महामारी में हमारी हिस्सेदारी

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बेहद सुकून के दिन थे, बेहद सुकून की रातें थी साहेब। जाने कैसी हवा चली सब उड़ा ले गई। कभी सपने में भी नहीं सोचा था जिस महामारी का जिक्र इतिहास के पन्नों में कहीं-कहीं दर्ज था उससे बेसाख्ता यूं मिलन हो जाएगा। ऐसी कईं संक्रामक बीमारियों की चर्चा अपने बड़े-बुजुर्गों से सुनी अवश्य थी, पर यह कल्पना से परे था कि उनका प्रकोप वर्तमान में भी देखने को मिलेगा। अपने ही ख्यालों में बहते चले जा रहे थे, बिना कुछ सोचे समझे। दिन-रात प्रकृति को नुकसान पहुंचा रहे थे, बिना कुछ