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Such Abhi Zinda Hein (Bhag -1)

सच अभी जिंदा है

भाग — 1

अशोक मिश्र

प्रिय पप्पू को

जो किसी शरारती बच्चे की तरह जीवन की राह में

खेलते—कूदते एक दिन साथ छोड़कर चला गया।

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सच अभी जिंदा है

मई के पहले हफ्ते में ही गर्मी पड़ने लगी थी। सुबह से ही चलने वाली गर्म हवाएं पशु—पक्षियों और इंसानों को व्याकुल कर रही थीं। लोग कोशिश करते कि वे सुबह—सुबह बाहर का काम निबटाकर या तो घर लौट आएं या फिर कहीं रुक जाएं। ग्यारह बजते—बजते सड़कें जन शून्य हो जाती थीं। लोग मजबूरी में ही दोपहर को घर से निकलते थे। सुबह से ही कई कार्यक्रमों की रिपोर्टिंग करने के बाद शिवाकांत दैनिक प्रहरी के दफ्तर पहुंचा, तो गर्मी के मारे हांफ रहा था। अपनी मोटर साइकिल स्टैंड पर खड़ी करने के बाद वह पहली मंजिल पर स्थित दफ्तर में पहुंचा, तो उसे राहत महसूस हुई। उसने अपनी कुर्सी पंखे के नीचे खिसकाई और कमीज के ऊपरी दो बटन खोलकर पसीना सुखाने लगा। थोड़ी देर बाद गर्मी से राहत मिलने पर उसने कमरे में निगाह दौड़ाई। कोने में बैठी मंजरी उसकी ओर देखकर मुस्कुरा रही थी। उसे अपनी ओर देखता पाकर उसने झट से अपनी कमीज के खुले बटन बंदकर लिए। खीझकर वह बुदबुदा उठा, ‘साली रंड़ी! ऑफिस में ऐसे सज—धज कर आई है, जैसे स्वयंवर रचाने आई हो।'

उसने मेज पर रखा पानी से भरा गिलास उठाया और गटागट पी गया। फिर भी प्यास नहीं बुझी, तो उसने कोने में रखे जग से तीन गिलास पानी लेकर और पिया। उसका इरादा था कि शीघ्रता से खबरें लिख डाले, ताकि स्पेशल स्टोरी पर काम करने का मौका मिल जाए। यही सोचकर शिवाकांत अपनी सीट पर आकर बैठा ही था कि चपरासी रामशरण ने आकर कहा, ‘तिवारी जी आपको एक—दो दफा पूछ चुके हैं। आप उनसे मिल लीजिए। शायद कोई जरूरी काम है।'

शिवाकांत ने सरसरी निगाह रामशरण पर डालते हुए गुनगुनाकर कहा, ‘तू चल मैं आता हूं, चुपड़ी रोटी खाता हूं। ठंडा पानी पीता हूं, हरी डाल पर बैठा हूं।'

रामशरण की समझ में शिवाकांत की बात नहीं आई। ‘ठीक है' कहकर रामशरण आगे बढ़ गया। शिवाकांत मेज पर रखी कलम को कमीज की जेब में खोंसते हुए बुदबुदाया, ‘साले! काम ही नहीं करने देते। बाद में हौंकेंगे...तुमने खबर इतनी देर से क्यों दी? तुम्हारे कारण अखबार देर से छूटा। समय—असमय बुलाकर अपने पास बिठाकर दरबार सजाओगे, तो कोई खबर क्या खाक लिखेगा समय पर। साला...दल्ला!'

शिवाकांत मरी—सी चाल चलता हुआ समाचार संपादक प्रदीप तिवारी की केबिन में पहुंचा। केबिन में लगे शीशे से उन्होंने शिवाकांत को आते हुए देख लिया था। तो फिर तिवारी व्यस्त हो गए। यह उनकी पुरानी आदत थी। जब उन्हें अपना महत्व जताना होता था या किसी व्यक्ति की उपेक्षा करनी होती थी, तो वे उस व्यक्ति को बुलाकर सामने बिठा लेते और काफी देर तक व्यस्त होने का दिखावा करते। सामने बैठा व्यक्ति थोड़ी देर तक तो इंतजार करता, फिर ऊबकर कुछ पूछता, तो वे ‘आंऽऽऽ...' कहकर या तो फिर चुप्पी साध लेते या कह देते, ‘बस थोड़ी देर रुको। अभी तुमसे बात करता हूं।' उन्होंने शिवाकांत को बैठने का इशारा किया और मेज पर रखा पुराना अखबार उठाकर पढ़ने लगे। शिवाकांत कुछ देर तक उन्हें पढ़ता हुआ देखता रहा। फिर उसने पूछ लिया, ‘भाई साहब! आप मुझे याद कर रहे थे?'

‘आंऽऽऽ...हांऽऽ...' कहकर तिवारी ने चौंकने का अभिनय किया। अखबार को मोड़कर एक तरफ रखते हुए उन्होंने शिवाकांत से पूछा, ‘तो तुम कब जा रहे हो?'

‘कहां जा रहा हूं?'

‘अरे वहीं...।'

‘वहीं कहां?' शिवाकांत ने प्रतिप्रश्न किया।

‘वहीं जहां तुम जा रहे हो?'

‘मेरी तो समझ में नहीं आ रहा है कि मैं कहां जा रहा हूं? अभी तो मैं कल ही सात दिन की छुट्टी के बाद लौटा हूं। अब मैं कहां जा रहा हूं, यह आप ही बता दें, भाई साहब!' शिवाकांत खीझ उठा। इधर कुछ दिनों से ऐसी वाहियात बातों और हरकतों से उसे वितृष्णा—सी होने लगी थी। वह सामने वाले पर झल्ला उठता था।

‘सात दिन बाद लौटे हो, तभी तो पूछ रहा हूं कि कहां जा रहे हो?' तिवारी

अब भी खुलकर खेलने के मूड में नहीं थे। वे सोच रहे थे कि बिना कोई चाल चले ही सामने वाले को मात हो जाए, तो फिर बेकार में दिमाग खपाने से क्या फायदा। बिना चाल चले ही सामने वाले को शिकस्त देने का मजा भी तो अलग है। उन्हें अब इस शह और मात के खेल में मजा आने लगा था। वे चुप हो गए। उन्हें सामने वाले की चाल का इंतजार था।

शिवाकांत समझ गया कि सामने बैठा समाचार संपादक उसे लपेटने के चक्कर में है। वह कुर्सी से उठता हुआ बोला, ‘भाई साहब...आप लाल बुझक्कड़ी छोड़कर साफ—साफ बताएं कि मामला क्या है? वरना मैं चला...मेरे पास समय कम है और कई खबरें लिखनी अभी बाकी हैं।'

तिवारी के पास अब खुलकर खेलने के अतिरिक्त कोई दूसरा विकल्प नहीं बचा था। बचा होता, तो वे उसे आजमाने से नहीं चूकते। उन्होंने सामने झुककर खड़े शिवाकांत की बड़ी और गहरी आंखों में झांकते हुए कहा, ‘देखो शिवाकांत! दाई से पेट नहीं छिपाया जाता। अगर तुम्हें जाना है, तो जाओ। लेकिन मर्दों की तरह...यह क्या बात हुई कि मां की बीमारी का बहाना बनाकर छुट्टी ली और पहुंच गए दिल्ली...जनसत्ता के दफ्तर में नौकरी मांगने। तुम क्या समझते हो, मुझे खबर नहीं होगी। मेरे भी सूत्रा जनसत्ता के दफ्तर में हैं। मुझे तो यहां तक मालूम है कि तुम्हारी कब और किससे क्या—क्या बातें हुर्इं?'

अब यह सब कुछ शिवाकांत के लिए असह्य हो उठा। क्रोधातिरेक में उसकी कनपटी लाल हो गई। उसने क्रोध में फुंफकारते स्वर में कहा, ‘तिवारी जी, एक बात आपको साफ—साफ बता दूं। आप दाई हों, तो हों। मैं पुरुष हूं, गर्भवती हो भी नहीं सकता। जहां तक जनसत्ता के दफ्तर में जाने की बात है, तो मैं वहां पिछले कई महीने से गया ही नहीं। वैसे आपके सामने स्पष्टीकरण पेश करने की मुझे कतई आवश्यकता नहीं है। फिर भी आपको बता दूं कि जनसत्ता के दफ्तर में पहले भी आता—जाता रहा हूं, आगे भी आता—जाता रहूंगा। आपसे जो करते बने, कर लीजिए। आप पूरी तरह से इस मामले में स्वतंत्रा हैं।'

इतना कहकर शिवाकांत मुड़ा और समाचार संपादक की केबिन से बाहर आ गया। वह अपनी सीट पर पहुंचा, तब तक लोकल डेस्क के सभी संवाददाता आ चुके थे। अमितेश रावत, आदित्य सोनकर, दिवाकर शुक्ल अपनी खबरें लिखने में व्यस्त थे। लोकल डेस्क इंचार्ज सुप्रतिम अवस्थी या तो आए नहीं थे या हमेशा की तरह कहीं बैठे निंदा रस के आस्वादन में व्यस्त थे। डॉ. दुर्गेश पांडेय अपनी बीट के जूनियर साथी राजेंद्र शर्मा को ज्ञान दे रहे थे, ‘तुम अपनी आदतें सुधार लो, वरना बहुत ज्यादा दिन नौकरी नहीं कर पाओगे। मैं तो तुमसे तंग आ गया हूं। यार...हजार बार समझाया है कि मुझसे पंगा मत लिया करो, लेकिन तुम हो कि बाज ही नहीं आते।'

‘आखिर मुझसे गलती क्या हुई? यह तो बताएंगे, सर!' राजेंद्र शर्मा ने असमंजस भरे स्वर में कहा। दरअसल, उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि उसकी बीट का सीनियर रिपोर्टर उसे ‘हौंक' क्यों रहा है। राजेंद्र शर्मा को दैनिक प्रहरी से जुड़े अभी कुछ ही महीने हुए थे। इससे पहले वह एक साप्ताहिक ‘जमाना' का प्रतिनिधि रह चुका था। पत्राकारिता जगत के इस नवप्रशिक्षु पत्राकार में संभावनाएं कुछ अधिक हैं, इसका अंदाजा दुर्गेश को हो चुका था। पिछले सत्राह साल से दैनिक प्रहरी में शिक्षा संवाददाता के रूप में जमे बैठे दुर्गेश अब तक कई संभावनाशील नवांकुरों का ‘काम' लगा चुके थे। संपादक से लेकर अखबार के मालिक तक सबके प्रिय दुर्गेश पांडेय अपने लिए ‘डॉक्टर साहब' कहलवाना पसंद करते थे। अगर कोई ‘डॉक्टर साहब नमस्कार' की बजाय ‘पांडेय जी या सर जी

