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लाल-सफ़ेद कंगन

Madhu katiha

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लाल-सफ़ेद कंगन

अलकनंदा आज सुबह से ही उत्साहित थी। कॉलेज की ओर से उसे ‘शिलॉन्ग’ ले जाया जा रहा था। भारत के उत्तर-पूर्वी राज्य मेघालय की खूबसूरत राजधानी है शिलॉन्ग। एक तो पहाड़ों पर बसे छोटे से सुंदर शहर शिलॉन्ग को देखने की आतुरता तो दूसरी ओर माँ और बड़े भैया शिरीष के मान जाने की खुशी। अलकनंदा जल्दी-जल्दी तैयारियों में जुटी थी। शिरीष के आग्रह पर माँ मान तो गईं थीं,परंतु भीतर ही भीतर डरी हुईं थीं। पिता के देहांत के बाद माँ उसको लेकर कुछ ज़्यादा ही चिंतित रहती थीं और फिर अलकनंदा का अप्रतिम सौन्दर्य भी माँ को डरा देता था। दिल्ली में वैसे भी आए दिन महिलाओं के साथ दुराचार की घटनाएँ आम हो गई हैं। अलकनंदा जब तक कॉलेज से वापिस नहीं आ जाती थी,वे चैन से नहीं बैठ पातीं थीं। अलकनंदा को वे कहीं भी अकेले नहीं भेजना चाहती थीं। शिरीष ने माँ को समझाया कि कब तक हम उसे अपनी छत्र-छाया में रखेंगे। दुनियादारी तो सीखनी ही पड़ेगी उसे। और फिर अब तो वह एम.फिल.कर रही है, इतनी नासझ थोड़े ही है कि स्वयं को संभाल न पाये। शिरीष का कहा मानकर ही माँ उसे शिलॉन्ग भेजने को राज़ी हुईं थीं। अलकनंदा को सामान लगाने में थोड़ी परेशानी हो रही थी, इसलिए माँ घर का काम करने के साथ-साथ अलकनंदा की तैयारी में भी मदद कर रहीं थीं। कभी वह उसे दवाईयाँ रखना याद दिलातीं, कभी पानी की बोतल और कभी मोबाइल का चार्जर। शिरीष भैया उसे छोड़ने हवाई अड्डे तक गए। बाहर ही कुछ सहेलियाँ मिल गईं थीं, शिरीष ने अलकनंदा का सामान उतारा और कार वापिस गेट से बाहर चली गयी। अलकनंदा ने भीतर जाकर सभी औपचारिकताएँ पूरी कीं। हवाई जहाज़ निश्चित समय पर गोहाटी के लिए रवाना हो गया।

गोहाटी से शिलॉन्ग के लिए छोटी एयरबसें चलती हैं। पर मौसम खराब होने के कारण अक्सर वे रद्द हो जातीं हैं। इसलिए उन लोगों ने सड़क के रास्ते जाने का फैसला किया। वहाँ से शिलॉन्ग लगभग 122 किलोमीटर दूर है किन्तु उनका ‘गेस्ट हाऊस’ उमियाम गाँव के पास था, इसलिए उन्हें लगभग 105 किलोमीटर की दूरी तय करनी थी। रास्ते में किसी भी प्रकार की कठिनाई नहीं हो रही थी। अलकनंदा की कुछ सखियाँ अंताक्षरी का मज़ा ले रहीं थीं तो कुछ खाने-पीने में व्यस्त थीं। अलकनंदा तो बस खिड़की से बाहर ही नज़र गड़ाए थी। एक ओर पहाड़ तथा दूसरी ओर घाटी-सचमुच बड़ा ही मनोरम दृश्य था ! अलकनंदा प्रकृति की अद्भुत कलाकृति में डूब के रह गयी।

‘गेस्ट हाउस’ पहुँचकर सबने जल्दी-जल्दी अपना सामान लिया और कमरों में घुस गईं। मौसम में थोड़ी ठंडक थी। अलकनंदा के साथ उसकी दो और सहेलियाँ सोनम और मनीषा भी उसी कमरे में थीं। कमरे को देखकर वे फूली न समायीं। गद्देदार साफ-सुथरा बिस्तर, बड़ा सा टी॰वी॰, हीटर और चाय बनाने के लिए केतली। तीनों धम्म से जाकर बिस्तर पर लेट गईं।

