एक जिंदगी - दो चाहतें - 30

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एक जिंदगी - दो चाहतें विनीता राहुरीकर अध्याय-30 फिर परम ने कॉलबेल बजा दी। चाचा ने तुरंत ही दरवाजा खोला। वो शायद बड़ी व्यग्रता से उन दोनों की राह देख रहे थे। 'आओ-आओ भई कब से राह देख रहा था। चाचा उन दोनों को अंदर ड्राईंगरूम में ले जाते हुए बोले। तनु ने चाचा के पैर छुए। 'जीती रहो बहु जीती रहो। चाचा ने गदगद होकर आशिर्वाद दिया। तभी सावित्री भी उन लोगों की आवाज सुनकर रसोईघर से बाहर आ गयी। तनु ने झुककर उनके भी पैर छुए। 'जीत रहो बहु खुश रहो, दूधो नहाओ पूतो फलो। चाची ने उसका