...नमस्कार' कहता, तो उसके अभिवादन का वह जवाब नहीं देते थे।

‘नहीं...मैं जो कह रहा हूं। उसे समझो। मुझे कभी ‘क्रॉस' करने की कोशिश मत करना। मैं ऐसी गुस्ताखियां बर्दाश्त नहीं करता हूं। समझे।' राजेंद्र को विनम्र होते देख दुर्गेश उस पर सवारी गांठने की मुद्रा में आ गए। शिवाकांत अपनी सीट पर बैठा यह कौतुक देख—सुन रहा था। उसे राजेंद्र शर्मा से सहानुभूति हो रही थी। अभी कुछ ही देर पहले वह समाचार संपादक प्रदीप तिवारी के सामने लगभग ऐसी ही परिस्थिति में जूझ रहा था। राजेंद्र के प्रति उसकी सहानुभूति मानव स्वभाव के अनुरूप थी। जब दो लोग किसी एक ही तरह की विपत्ति से जूझ रहे हों या उनमें से कोई एक कुछ ऐसा ही पहले भोग चुका हो, तो उनमें सहानुभूति, अपनत्व का भाव पैदा हो जाना स्वाभाविक है। वह अपनी सीट से उठा और दुर्गेश के सामने आ खड़ा हुआ। उसने बिना पूछे सामने पड़ी कुर्सी घसीटी और विराजमान हो गया। डॉ. दुर्गेश ने उसकी ओर प्रश्नवाचक निगाहों से देखा। उसने कहा, ‘क्या डॉक्टर साहब! बच्चे को अब जाने भी दीजिए...कहां आप...? लखनऊ की पत्राकारिता जगत के वटवृक्ष और कहां प्रशिक्षु संवाददाता राजेंद्र...जर्नलिज्म के क्षेत्रा में नवांकुर...यह आपको क्या क्रॉस करेगा। ...और फिर...जब दैनिक प्रहरी में काम करने वाले बड़े—बड़े शूरमा आपका बाल बांका नहीं कर सके, तो फिर यह बेचारा आपका क्या ‘उखाड़' लेगा।' शिवाकांत ने ‘उखाड़' शब्द पर जोर देते हुए मजाकिया लहजे में कहा।

वह राजेंद्र की ओर घूमा, ‘जाओ यार! खबरें लिखो। सुप्रतिम आता ही होगा।

...खबरें न मिलने पर वह भी ‘झांय—झांय' करेगा।' शिवाकांत ने एक बार फिर ‘झांय—झांय' शब्द पर जोर दिया। उसके शब्दों की व्यंजना डॉ. दुर्गेश पांडेय ने समझी, लेकिन चुप ही रहे।

शिवाकांत के बीच में पड़ने से राजेंद्र ने मुक्ति की सांस ली। शिवाकांत की इसी आदत से संस्थान के कुछ वरिष्ठ अधिकारी और सहकर्मी नाराज रहते थे। जब भी कोई वरिष्ठ अधिकारी अपने किसी कनिष्ठ साथी को ‘कसने' की कोशिश करता, वह बीच में पड़कर कनिष्ठ साथी को बचा लेता। इससे वरिष्ठ लोग आहत हो जाते। उन्हें लगता कि शिवाकांत कनिष्ठ के सामने उसकी औकात बता रहा है। शिवाकांत का मामले के बीच कूद पड़ना, उन लोगों को आहत कर जाता। कई बार तो साथियों से झगड़ा होते—होते बचता। रूठ कर चले जाते। शिवाकांत उन्हें मनाने की कोशिश भी नहीं करता। दरअसल, यह बात उसके दिमाग में आती ही नहीं थी कि उसके व्यवहार से लोगों को परेशानी हो रही है। कई बार दूसरे लोग उसे कभी संकेतों से, तो कभी खुलकर समझाते, लेकिन वह इस मामले में चिकना घड़ा साबित होता। मूड ठीक होने पर वह स्वीकार भी करता कि उसका लोगों के मामले में टांग अड़ाना अनुशासन की दृष्टि से गलत है। लेकिन जैसे ही कोई मामला उसके सामने आता, एक अजीब—सी सनक उस पर सवार हो जाती। उसे पूरी दुनिया पीड़ित दिखाई देने लगती। उसे लगता कि अगर उसने फलां को उसके सीनियर के चंगुल से नहीं बचाया, तो उसके साथ ज्यादती होगी। ऐसे में वह अपने साथियों से किसी मामले में टांग न अड़ाने का किया गया वादा भूल जाता और पहले की तरह किसी एक के पक्ष में खड़ा होकर दूसरे पक्ष से भिड़ जाता। कई बार उसे खुद लगता था कि उसके दिमाग में दो हिस्से हैं। एक हिस्से में जाल है, जंजाल है, खब्त है, पीड़ा है, शरारत है। वह सब कुछ है, जो एक इंसान को इंसान बनाता है। दुख में दुखी होना, प्रसन्न होने पर चहकने लगना, इसी हिस्से का कमाल है। जब हवा के जोर से किसी टहनी से लगा पत्ता टूट कर तैरता हुआ नीचे आता, तो वह दुखी हो जाता। कुहासे की ओट में सुबह—सुबह पीला—सा मरियल सूर्य जब झांकने लगता, तो उसकी आशा उस भावी ऊष्मा को लेकर बलवती हो जाती, जो ठंड में ठिठुरते उसके जैसों के लिए अत्यंत जरूरी होती है। शाम को पियराया हुआ सूर्य जब अस्ताचलगामी होता दिखता, तो वह कल्पना करने लगता कि किसी एकांत निर्जन में एक दूसरे के कंधे से कंधा सटाए बैठे प्रेमी युगल अब एक दूसरे की ओर अनुराग भरी निगाह डालकर गहरी उच्छवास छोड़ेंगे और अकथ पीड़ा लिए हुए अलग हो जाएंगे। वह यह कल्पना करके दुखी हो जाता।

उसके पास जैसे ही किसी की हत्या की खबर आती, वह घटना पर विचार करने की जगह सोचने लगता कि अब मारे गए व्यक्ति के परिजन उसके बिना कैसे जिएंगे? पत्नी को प्यार कौन करेगा? बच्चे मनुहार करते हुए अब किससे फीस, किताब, बस्ते और स्लेट की मांग करेंगे? आखिर क्यों होती हैं इस संसार में इतनी हत्याएं? वह व्यथित हो जाता? कई बार तो वह जब किसी हत्यारे की गिरफ्तारी का समाचार पाकर कवरेज करने जाता, तो वह कोशिश करता कि वह हत्यारे से सिर्फ एक सवाल पूछ सके? कई बार तो वह पूछ ही लेता, क्या मिला तुम्हें किसी की हत्या करके? कौन—सी उपलब्धि हासिल हो गई? तुमने अपना प्रतिशोध ही पूरा किया न? इससे किसका भला हुआ? तुम्हारा या जिसकी हत्या हुई...उसका? अब तुम्हारे और मरने वाले के परिवार की परवरिश कौन करेगा? तुम दोनों ने तो अपनी—अपनी करनी की सजा पा ली, लेकिन तुम दोनों के बाल—बच्चों ने कौन सी खता की थी जिसकी सजा अब से वे भोगेंगे?

उसके दिमाग का दूसरा हिस्सा कुछ—कुछ खाली था। अभी उसमें कुछ सालों से थोड़ी—थोड़ी भीरुता, मक्कारी, हिंसा, छल—कपट, स्वार्थता भरनी शुरू हुई थी। वह अपने साथियों से कहता भी था, जिस दिन मेरे दिमाग का दूसरा हिस्सा भर जाएगा, मैं इस दुनिया का सबसे ज्यादा स्वार्थी, धूर्त और मक्कार आदमी होउं+गा। हो सकता है कि जिस हिस्से में कुछ मानवीय मूल्य भरे हुए हैं, उस हिस्से का स्पेस भी यह खाली वाला हिस्सा घेर ले। तब मैं इंसान नहीं, हैवान बन जाउं+गा...लेकिन शायद न भी हो पाउं+ हैवान? संस्कार भी तो कोई चीज होती है। मेरे संस्कार ही कुछ ऐसे हैं कि मैं चाहकर भी धूर्त, स्वार्थी और बेईमान नहीं हो सकता। हालांकि मैं ऐसा ही होना चाहता हूं। यह दुनिया मक्कारों की है, झपटकर छीन लेने वालों की है। देखा नहीं, झूठे और मक्कार लोग कितनी जल्दी तरक्की करते हैं? मैं भी तरक्की करना चाहता हूं, शायद कर भी लूं, या न भी कर पाउं+? कौन जानता है?

उसके शुभचिंतक समझाते, ‘देखो! अपने कनिष्ठ साथियों के साथ सख्ती से पेश आना, उन्हें थोड़ा बहुत प्रताड़ित करना, उत्पीड़न नहीं है। यह अनुशासन बनाए रखने को जरूरी है। यह सब तो पत्राकारिता के निजाम का एक हिस्सा है। ऐसा होता आया है, भविष्य में भी इस पर रोक लगने की संभावना दूर—दूर तक नजर नहीं आ रही है। ...और फिर यह मानवाधिकारों के हनन का भी कोई मामला नहीं है जिसके पीछे तुम लट्ठ लेकर घूमो। फिर तुम बेवजह सिरदर्द क्यों मोल लेते हो। इसमें तुम्हारा क्या इंट्रेस्ट है, मेरी समझ में नहीं आता है।'

शिवाकांत उखड़ जाता, ‘निजाम का हिस्सा नहीं ये है।' वह एक अंग विशेष की ओर इशारा करते हुए अपने गुस्से का इजहार करता। वहां मौजूद लोग उसकी इस बात पर हंस पड़ते थे।

शिवाकांत की बात सुनकर दुर्गेश पांडेय ने राजेंद्र को अपनी सीट पर जाने का इशारा किया, तो वह कारागार से छूटे बंदी की तरह भाग निकला। वह अपनी सीट पर जाकर गहरी—गहरी सांस लेने लगा, मानो पांच किलोमीटर की दौड़ लगाकर आया हो। डॉ. दुर्गेश ने चारों ओर निगाह दौड़ाई और फिर आगे की ओर झुकते हुए मंद स्वर में बोले, ‘तुम बड़े मौके पर आए शिवाकांत...बेवजह अपने जूनियर साथियों को डांटने—डपटने की अपनी आदत तो है नहीं, यह तो तुम जानते ही हो। पिछले कई साल से अपने साथ हो, कभी किसी को बेवजह डांटते—फटकारते देखा है? लेकिन क्या करूं? यह सब करना पड़ता है। कभी अपना हित साधने के लिए, तो कभी संपादक, डेस्क इंचार्ज या मालिक के कहने पर। तुम्हें पता नहीं, मालूम है या नहीं? इन दिनों राजेंद्र से सुप्रतिम अवस्थी नाराज है। सुबह की मीटिंग में मामूली—सी गलती पर सुप्रतिम एक घंटे तक राजेंद्र को हौंकता रहा। बाद में मुझसे भी कहा कि मैं भी उसे बात—बेबात पर हौंकता रहूं। अब नौकरी करनी है, तो अपने इंचार्ज की बात माननी ही होगी। मैंने भी राजेंद्र को बुलाकर सबके सामने डांटने—फटकारने की रस्म अदायगी कर दी। बाकी वह जाने और सुप्रतिम अवस्थी जाने।'

शिवाकांत मन ही मन मुस्कुराया। उसने अपने चेहरे पर कोई भाव नहीं आने दिया। कुछ देर तक तो वह डॉक्टर साहब को बड़ी गौर से देखता रहा, फिर उसने पूछ ही लिया, ‘पर गुरु...हौंकने का कोई कारण तो होगा? कोई भला बेवजह किसी को क्यों हौंकेगा?'

‘कारण...कारण तो बस एक ही है और वह है ‘डग्गा'। परसों एक टेक्सटाइल मिल वालों ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस बुलाई थी...ताज होटल में। आदित्य सोनकर की गैर मौजूदगी में यह बीट राजेंद्र देखता है। आदित्य उस दिन छुट्टी पर था। सुप्रतिम उस कॉन्फ्रेंस में पीयूष को भेजना चाहता था, लेकिन राजेंद्र को तो तुम जानते ही हो। कितना बड़ा सनकी है। अड़ गया, मेरी बीट है...तो मैं ही जाउं+गा, वरना इस बीट की कोई खबर कवर नहीं करूंगा। मजबूरन सुप्रतिम को राजेंद्र की बात माननी पड़ी। सुप्रतिम अवस्थी तभी से राजेंद्र से खार खाया हुआ है।'

नाक से ‘हूं...उं+' की आवाज निकालते हुए शिवाकांत ने कहा, ‘लेकिन इसमें डग्गा कहां से आ गया?'

