मायके का मोह नहीं छूटा तो अपना घर नहीं बसा पाओगी

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विदाई के वक़्त ही वो जैसे दहलीज़ छूट चुकी थी, रस्मों की शुरुआत बढ़ते दिन के साथ शुरू हो रही थी, आज़ादी के पंखों पर जैसे किसी ने चादर डाल दी इतनी भारी साड़ी कल्पना को बोझ के सिवा कोई और अनुभव नहीं दे रही थी. कहा था मैंने मेरी ननद को कल शादी की थकान से हालात खराब थी, उस पर इतनी भारी साड़ी पूरे दिन नहीं पहन पाऊँगी ,पर वो सुनने को तैयार नहीं थी ।नाक कटवानी है क्या भाभी सभी समाज के लोग होंगे, इतनी साधारण साड़ी पहनोगी तो क्या कहेंगे सब?मेरा मन कह रहा था क्या