उजाले की ओर----संस्मरण

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उजाले की ओर ----संस्मरण ------------------------- नमस्कार स्नेही मित्रों ! ज़िंदगी रूठती,मानती-मनाती चलती है | पर,चलती तो रहती ही है न चले तो ज़िंदगी शब्द का अर्थ ही कहाँ रह जाता है ? सपनों की सी डगर पर चलती ज़िंदगी को ताप की वास्तविकता को झेलने के लिए आ खड़ा होता है इंसान ! होता क्या है ,वह मज़बूर होता है,ताप झेलने के लिए क्योंकि मनुष्य का प्रारब्ध उसके साथ बंधा रहता है | मुझे अपने बचपन की बहुत सी बातें याद आने लगती हैं ,ऐसा लगता है मानो अभी सब-कुछ मेरे सामने चित्र की भाँति चल रहा हो