थोड़ी देर आराम करने के बाद सब बाहर निकल आए और आस-पास के सौंदर्य का आनंद लेने लगे। सामने छोटा सा पहाड़ दिखाई दे रहा था। चारों और हरियाली छाई थी। गेस्ट हाउस के प्रांगण में भी फूल खिले थे। टीचर ने उन्हें बताया कि शिलॉन्ग के इस अद्भुत आकर्षण के कारण ही इसे ‘पूरब का स्कॉटलैंड’ कहा जाता है। बातों-बातों में रात हो गयी और एक कर्मचारी उन्हें खाना खाने के लिए बुलाने आ गया। खाना खाकर वे सब अपने-अपने कमरे में आ गए। टीचर ने उन्हें जल्दी सो जाने की हिदायत दे दी थी। उनके पास घूमने के लिए केवल कल का ही दिन था, और इसलिए अगले दिन उन्हें बहुत जल्दी निकलना था।

अलकनंदा को जल्द ही नींद आ गयी पर रात के लगभग दो बजे भयंकर पेट-दर्द के कारण उसकी नींद खुल गयी। दवाई का डिब्बा खोलकर उसने गोली खा ली और सोने की कोशिश करने लगी। दर्द कम नहीं हो रहा था। शिलॉन्ग और दिल्ली के तापमान में काफी अंतर है, इसलिए अलकनंदा को लगा कि शायद यह ठंड के कारण हो रहा है। वह हीटर के सामने जाकर बैठ गयी। हलचल के कारण सोनम और मनीषा भी जाग गईं। मनीषा के पास तेज़ असरकारक गोली थी। उसने अलकनंदा को वही खाने को दे दी। दवा के असर से उसे दर्द में आराम तो मिलना शुरू हो गया पर तेज़ नींद भी आने लगी। अलकनंदा ने कल घूमने जाने के विषय में अपनी असमर्थता व्यक्त की और लेट गयी। जल्द ही वह गहरी नींद में सो गयी।

सुबह जब उसकी आँख खुली तो नौ बज गए थे। कुछ हल्का खाना बनाने को कहने के उद्देश्य से वह गेस्ट हाउस की किचन में गई । वहाँ जाकर देखा तो ताला लगा हुआ था। “ओह ! कल टीचर ने खाना बनाने के लिए मना कर दिया होगा, क्योंकि आज तो सबको बाहर घूमने जाना था। इसलिए ही किचन बंद है।“ सोचकर अलकनंदा कमरे की ओर मुड़ गयी।

कमरे के पास पहुंचकर उसने देखा कि उसके कमरे से सटा एक और कमरा, जो कल बंद था, आज खुला हुआ दिख रहा था। इससे पहले कि अलकनंदा अपने कमरे में घुसती, एक सौम्य, आकर्षक युवक उस कमरे से निकलकर उसके सामने आ खड़ा हुआ। अलकनंदा ने हल्की सी मुस्कुराहट के साथ ‘हैलो’ कहा। दोनों का आपस में संक्षिप्त परिचय दिया। युवक का नाम ‘अर्णव’ था। वह थोड़ी देर पहले ही कलकत्ता से आकर पहुंचा था। रात से ही अपने घर से निकला हुआ था। यहाँ आकर देखा तो किचन में ताला लगा हुआ मिला। आस-पास कोई कर्मचारी भी दिखाई नहीं दे रहा था। वह परेशान लग रहा था।

अलकनंदा ने उसे अपने कमरे में आने को कहा। अर्णव भी बिना किसी आनाकानी के उसके पीछे चल पड़ा। कमरे में आकर अलकनंदा ने दो कप चाय बनाई और अपने सामान में से बिस्किट और नमकीन निकाला। दोनों चाय लेकर बाहर आ गए। ठंडी हवा में चाय पीते हुए दोनों ने एक-दूसरे के बारे में काफ़ी कुछ जान लिया।

