Kataasraj.. The Silent Witness - 104 books and stories free download online pdf in Hindi

कटासराज... द साइलेंट विटनेस - 104

भाग 104

महेश खीर की कटोरी ले कर पुरवा के पास कमरे में गया और उसकी कटोरी को उसके सामने रख कर खीर खाते हुए बोला,

"तुमने बनाई है..! बहुत ही स्वादिष्ट खीर है। लो तुम भी खाओ। मां को चिंता थी की उनकी बहू भूखी होगी। इसलिए मेरे हाथों भिजवाया है। लो जल्दी से खा लो वरना मां नाराज हो जायेगी।"

खीर खत्म कर महेश बोला,

"अच्छा पुरु..! अब मैं बाहर जा कर पढ़ाई करता हूं। तुम भी आराम करो।"

पुरवा को हर पल अपने घर और बाऊ जी की याद आती थी। खास कर ये चिंता लगी रहती कि पता नही समय से कोई दवा खिला रहा है नही उन्हें।

उसकी चिंता का समाधान हो गया जब चौथे दिन उसके मायके से चौथी ले कर सब लोग आए।

चंदू नंदू को अपने सीने से लगा कर पुरवा की आंखे बरस पड़ी। फिर पूछा कि वो बाऊ जी की देख भाल ठीक से करते हैं या नहीं। उन्हें समय से दवा खिलाते हैं या नही। अगर समय से दवा नही खिलाई गई तो बाऊ जी ठीक नही होंगे।

चंदू नंदू ने अपनी दिदीया को आश्वस्त किया कि वो बाऊ जी का खूब अच्छे से खयाल रखते है। समय से उन्हें दवा खिलाते हैं बिना भूले।

पुरवा को थोड़ी चिंता काम हुई कि चलो उसके नही रहने से बाऊ जी की सेहत पर कोई बुरा असर नहीं पड़ रहा है। उनकी देख भाल दोनो भाई ठीक से कर रहे हैं।

तपती हुई गरमी में पानी के दो घूंट जैसा था अपने मायके वालों से मिलना। जैसे प्यास बुझती नही बस गला भींग भर जाता है। वैसे ही बस सब सकुशल हैं यही पता लगा मिल कर। जी भर ना बातें कर पाई ना ही देख पाई। पर मन की शांति के लिए इतना ही बहुत था।

मामाओं ने विदाई की बात कही पर गुलाब ने साफ मना कर दिया। बोली,

"अब इसकी मां मैं हूं। ये जहां जाना चाहेगी, मैं साथ ले कर जाऊंगी, साथ ले कर आऊंगी। जब इसका मन करेगा साथ ले कर जाऊंगी और सब से मिलवा जुलवा कर कुछ दिन रुक कर फिर साथ ले कर वापस आ जाऊंगी।"

पुरवा के घर वालों को तसल्ली हुई कि चलो बेटी से एक मां भगवान ने छीन ली तो दूसरी मां दे कर हिसाब पूरा कर दिया। वो अच्छे लोगों के बीच आई है ये खुशी की बात है। वो चार पांच घंटे रुक कर वापस सिंधौली लौट गए।

पुरवा धीरे धीरे इस नए घर में रमने और इस परिवार को अपनाने की कोशिश कर रही थी। जिसमे गुलाब हद से ज्यादा सहयोग कर रही थी।

ना जाने कैसे महेश का बोलना चालना, तरीका, हाव भाव सब कुछ अमन से इतना मेल खाता था। खास कर जब वो पुरु कह कर उसी अंदाज में बुलाता तो उसका दिल धक से कर जाता कि यहां अमन कैसे आ गया…!