‘इसमें डग्गा ही तो आया...' दुर्गेश ने मेज पर पड़ी पिन उठाकर दांत खुरचते हुए कहा, ‘मिल वालों ने डग्गे में अच्छी क्वालिटी की एक लोई और सूटपीस कवरेज करने वाले हर पत्राकार और फोटोग्राफर को दिया था। पीयूष कॉन्फ्रेंस में जाता, तो फोटो के साथ खबर लगवाने का आश्वासन देकर दो—दो डग्गे ले आता। पहले भी कई बार ऐसा हो चुका है। एक अपने लिए...दूसरा सुप्रतिम के लिए...। राजेंद्र यह डग्गा खुद हजम कर गया और डकार भी नहीं ली। आदित्य सोनकर का मामला सुप्रतिम और प्रदीप तिवारी से सेट है। डग्गा मिलने पर वह सुप्रतिम को बता देता है। पंद्रह दिन बाद तीनों मिलकर सारे ‘डग्गे' आपस में बांट लेते हैं। गड़बड़ उसी दिन होती है, जब यह बीट राजेंद्र के पास होती है। राजेंद्र डग्गे में हिस्सा देने को तैयार नहीं होता। पूछो, तो कह देता है कि मैं वहां कवरेज करने जाता हूं कि डग्गा बटोरने? मैंने कई बार संकेतों से समझाया भी कि कौन—सा तुम्हारे बाप की कमाई से डग्गा आता है। दे दिया करो उसमें से इन भुख्खड़ों को हिस्सा

...लेकिन वह माने तब न! राजेंद्र लालची भी तो बहुत है।'

शिवाकांत ने दुर्गेश की दुखती रग पर हाथ रख दिया, ‘क्यों गुरु! आपको भी डग्गा हाथ से निकल जाने का अफसोस तो नहीं है? आखिर वह है, तो आपकी ही बीट का एक सहयोगी।'

शिवाकांत की बात सुनते ही दुर्गेश के चेहरे पर कई रंग आए और चले गए। शिवाकांत गौर से उनके चेहरे को देखता रहा। वह सकपका गए, ‘अमां यार...कैसी बातें करते हो? डग्गे के लिए राजेंद्र को मैं प्रताड़ित करूंगा? मैं सच बताउं+, अब डग्गे का मोह नहीं रहा। हां, कभी डग्गे के प्रति आकर्षण था। यह उन दिनों की बात है, जब पत्राकारिता में शुरुआत हुई थी। महीने—दो महीने तो बहुत बुरा लगता था...ये नेता, उद्योगपति या प्रेस कॉन्फ्रेंस कराने वाले टुटपुंजिया टाइप के लोग हम पत्राकारों को भिखारी समझते हैं क्या! जो चलते समय गिफ्ट थमा देते हैं। जब देखा कि बड़े और नामी पत्राकार जिनके नाम की पत्राकारिता जगत में तूती बोलती थी, वे भी बहती गंगा में हाथ धो रहे हैं, तो फिर मैं भी पीछे नहीं रहा। मैं तुमसे झूठ नहीं बोलूंगा, बाद में जब डग्गा नहीं मिलता था, तो बुरा लगता था। पिछले सत्राह सालों से डग्गा बटोरते—बटोरते घर भर गया है। तुम कहते हो, इस झांटू टाइप के डग्गे को लेकर मैं हाय—तौबा मचाउं+गा।'

इतना कहकर दुर्गेश अपने कंप्यूटर पर खबरें लिखने लगे। उनका ऐसा करना शिवाकांत के लिए संकेत था कि अब मैं काम करने जा रहा हूं, तुम फूट लो। शिवाकांत ने इस संकेत को समझा और अपनी सीट पर आ बैठा।

कंप्यूटर स्टार्ट करने से पहले उसने चारों ओर नजर दौड़ाई। अमितेश और दिवाकर खबरें लिखकर जा चुके थे। स्थानीय डेस्क की ज्यादातर सीटें भर चुकी थीं। संवाददाताओं और संपादकीय विभाग के कर्मचारियों के बैठने की व्यवस्था एक हालनुमा बड़े से कमरे में थी। एक ओर संवाददाताओं की सीटें थीं, तो दूसरी तरफ संपादकीय टीम की। स्थानीय डेस्क के इंचार्ज आशीष गुप्ता थे, लेकिन उनकी जवाबदेही सुप्रतिम के प्रति थी। दैनिक प्रहरी में पिछले कुछ सालों से स्थानीय डेस्क की संपादकीय और रिपोर्टिंग टीम का इंचार्ज एक ही व्यक्ति होने लगा था। मुख्य उप संपादक आशीष गुप्ता की मुख्य अपराध संवाददाता शिवाकांत से खूब पटती थी। इससे पहले भी दोनों ने दैनिक ‘देवयोग' में एक साथ काम किया था। दोनों की मित्राता उप समाचार संपादक सुप्रतिम अवस्थी को फूटी आंख नहीं सुहाती थी। अपनी बीट में अच्छी पकड़ के चलते वह दूसरे अखबारों के अपराध संवाददाताओं पर अक्सर भारी पड़ता था। कई खबरें उसने ऐसी ब्रेक की थीं जिसको लेकर पुलिस महकमे में खूब उठापटक हुई थी। पुलिस विभाग के आला अधिकारी भी उसको देखकर सतर्क हो जाया करते थे। उसके जाने के बाद में पुलिस अधिकारी अपने सहयोगियों को बुलाकर पूछते थे कि वह किस फिराक में आया था? खबरदार जो किसी ने ऑफिस की कोई बात लीक की। जिसका भी नाम लीक करने वालों में पाया गया, तो उसकी शामत आ जाएगी। इस बात को लेकर उसे थोड़ा अभिमान भी था, इसीलिए वह सुप्रतिम और समाचार संपादक प्रदीप तिवारी को बहुत ज्यादा महत्व नहीं देता था। उनकी बातें इस कान से सुनता और दूसरे कान से निकाल देता। जब भी कहीं कोई बात होती, शिवाकांत यह कहने से नहीं चूकता, ‘जब से बनियों ने अखबार निकालना शुरू किया है, पत्राकारिता की ऐसी—तैसी फेरकर रख दी है। इनका वश चले, तो साले कतरा—कतरा निचोड़कर खून अपने पास रख लें और लाश घर वालों को दाह संस्कार के लिए सौंप दें। यह तो कहो कि वे ऐसा कर नहीं सकते, तभी हम लोग जिंदा लाश की तरह घूम रहे हैं। अगर इनके वश में होता, तो अब तक पत्राकारों को भर्ती करने की जगह ऑफिस के बाहर एक कैंप लगाकर मोटे—मोटे अक्षरों में बैनर पर लिखकर टांग दिया जाता, पत्राकार अपना खून यहां दें। पत्राकार आते, खून देते और कुछ पैसा लेकर अपने घर चले जाते। एक दिन ऐसा भी आता कि वे इधर खून देते और उधर उनके प्राण पखेरू इस दुनिया से अनंत आकाश की ओर उड़ान भर रहे होते। हां, वेतन देते या बढ़ाते इनकी नानी मरती है। किसी दिन दो—चार हजार की चोरी की खबर छूट जाये, तो फिर देखो...हरामी कैसे कूदते—फांदते हैं, जैसे इनकी ही जेब का पैसा चोरी गया हो।'

उसकी बातों पर लोग हंस पड़ते। कुछ गंभीरता से सिर हिलाते, मानो उसने कोई परम दिव्य ज्ञान की बात कही हो। कुछ तो उसकी कही हुई बातों को हृदय के किसी कोने में सहेजकर रख लेते, ताकि मौका मिलते ही नमक—मिर्च लगाकर सुप्रतिम, प्रदीप तिवारी या संपादक चतुर्भुज शर्मा तक पहुंचा सकें। कुछ लोग तो यह मानते थे कि शिवाकांत की कही गई बातें कटु तो होती हैं, लेकिन होती पूरी तरह सत्य हैं। यही वजह थी कि ऐसे लोग शिवाकांत का आदर भी करते थे। उसके प्रति एक अपनापन वे महसूस करते।

संपादक चतुर्भुज शर्मा तक बात पहुंचती तो वे पहले चुप रहते, भीतर ही भीतर तिलमिलाते रहते और फिर सक्रिय हो जाते। शुरू हो जाती दैनिक प्रहरी और अन्य अखबारों में छपी आपराधिक खबरों की समीक्षा। तर्क और छिद्रान्वेषण के महासागर में गहरे उतरकर जाल डाले जाते। कमियों और छूटी खबरों के मोती तलाशे जाते। कुछ नहीं मिलता, तो ‘एक बार जाल और फेंक रे मछेरे' गीत की तर्ज पर फिर डुबकियां लगाई जातीं। फिर—फिर डुबकियां लगाई जातीं। और... चतुर्भुज शर्मा, प्रदीप तिवारी या सुप्रतिम अवस्थी के सलाहकारों के हाथ में जैसे ही कोई ‘मोती' लगता, वे प्रसन्नता से उछल पड़ते। थोड़ी देर बाद हरकारा भेजकर शिवाकांत को बुलाया जाता। सुप्रतिम से लेकर संपादक शर्मा तक केबिन में बुलाकर ‘ज्ञान की घुट्टी' पिलाते, चेतावनी देते। नौकरी से निकाल देने की धमकी के बरछे चलाए जाते और अहम भाव तुष्ट होने पर इस तरह छोड़ दिया जाता कि मानो उस पर कोई बहुत बड़ी कृपा की जा रही हो। हालांकि उनके मन की इच्छा दबी की दबी रह जाती। तरह—तरह की गलतियां बताई जाने के बाद भी शिवाकांत चुपचाप सुनता, न कुछ बोलता, न प्रतिवाद करता। वह खेद भी नहीं व्यक्त करता जिसको सुनने की चाह में यह सब कुछ आयोजित किया गया होता था। जिस दिन ऐसा होता, शिवाकांत अनमने ढंग से अपना काम निबटाता और घर चला जाता। लेकिन रात गई, बात गई...वाली कहावत चरितार्थ करते हुए दूसरे दिन वह फिर अपनी रौ में आ जाता। फिर शुरू हो जाती धुआंधार बयानबाजी, कभी डेस्क इंचार्ज सुप्रतिम अवस्थी के खिलाफ, कभी संपादक शर्मा के खिलाफ।

शाम को साढ़े छह बजे के बाद सुप्रतिम अपनी सीट पर आया। आते ही उसने सबसे पहले कंप्यूटर स्क्रीन पर सेव गणेश जी की तस्वीर को प्रणाम किया और फिर चारों ओर नजर दौड़ाई। उसने सामने बैठे सांस्कृतिक संवाददाता परिमल जोशी से पूछा, ‘अरे यार! शिवानी आज भी नहीं आई? यह अखबार का दफ्तर है या धर्मशाला। जिसकी जब मर्जी होती है, मुंह उठाए चला आता है। जब मर्जी होती है, बिना पूछे चला जाता है। कोई मुझसे पूछने की जरूरत भी नहीं समझता। आखिर मैं इस अखबार में कुछ हूं या नहीं? परिमल...तुम पता करो शिवानी आज भी क्यों नहीं आई। आने दो साली को टांगें न चौड़ी कर दी, तो कहना।'

‘देखिये सुप्रतिम सर! इस तरह की बातें आपको नहीं करनी चाहिए। परसों आपके ही पास शिवानी का फोन आया था कि वह बीमार है। आपने ही मुझसे बताया था कि कुछ दिन शिवानी ऑफिस नहीं आ सकेगी। कल मैंने भी उसे फोन किया था। उसने बताया था कि फीवर है, जो उतर ही नहीं रहा है। आज वह एक नर्सिंग होम में टेस्ट करवाने जा रही है। डॉक्टर ने डेंगू की आशंका जाहिर की है। अगर डेंगू निकला, तो हो सकता है कि कुछ हफ्ते ऑफिस न आ सके। बहरहाल, सब कुछ जांच पर ही निर्भर करता है।' नगर निगम और कचहरी बीट देख रहे धीरेंद्र रंजन ने प्रतिवाद किया, ‘आप इतनी जल्दी इस बात को कैसे भूल गए, मुझे तो ताज्जुब हो रहा है।'