अर्णव कलकत्ता में एक सरकारी संस्थान में ‘अस्सिटेंट डायरेक्टर’ के पद पर कार्यरत था। बंगाल में जन्म हुआ हो और आवाज़ में जादू न हो, यह कैसे हो सकता है? अर्णव भी अपनी सुरीली आवाज़ में कभी-कभी शौक से गाता था। वह अविवाहित था तथा अपनी माँ के साथ रहता था। अलकनंदा की तरह उसके सिर पर भी पिता का साया न था।

अर्णव को अगले दिन से एक ‘वर्कशॉप’ में भाग लेना था। आज कोई काम नहीं था। अलकनंदा का दर्द भी अब कम था। दोनों ने मिलकर घूमने का कार्यक्रम बनाया। ज़्यादा दूर जाने का समय तो अब नहीं था, इसलिए पास ही जाने का विचार किया। उनके गेस्ट हाउस के पास ही ‘उमियाम झील’ थी और उसके पास ‘नेहरू पार्क।‘ टैक्सीवाले को बुलाकर वे वहीं चले गए।

दोनों प्रकृति की मनोरम छटा को निहारते हुए जा रहे थे। एक जगह आकर सड़क झील के ऊपर से जाती हुई पुल जैसी लग रही थी। वहाँ से झील की सुंदरता देखते ही बनती थी। दो पहाड़ों के बीच की घाटी में भरा पानी ही झील है, जिसमें पहाड़ की परछाईं पड़ती साफ दिख रही थी। अलकनंदा के निर्मल हृदय में भी तो इसी तरह अर्णव की छाया पड़ रही थी।

थोड़ी देर झील के किनारे बैठने के बाद वे ‘नेहरू पार्क’ में चले गए। वहाँ चारों ओर हरे-हरे पेड़ थे। रंग-बिरंगे फूल बाग की शोभा में चार चाँद लगा रहे थे। पहाड़ी पर होने के कारण पगडंडी थोड़ी ऊँची-नीची थी। एक जगह चढ़ने में अलकनंदा को परेशानी हुई तो अर्णव ने अपनेपन से हाथ पकड़कर उसे ऊपर खींच लिया। थोड़ी देर घूमने के बाद दोनों ने कुछ चिप्स के पैकेट और कोल्ड ड्रिंक खरीदी। उसे लेकर वे एक पेड़ के नीचे बड़े से पत्थर पर जाकर बैठ गए।

दोनों एक-दूसरे को पुराने बिछड़े मित्र की भाँति सब बता रहे थे और पूरी तन्मयता के साथ एक-दूजे को सुन भी रहे थे। चिप्स खाते-खाते अर्णव अपनी पसंद का गाना गुनगुनाने लगा- “पीयू बोले, पिया बोले...।“ अलकनंदा के कहने पर वह शुरू से इसी गाने को गाने लगा-“से यू आर माइन.....” यह लाइन गाते हुए वह अलकनंदा को कुछ इस तरह देख रहा था, जैसे गाने में उसके मन की बात कही गयी हो। फिर दोनों ने मिलकर गाना शुरू कर दिया-“लब तो ना खोलूँ मैं, खोलूँ ना लब तो पर आँखों से सब कह दिया....पीयू बोले पिया बोले, क्या ये बोले जानूँ ना, जिया डोले हौले-हौले क्यूँ ये डोले जानूँ ना...।“

“अच्छा ये पेड़ के तनों पर जो लोग अपना नाम लिखते हैं उसमें कितनी देर लगती होगी?” अलकनंदा ने हँसते हुए पेड़ों के झुरमुट की ओर इशारा करते हुए कहा।

“चलो देख लेते हैं....ऐसा करो एक तरफ़ तुम जाओ और दूसरी तरफ़ मैं... दोनों अपना-अपना नाम लिखते हैं। इससे ही समझ में आ जाएगा कि इस महान कार्य में प्रेमी अपना कितना कीमती वक़्त बर्बाद करते हैं।“ अर्णव भी मज़ाक करते हुए बोला। अलकनंदा तो पेड़ कुरेदती ही रह गयी और अर्णव जल्दी से वापिस आकर पत्थर पर बैठ गया।

पास से एक गोलगप्पे वाला गुज़र रहा था। अर्णव ने उसे बुलाते हुए अलकनंदा से पूछा, “तुम्हें फुचके पसंद हैं?”

