Geeta se Shree Krushn ke 555 Jivan Sutra - 132 books and stories free download online pdf in Hindi

गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 132


जीवन सूत्र 351 बुद्धि को ईश्वर में स्थिर करना आवश्यक

गीता में भगवान श्री कृष्ण ने वीर अर्जुन से कहा है: -

न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः।

न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते।।5/14।।

इसका अर्थ है,ईश्वर मनुष्यों के न कर्तापनकी,न कर्मोंकी और न कर्मफल के संयोग की रचना करते हैं; किन्तु मनुष्य द्वारा स्वभाव(प्रकृति)से ही आचरण किया जा रहा है।

इस श्लोक में भगवान श्री कृष्ण उन कारणों पर प्रकाश डाल रहे हैं,जिनके वशीभूत होकर मनुष्य अपने कार्यों को करता है।ईश्वर स्वयं शक्ति संपन्न और समर्थ होने के बाद भी संसार संचालन की प्राकृतिक व्यवस्था में हस्तक्षेप नहीं करना चाहते हैं।भगवान अपने आदेश से मनुष्य को बाध्य नहीं करते हैं कि वह विनिर्दिष्ट कार्य करे या कुछ कार्यों को मत करे। गीता में कर्तापन के त्याग और सांसारिकता तथा कर्मों के फलों में आसक्ति को त्यागने की बार-बार चर्चा होती है। अगर हम कार्यों के कर्ता नहीं हैं तो यह भी सच नहीं है कि ईश्वर उन कार्यों के कर्ता हैं और हम केवल माध्यम हैं। ऐसा तर्क लगाकर तो मनुष्य अपने हर अच्छे- बुरे कार्य के लिए भगवान को श्रेय दे सकते हैं या दोषी ठहरा सकते हैं।ईश्वर तत्व को हम सदप्रेरणा और सूझ के लिए उत्तरदाई मान सकते हैं।हम किसी कार्य को उनका प्रतिनिधि समझकर अर्थात अकर्तापन छोड़कर संपादित कर सकते हैं,लेकिन हम इन अच्छे बुरे- कार्यों के परिणाम के लिए ईश्वर को कारण के रूप में नहीं थोप सकते हैं।

उत्तरदायित्व मनुष्य का है कि वह विवेक से अच्छे कार्यों को संपन्न करे।उसके सामने जो परिस्थितियां बन रही हैं,उनका मनुष्य के द्वारा अपने स्वभाव और प्रकृतिजन्य संस्कारों के माध्यम से ही सामना होता है।अपने पराक्रम और दृढ़ संकल्प शक्ति के द्वारा सतत अच्छे कार्य करते हुए मनुष्य अपने प्रारब्ध(पूर्व निश्चित भाग्य) को एक बड़ी सीमा तक काटने की भी क्षमता रखता है।वर्तमान मानव जन्म मनुष्य के अच्छे कार्यों का ही परिणाम है और इस दुर्लभ मानव देह में मनुष्य को हमेशा अच्छे कार्य करते हुए उस परमसत्ता के अभिमुख दृष्टिकोण लेकर चलना चाहिए।इनसे हमारा स्वत: ही वह संस्कार भी होता जाएगा जो अब हमारे आने वाले कार्यों के लिए हमारी मानसिकता तैयार करते हैं।भाग्य पर निर्भर न रहते हुए जीवन पथ पर आगे बढ़ने का यही प्रबल कर्मवाद है।

भगवान श्री कृष्ण ने गीता में अर्जुन से कहा है:-

तबुद्धयस्तदात्मानस्तन्निष्ठास्तत्परायणाः ।

गच्छन्त्यपुनरावृत्तिं ज्ञाननिषूतकल्मषाः।।5/17।।

इसका अर्थ है,जिनका मन ईश्वर में स्थिर है, जिनकी बुद्धि ईश्वर में स्थित है, जिनका मन और बुद्धि से युक्त अंतःकरण सच्चिदानन्दघन परमात्मा में ही निरन्तर अनन्यभाव से स्थित है, ऐसे तत्परायण पुरुष ज्ञान के द्वारा पाप रहित होकर परम गतिको प्राप्त होते हैं और वे जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्त(अपुनरावृति को प्राप्त) हो जाते हैं।


जीवन सूत्र 352 संचित कर्मों के लिखे को सत कार्यों से भरें


इस श्लोक में भगवान श्री कृष्ण ने मानव के जन्म और मृत्यु के चक्र से पूर्णतया मुक्त होने का उपाय बताया है। जब मनुष्य रूप में वर्तमान देह को जीवन अवधि के बाद पूर्णता प्राप्त होती है ,तो वह संचित कर्मों के लेखे-जोखे के अनुसार आगे की यात्रा करता है।आत्मा के साथ सूक्ष्म शरीर की यह यात्रा या तो पुनर्जन्म में पहुंचती है है या फिर कर्मों के अनुसार उसे ईश्वर के श्री चरणों में स्थान मिल जाता है।