‘सर जी! शिवानी को फीवर—वीवर कुछ नहीं हुआ है। यार के साथ डेटिंग पर गई होगी। विज्ञापन में हरदीप आहूजा है न...अरे वही लंबा—सा सींकिया पहलवान...आजकल उससे टांका भिड़ा हुआ है। उसी के साथ ऑफिस आती—जाती है। खबरें कवर करने भी वह कई बार उसकी मोटरसाइकिल पर जा चुकी है। मैंने खुद लैला—मजनूं की तरह बैठकर आते—जाते देखा है। आय...हाय...क्या चिपककर बैठती है वह आहूजा के साथ?' यह परिमल जोशी की आवाज थी। यह कहकर वह धूर्ततापूर्वक मुस्कुराया। उसकी बात पर कुछ लोग ठहाका लगाकर हंस पड़े। हंसने वालों में सुप्रतिम भी था और उसका ठहाका कुछ ज्यादा ही बुलंद था। सुप्रतिम जब भी खुश होता था, इसी तरह बुलंद ठहाका लगाता था। जब किसी की हंसकर खिल्ली उड़ानी होती हो, तो वह अपनी दायीं हथेली को मुंह पर लगाकर धीमे स्वर में हंसता था। हंसी थमने के बाद उसने परिमल से कहा, ‘जरा शिवानी को फोन लगाओ। अभी हौंकता हूं साली को। अच्छा रहने दो...मैं ही बात करता हूं।' इतना कहकर सुप्रतिम ने अपना मोबाइल फोन उठाकर शिवानी को लगाया।

‘हैल्लो...हां कौन...? शिवानी...आज तुम ऑफिस आई नहीं?'

‘...'

‘तो तुम्हें बताना चाहिए था। क्या सारे टेस्ट करा लिए हैं...'

‘...'

‘घबराना नहीं...डेंगू ही तो हुआ है...कोई कैंसर तो नहीं। दो—चार यूनिट खून से प्लेटलेट्‌स निकालकर तुम्हें चढ़ा दिए जाएंगे। फिर तुम परसों तक चंगी हो जाओगी। तुम चिंता मत करो। तुम्हारा यह भाई हरसंभव मदद करेगा। अरविंद चौधरी को फोन करके कहता हूं, वह सब मैनेज कर लेगा। वैसे तुम्हारा ब्लड गु्रप क्या है?'

‘...'

‘बी पॉजिटिव तो मेरा भी है। अरविंद को फोन करता हूं। कुछ ब्लड डोनर्स को वह जानता है। यहां साथियों से भी पता करता हूं कि किसका ब्लड गु्रप बी पॉजिटिव है। चिंता मत करो...भगवान पर भरोसा रखो। सब ठीक हो जाएगा। जरूरत पड़ी तो मैं भी खून दूंगा। पहले यह देख लूं कि अरविंद क्या व्यवस्था कर पाता है। वैसे मैं तो इतना ही कहूंगा, डोंट वरी, बी हैप्पी।' इतना कहकर सुप्रतिम ने मोबाइल रख दिया।

‘क्या हुआ...सर!' परिमल अब भी मुस्कुरा रहा था।

‘तुम भी साले...बिना सोचे—समझे बोलते रहते हो। वह बेचारी इंदिरा नगर के एक नर्सिंग होम में भर्ती है। तुम कह रहे हो कि डेटिंग पर गई है। साले...सुधर जाओ... तुम्हारी इन्हीं हरकतों की वजह से पल्लवी तुम्हें घास नहीं डालती, वरना तुम्हारा चेहरा—मोहरा ठीक ठाक ही है। कोई भी लड़की फंस सकती है।' सुप्रतिम ने परिमल को मीठी झिड़की दी। परिमल ‘हो—हो' करके हंस पड़ा, मानो यह मामूली बात हो।

सुप्रतिम की दायीं ओर बैठे आशीष गुप्ता से रहा नहीं गया। उसने खबरों की एडिटिंग रोक दी, ‘इसे कहते हैं चरित्रा का दोगलापन। भाई साहब...कुछ मामले में आपका भी कोई जोड़ नहीं है। आप भले ही बुरा मानें, लेकिन यह सच है। कुछ देर पहले तो आप शिवानी को साली कह रहे थे, उसकी टांगें चौड़ी कर रहे थे। मुश्किल से दो मिनट भी नहीं बीते थे कि वह आपकी बहन हो गई। आप उसके भाई हो गए। साली को सिर्फ दो मिनट में बहन बनते आज पहली बार देख रहा हूं। आपने तो गिरगिट को भी मात कर दिया...सुप्रतिम भाई! गिरगिट भी रंग बदलने में थोड़ा वक्त तो लेता ही है।'

‘क्या करता...जब वह बात—बात पर भइया—भइया कह रही थी, तो मैं उसे साली कैसे कह सकता था। अरे यार! मुझमें भी थोड़ी—बहुत नैतिकता बची है या नहीं।' सुप्रतिम ने दायें हाथ से मुंह को छिपाकर हंसते हुए कहा।

अपनी सीट पर बैठे—बैठे प्रशिक्षु उप संपादक राजेंद्र शर्मा ने हांक लगाई, ‘जब भी यहां शिवानी भटनागर, सावित्राी सिन्हा, दीपिका घोष या मंजरी अग्रवाल नहीं होती हैं, तो सर जी ऐसे ही सूत्रा वाक्य बोलते हैं। किसी को छिनाल, तो किसी को मर्दमार, किसी को बासी कढ़ी...न जाने किन—किन खिताबों से नवाजते रहते हैं। सुप्रतिम सर के पास इन सबके ऐसे—ऐसे किस्से हैं कि अब आपको क्या बताउं+...? आशीष सर, कभी आप फुरसत में हों, तो सुप्रतिम सर से किस्से सुनिएगा। भाई साहब...आंखों देखा हाल सुनाते हैं।'

सुबह की मीटिंग में एक घंटे तक हौंके जाने से खफा राजेंद्र मौका पाकर बदला लेने पर उतारू था। उसे मौका भी मिल गया था।

‘ऐसी भी बेबाकी किसी काम की, जब किसी की मान—मर्यादा का ही ख्याल न रहे। अरे...वह लड़की है। किसी की बहन—बेटी है, कम से कम इसका तो ख्याल रखना ही चाहिए। हर जगह, हर समय और सबसे सामने ‘सब धान बाइस पसेरी' नहीं तौले जाते। आप उसके सीनियर हैं, तो क्या सीनियर के सामने जूनियर की कोई मान—मर्यादा ही नहीं रह जाती? मुझे ताज्जुब होता है, आप इतने महत्वपूर्ण पद पर होते हुए भी इतनी ओछी बातें करते हैं।' आशीष गुप्ता का स्वर तल्ख हो उठा। उसने सुप्रतिम को अवहेलनापूर्ण दृष्टि से देखते हुए मुंह फेर लिया। सुप्रतिम अब भी मुस्कुरा रहा था।

‘छोड़िए इन बातों को...भाई साहब, अरविंद चौधरी को फोन कर लीजिए। वह शिवानी के लिए प्लेटलेट्‌स की व्यवस्था कर दे। एक खबर के सिलसिले में वह मेडिकल कॉलेज के किसी प्रोफेसर से मिलने गया है। हो सकता है, वह वहीं हो। इसके बाद उसे किसी व्यक्तिगत काम से नक्खास जाना है।' काफी देर से कमरे में चल रहे वार्तालाप को गौर से सुनने के बाद आदित्य सोनकर बोल पड़ा। ऑफिस में आम तौर पर आदित्य को चुप्पा माना जाता था। वह यहां होने वाली बातचीत में कम ही हिस्सा लेता था। वह आता, अपना काम निपटाता और चला जाता था। उसको किसी से बात करते या किसी बात पर उलझते कम ही लोगों ने देखा होगा।

आदित्य की बात सुनकर कुछ लोग हां में हां मिलने वाले अंदाज में सिर हिलाने लगे, तो कुछ कानाफूसी में मशगूल हो गये। कमरे में हो रही बातचीत शोर में बदल गई। सुप्रतिम ने मेज थपथपाकर सबको शांत कराया।

‘बस...बहुत हो चुका। अब सब लोग चुपचाप काम करो। मुझे क्या करना है, यह मुझे बताने की जरूरत नहीं है। आप सभी अपना काम करें और मुझे भी करने दें। अगर पेज सही समय पर नहीं छूटा, तो मैं सबकी खाल खींच लूंगा। रात दस बजे के बाद मुझे यहां कोई भी रिपोर्टर दिखना नहीं चाहिए। खबर लिखो और दफ्तर से दफा हो जाओ।'

‘लेकिन सर, अरविंद को फोन तो कर लें। किसी की जिंदगी का सवाल है। वह हम सबकी साथी है। हमारे साथ काम करती है। आज वह संकट में है। अगर हम सब उसकी मदद नहीं करेंगे, तो कौन करेगा? उससे आपकी क्या लाग—डाट है, मैं नहीं जानता। इंसानियत का तकाजा है, हम सब उसकी मदद करें।' सुप्रतिम की चापलूसी करने वाला आदित्य आज पता नहीं क्यों अपनी बात मनवाने पर तुला हुआ था। ‘टीटीएम' यानी तगड़ी तेल मालिश नाम से विख्यात आदित्य को आज शिवानी से सहानुभूति हो रही थी। उसे आज तक डेस्क इंचार्ज सुप्रतिम अवस्थी, न्यूज एडीटर प्रदीप तिवारी या एडीटर चतुर्भुज शर्मा की चापलूसी करने के सिवा कोई दूसरी बात करते किसी ने नहीं देखा था। संवाद सूत्रा से लेकर वरिष्ठ संवाददाता तक का सफर उसने तगड़ी तेल मालिश के बल ही किया था। लोगों का तो यहां तक कहना था कि वह कई बार प्रदीप तिवारी का घरेलू काम करता देखा गया है। सुप्रतिम अवस्थी को रसोई गैस की आपूर्ति आदित्य करता है।

सुप्रतिम नाराज हो उठा, ‘देखो...मुझे चो...मत सिखाओ। मैं पत्राकार हूं। इस समय मेरा सबसे पहला धर्म और कर्म समय पर अखबार निकालना है। मेरी पहली प्रतिबद्धता अपने अखबार के पाठकों के प्रति है, शिवानी भटनागर के प्रति नहीं। हम जनता के पहरुआ कूकूर तो हैं, लेकिन शिवानी के नहीं।'

वार्तालाप अप्रिय मोड़ लेता जा रहा था। सुप्रतिम की बात से आदित्य भीतर तक आहत हो उठा। सुप्रतिम की बातें उसके अंतर मन को छीलती चली गर्इं। उसके दिल में क्रोध की एक हल्की—सी लहर उठी, लेकिन वह उसी समय दम तोड़ गई। उसने कहना तो बहुत कुछ चाहा, लेकिन कहा कुछ नहीं। उसने अपने चेहरे पर कोई भाव भी नहीं आने दिया। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि सुप्रतिम लड़कियों के मामले में इतना दुराग्रही क्यों है? ऐसा क्यों है कि वह महिला संवाददाताओं के प्रति सहज नहीं रहता। कोई न कोई ऊटपटांग बात या टिप्पणी जरूर करता रहता है। इसके पीछे का मनोविज्ञान वह समझ नहीं पा रहा था।