“फुचके?? वो क्या होता है?“ हैरान होकर अलकनंदा बोली।

“अरे! बंगाल में इनको फुचका कहते हैं।“ अर्णव ने गोलगप्पों की ओर इशारा करके कहा।

अलकनंदा को यह जानकर बड़ा अच्छा लगा। वह तो दिल्ली में रहती थी, जहाँ की संस्कृति मिली-जुली है। इसलिए वह अर्णव से बंगाल के बारे में और भी बातें पूछने लगी। बंगाल के नाम से उसे केवल दुर्गा पूजा ही ध्यान आती थी। अर्णव ने उसे दुर्गा पूजा के अतिरिक्त विश्वकर्मा पूजा, जगद्धात्री पूजा, सरस्वती पूजा व लक्ष्मी पूजा आदि के विषय में बताया। इसके अतिरिक्त जमाईषष्टि नामक त्योहार पर सास व दामाद किस प्रकार उपहारों का आदान-प्रदान करते हैं, यह भी बताया। शादी की रस्मों का वर्णन करते हुए उसने एक विशेष कंगन ‘शाखा-पौला’ की चर्चा की। बंगाल में सुहागन स्त्रियाँ ऐसे कंगन पहनती है, जो लाल औए सफ़ेद रंग का होता है। सफ़ेद रंग का कंगन शंख से बनाया जाता है, जिसे ‘शाखा’ कहते हैं और लाल कंगन को ‘पौला’ कहा जाता है,यह भी अधिकतर लाल रंग के मूँगे से बना होता है। उसने कहा कि गेस्ट हाउस पहुँचकर अलकनंदा को वह कंगन का जोड़ा देगा, ऐसे कुछ जोड़े वह अपने एक मित्र के कहने पर मित्र की पत्नी के लिए लाया है। अलकनंदा मंत्रमुग्ध होकर सब सुन रही थी।

कुछ देर के लिए दोनों चुपचाप बैठ गए। एक फूल बेचने वाले बच्चे की आवाज़ सुनकर दोनों का ध्यान भंग हुआ। वह गुलाबी और लाल गुलाब के फूल बेच रहा था। अर्णव ने कुछ फूल खरीदे और अलकनंदा को दे दिये। अलकनंदा ने मुस्कुराकर उन्हें ले लिया और वहीं पत्थर पर रखकर बोली, “जानते हो अर्णव मुझे ऑरेंज रंग के गुलाब के फूल बहुत अच्छे लगते हैं। ऑरेंज गुलाब एक डिज़ायर,एन्थूज़ियाज़म को इंडिकेट करता है, उसे देखते ही अलग सी उमंग दौड़ जाती है मेरे मन में।“

“अलकनंदा, काश! तुम्हारी ये इच्छा और ये उत्साह मेरे लिए हो।“ सोचते हुए अर्णव एक उमंग अपने अंदर महसूस करने लगा। शाम हो गयी थी। ढलते सूरज की लालिमा दोनों के चेहरों पर पड़ रही थी। एक और लालिमा दोनों के मन के अंदर भी अपनी छटा बिखेर रही थी। रात का अँधेरा होते ही दोनों टैक्सी करके गेस्ट हाउस पहुँच गए।

उनके साथ-साथ ही बाकी सब लोग भी गेस्ट हाउस पहुँच गए। सब थके हुए और भूखे थे। खाना खाते समय सहेलियाँ अलकनंदा को लेडी हैदरी पार्क, वार्ड्स झील, हाथी झरना, शिलॉन्ग पीक, पुलिस बाज़ार और न जाने कहाँ-कहाँ के बारे में बता रहीं थीं, जहाँ वे सब आज घूमने गए थे। पर अलकनंदा का मन तो नेहरू पार्क में ही घूम रहा था।

अगले दिन सुबह ही टैक्सीवाले आकर गेस्ट हाउस में खड़े हो गए, सब लोगों को सुबह ही गोहाटी के लिए निकलना था। अलकनंदा की आँखें अर्णव के दरवाज़े पर टिकी हुईं थीं, जो आधा बंद था। अर्णव से जाते-जाते मिलने के इरादे से वह दरवाज़ा खोलकर भीतर चली गयी। अर्णव कमरे में नहीं था। निराश होकर वह मुड़ ही रही थी कि अर्णव का बिस्तर पर रखा मोबाइल बज उठा। आनन-फानन में उसने फोन उठा लिया।