जीवन सूत्र 353 इसी जन्म में मिल सकती है मोक्ष की पात्रता

अगर वह अपने वर्तमान जन्म के कार्यों से ही तत्वज्ञान को प्राप्त कर ले तो फिर आगे बार-बार जन्म लेने के चक्र से छुटकारा मिल जाता है।तत्वज्ञान की प्राप्ति के उपाय के रूप में अपने विभिन्न कर्मों के संचालन के साथ - साथ अपनी बुद्धि और अपने मन को ईश्वर में स्थिर करने की आवश्यकता है।धीरे-धीरे अभ्यास से और धीरे-धीरे ईश्वर को हर क्षण अनुभूत करने के आनंद की अनुभूति के साथ मनुष्य का जीवन सहज संचालित होने लगता है।


जीवन सूत्र 354 इतना ऊपर उठे कि जीवन सहज संचालित होता रहे


ठीक उसी तरह जिस तरह एक रॉकेट प्रक्षेपित होने के बाद जब परिभ्रमण कक्ष में पहुंच जाता है तो वह गुरुत्वाकर्षण के संतुलन के सिद्धांत और अपनी आंतरिक ऊर्जा के साथ सहज ही परिक्रमा करने लगता है।


जीवन सूत्र 355 धीरे धीरे करते रहें आगे बढ़ने का प्रयास


अब ज्ञान की प्राप्ति और मन तथा बुद्धि को ईश्वर में स्थित करना ही इतना आसान नहीं है।यह ईश्वर के प्रति अनन्य भक्ति के साथ-साथ अपने कर्मों में भी एक भक्त और कर्मयोगी के कर्मठ जीवन जीने पर निर्भर है। किसी पर्वत शिखर पर एक ही छलांग में पहुंचना तो मुश्किल है,लेकिन धीरे-धीरे ऊंचाई की ओर कदम तो बढ़ाए ही जा सकते हैं।

(मानव सभ्यता का इतिहास सृष्टि के उद्भव से ही प्रारंभ होता है,भले ही शुरू में उसे लिपिबद्ध ना किया गया हो।महर्षि वेदव्यास रचित श्रीमद्भागवत,महाभारत आदि अनेक ग्रंथों तथा अन्य लेखकों के उपलब्ध ग्रंथ उच्च कोटि का साहित्यग्रंथ होने के साथ-साथ भारत के इतिहास की प्रारंभिक घटनाओं को समझने में भी सहायक हैं।श्रीमद्भागवतगीता भगवान श्री कृष्ण द्वारा वीर अर्जुन को महाभारत के युद्ध के पूर्व कुरुक्षेत्र के मैदान में दी गई वह अद्भुत दृष्टि है, जिसने जीवन पथ पर अर्जुन के मन में उठने वाले प्रश्नों और शंकाओं का स्थाई निवारण कर दिया।इस स्तंभ में कथा,संवाद,आलेख आदि विधियों से श्रीमद्भागवत गीता के उन्हीं श्लोकों व उनके उपलब्ध अर्थों को मार्गदर्शन व प्रेरणा के रूप में लिया गया है।भगवान श्री कृष्ण की प्रेरक वाणी किसी भी व्याख्या और विवेचना से परे स्वयंसिद्ध और स्वत: स्पष्ट है। श्री कृष्ण की वाणी केवल युद्ध क्षेत्र में ही नहीं बल्कि आज के समय में भी मनुष्यों के सम्मुख उठने वाले विभिन्न प्रश्नों, जिज्ञासाओं, दुविधाओं और भ्रमों का निराकरण करने में सक्षम है।यह धारावाहिक उनकी प्रेरक वाणी से वर्तमान समय में जीवन सूत्र ग्रहण करने और सीखने का एक भावपूर्ण लेखकीय प्रयत्नमात्र है,जो सुधि पाठकों के समक्ष प्रस्तुत है।)

(अपने आराध्य श्री कृष्ण से संबंधित द्वापरयुगीन घटनाओं व श्रीमद्भागवत गीता के श्लोकों व उनके उपलब्ध अर्थों व संबंधित दार्शनिक मतों पर लेखक की कल्पना और भक्तिभावों से परिपूर्ण कथात्मक प्रस्तुति)



डॉ. योगेंद्र कुमार पांडेय