Kataasraj.. The Silent Witness - 103 books and stories free download online pdf in Hindi

कटासराज... द साइलेंट विटनेस - 103

भाग 103

कुछ मिनट पुरवा सिर झुकाए बैठी रही और महेश खामोश सामने रक्खी कुर्सी पर बैठा पुरवा के चेहरे के अप्रतिम सौंदर्य को अपलक निहारता रहा।

तभी पुरवा के अपने सिर से जरा से सरके पल्ले को ठीक करने के लिए हाथ उठाया तो चूड़ियों की खनखन से महेश वर्तमान में आया और गला साफ करते हुए बात चीत शुरू करने की कोशिश करते हुए बोला,

"तुम्हारा नाम क्या है..?"

पुरवा धीरे से बोली,

"पुरवा…"

महेश बोला,

"अरे..! वाह.. ये तो बड़ा सुंदर नाम है बिलकुल तुम्हारी ही तरह..। पर मैं तुम्हें पुरु कह कर बुलाऊंगा। मैं तुम्हें पुरु कह कर बुलाऊं…! ठीक रहेगा…?"

पुरु नाम सुनते ही उसका मन शरीर सब सिहर उठा। पुरानी याद जिसे उसने अपने दिल के किसी कोने में बड़े मुश्किल से दफन किया था। काले नाग की तरह फन फैला कर खड़ा हो गया। ये कैसा संयोग ईश्वर ने उसके भाग्य में लिख दिया है..! वर्तमान अतीत की समानता आखिर क्यों करने को आतुर है..! वो कैसे बर्दाश्त कर पाएगी आखिर ये संबोधन। हर बार इस नाम के पुकार से यादों का पुराना नही फड़फड़ाएगा…! वो किसी तरह खुद को संयत करके इस नाम के जरिए पुराने यादों की कोठरी से झांकने वाले छेद को बंद करने की पुरजोर कोशिश करते हुए दबे स्वर में बोली,

"नही… मेरा यही नाम ठीक है। मुझे तो पुरवा ही कहे ज्यादा ठीक है।"

महेश अब कुरसी सरका कर पुरवा के बिलकुल सामने उल्टी करके रख लिया और सिर झुका कर उसकी आंखों में झांकने की कोशिश करते हुए बोला,

"अरे…! ऐसा कैसे होगा..! पुकारना मुझे है। मेहनत तो मेरी जुबान को करनी होगी ना। तुमको क्या है..? मैं भाई इतना लंबा नाम पु..र..वा…नही बुला सकता..! (अपने दोनो हाथ खड़े करते हुए महेश बोला) मैं तो तुम्हें पुरु ही कह कर बुलाऊंगा।"

शरारती अंदाज में महेश ने कहा।

बेबस पुरवा खामोशी से महेश के फैसले को सुनती रही।

इसके बाद महेश ने इधर उधर की बातों करके पुरवा से बात चीत का सिलसिला बढ़ाता रहा।

कुछ देर ही बीता होगा कि दरवाजे पर कुंडी खड़की और फिर गुलाब ने कमरे में प्रवेश किया। महेश को पुरवा के करीब बैठ कर बातें करते देख उसे अच्छा लगा। जो मन में संदेह था सुबह महेश को नीचे सोते देख कर वो दूर हो गया। गुलाब ने भगवान का शुक्रिया अदा किया कि चलो सब ठीक है। वरना पहले शादी तय होने की बात सुन कर जिस तरह वो भड़का था, उससे तो अंदर ही अंदर जी में खटका लगा हुआ था कि कहीं अगर महेश ने पुरवा को स्वीकार नहीं किया तो फिर वो क्या करेगी..? पर अब इस तरह इकलौते बेटे के चेहरे पर मुस्कान देख कर सारा डर छू मंतर हो गया। वो महेश को मीठी झिड़की देते हुए बोली,

