने वाले अवलंब ब्रह्मचारी हैं। व्रत चिह्न-जनेऊ आदि न धारण करके समस्त शास्त्र पढ़कर गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने वाले अदीक्षा ब्रह्मचारी हैं। और गूढ़ ब्रह्मचारी वे हैं जो गुरु के पास रह कर शास्त्रभ्यास, संयमधारण उपरांत भी राजभय या परिवार की प्रेरणा से या परिग्रह सहन न कर पाने के कारण संयम भ्रष्ट होकर बाद में गृहस्थ हो जाते हैं। तथा व्रत के चिह्न चोटी, जनेऊ, करधनी, श्वेत वस्त्र धारण करके ब्रह्मचर्य व्रत लेकर रहने वाले नेष्ठिक ब्रह्मचारी होते हैं।’

माताजी चुप हो गईं।

आनंद उलझ गये थे। पंखा झलती ब्रह्मचारिणी और माताजी दोनों की यूनिफार्म एक जैसी थी! पर यह मूर्ख प्रश्न उन्होंने अपने तक ही रखा। और पूछा, ‘प्रतिमाएँ क्या हैं? कितनी हैं?’

माताजी ने कहा, ‘एकादश निलया। चारित्र धारक गृहस्थ के 11 निलय यानी श्रेणी अथवा प्रतिमाएँ हैं। इन्हें क्रम से दर्शन, व्रत, सामायिक, प्रोषध, सचित्त विरत, रात्रि भुक्त त्याग, ब्रह्मचर्य, आरंभ त्याग, परिग्रह त्याग, अनुमति त्याग, और उद्दिष्ट त्याग कहा गया है।’

तब आनंद ने अति विनम्र होकर कहा, ‘फिर मेरा कर्त्तव्य क्या है?’

माताजी बोलीं, ‘पर्यक में बैठकर अर्थात् दोनों पग विपरीत जंघाओं पर धर कर पालथी मार कर बैठें और ध्यान धरें। ध्यान अपने भीतर देखने की पद्धति है। आत्मा निर्मल जल का सागर प्रतीक है, अत्यंत शीतल और मीठा। इसमें मन को डुबाना, मंत्र-पाठ करना, गुण-विचार करना ही ध्यान धरना है।’

‘कौन-सा मंत्र?’ आनंद ने एक सरल बालक की भाँति पूछा, ‘उसका नियम क्या है?’

माताजी ने स्नेह से कहा, ‘¬ अरहंत, सिद्ध, अरहंत सिद्ध, सोऽहम, ॐ ह्रीं अर्हं, णमो अरहंताणं, णमो सिद्धाणं आदि मंत्रों में से किसी एक मंत्र का जाप पंद्रह-बीस मिनट तक उदासीन भाव से करें। अन्य विचार को झटक दें। तब सुख का, प्रीति का अनुभव होगा!’

पर आनंद अचानक अटक गये थे कि आत्मा तो अमूर्त है! उसकी स्थापना, जैसे- समुद्र आदि किसी वस्तु में करना कैसे संभव होगा। फिर ध्यान कहाँ टिके गा? वे बोले, ‘क्या आत्मा समुद्र है?’

माताजी ने मधुर स्मित से उन्हें देखा, फिर मधुरता से बोलीं, ‘आत्मा को समुद्र-रूप देना और उसमें ध्यान धरना माने एक चित्र खींचना। जैसे, चित्र खींचने का अभ्यास चार बातों से होता है, यथा-चित्र का नक्शा देखना, खींचना (सीखना), चित्र-विधा की पुस्तकों का अध्ययन, कागज-पेंसिल लेकर चित्र खींचने का अभ्यास।

ऐसे ही आत्म-ध्यान हेतु आत्म-ध्यान में लीन किसी आदर्श मूर्ति को देखना व उसे देखते आत्मा के गुणों का विचार करना व गुणसूचक पाठ को पढ़ना, आत्म-ध्यानी गुरु से समझना, आत्मवर्धक शास्त्रों को पढ़ना और ध्यान का अभ्यास एकांत में बैठकर करना।’

फिर वे प्रत्यक्षतः मुस्करा कर बोलीं, ‘ध्यान का अभ्यास बढ़ जाने पर आत्मा जल में नहीं दिखता, वह तो स्वयं ध्यान में आ जावेगा। उसका कोई आकार-प्रकार, रंग, गंध, शब्द तो है नहीं। वह तो अनुभूति जन्य है। जिसके एहसास से ही अपूर्व आनंद की प्राप्ति हो उठती है।’

‘पर यह तो बताएँ’, आनंद के मन में एक शंका उठी, ‘उस वैराग्यमयी मूर्ति को आभूषणों से अलंकृत क्यों किया जाता है? मुकुटादि क्यों पहना देते हैं?’