शिवाकांत ने सबकी नजर बचाकर आशीष गुप्ता की ओर देखा। निगाह मिलते ही उसने बाहर चलने का इशारा किया। आशीष काम छोड़कर उठ खड़ा हुआ और कमरे से बाहर आ गया। दो—तीन मिनट बाद शिवाकांत ने उसे कैंटीन के रास्ते में पकड़ लिया। शिवाकांत ने कदम से कदम मिलाते हुए कहा, ‘अब ऑफिस का माहौल बहुत गंदा हो गया है। कई बार तो इतनी कोफ्त होती है कि सब कुछ छोड़कर पान की दुकान कर लूं। बाहर से कितना पवित्रा, किंतु भीतर से इतना बदसूरत पेशा...! मैं कहां आ फंसा। बाहर से यह दुनिया कितना लुभाती है। कितना मायावी है पत्राकारिता जगत...लेकिन कोई भीतर आकर तो देखे। बाहर से तालाब के स्थिर जल की तरह शांत दिखने वाले पत्राकारिता जगत में स्वार्थपरता, उठापटक, वरिष्ठों और कनिष्ठों की आपसी टांग खिंचाई, चापलूसी और जोड़—तोड़ के कितने ज्वार—भाटा अनवरत आते रहते हैं। यह ज्वार—भाटा तो कई बार छोड़ जाता है, घृणास्पद और निंदनीय किस्से। कई बार पत्राकारिता जगत की अच्छाइयां, कई अच्छे पत्राकार इसी ज्वार—भाटा के भंवर में फंसकर असमय काल कवलित हो जाते हैं। कई बार तो मुझे लगता है कि हम सब किसी रंडी के दल्ले हैं, जो पत्राकारिता का चमकीला और लुभावना लिबास पहने बाजार में ग्राहक के इंतजार में बैठे हुए हैं। हर अखबार का दफ्तर रंडी के कोठे जैसा लगता है। अखबार का हर मुलाजिम दलाल है...जितना बड़ा पद...उतना बड़ा दल्ला।'

आशीष ने सांत्वना देने की कोशिश की। शिवाकांत की पीठ थपथपाई, ‘यह पत्राकारिता का एक पहलू है। अगर गंभीरता से विचार किया जाए, तो पत्राकारिता आज भी कुछ लोगों के लिए मिशन है। किसी बच्चे की मुस्कान की तरह पवित्रा है। मानवीय है। समाज के अराजक और अन्यायी तत्वों पर अंकुश लगाने का बेहतरीन जरिया है।'

शिवाकांत कुछ देर चुपचाप चलता रहा। फिर उसने तल्ख स्वर में कहा, ‘अमां यार! कैसी बात करते हो। जब समाज का ही कोई मिशन नहीं रहा, तो पत्राकारिता मिशन कैसे हो सकती है। लक्ष्यहीन समाज में तुम दिशा खोजते हो। पत्राकारिता को मिशन नहीं, व्यवसाय कहो, तो मैं मान सकता हूं। हां, कभी किसी जमाने में कुछ लोगों के लिए पत्राकारिता मिशन हुआ करती थी। तब समाज का भी उद्देश्य था। वे लोग दूसरी मिट्टी के बने थे। पत्राकार मानवीय मूल्यों के प्रति प्रतिबद्ध थे, वे अपने मूल्यों के लिए कोई भी कीमत चुकाने को तैयार रहते थे। ऐसे पत्राकारों और समाचार पत्राों के मालिकों के लिए अखबार कमाने—खाने के साधन नहीं थे। उनमें एक जुनून था, एक जोश था। वे अपना सर्वस्व न्यौछावर करके भी अखबार निकालते थे। माफ कीजिएगा...आज की तरह पत्राकारिता उनके लिए धंधा नहीं थी। धंधा या उद्योग बिना मुनाफा कमाये नहीं चलाया जा सकता है। मुनाफा भी तभी होता है, जब इससे जुड़े लोगों का निर्मम रक्त शोषण और दोहन किया जाए।' शिवाकांत का स्वर गंभीर था।

दोनों तब तक कैंटीन पहुंच चुके थे। कोने में पड़ी मेज के इर्द—गिर्द रखी कुर्सियों पर आसन जमाने के बाद आशीष गुप्ता ने कैंटीन वाले से दो चाय लाने का इशारा किया। आशीष ने शिवाकांत के चेहरे पर नजर गड़ाते हुए मजाकिया लहजे में कहा, ‘यार...तुम तो कामरेडों वाली भाषा बोलते हो। ...खैर छोड़ो। यह तो तुम्हें मानना ही पड़ेगा कि इन तमाम अंतर्विरोधों और असंगतियों के बावजूद अखबार या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया लोगों को शिक्षित करता है। उन्हें अपने अधिकारों के प्रति सचेत करता है। अन्याय के खिलाफ जूझना सिखाता है। पत्राकारिता की इस समाज में एक सकारात्मक भूमिका है, इसे मानने से न तुम इनकार कर सकते हो, न मैं या कोई दूसरा।'

रोष के बावजूद शिवाकांत ठहाका लगाकर हंस पड़ा। तब तक हंसता रहा, जब तक उसकी आंखों में आंसू नहीं छलक आये। आंखों की नमी को दोनों हाथों की अंगुलियों से पोंछते हुए उसने कहा, ‘हुंह...लोगों को लड़ना सिखाते हैं। जो अपने अधिकार की लड़ाई नहीं लड़ सकते, वे दूसरों को क्या खाक लड़ना सिखाएंगे। तुम इसी लखनऊ के चर्चित शायर राजेश ‘विद्रोही' को तो जानते ही हो...अरे वही जिसका दावा है कि उसने अखबारों की इक्यावन नौकरियां छोड़ी हैं और जिसका पूरा शरीर भी इक्यावन जगहों से टूटा फूटा है। उसने पत्राकारों पर एक शेर कहा है, ‘कितना महीन है ये अखबार का मुलाजिम भी, खुद इक खबर है मगर दूसरों की लिखता है।' अच्छा दिल पर हाथ रखकर बताओ...जो खुद अपने हक में आवाज नहीं उठा सकता है, वह दूसरों का नेतृत्व कैसे कर सकता है? पिछले दो साल से राय साहब ने हम लोगों को इंक्रीमेंट नहीं दिया है। सात महीने से वीडीए बकाया है। पहले प्रबंधन की ओर से हर संवाददाता को प्रतिदिन के हिसाब से दो लीटर पेट्रोल की पर्ची मिलती थी। पिछले महीने से उसमें कटौती करके डेढ़ लीटर प्रतिदिन कर दिया गया। कोई गया था इसका विरोध करने? सबने प्रबंधन के इस फैसले को सिर झुकाकर स्वीकार कर लिया। कहीं किसी के कान पर जूं तक रेंगी? बातें सब बड़ी—बड़ी करते हैं, कहने को तो सभी रथी, महारथी हैं, लेकिन करते कुछ नहीं। यहां तो जिसकी पूंछ उठाओ, वही मादा निकलता है, यार!'

कैंटीन वाले ने दो कप चाय लाकर मेज पर रख दिया था। उसने कंधे पर पड़े अंगौछे से हाथ पोंछते हुए पूछा, ‘कुछ खाने को लाउं+?'

‘तुम्हारे पास मोबिल ऑयल में तला समोसा होगा या ब्रेड पकौड़ा...इसके अलावा तुम कुछ रखते नहीं। तुम्हारी कैंटीन का समोसा या पकौड़ा खाकर ऊपर नहीं जाना मुझे।' अंगूठे से ऊपर की ओर इशारा करते हुए आशीष गुप्ता ने कहा, ‘वैसे तो तुम्हारी चाय भी पीने की इच्छा नहीं होती। लेकिन क्या करूं! अमल लगती है, तो कैंटीन आना पड़ता है या फिर रामशरण से बाहर की चाय मंगानी पड़ती है।' इतना कहकर आशीष गुप्ता ने सामने रखी चाय का घूंट भरा। शिवाकांत चाय के गिलास को कुछ देर तक घूरता रहा। फिर चुपचाप चाय पीने लगा।

शिवबरन ने बगल की मेज साफ करते हुए कहा, ‘आप भी मजाक करते हैं। मोबिल ऑयल में कोई समोसा तलता है? सर जी, आप मुझे बेईमान ठहराते हो। कभी सोचा है कि इतनी महंगाई में भी मैं दो रुपये में समोसा या ब्रेड पकौड़ा कैसे दे रहा हूं? जानते हैं...मैदा, आलू, प्याज और तेल आदि के दाम आसमान छू रहे हैं। कैंटीन में काम करने को चार नौकर रखे हैं, इनकी तनख्वाह कहां से दी जाएगी? इस बारे में भी तो सोचिए।'

शिवबरन बातचीत के दौरान अपना काम भी करता जा रहा था। मेज पर पड़े

जूठे बर्तन हटाने के साथ उसे साफ कर चुका था। शिवाकांत चाय पीने के साथ—साथ उसकी बातों में रस लेने लगा। उसने चाय का घूंट भरते हुए कहा, ‘क्यों...तुम्हें प्रबंधन की ओर से जो सब्सिडी मिलती है, उसको मिलाकर तो तुम्हारा एक समोसा पांच रुपये का पड़ता है।'

‘आपने भी सब्सिडी की भली कही। बस कहने को सब्सिडी है। ऐसी सब्सिडी को लेकर चाटूं बैठकर? पांच हजार रुपये का बिल दो, तो पेमेंट होता है डेढ़ हजार, तो कभी दो हजार रुपये। एकाउंट सेक्सन के सीनियर एकाउंटेंट विपुल वशिष्ठ से लेकर उनके चपरासी ननकऊ तक दिन में चार—पांच बार चाय और समोसा मंगाते हैं। पेमेंट के नाम पर धेला तक नहीं देते। पैसा मांगो, तो आंखें दिखाने लगते हैं। सरकुलेशन डिपार्टमेंट में तो कुछ इतने चिरकुट हैं कि दो—तीन महीने तक पेमेंट लटकाए रहते हैं। ज्यादा जोर दो, तो आना ही बंद कर देंगे। उखाड़ लो उनका जो कुछ उखाड़ सकते हो? अब बाबू, यहां कमाने आया हूं कि झगड़ा करने। गरीब आदमी दुकानदारी चलाए या सबसे झगड़ा करता फिरे। झगड़ा करने पर यह कैंटीन भी चली जाएगी। बस, संपादकीय और मशीन वालों की बदौलत दुकानदारी चल रही है।' शिवबरन मुंह बिचकाते हुए बोला।

बातचीत चल ही रही थी कि टेलीफोन की घंटी बज उठी। शिवबरन फोन सुनने चला गया। आशीष और शिवाकांत चाय पी चुके थे। शिवाकांत ने उठते हुए कहा, ‘तुम यहां से उठोगे या बैठोगे। मैं तो फिलहाल यहां से निकलता हूं। मुझे खबर के सिलसिले में हजरतगंज कोतवाली जाना है।'

आशीष गुप्ता ने पर्स से पैसे निकालते हुए कहा, ‘कोई खास खबर है क्या...?'

