दास्तान-ए-अश्क - 15

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"चल्ल बुल्लिया..  चल उथ्थे चल्लिये.. जिथ्थे सारे अन्ने..  ना कोई साड्डी जात पहचाने... ना कोई सान्नु मन्ने.. ( पंजाब के एक मशहूर कवि कहते हैं "चल रे बलमा हम ऐसी जगह पर चले जाते हैं जहां सारे लोग अंधे हो कोई नात जात  को पहचानता ना हो! जिनके लिए सब लोग एक जैसे हो!) जिंदगी ने मायुस कर दीया उसे..  अभी तो उसके सजने संवरने के दिन थे! सपनो की जगह आंखे अश्क से उभरने लगी थी!  छोटी सी उम्र थी! इस छोटी सी उम्र में मासूम दिल को कांच की तरह चुभने वाली किरचो से भरा सफर.. जिस पर