“हैलो! मुझे पापा से बात करनी है....” किसी छोटे बच्चे की प्यारी सी आवाज़ सुनाई दी।

“कौन पापा?” दुलार से अलकनंदा ने पूछा।

“अरे! मेरे शानू पापा, आज सुबह से उन्होनें मेरे साथ बात नहीं की। मेरे स्कूल जाने का टाइम भी हो गया है।“

“अच्छा अभी करवाती हूँ।“ कहकर अलकनंदा ने फोन रख दिया। वह बाहर निकल ही रही थी कि अर्णव हाँफता हुआ आ पहुँचा। उसके हाथ में ऑरेंज गुलाब के फूलों का गुच्छा था। अलकनंदा को वह गुच्छा पकड़ाते हुए उसने राहत की साँस ली और बोला, ”अच्छा हुआ तुम अभी गईं नहीं थीं। मैंने पास ही दुकान से ऑर्डर देकर सुबह फूल भिजवाने को कहा था। वह आठ बजे तक नहीं आया तो मुझे ही दौड़कर जाना पड़ा।“

अलकनंदा की आँखें भीग गईं। अर्णव के प्यार की खुशी और जुदाई का गम, दोनों मिलकर आंसुओं के रूप में आँखों से ढुलक पड़े। कमरे से निकलते हुए उसने अर्णव को बता दिया कि किसी शानू के लिए फोन आया था।

“हाँ! माँ का होगा। वे मुझे घर में इसी नाम से पुकारती हैं। अभी कर लूँगा उनसे बात।“ अर्णव अलकनंदा के पीछे चलता हुआ बोला।

अलकनंदा को लगा मानो किसी ने गर्म सीसा उसके कान में उड़ेल दिया हो। “शानू पापा से बात करनी है, बच्चा तो यही कह रहा था। अर्णव कह रहा है कि उसका नाम शानू है। उसने मुझसे झूठ क्यों बोला कि वह अविवाहित है। क्या चाहता था अर्णव अपने प्रति मेरे मन में प्रेम जगाकर ?” अलकनंदा की सोचने-समझने की क्षमता जड़ हो रही थी। उसने जाते हुए अर्णव की ओर देखा तक नहीं।

घर आकर कुछ दिन वह बहुत उदास रही। उसने अर्णव के मैसेज का जवाब तक नहीं दिया और फ़ेसबुक पर उसकी मित्रता भी स्वीकार नहीं की। तीन महीने बीतते-बीतते अर्णव की याद थोड़ी धुंधली होने लगी। इसी बीच कई लड़के अलकनंदा को देखने आए,पर परीक्षा सिर पर होने का बहाना बनाकर वह माँ को टालती रही।

उस दिन शिरीष ने अपने नए बॉस को खाने पर बुलाने का कार्यक्रम बनाया। घर में चल रही तैयारियों से अलकनंदा को संदेह हो रहा था कि वे बॉस से उसका रिश्ता जोड़ना चाह रहे हैं। उसे गुस्सा भी आ रहा था, लेकिन वे दोनों साफ़-साफ़ कुछ बोल नहीं रहे थे इसलिए अलकनंदा भी चुप थी।

शाम को शिरीष अपने बॉस को लेकर आ गए। माँ ने अलकनंदा को कमरे में पानी लेकर जाने को कहा। बॉस को देखते ही अलकनंदा का दिमाग चकराने लगा।

“अरे ! आप....” अर्णव खुशी से चहक उठा।

“क्या आप दोनों एक दूसरे को जानते हैं?” शिरीष ने आश्चर्यचकित होकर पूछा।

“हाँ, भैया! शिलॉन्ग में हम एक ही गेस्ट हाउस में थे।“ अलकनंदा ने एक ही वाक्य में बात समेट दी। फिर वह कमरे से उठकर जाने लगी। माँ ने उसे रुकने को कहा और स्वयं चाय बनाने चल दीं।

