प्रेम गली अति साँकरी - 128

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128=== =============== न जाने कब तक अपने बिस्तर की गर्माहट को समेटते हुए मैं पड़ी रही थी | पड़ी भी क्या रही थी जिस असहजता, बनावटीपन और मानसिक त्रास से जूझ रही थी, वह जैसे कहीं दूर बहता जा रहा था लेकिन बिलकुल नहीं था, ऐसा भी नहीं था | क्या कई दिनों से मेरे भीतर कोई ऐसा सपना चल रहा था जो शायद कुछेक समय से शुरू हुआ था लेकिन मन व मस्तिष्क के बीहड़ में मुझे घसीट ले जाने वाला अंतहीन सपना था | यूँ तो सपने मुझे कभी आते नहीं थे लेकिन अब ? प्रश्न बहुत थे