‘वे लोग भक्तिवश ऐसा करते हैं!’

‘पर इससे वीतरागता में अंतर पड़ जाता है। कहीं-कहीं मूर्तियों पर वस्त्र का चिह्न भी मिलता है।’ आनंद ने कहा।

पर माताजी अविचलित मुद्रा में बोलीं, ‘वस्त्रदि रहित मूर्ति बनाये जाने का कारण यह धारणा है कि वस्त्र-त्याग बिना साधु-पद नहीं हो सकता। जबकि वस्त्रदि का चिह्न बनाने वालों की धारणा है कि वस्त्रदि साधु-पद में बाधक नहीं हैं।’

‘जितने मत उतनी बातें,’ बगल की चौकी पर विराजमान छोटी माताजी ने हस्तक्षेप किया, ‘पर मूल बात यह है कि उन्नति आत्म-ध्यान से होती है, ध्यानमय मूर्ति तो एक सहायक साधनभर है।’

इस पर, उन पर पंखा झलता श्वेत धोती-बंडीधारी युवा ब्रह्मचारी बोला, ‘तुम तो बस इतना जान लो कि आत्म-ध्यान, आत्मज्ञानी गुरु से ही समझा जावे। कहा भी तो गया है, पानी पीजे छान के , गुरु कीजिये जान के !

यों आत्म-ध्यान का उपाय तो जैनशास्त्रों में लिखा है, पर बहुत गूढ़ है। कि बिना गुरु-कृपा के वह रहस्य कोई पा नहीं सकता।’ वह अत्यंत आत्ममुग्ध होकर बोल रहा था। पर आनंद का ध्यान उसके चारित्र के इस अंतर्विरोध पर गया नहीं। उन्हें तो उसकी श्रद्धा अनुकरणीय लगी। उसकी सीख उनके हृदय में जमकर बैठ गई थी। हाँ-आनंद! किताबें हों और प्रोफेसर न हो! तो पार पाओगे? मगर एक बार किताबें न हों और प्रोफेसर हुआ तो उबर जाओगे।...

वे विचार मग्न उन मूर्तियों को देखने लगे।

अब वहाँ दूसरे श्रावक न थे। हॉल में मधुर शांति का सुखमय एहसास हो रहा था।

वे कुछ और पूछना चाहते होंगे! उनके ओठ और आँखें जिज्ञासामय हुए होंगे। माताजी (दोनों) शास्त्र पढ़ उठी थीं। अचानक छोटी उम्र की ब्रह्मचारिणी ने अपनी पतली-सी आवाज में कहा, ‘शास्त्र ध्यान से पढ़ने पर मन के विकार शांत हो जाते हैं, आत्मा का स्वरूप और भी साफ झलक उठता है। ज्ञान की दृढ़ता होती है। इस दृष्टि से इष्टोपदेश, आत्मधर्म, समाधिशतक आदि प्रमुख ग्रंथ हैं।’

‘आत्म-रसपान सच्ची सुख-शांति का उपाय है,’ अब बात छोटे ब्रह्मचारी ने लपक ली थी, ‘जिसका मुख्य उपाय आत्मसाधना है। इस साधना हेतु अन्य तीन साधन हैं-स्तुति, 35 अक्षरी महामंत्र और शास्त्र!’ ‘आपने दीक्षा ले ली!’ आनंद ने राह खोजी।

वह पंखा झलना छोड़कर उनके बगल में आ बैठा और निरभिमान बोला, ‘नहीं! अभी तो ब्रह्मचर्य व्रत पाल रहा हूँ, बहुत कठिन है मुनि धर्म देखिये, क्या होता है!’