थोड़ी देर तक तीनों चुप रहे। फिर शिरीष ने चुप्पी तोड़ते हुए कहा, ”अलका, अर्णव बड़े नेकदिल इंसान हैं। ऑफिस में सबका बहुत ध्यान रखतें हैं, हालांकि खुद जिंदगी के एक मुश्किल दौर से गुज़र रहे हैं पर चेहरे पर एक शिकन तक नहीं आने देते।“

“ऐसा क्या हो गया है इनके साथ?” अलकनंदा ने बात का सिलसिला आगे बढ़ाया।

शिरीष ने बताना शुरू किया, ”लगभग एक साल पहले इनके बड़े भाई-भाभी एक कार दुर्घटना में इस संसार को छोड़ कर चले गए। उनका तीन साल का एक बेटा है जो इन्हें ही पापा समझता है क्योंकि इनकी शक्ल हूबहू अपने भाई जैसी है। ये ही अपनी माँ और उस बच्चे को संभालें हैं। हमारी तरह इनके पिता भी इस दुनिया में नहीं हैं....।“

शिरीष की बात अभी खत्म नहीं हुई थी पर अलकनंदा के कान अब और कुछ नहीं सुन पा रहे थे। “ओह! ये क्या किया मैंने? इतने नेकदिल इंसान को आवारा, धोखेबाज़ बेईमान और भी न जाना क्या-क्या विशेषण दे डाले थे मन ही मन मैंने।“ सोचकर ही उसका मन ग्लानि से भरा जा रहा था। माँ के कमरे में आते ही वह भागकर अपने कमरे में चली गयी। सबसे पहले मोबाइल उठाकर उसने अर्णव को ‘सॉरी’ का मैसेज भेजा। अर्णव का तभी जवाब भी आ गया। उसने एक फोटो भेजी थी। अलकनंदा ने खोलकर देखा। वही पत्थर जिस पर वे शिलॉन्ग में बैठे थे, गुलाब के फूल रखे थे उस पर उसने, और पास ही पेड़, जिस पर कुछ लिखा हुआ था। अलकनंदा ने फोटो को बड़ा करके देखा। लिखा था- ‘अलकनंदा का अर्णव’। यह देखकर अलकनंदा के मन में अर्णव के लिए प्रेम उमड़ने लगा। “अच्छा तो जब मैं एक ओर पेड़ पर अपना नाम लिख रही तब अर्णव ने ये लिखा था। कितना गलत समझा मैंने तुम्हें....!” अलकनंदा खुद को माफ़ नहीं कर पा रही थी।

तभी शिरीष और माँ उसके कमरे में आ गए। अलकनंदा की सहमति पाकर दोनों बहुत प्रसन्न हुए, अर्णव ने तो पहले ही ‘हाँ’ कर दी थी। तीनों मिलकर अर्णव को बाहर तक छोड़ने गए। अलकनंदा जानती थी कि इस बार यह जुदाई उन्हें दूर नहीं करेगी। उसने अर्णव को एक प्यारा सा संदेश भेजा। संदेश में लिखा था, “अर्णव का मतलब सागर होता है और अलकनंदा एक नदी का नाम है,इसलिए मैं सागर से मिलूँगी। तुम्हारे जैसे विराट अस्तित्व में खोकर मैं भी बड़ी बन जाऊँगी। अर्णव अलकनंदा का नहीं, बल्कि अलकनंदा अर्णव की है।“ मैसेज भेजकर वह दोनों की पसंद का गीत गुनगुनाने लगी, ”सागर से मिलने का उसका तो सपना था, मेरी ही तरह पिया, पीयू बोले, पिया बोले....”

गुनगुनाते हुए वह अपने कमरे में आ गयी। उसने अलमारी से लाल-सफ़ेद कंगन का वह डिब्बा निकाला जो अर्णव ने शिलॉन्ग में उसे दिया था। अलकनंदा ने वह डिब्बा अभी तक खोला नहीं था। कंगन देखकर उसका चेहरा खिल उठा। अब यही कंगन उसकी जिंदगी होंगे, वह एक बंगाली बहू बनेगी। अर्णव के नाम का सिंदूर होगा उसकी मांग में और हाथों में ‘शाखा-पौला’—सुहागिन के ‘लाल-सफ़ेद कंगन’ ।