डॉमनिक की वापसी - 12

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चारो तरफ़ गहरा सन्नाटा था। रेल की पटरियों के ऊपर से गुज़रता हुआ पुल थककर गहरी नींद में सो रहा था। दीपांश ने सिर को झटकते हुए आसमान की ओर देखा तो एक बूँद माथे पर आकर गिरी। आसमान साफ़ था पर हल्की-सी चाँदनी में एक छोटी बदली उसके सिर पर तैर रही थी। वह बस उतनी-सी थी जितनी चादर किसी को भी ओढ़ने-बिछाने को चाहिए होती है। उसने पुल की रेलिंग पर पैर रखा और आसमान की अलगनी पर टंगी चादर को दोनो हाथों से खींच लिया। वह बदली! नहीं वह सफ़ेद चादर! उसके ओढ़ने-बिछाने के लिए, इस दुनिया से छुपकर सो जाने के लिए बहुत थी।