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महामारी में हमारी हिस्सेदारी

बेहद सुकून के दिन थे, बेहद सुकून की रातें थी साहेब। जाने कैसी हवा चली सब उड़ा ले गई। कभी सपने में भी नहीं सोचा था जिस महामारी का जिक्र इतिहास के पन्नों में कहीं-कहीं दर्ज था उससे बेसाख्ता यूं मिलन हो जाएगा। ऐसी कईं संक्रामक बीमारियों की चर्चा अपने बड़े-बुजुर्गों से सुनी अवश्य थी, पर यह कल्पना से परे था कि उनका प्रकोप वर्तमान में भी देखने को मिलेगा।
अपने ही ख्यालों में बहते चले जा रहे थे, बिना कुछ सोचे समझे। दिन-रात प्रकृति को नुकसान पहुंचा रहे थे, बिना कुछ सोचे समझे। अब जब नींद खुली तो चारों तरफ भंवर ही भंवर नजर आ रहा है। किनारा कहीं दूर दूर तक निगाह में, है ही नहीं।
घर की चारदीवारी में रहकर सबको आत्मचिंतन का तो बहुत समय मिला कि कहां-कहां, कैसे-कैसे चूक हो गई। क्या-क्या ना करते, तो यह दुष्परिणाम ना देखने को मिलते। क्या खोया, क्या पाया का हमने गहन मनन किया। भागती-दौड़ती दुनिया की चकाचौंध में, हम क्या कुछ पीछे छोड़ आए। क्या पा लें, क्या न पा लें की एक होड़ सी लगी थी।
अब जब दुनिया थम गई, तो सब बेमानी नजर आया। अपना देश, अपना गांव, अपना घर याद आया। लगा थोड़े में गुजारा कर लेंगे, पर रहेंगे अपने ही देश, अपने ही परिवेश में। समुद्र की सारी सीमाएं लांघने का जुनून इंसान को पागल किये जा रहा था। अब आलम यह है कि घर की सीमा पार करने में भी डर लग रहा है।
पर्यावरण से खेलकर ऊंचाईयां छूने की कोशिश हमको बर्बादी के भयानक कगार पर ले आई है। महामारी के रूप में समस्त विश्व के सामने जो भयावह स्थिति उत्पन्न हो गई है उससे पार पाना बहुत कठिन लग रहा है। पर ऐसा हुआ क्यूं? क्या आपने सोचने का प्रयत्न किया है?
मनुष्य की निरंतर बढ़ती व्याकुलता, समय और प्रकृति को अपने अनुसार चलाने की जिद, इंसान को इस परिस्थिति में ले आई है। प्राचीन काल में लोग थोड़े में गुजारा करके भी खुश रहते थे। अपने शहर, अपने देश की परिधि में भी सुकून की जिंदगी बसर करते थे। पूरे गांव-मोहल्ले के सुख-दुख सांझे होते थे।
स्वावलंबी बनने की चाह ने, मनुष्य से मनुष्य की दूरियां बढ़ा दी। अहंकार, स्वार्थ हमारा स्वभाव बन गया। दूसरों के सुख-दुख से हमने पल्ला झाड़ लिया। अपने आप में हम इतने व्यस्त,मस्त हो गए कि पता ही नहीं चला कि आसपास की दुनिया में इतनी उथल-पुथल मची हुई है। हम प्रकृति के विनाश की सारी सीमाएं लांघ गए।
ऐसा नहीं प्रकृति ने हमें संकेत से समझाने की कोशिश ना की हो। धरती माता ने तो बहुत जत्न-प्रयत्न किए, पर हम कहां सुनने को तैयार थे। एक अंधी दौड़ में भागे जा रहे थे सब कुछ पाने को। दिन-रात इस पर्यावरण को नुकसान पहुंचा रहे थे। पृथ्वी, हवा, समुद्र किसी को हमने नहीं बक्शा। प्रकृति का इतना बड़ा नुकसान करके भी, पता नहीं हमें अपनी कौन सी भलाई नजर आ रही थी।
'बीती ताहि बिसार दे आगे की सुध ले' अभी भी समय रहते, अगर हम अपनी गलती सुधार लें और पूरा समाज मिलकर इस महामारी से सबक लें, तो शायद प्रकृति हमें क्षमा कर दे और फिर से हमारा जीवन लौटा दे। कहते हैं, सुबह का भूला शाम को घर आए तो उसे भूला नहीं कहते। अभी भी अगर हम अपने व्यक्तिगत स्वार्थ से ऊपर उठकर सारे देश, जाति और मानवता के हित में एकजुट होकर कार्य करेंगे तो इस कोरोना नामक महामारी से उबर पाएंगे।
तो मित्रों अब समय है, अपनी निजी महत्वाकांक्षाओं से परे होकर सोचने का, समाज के हित में सोचने का। अपने स्वार्थ की आहुति देकर अगर हम मनुष्य जाति के उत्थान के लिए दृढ़ संकल्प होंगे तभी इस धरती पर अपना जीवन बचा पाएंगे। नहीं तो... समय आने पर प्रकृति अपने आप सब ठीक कर ही लेगी फिर चाहे हम रहें या ना रहें...