छुट्टियां खत्म होते ही महेश वापस पटना लौट गया।

जवाहर जी बेटे का हाव भाव सब ब्याह के बाद से देख रहे थे। जाते वक्त वो अंदर से मजा लेते हुए पर ऊपर से सख्त दिखाते हुए बोले,

"बेटा…! अब जा रहा है तो फाइनल इम्तहान दे कर ही आना। तुझे बड़ी तकलीफ थी ना कि मैने ब्याह के लिए रोक लिया है, तेरी पढ़ाई खराब हो रही है। अब जा मन लगा कर पढ़।"

महेश "जी पिता जी!" कह कर उनके पैर छू कर चला गया।

महेश पिता जी के ताने को समझ रहा था। मन ही मन भुनभुनाते हुए बोला,

"एक तो पहले जबरदस्ती मेरी शादी कर दी। अब जब मैने उनकी बात मान ली तो कह रहे हैं कि घर मत आना। फाइनल इम्तहान दे कर आना। ठीक है .. ठीक है नही आऊंगा। रहें अपनी लाडली बहू के साथ।"

गुलाब ने सुन लिया था उसका ये सब कहना। वो मुस्कुराते हुए बोली,

"क्या हुआ बाबू..! क्यों भुनभुना रहा है..?"

"कुछ नही मां..?"

कह कर टमटम पर बैठ कर महेश अपने कॉलेज के लिए चला गया।

वहां पहुंच कर हर वक्त पुरवा का चेहरा याद आ रहा था। पल्लू के नीचे से बड़ी बड़ी जामुन जैसी आंखों से मासूमियत से निहारना, गुलाब की पंखुड़ी जैसे लबों का धीरे मुस्कुराना। सब कुछ एक एक बात तो याद आ रही थी। क्या करे कैसे पढ़े..?

दो दिन ऐसे बीता..उसे सचमुच ये महसूस हुआ कि उसकी पढ़ाई इस तरह तो खराब हो जायेगी। उसे बहुत आगे जाना है। उसे सिर्फ पटना का सबसे काबिल वकील नही बनना था बल्कि बिहार ही नही उसे देश का नामचीन वकील बनना था। ऐसी व्याकुलता से इतना बड़ा लक्ष्य तो नही हासिल किया जा सकता है। उसके लिए मन पर काबू रख कर जी जान से पढ़ना होगा। उसने अपना जी कड़ा किया और दिमाग में घूमती पुरवा की तस्वीर को सिर झटक कर दूर करने की कोशिश की।

समय लगा पर वो पुरवा की यादों को परे कर फिर से पढ़ाई में जुट गया।

होली आई तो पूरा कॉलेज अपने अपने घर चला गया। पुरवा की पहली होली थी इस लिए उसे परंपरा निभाने सिधौली जाना था। गुलाब उसे ले कर वहां चली गई। जवाहर जी से महेश को खत लिखवा दिया था कि अगर आना चाहे तो वहीं अपने ससुराल में ही होली मनाने आ जाए।

जो एक मौका घर आने का था वो भी चला गया।

महेश ने सोचा उसके लिए अच्छा ही है। घर जाता तो फिर से पुरवा के मोह पाश में जकड़ जाता। इससे अच्छा है कि इम्तहान तक दूर ही रहे।

दस दिन रुक कर गुलाब पुरवा को साथ ले कर वापस लौट आई।

इन दस दिनों में पुरवा ने अशोक की खूब सेवा की। चंदू नंदू समय से पहले बड़े और जिम्मेदार हो गए थे। नंदू होशियार था पढ़ने में। इसलिए वो स्कूल जाता रहा। चंदू का मन उतना पढ़ाई में नही लगता था। इसलिए उस ने स्कूल छोड़ दिया था। अब वो घर पर ही रहता। खेत जानवर और बाऊ जी के काम से अपने छोटे मामा का सहयोग करता। मामी घर की देख भाल खाना पीना देखती थीं। सब कुछ उसके बिना भी सुचारू रूप से हो रहा था। मन को सन्तोष हुआ कि चलो.. उसके बिना भी घर संभाल गया। अब हर वक्त ये चिंता नहीं रहेगी कि बाऊ जी और भाई को परेशानी है उसके बिना।