शिवाकांत मुस्कुराया, ‘हां...है तो खास ही। अगर मैं खबर निकालने में सफल हो गया, तो कई ऐसे चेहरे बेनकाब होंगे जो सत्ता के गलियारे में पिछले कई सालों से कब्जा जमाए बैठे हैं। समझ लो कि खबर नहीं ...एटम बम है जिसके छपते ही पूरे प्रदेश में एक धमाका होगा और पूरी सरकार हिल जाएगी। तुम इस बात को ऐसे समझो कि मैं खबर निकालने के लिए एक प्रपंच रचने जा रहा हूं। स्टिंग ऑपरेशन जैसा? बल्कि स्टिंग ऑपरेशन ही कहो। हजरतगंज कोतवाली के सामने एक ऐसे आदमी से मिलने जा रहा हूं, जो मुझे दारुलशफा में रहने वाले एक मंत्राी के खासुलखास से मिलवाएगा। मंत्राी और उसके खासुलखास ही खबर के आधार बनेंगे। इनके खिलाफ मुझे पूरा प्रपंच रचना है। बाकी बातें लौटकर बताउं+गा। इतना ख्याल रखना कि इस खबर की भनक अभी किसी को भी न लगे। ...सुप्रतिम को भी नहीं। वरना अगर स्टिंग ऑपरेशन सक्सेस नहीं हुआ, तो बात—बात में टांट कसेगा।' इतना कहकर शिवाकांत तेजी से निकल गया।

कैंटीन में आशीष पैसे देकर पलटा ही था कि फीचर विभाग के किसलय त्रिापाठी ने दोनों हाथ जोड़कर अभिवादन करते हुए कहा, ‘सर जी, आज चाय पिलाने का इरादा नहीं है क्या? जो जल्दी से उठकर भागे जा रहे हैं।'

‘ऐसा क्यों कहते हो किस? तुम्हें कभी किसी बात के लिए मना किया है? तुम एक क्या चार—पांच कप चाय पी लो। लेकिन मैं एक भी नहीं पियूंगा। अभी थोड़ी देर पहले शिवाकांत के साथ चाय पी है।' आशीष ने दो रुपये का सिक्का शिवबरन की ओर बढ़ाते हुए कहा।

किसलय को दैनिक प्रहरी के लखनऊ कार्यालय में आए चार साल हो गए थे। इससे पहले वह दैनिक प्रहरी के मुंबई ब्यूरो कार्यालय में साढ़े तीन साल प्रशिक्षु संवाददाता रहा। काफी दौड़भाग और मुंबई ब्यूरो प्रमुख परमेश्वर दयाल के प्रयास से किसलय का तबादला लखनऊ कार्यालय में हो सका था। यहां आते ही उसे फीचर विभाग में ढकेल दिया गया। किसलय ने संपादक चतुर्भुज शर्मा से लेकर फीचर प्रभारी रामजी त्रिापाठी ‘दिनकर' तक के सामने अपना दुखड़ा रोया, सबके पैरों पर गिरकर अपने संवाददाता होने की दुहाई दी। उसने कहा भी, वह रिपोर्टर रहा है। उससे यहां भी रिपोर्टिंग कराई जाए। वह फीचर के मामले में ‘क...ख...ग' तक नहीं जानता, लेकिन उसकी एक नहीं सुनी गई। उसे मन मारकर फीचर विभाग में काम करने को राजी होना पड़ा। लखनऊ आने के कुछ दिनों बाद तक किसलय अपनी माटी की सोंधी गंध महसूस करके प्रफुल्लित रहा। मुंबई की नमकीन हवा, पानी और चिपचिपे वातावरण से निकलकर आने के बाद कई महीनों तक वह गहरी सांस लेकर हवा फेफड़े में भरता और मुदित होकर कहता, ‘अपनी हवा अपनी ही होती है। मुंबई कुछ साल और रहता, तो यकीनन दमा हो जाता। चिपचिपी हवा हम पुरबियों को न जीने देती है, न मरने। साला...हवा में भी नमक घुला हुआ है। यही वजह है कि बॉलीवुड की हीरोइनें नमकीन और रंगीन होती हैं।'

बात—बात पर प्रसन्नता जाहिर करने वाला किसलय धीरे—धीरे दैनिक प्रहरी के रंग और ढंग में रंगने लगा। वार्तालाप के दौरान हर किसी को ‘सर जी', ‘भाई जी' और ‘दद्दा जी' कहकर संबोधित करने वाले किसलय की बातचीत में अब व्यावसायिकता झलकने लगी थी। विनम्र, सुशील और ऊर्जावान किसलय दिनोंदिन रुक्ष और वाक्पटु होता जा रहा था। उसकी स्वाभाविक मुस्कान में कहीं—कहीं कुटिलता की भी झलक मिलने लगी थी। उसकी मासूमियत कहीं खोती जा रही थी। आशीष जब भी किसलय को देखता, तो उसे ऐसा लगता कि जैसे दस—बारह साल का बच्चा एकाएक प्रौढ़ हो गया हो। यह प्रौढ़ता आयु के अनुसार होती, तो उसे प्रसन्नता होती। लेकिन ऐसा नहीं था। यह प्रौढ़ता उसके स्वाभाविक विकास में बाधक थी। उसके अंदर का पत्राकार मर रहा था। उसकी जगह एक ऐसे किसलय का जन्म हो रहा था जिसके भटक जाने की आशंका ज्यादा थी। किसी बच्चे का एकाएक समझदार या प्रौढ़ हो जाना, उस बच्चे और समाज, दोनों के लिए खतरनाक था। ऐसा व्यक्ति अपने साथ—साथ समाज को भी क्षति पहुंचा सकता था। आशीष जानता था कि दैनिक प्रहरी में संपादकीय विभाग के लगभग सभी कर्मचारी किसी न किसी गुट से सक्रिय रूप से जुड़े हैं। समाचार संपादक प्रदीप तिवारी, लोकल डेस्क इंचार्ज सुप्रतिम अवस्थी, डॉ. दुर्गेश पांडेय के अपने—अपने गुट हैं। प्रादेशिक, को—आर्डिनेशन और जनरल डेस्क वाले अपने आगे किसी को गिनते नहीं हैं। फीचर सेक्सन की भी यही हालत है। सबके सब अपने अंतर्विरोधों से जूझ रहे हैं। सबकी सबसे प्रतिद्वंद्विता है। कुछ लोग एक दूसरे से मिलने पर खुद ही संपादक, समाचार संपादक या अपने प्रभारी की निंदा शुरू कर देते हैं और सामने वाले को उकसाते हैं कि वह भी आवेश में आकर किसी की निंदा करे। किसी के भी खिलाफ कुछ बोले, ताकि वे जमालो बी की तरह आग लगाकर दूर खड़े होकर तमाशा देखें। संयोग से जैसे ही सामने वाला अपने किसी वरिष्ठ या कनिष्ठ साथी के खिलाफ कुछ बोलता, उसकी बात को लोग लपक लेते। और फिर पहली फुरसत में वह ‘लगाने—बुझाने' के अभियान पर निकल पड़ते। संपादक या दूसरे के सामने पेश हो जाते, ‘भाई साहब! फलां व्यक्ति तो बहुत घटिया आदमी है। बड़ा वाहियात है। आपके खिलाफ तो गालियां जैसे उसके मुंह पर ही धरी रहती हैं। थोड़ी देर पहले कैंटीन या फलां जगह पर मिला था। मैंने उसका हालचाल पूछा। थोड़ी देर बाद बातचीत आपके संदर्भ में होने लगी। ...बस आपका नाम आते ही लगा आपको गालियां देने। मैंने विरोध किया, तो वह मुझसे भी भिड़ गया। मैंने भी उसे खूब फटकारा। अगर आपका ख्याल न होता, भाई साहब। तो आज उस ससुरे को पीट ही देता। मैं अपने लिए तो गालियां बर्दाश्त कर सकता हूं, लेकिन आपके संबंध में कोई ऐसी—वैसी बात सुनना मुझे कतई गंवारा नहीं है।'

‘अच्छा...ऽऽऽ' सुनने वाले की आंखें आश्चर्य से चौड़ी हो जातीं, ‘अभी बुलाकर हौंकता हूं। चूतिये की इतनी औकात हो गई है, वह मुझे गालियां देगा। एक काम करो। उसका पूरा कच्चा चिट्ठा मुझे दे जाओ। फिर देखता हूं साले को। उससे जो भी बड़ी गलतियां हुई हैं, उसकी सूची बनाकर दे जाओ। अभी क्लास लेता हूं।'

‘भाई साहब...अभी कल ही उसने ब्लंडर किया है। रणजी ट्राफी खेलने बंगाल की टीम लखनऊ आई थी। जनाब को भनक तक नहीं लगी। प्रतिस्पर्धी अखबारों ने इस खबर को पहले पन्ने पर छापा है। दूसरे अखबारों ने कई साइड स्टोरियां खेल के पन्ने पर दी है। अपने अखबार में ऐसी कोई खबर ही नहीं है। मामूली सी एक सिंगल कॉलम खबर लास्ट एडीशन में लगी है। वह भी डेस्क के जानकारी देने पर।' चापलूस व्यक्ति तो सामने वाले को दोधारी तलवार थमाकर प्रसन्न हो जाता था।

आशीष ने किसलय को बैठने का इशारा करते हुए कहा, ‘और बताओ...कैसा चल रहा है तुम्हारा कामकाज? दिनकर जी परेशान तो नहीं करते? भई और कुछ भी हो, दिनकर जी पीठ पीछे तुम्हारी बहुत प्रशंसा करते हैं। एकाध बार लोगों के सामने तुम्हारी प्रशंसा कर चुके हैं। मुझसे भी कई दफे तुम्हारे बारे में बात कर चुके हैं। इसका कारण क्या है? मैं नहीं जानता...इसे तुम बखूबी समझ सकते हो। कौन सी घुट्टी पिलाई है तुमने दिनकर जी को?'

आशीष की बात सुनकर किसलय मुस्कुराया। मुस्कुराने और हंसने के बीच की सीमा रेखा तक। दोनों होठों के बीच महीन सी सफेद दंतावलि चमक उठी। उसने सिर खुजाते हुए कहा, ‘भाई साहब! अब आपको क्या बताउं+...आपको तो शायद पता न हो...दिनकर जी बहुत महीन पीसते हैं। इतना महीन पीसते हैं कि सामने वाले की फाइल कब और कैसे निबटा देते हैं, यह तो ऊपर बैठा ‘वो' जानता है या धरती पर खुद दिनकर जी जानते हैं। दूसरा कोई भांप भी नहीं सकता। पीसने की कला में फ्लोर मिल कहे जा सकते हैं। उन्हें यह बखूबी मालूम है कि अतिरंजित प्रशंसा करके अपने विरोधियों का कैसे काम लगाया जाता है।'

‘दिनकर जी तुम्हारा काम क्यों लगाना चाहेंगे। इससे उनको भला क्या लाभ हो सकता है? जहां तक मैं समझता हूं, दिनकर जी सहृदयी, अतिविनम्र और सबका बढ़—चढ़कर सहयोग करने वाले जीव हैं। सात—आठ किताबें लिख चुके हैं। उनकी गिनती सूबे के वरिष्ठ पत्राकारों और साहित्यकारों में होती है।' आशीष का स्वर अत्यंत शांत था।

शिवबरन ने चाय लाकर रख दी। किसलय पल भर आशीष के चेहरे को निहारता रहा और फिर बोला, ‘सर...यह उनका एक रूप है। निस्संदेह...वे विद्वान हैं, वरिष्ठ पत्राकार और श्रेष्ठ साहित्यकार हैं। कई किताबें लिख चुके हैं, लेकिन यह सब उनके सहृदयी होने का पैमाना नहीं है। वे जब अधिकारी की भूमिका में होते हैं, तो घोर पक्षपाती, निर्मम, संवेदनहीन और जिद्दी हो जाते हैं। बाई द वे, अगर उनसे कोई गलत फैसला हो जाए या फिर फीचर पेजों पर कुछ गलत छप जाए, तो इसका दोष वे झट से दूसरों के सिर पर मढ़ देते हैं। अपनी ही गलती के लिए कोई न कोई सिर तलाश लेने में उन्हें महारथ हासिल है। भाई साहब! यह सब कुछ मैं किसी कुंठा, रोष या दुराग्रह के चलते नहीं कह रहा हूं। मैंने उनके साथ रहकर जो कुछ भोगा है, उसे बताने की कोशिश कर रहा हूं। अब आपको एक वाकया सुनाउं+।'