‘पर, अपना कुछ परिचय तो दें?’ जिज्ञासु आनंद ने थाह लेना चाही।

‘नहीं-नहीं, मेरा क्या परिचय’ नकार में उसकी समूची देह हिली, ‘माताजी लोग का परिचय लीजिये परम् पूज्य आर्यिका रत्न विदुषी श्री 105 चंद्रमती माताजी का, ज्ञानमती माताजी का।’ उसने अनंत श्रद्धा भाव से कहा, ‘बड़ी माताजी 3 साल ब्रह्मचारिणी रहीं, फिर आर्यिका दीक्षा ली। गुरुजी के सानिंध्य में शास्त्र-अध्ययन किया सवाईमाधोपुर में, नागौर में। इनके गुरु आचार्य कल्पमतिसागर महाराज थे-टोड़ा-रायसिंह वाले! उनकी समाधि के बाद ही माताजी ने आर्यिका संघ बनाया और जागरण के लिए निकलीं।’

‘जागरण कैसा माताजी?’ आनंद को एक नया प्रश्न हाथ लग गया था।

माताजी शास्त्र बंदकर आनंद की ओर उन्मुख हुईं। और मधुर स्वर में बोलीं, ‘आज 13 चारित्र पालकर तो कोई भी साधु हो सकता है। विरक्त हो सकता है।

क्योंकि- उसका मुख्य ध्येय आत्मसाधना है,’ कहकर वे थमीं, फिर लंबी उसांस लेकर बोलीं, ‘किंतु आज ऐसे साधु की जरूरत है जो विरक्त, वीर, धैर्यवान, विद्वान्, परिश्रमी, दुःख सहने वाला, मान-अपमान को समान समझने वाला, निर्भीक, धनवानों का मुँह न ताकने वाला, कष्ट पड़ने पर परोपकार न त्यागने वाला हो! और सर्वत्र जाकर आत्मकल्याण का व सुख शांति का मार्ग बता सके ।

दुनिया में बढ़ती हिंसा और अधर्म से जैन समाज भी अछूता नहीं रहा। आज यहाँ भी बाल-विवाह, वृद्ध-विवाह, मृत्युभोज, अनमेल-विवाह, कन्या-विक्रय, पुत्र-विक्रय, आतिशबाजी, वेश्यानृत्य आम बात है। वे सब के सब व्यापारी हो गये हैं! अपना झंडा फहराने बड़े-बड़े मंदिर, कीर्तिस्तंभ बनावा देंगे-शिक्षा पर खर्च नहीं करेंगे। औषधालय, पशुशाला, गुरुकुल में उनकी क्या रुचि? बड़ी-बड़ी लाइब्रेरियाँ खुलवा देंगे, पढ़ेंगे नहीं।

उन्हें जागृत करना है! जगाना है समाज को, तो यहाँ तीर्थ में, नसिया में, धर्मशाला में बैठकर क्या होगा? भटकना पड़ेगा दर-दर! अगर यह व्रत लिया है तो निभाना भी पड़ेगा!’

कहकर वे ऐसे चुप हो गईं मानो उनका झुर्रियोंदार चेहरा आनंद से लगातार कुछ पूछ रहा हो! कह रहा हो|

तब आनंद को लगा कि उन्होंने जो कुछ कहा, सो हकीकत नहीं है और हकीकत जो है सो कही नहीं उन्होंने। वे मंदिर नंबर 58 के क्षुल्लक साधु की तरह नहीं हैं।

आनंद सोचते रहे निरंतर अपने बारे में भी! कि आखिर वे चाहते क्या हैं? दुनिया छोड़ देना कोई बहुत बड़ी बात तो नहीं है! छोड़कर भी ऐसा क्या पाजायेंगे? किसके लिये लालायित हैं! कहीं कुछ है क्या, सचमुच!

आज वे भावुक नहीं थे।

न उद्विग्न।

न अंध श्रद्धालु।

न मुक्तिकामी।

आज जैसे कुछ भी नहीं बचा था उनके पास। उन्हें जीवन का कोई मतलब ही समझ नहीं आ रहा था।...

क्योंकि साधुओं का भी एक लक्ष्य है! तो फिर वैराग्य क्या है? और कैसे है, अगर यहाँ भी एक संसार है, तो! भले इस संसार की परिभाषा दूसरी है। घटक कुछ अनूठे हैं। कार्यशैली और उद्देश्य जुदा हैं मगर है तो एक रूटीन! हैं तो सीढ़ियाँ, श्रेणियाँ ही।...

यह जो छोटे-बड़े मुनियों के , आचार्यों के , आर्यिकाओं के संघ हैं-ये घर-परिवार से बहुत अर्थों में भिन्न नहीं हैं. इनमें श्रद्धाजनित अपनत्व यानी मोह नहीं है क्या?

क्या करें आनंद, अब!

उठ गये चुपके से प्रणाम करके...।

(क्रमशः)