"समय का कुछ पता है तुझे बाबू…! सूरज सर पर चढ़ आया है और तू अभी सो कर उठा है। दतुअन भी नही किया है। कही खर सेवर हो गया तो…! अब ये कही चली नही जायेगी..! हमेशा यहीं तेरे साथ … तेरे पास रहेगी। करता रह सारी जिंदगी बात। समय से मुंह हाथ धो कर कुछ खा पी तो ले। एक तो देर से जागा और उस पर भी बैठ कर बाते करने लगा। (हाथ पकड़ कर उठाते हुए बोली) जा… जल्दी मुंह धो कर आ। आज पुरवा ने ही खाना बनाया है। तेरी मनपसंद खीर भी है। जा तू मुंह धो कर आ। मैं तेरे लिए निकाल कर लाती हूं।"

मां के इतना कहने पर महेश ने एक नजर पुरवा पर डाली उनके इस तरह की कहने से झेंपता हुआ बाहर चला गया।

गुलाब ने पुरवा के सिर पर प्यार से हाथ फेरा और बोली,

"तुझे भी तो भूख लगी होगी.. मैं अभी तेरे लिए और बाबू के लिए खीर ले कर आती हूं।"

गुलाब रसोई में गई और दो कटोरी में खीर निकाला। फिर जैसे ही महेश मुंह धो कर आया, उसे दोनो कटोरियां पकड़ा दी। बोली जा तू भी खा ले और बहू को भी दे दे।

गुलाब की रिश्ते की जो दो चार महिलाएं रुकी हुई थी। गुलाब का बहू बेटे पर इतना दरियादिल होना इतनी छूट देना नही भाया।

आपस में खुसफुसाते हुए बोली,

"भला ऐसा भी कोई करता है क्या..? अभी दो दिन पहले ही बहू उतरी है और भरे दिन दोपहरी में बेटे को बहू के लिए खीर दे कर खिलाने भेज रही है। हमारे सब के यहां तो दिन में सबके सामने बेटा कमरे में जाना तो दूर बहू से बोलता भी नही है और बहू भी अचानक पति से सामना होने पर घूंघट निकाल लेती है।"

आपस में मंतृणा करने के बाद एक उम्रदराज दराज महिला ने गुलाब को आवाज दे कर बुलाया और चेताते हुए बोली,

"क्या री.. जवाहर बहू..! नई नई सास बन कर बौरा गई है क्या..? दिन दहाड़े बेटे को बहू को खीर खिलाने भेज रही है। इतना छूट मत दे दे कि बहू बेटे को ले कर उड़ जाए। तेरी कोई पकड़ ही न रहे उन पर। लगाम कस कर रख बेटे की। ज्यादा बहू के माया जाल में ना फसें। अगर बेटा निकल गया हाथ से न तो बुढ़ापा रोते ही कटेगा।"

उनकी चेतावनी सुन कर गुलाब हंसते हुए बोली,

"अरे.. बुआ जी… आप चिंता मत करिए मेरे बुढ़ापे की। और ये मैं नई नई सास नही बनी हूं। बल्कि नई नई एक बेटी की मां बनी हूं। मेरे साथ कितने दिन बांध कर रहेगा बाबू। उसे जिसके साथ जिंदगी भर साथ रहना है उसे जितनी जल्दी अच्छे से समझ बूझ ले उतना ही अच्छा है। मैं पुरानी बातों को नही मानती कि दिन में अपनी पत्नी से बोले ना, उसकी ओर देखे ना। मेरी तो पूरी कोशिश ये है बुआ कि ये दोनों जल्दी से जल्दी एक दूसरे को समझ लें। उतनी जल्दी मैं निश्चिंत हो जाऊं। मेरा काम इनको एक करना है ना कि इनके बीच में रोड़ा बनाना।"

बुआ गुलाब की बातें सुन कर उसका मुंह देखती ही रह गई। नाराज ही कर वहां से उठ कर बाहर जाने लगीं। बाहर जाते जाते कहती गई,

"मुझे क्या करना है..! तेरी बहू.., तेरा बेटा। चाहे बेटी बना या जो जी चाहे मुझे क्या..! वो मैं तुझे अपना समझती थी इस लिए चेता रही थी। कर जो तेरा मन करे। जब भुगतेगी तब कहेगी कि बुआ का कहा मान लिया होता तो अच्छा था।"

बुआ नाराज हो कर बाहर चली गई।