यह कहकर किसलय ने चाय का एक घूंट भरा और बोला, ‘दो महीने पहले की बात है। फीचर सप्लीमेंट में एक पुराना छप चुका आर्टिकल छप गया। ऊपर से ‘कोढ़ में खाज' वाली बात यह हुई कि दूसरे और तीसरे पेज पर एक फोटो रिपीट हो गई। दूसरे दिन दस बजे उन्हें संपादक जी ने तलब कर लिया। संपादक जी का बुलावा आते ही दिनकर जी सजग हो गए। संपादक जी के बुलाने पर उनका एंटीना खड़ा हो जाता है। संपादक जी ने भले ही उन्हें सामान्य तौर बुलाया हो, लेकिन चैंबर में घुसते ही अभिवादन के बाद उनके मुंह से तपाक से यही निकलता है, सर...यह गड़बड़ी मुझसे नहीं, फलां से हुई है। खुदा न खास्ता, अगर किसी दिन गड़बड़ हो भी जाए, तो गड़बड़ी क्या हुई, यह खोजने की बजाय वे एक अदद सिर की तलाश में लग जाते हैं। जिस पर सारा दोष मढ़ा जा सके।'

इतना कहकर किसलय ने फिर घूंट भरा, ‘भाई साहब, उस दिन आर्टिकल और फोटो रिपीट होने के मामले में उन्हें सबसे उपयुक्त शिकार मैं नजर आया। संपादक के पूछते ही झट से उन्होंने कहा, ‘सर! किसलय ने पता नहीं कैसे पुरानी फाइल उठा ली थी जिसमें आज छपा पुराना लेख पड़ा हुआ था। उस गधे ने यह भी नहीं देखा कि लेख का टॉपिक कितना पुराना हो चुका है। फोटो भी उसके चलते रिपीट हुई है। सुबह—सुबह उसका फोन आया था मेरे पास। मैंने खूब लताड़ लगाई है। मैं तो उसे एक हफ्ते की ‘फोर्स लीव' पर भेजने की सोच रहा हूं। बस...आपकी इजाजत की दरकार है। अगर आप कहें, तो इस फैसले को लागू करवा दूं।'

इतना कहकर किसलय चाय पीने लगा। आशीष उसकी बात को पूरी तन्मयता से सुन रहा था। उसे चाय पीता देखकर वे उसे मौन निहारते रहे। ‘दिनकर जी' के एक नए रूप का खुलासा उसके सामने हो रहा था। थोड़ी देर बाद उन्होंने पूछा, ‘फिर क्या हुआ? तुम्हारी तो उस दिन खाल खींच ली गई होगी।'

‘भाई साहब! इसके बाद जो कुछ हुआ, वह और भी रोचक था।' इतना कहकर किसलय फिर मुस्कुराया। बात—बात पर किसलय का मुस्कुराना, आशीष को अच्छा लगता था। वह किसलय में कम उम्र में ही दिवंगत हो गए अपने छोटे भाई की छवि देखता था। उसका दिवंगत भाई भी बात शुरू करने से पहले मुस्कुराता था। यही वजह थी कि वह किसलय के प्रति स्नेहभाव रखता था।

किसलय ने बात आगे रखी, ‘संपादक शर्मा ने दिनकर जी से मुझे बुलाकर लाने को कहा। संयोग से उस दिन मैं दो घंटे पहले आ गया था। शाम को मुझे निजी काम से थोड़ा पहले घर जाना था। सोचा था कि जल्दी—जल्दी काम निबटाकर घर चला जाउं+गा। माता जी को कुछ खरीदारी करनी थी हजरतगंज में। संपादक की केबिन से निकलकर दिनकर जी सीधा मेरे पास आए और बोले, देखो किसलय...कल एक बड़ी गड़बड़ हो गई। आज फीचर सप्लीमेंट में एक लेख पुराना छप गया है। एक फोटो भी रिपीट हो गई। संपादक जी बहुत नाराज हो रहे हैं। अगर उनका गुस्सा शांत नहीं हुआ, तो कई लोगों की रोजी—रोटी पर बात आ सकती है। कई लोगों की नौकरी बचाने के लिए मैंने तुम्हारा नाम ले लिया है। वैसे मैं उनके गुस्से को काफी हद तक ठंडा कर आया हूं। तुम्हें उनके पास जाकर सिर्फ ‘सॉरी' बोल देना है कि सर... यह चूक मुझसे हुई है। बस इतने से ही बात खत्म हो जाएगी। कह देना कि भाई साहब यानी मैंने पेज से फोटो हटाने को कहा था, लेकिन मैं भूल गया था। देखो...तुम प्रशिक्षु उप संपादक हो, तुम्हारा कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता। थोड़ी—सी डांट पड़ेगी और मामला रफा—दफा हो जाएगा। तुम इतनी—सी डांट मेरे और कई लोगों की नौकरियां बचाने के लिए तो खा ही सकते हो। और इसके बाद उन्होंने कुछ कहने का मौका दिए बिना मुझे खींचकर संपादक के सामने पेश कर दिया। संपादक जी मुझे देखते ही गुर्राये...अबे तुझे किस बेवकूफ ने भर्ती कर लिया था। भांग खाकर आते हो क्या? तुझमें इतनी भी अक्ल नहीं कि नये और पुराने लेख का अंतर न पहचान सको। छापने से पहले लेखों को पढ़ते भी हो कि नहीं। जो मर्जी आया...छाप दिया। अपना अखबार भी नहीं पढ़ते। अगर पढ़ते होते, तो तुम्हें पता होता कि दो हफ्ते पहले भी यही लेख संपादकीय पन्ने पर छपा था। और फिर पेज चेक करते समय तुम्हें एक ही फोटो दो जगह लगी नहीं दिखाई दी? दिनकर जी...आप इसे एक हफ्ते की फोर्स लीव पर भेजना चाहते हैं...अरे मैं तो कहता हूं कि ऐसे लापरवाह पत्राकारों का कान पकड़कर संस्थान से बाहर कर दीजिए। ऐसे नाकारा और लापरवाह लोगों की मुझे कतई जरूरत नहीं है। मैं और आप मिलकर अखबार निकाल सकते हैं। इतनी कूबत है मुझ में। जितने भी ऐसे लोग हैं, उन सबको चलता कर दीजिए। मुझे ऐसे लोगों की कतई जरूरत नहीं है, जो अपने आंख—कान खुले नहीं रखते हैं।'

संपादक चतुर्भुज शर्मा की नकल करता हुआ किसलय कह रहा था, ‘संपादक जी की बात सुनते ही मेरे कान खड़े हो गए। मैं समझ गया कि दिनकर जी अपना खेल खेल चुके हैं। अब अगर प्रतिवाद नहीं किया या सच्चाई सामने नहीं रखी, तो मैं गया बारह के भाव। नौकरी से तो हाथ धोउं+गा ही, लापरवाह और नाकारा होने का तमगा अलग से मेरे सीने पर चिपका दिया जाएगा। मैंने संपादक जी से विनम्र लहजे में कहा, सर...अदालत भी अपराधी को सजा सुनाने से पहले सफाई का मौका देती है। मुझे भी आपसे यही उम्मीद है। इस वक्त आप न्यायाधीश की भूमिका में हैं। मैं आपसे कुछ निवेदन करना चाहता हूं।'

मेरी बात सुनकर संपादक जी गुर्राये, ‘अब तुम्हारे पास सफाई देने को है ही क्या? फिर भी तुम्हारी बकवास सुनने को तैयार हूं। कहो, क्या कहना चाहते हो।'

इतना कहकर किसलय हंस पड़ा। उसने आशीष गुप्ता की ओर देखते हुए कहा, ‘भाई साहब...अगर आप उस समय मौजूद होते...तो हंसते—हंसते लोटपोट हो जाते। फिल्मों में मुगल बादशाहों के दरबार में जिस तरह कोर्निश बजाते दिखाया गया है, ठीक उसी तरह कमर से ऊपर के हिस्से को नब्बे डिग्री पर झुकाते हुए मैंने संपादक जी से अर्ज किया, सर...सप्लीमेंट का मैटर अपने शिड्यूल के मुताबिक बुधवार से लेकर शनिवार के बीच ही डिसाइड किया जाता है। रविवार को सप्लीमेंट के सारे पेज फाइनल किए जाते हैं। आपकी इजाजत से ही मैं इस रविवार से छह दिन पूर्व ही मंगलवार को छुट्टी लेकर अपने गांव चला गया था। कल बृहस्पतिवार को दस दिन की छुट्टी के बाद लौटा हूं। अब आप बताइए, जब मैं यहां था ही नहीं, तो फिर सप्लीमेंट के पेज मैंने कैसे फाइनल कर दिए।'

किसलय की बात और उसके कहने की अदा का कुछ ऐसा प्रभाव हुआ कि आशीष गुप्ता बेलौस हंस पड़ा। किसलय ने भी हंसते हुए कहा, ‘भाई साहब, मेरे यह कहते ही आदरणीय दिनकर जी के चेहरे का रंग उड़ गया। वे समझ गए कि बाजी उनके हाथ से निकल चुकी है। एक मामूली से प्यादे ने उनके बादशाह को शिकस्त दे ही है। कुछ देर तक हम तीनों मौन रहे। भाई साहब, कमरे में इतनी शांति छा गई कि दीवार पर टंगी घड़ी की सुइयों की ‘टिक—टिक' की आवाज साफ सुनाई पड़ रही थी। मैंने संपादक जी की ओर देखा, तो उन्होंने नजर झुका ली और बोले, किसलय...तुम जाकर अपना काम करो...मैं देखता हूं कि मामला क्या है?'

किसलय अब भी मंद—मंद मुस्कुरा रहा था। आशीष ने गहरी सांस भरते हुए कहा, ‘लौटकर तो दिनकर जी ने तुम्हारी खूब ‘हत्तेरी की—धत्तेरे की' की होगी।'

‘नहीं...दस पंद्रह मिनट बाद दिनकर जी आए और अपना लंच बाक्स उठाकर किसी से कुछ कहे बिना कहीं चले गए। बाद में रागिनी शुक्ला से मालूम हुआ कि दिनकर जी घर चले गए हैं। उनकी अचानक तबीयत खराब हो गई है। शाम को घर जाने से पहले कुछ लोगों से पता चला कि वे दो दिन की फोर्स लीव पर भेज दिये गए हैं।'

आशीष गुप्ता ने परिहास के स्वर में कहा, ‘यार किस! तुमने तो दिनकर जी की पूरी भट्ठी ही बुझा दी। बेचारे तुम्हारे और संपादक जी के सामने कितना शर्मिंदा हुए होंगे।'

‘शर्मिंदा—वर्मिंदा कुछ नहीं भाई साहब...वे दो—तीन दिन तक थोड़े गुमसुम से रहे। फिर अपनी रौ में आ गए। हां...इस प्रकरण का खामियाजा मुझे जरूर भुगतना पड़ा। उन्होंने बात—बेबात पर मेरी प्रशंसा करनी शुरू कर दी। प्रशंसा के बहाने मुझ पर ज्यादा से ज्यादा काम का बोझ लादा जाने लगा। जब भी मैं इसका प्रतिरोध करता, दिनकर जी झट से कह देते, अरे यार! इसे तो सिर्फ तुम ही कर सकते हो। जानते हो...यहां एक से बढ़कर एक गधे भर्ती कर लिए गए हैं। तुम्हारे लायक ही यह काम है। तुममें क्षमता है। इसका उपयोग करना सीखो। इस तरह दिनकर जी की लल्लो—चप्पो करने वालों की मौज हो गई। वे अपना सारा काम दिनकर जी के जरिये मुझ पर थोपकर मौज करने लगे। नतीजा यह हुआ कि मैं फीचर विभाग का ‘गधा' बन गया जिस पर चाहे जितना बोझ लाद दो, उफ तक नहीं करेगा। उस प्रकरण के बाद से दिनकर जी मुझ पर काम का इतना बोझ लाद देने लगे हैं कि आजिज आकर मैं बगावत पर उतारू हो जाउं+ या फिर काम के दबाव में बार—बार गलतियां करूं, ताकि दोनों स्थितियों में वे मुझे हौंक सकें। संपादक के सामने मेरी निंदा कर सकें। मुझे गधा साबित कर सकें। भाई साहब, सच कहूं। मुझे लगता है कि दिनकर जी की पहली मंशा जल्दी ही पूरी होने वाली है।'

