रीमा 15 दिन नैना के पास माँ के घर पर रही थी।
वो दोनों बहनें एक-दूसरे के और भी करीब आ गई थीं —
लेकिन अब रीमा का मन कह रहा था कि उसे अपने असली घर लौटना चाहिए।
जहाँ से उसकी ज़िंदगी शुरू हुई थी… और जहाँ उसे खुद को फिर से खड़ा करना था।
एक सुकून भरी सुबह —
रीमा ने नैना से विदा ली।
दोनों ने एक-दूसरे को गले लगाया, आँखों में हल्की नमी थी, लेकिन इस बार कोई दर्द नहीं —
सिर्फ़ हिम्मत और उम्मीद थी।
नैना (मुस्कुराते हुए):
"दीदी, अब खुद को कभी कमजोर मत समझना।
और याद रखना — मैं हमेशा तुम्हारे साथ हूँ।"
रीमा (हौले से):
"और तुम भी — अगर कभी कुछ भी लगे, बस मुझे याद कर लेना।
हम बहनें हैं — हमेशा साथ।"
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घर वापसी —
रीमा जब अपने घर पहुँची, तो उसके कदम पहले जैसे भारी नहीं थे।
अब उसके दिल में एक नयी शांति और आत्मविश्वास था।
कमरे के दरवाज़े खोलते हुए उसने लंबी साँस ली और सोचा —
"अब मेरी नयी शुरुआत होगी… मेरे अपने तरीके से।"
रीमा को घर लौटे अब तीन महीने हो चुके थे।
इन तीन महीनों में उसने खुद को बिल्कुल बदल लिया था।
ना कोई लड़का, ना कोई बेवजह की दोस्ती, ना ही कोई फिजूल की मुलाकातें।
रीमा ने खुद से एक वादा किया था —
अब वो अपनी ज़िंदगी को दूसरों के सहारे नहीं, अपने दम पर जिएगी।
हर दिन वो खुद को और मजबूत करती रही।
सुबह योगा करती, किताबें पढ़ती, नए कोर्सेस जॉइन किए।
अपनी सेहत और मन, दोनों को संभालना उसने सीख लिया था।
रीमा (अपने आप से सोचती हुई):
"सच्चा प्यार किसी और से नहीं...
पहले खुद से करना सीखना चाहिए।"
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इन तीन महीनों में —
कई लड़कों ने दोस्ती की कोशिश की।
कई पुराने जानने वाले फिर से मिलने आए।
पर रीमा मुस्कुरा कर सबको दूर से ही नमस्कार करती और अपने रास्ते चल पड़ती।
उसकी आंखों में अब कोई भूख नहीं थी,
बल्कि एक ठहराव, एक आत्म-सम्मान चमकता था।
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एक शाम — छत पर —
रीमा खुले आसमान के नीचे खड़ी थी, हल्की हवा उसके बालों को उड़ा रही थी।
वो मुस्कुराई — एक सच्ची मुस्कान, जिसमें कोई पछतावा नहीं था,
बस सुकून और गर्व था।
महीने तक रीमा ने अपने मन को बड़ी सख्ती से संभाला था।
हर दिन खुद को मजबूत किया था, हर रात अकेलेपन से लड़ती रही थी।
लेकिन... दिल तो आखिर दिल ही होता है।
एक शाम —
थोड़ी ठंडी हवा चल रही थी, मौसम में कुछ अजीब-सी मिठास थी।
रीमा अपनी बालकनी में बैठी थी, जब अचानक उसका फोन बजा।
फोन पर अमन था — एक पुराना जानने वाला, जो रीमा को हमेशा आदर और सच्ची दोस्ती से देखता था।
वो सिर्फ दोस्ती चाहता था — या शायद रीमा को फिर से जीना सिखाना चाहता था।
अमन (फोन पर हँसते हुए):
"रीमा, चलो कहीं घूम आते हैं...
बस यूं ही... पुराने दिनों की तरह।"
रीमा ने कुछ पल सोचा...
उसका मन डगमगाया।
तीन महीने से वो हर इच्छा को दबाती रही थी... पर आज, वो रोक नहीं पाई खुद को।
रीमा (धीमी आवाज में मुस्कुराते हुए):
"ठीक है... मिलते हैं।"
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थोड़ी देर बाद —
रीमा और अमन एक कैफे में बैठे थे।
हँसी, बातें, पुरानी यादें... और बीच-बीच में कुछ पल ऐसे भी जब उनकी आँखें चुपचाप बातें कर रही थीं।
रीमा का दिल एक अजीब गर्माहट से भर गया था।
उसे बहुत वक़्त बाद किसी के सामने अपना असली रूप दिखाने का मन हुआ —
बिना डर, बिना बोझ।
अमन (धीरे से):
"तुम बहुत बदल गई हो रीमा... और भी खूबसूरत हो गई हो।"
रीमा मुस्कुराई —
इस बार शर्माते हुए, लेकिन बिना खुद को रोके।
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रात होते-होते —
जब अमन उसे छोड़ने घर तक आया,
रीमा ने दरवाज़े पर रुक कर उसे देखा…
और पहली बार बिना सोचे — उसने अमन का हाथ पकड़ लिया।
रीमा (धीरे से फुसफुसाते हुए):
"थैंक यू… मुझे फिर से जीने का एहसास दिलाने के लिए।"
अमन ने बस हल्की मुस्कान दी —
और रीमा ने खुद को उस पल में खो जाने दिया…
कभी न भूलने वाली एक मासूम सी मिठास में।