और ख़ामोशी बोल पड़ी (पुस्तक-समीक्षा )

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और ख़ामोशी बोल पड़ी (पुस्तक-समीक्षा ) ------------------------------------ ख़ामोशी मनुष्य-मन के भीतर हर पल चलती है ,कभी तीव्र गति से तो कभी रुक-रुककर लेकिन भीतर होती हर मन में है ,कभी उससे बात करके देखें तब कैसे लिपट जाती है आवेगों से,संवेदनाओं से ! कई दिनों से अर्चना अनुप्रिया की 'और ख़ामोशी बोल पड़ी ' संग्रह की रचनाओं में गुम थी | कोई लकीर सी खिंचती चली जाती है भीतर मन में ,जब कभी छू जाता है ज्वार संवेदनाओं का ---(प्रणव भारती ) विधा कोई भी क्यों न हो जब छूने लगती है संवेदना ,भीतर के पटों को झंझोड़ने लगती