अपनी व्यथा कहकर किसलय का दिल और दिमाग किसी तालाब के जल की तरह शांत हो गया। कप में बाकी बची चाय ठंडी हो चुकी थी। आशीष ने आगे बढ़कर किसलय की पीठ थपथपाई, ‘किस! तुम दिनकर जी का एक नया ही रूप उजागर कर रहे हो। मैंने लोगों को रंग बदलते, विश्वासघात करते और चेहरे पर मुखौटा लगाकर घूमते देखा है। ऐसे लोगों से पाला भी कई बार पड़ा है। अकसर क्या...लगभग रोज पड़ता रहता है। कई बार ऐसे शुभचिंतकों की शुभेच्छा का शिकार भी हुआ हूं, लेकिन दिनकर जी किसी के साथ ऐसा कर सकते हैं, मुझे अब भी विश्वास नहीं हो रहा है। दिनकर जी पहुंचे हुए खिलाड़ी हैं, यह बात तो कई लोग मुझसे कह चुके हैं। वे ‘काम लगाऊ' व्यूह युद्ध के अतिरथी हैं, यह बात मुझे ज्ञात नहीं थी।'

‘भाई साहब! मैंने साढ़े तीन साल दैनिक प्रहरी में और लगभग दो साल अन्य अखबारों में रिपोर्टिंग की। कभी ऐसी घटिया बातों से सामना नहीं हुआ। अब अपने मुंह अपनी तारीफ क्या करूं। मेरा ईमान जानता है कि रिपोर्टिंग के दौरान खूब मेहनत की, जमकर खबरें लिखीं और प्रशंसा भी पार्इं। गलतियां हुर्इं, तो डांटा भी गया। हर दूसरे—तीसरे दिन बाई लाइन खबरें छपीं। हां, डेस्क की गंदी राजनीति का अंदाजा नहीं था। डेस्क पर आने के बाद मैंने यह सीखा कि फील्ड में रहने वाले लोगों के अंगुली कैसे की जाती है? विरोधी रिपोर्टरों और डेस्क के सहयोगियों का काम कैसे लगाया जाता है? अब तो मैं जान गया हूं कि आगे बढ़ने में यह कला काफी काम आती है। बिना इसके कोई भी पत्राकारिता जगत में सरवाइव नहीं कर सकता है। संपादक से लेकर लेकर चपरासी तक की जी हुजूरी करने की कूबत है, तो आप आकाश छू सकते हैं, वरना किसी कोने में बैठे कुढ़ते रहिए। मैं इतना बड़ा तोपची हूं, मैं इतना बड़ा तीरदांज हूं। मैंने बड़े—बड़े शेरों की मूंछ का बाल उखाड़ा है।'

आशीष ने उठते हुए कहा, ‘किस! तुम अभी बच्चे हो। पत्राकारिता में तुम्हारा शैशवकाल है। जितना सीख सकते हो, सीखो। जितनी मेहनत कर सकते हो, करो। अभी तुममें ऊर्जा है, जोश है। तुम अपना विकास कर सकते हो। अभी से ऐसी वाहियात बातों के बारे में क्यों सोचते हो? ऐसे बेहूदे पचड़े में न पड़ो, तो अच्छा है। यह सब तब के लिए रहने दो, जब तुम्हारा जोश ठंडा पड़ जाएगा, सारी ऊर्जा चुक चुकी होगी। स्वार्थ और जोड़—तोड़ के शतरंज पर बिछी बिसात पर चाल चलने और मात को शह में बदलने का मौका तुम्हें तब भी मिलेगा। या यों कहो कि तब यह सब करना तुम्हारी मजबूरी होगी। ऐसा किए बिना तुम्हारा गुजारा भी नहीं होगा इस क्षेत्रा में। यह सब उस समय के लिए बचा कर रखो। मुझे तुम सीनियर समझो या अपना बड़ा भाई, मेरी सलाह मानो और बिना किसी राग—द्वेष के सिर्फ अपना काम किए जाओ। ईमानदारी, मेहनत, काबिलियत और निष्ठा पर चमचागीरी, बेईमानी, स्वार्थपरता की धूल भले ही कुछ दिनों के लिए जम जाए, लेकिन एक दिन जब सत्य की हवा चलती है, तो ये सारे गुण सामने आ जाते हैं। किसी की लल्लो—चप्पो करके नाकारा लोग भले ही अपना तात्कालिक लाभ उठाने में सफल हो जाएं, लेकिन पूजी हमेशा सच्चाई, ईमानदारी और काबिलियत ही जाती है।'

‘सर...एक बात कहूं? हालांकि यह छोटा मुंह बड़ी बात जैसी होगी। मुझे तो लगता है कि हम सब किसी कमरे में घुस आई उस तितली की तरह हैं, जो किसी कारणवश दरवाजा बंद होने पर खिड़की पर लगे शीशे से मुक्ति की कामना में बार—बार टकराती है। गिरती है, उठती है, फिर उसी शीशे से टकराकर गिर जाती है। कई बार तो इस बार—बार गिरने और टकराने की प्रक्रिया में उसके सुंदर—सुंदर पंख और शरीर क्षत—विक्षत हो जाते हैं।' इतना कहकर किसलय ने एक बार आशीष की ओर देखा और फिर बोला, ‘हम लोग भी एक बार पत्राकारिता के अंधे कुएं में प्रवेश करने के बाद छटपटा रहे हैं। उस तितली की तरह बार—बार टकराते हैं, गिरते हैं और लहूलुहान होकर रह जाते हैं। मुक्ति का कोई मार्ग दिखता ही नहीं है। सारे रास्ते तो हमने ही या पत्राकारिता जगत की असंगतियों ने बंद कर रखा है। हम छटपटा तो सकते हैं, लेकिन मुक्त नहीं हो सकते। हमारी यही विवशता है। इस अंध कूप में प्रवेश का मार्ग तो दिखता है, लेकिन बाहर निकलने का कोई मार्ग सूझता ही नहीं है।'

‘तुम अपनी नकारात्मक सोच से बाहर आओ। इसी पत्राकारिता जगत में बहुत कुछ ऐसा है, जो सुखद है, सुंदर है और लोक कल्याणकारी है। कुछ ऐसे भी पत्राकार और संपादक हैं, जो पूरी निष्ठा और लगन से अपने काम में लगे हुए हैं। मैं एक क्या दसियों पत्राकारों के नाम गिना सकता हूं जिन्होंने अपना सर्वोत्तम इसी पत्राकारिता को दिया है।' आशीष हंस पड़ा किसलय की बात सुनकर।

‘राडिया प्रसंग के बाद भी?'

‘हां...राडिया प्रसंग के बाद भी...' अपने दाहिने हाथ से किसलय की पीठ थपथपाते हुए आशीष ने कहा, ‘मैं चलता हूं। काफी देर हो गई है। सुप्रतिम काफी कुढ़ रहा होगा। वह हर आती—जाती सांस में बुदबुदाकर कोस रहा होगा। तुम भी जाओ। दिनकर जी तुम्हारा इंतजार कर रहे होंगे। मेरी बात पर चिंतन जरूर करना।'

आशीष डेस्क पर पहुंचा, तो सभी साथी अपने—अपने काम में जुटे हुए थे। सिर्फ सुप्रतिम अवस्थी चीख—चीखकर मेडिकल बीट के रिपोर्टर अरविंद चौधरी को लताड़ रहा था, ‘तुम सब जान—बूझकर मुझे ‘इरीटेट' करते हो। एक तो कल तुमसे राजा बाजार में डायरिया फैलने और चौदह लोगों के केजीएमसी (किंग जार्ज मेडिकल कॉलेज) में भर्ती होने की खबर छूटी। आज उसका ठीक से फालोअप भी नहीं कर पाए। चार घंटे घूमने के बाद ‘चार लाइन' की झांटू—सी खबर लिखकर अपने को सबसे बड़ा रिपोर्टर समझ रहे हो।'

आशीष को सुप्रतिम का लहजा नागवार गुजरा। उसने अरविंद चौधरी की ओर इस आशा से देखा कि शायद वह प्रतिकार करे, लेकिन वह तो हाथ पीछे बांधे शरणागत की मुद्रा में खड़ा था। अरविंद का रवैया देखकर उसने विरोध करने का इरादा छोड़ दिया। उसके दिमाग में खलबली मचने लगी थी। उसने सिर को झटकते हुए मन ही मन कहा, वही क्यों हर बात में टांग अड़ाए। दूसरों के साथ गलत होता देखकर शिवाकांत की तरह वह भी कई बार बीच में पड़ चुका था। ऐसा भी हुआ है कि उसने जिसका पक्ष लिया, उसने आशीष का साथ देने की बजाय डांटने—फटकारने या प्रताड़ित करने वाले का ही साथ दिया। आशीष अपना मुंह लेकर रह गया। एक बार आदित्य सोनकर को प्रदीप तिवारी ने कई लोगों के सामने बेइज्जत किया, उसे ‘साले' तक कह दिया। वह चुपचाप सुनता रहा। आशीष को सबके सामने अपने साथी की यह बेइज्जती बर्दाश्त नहीं हुई। उसने तिवारी जी को टोक दिया, तो आदित्य सोनकर ही सबके सामने ही आशीष से लड़ पड़ा, ‘आपको मेरे मामले में टांग अड़ाने को किसने कहा था? आपका बीच में बोलना जरूरी था? तिवारी सर...मेरे सीनियर हैं। अगर वे कोई बात कहते हैं, तो मेरे भले के लिए ही कहते हैं। गलती मुझसे हुई थी, तो डांट भी मैं ही सुनूंगा। आप अपनी टांग यहां अड़ाने की बजाय कहीं और ले जाएं।'

पीठ पीछे लोग उसे बेवकूफ, खब्ती और झक्की कहकर खिल्ली उड़ाते थे। लोगों का रवैया देखकर उसे लगता कि लगातार बढ़ती प्रतिस्पर्धा, अखबारों में नौकरी के कम होते अवसर और जुगाडू संस्कृति का बोलबाला होने से लोगों की जुझारू प्रवृत्ति कम होती जा रही है। सच के लिए लड़ने या अन्याय के प्रतिकार को बेवकूफी माना जाने लगा है। अखबारी दुनिया का हर आदमी या तो अपने संपादक या मैनेजर की लल्लो—चप्पो कर प्रमोशन पाने में लगा है या फिर किसी तरह अपनी नौकरी को सुरक्षित रखने में। पत्राकार अब तो अपनी नौकरी को बचाने, इंक्रीमेंट—प्रमोशन पाने को किसी भी हद तक गिरने को तैयार हैं...बस किसी तरह उन्हें मौका मिलना चाहिए। मौका न मिले, तो कोशिश करके किसी न किसी बहाने तलाश ही लेते हैं।

कंप्यूटर का मॉउस पकड़कर ट्रैक से परिमल जोशी की खबर को क्लिक करते हुए आशीष ने सुप्रतिम से कहा, ‘आपको ऐसी अपमानजनक भाषा में किसी साथी से बात करने का कोई हक नहीं है। अगर आपको लगता है कि किसी रिपोर्टर या डेस्क के साथी से कोई गलती हुई है, तो उससे आप पूछताछ करें। सार्वजनिक रूप से आप किसी को बेइज्जत नहीं कर सकते हैं। आप भी इस अखबार के नौकर ही हैं, मालिक नहीं। एक नौकर दूसरे नौकर से ऐसा बरताव करे, यह अच्छी बात नहीं है। ...और अगर आप मालिक भी होते, तो भी आपको यह अधिकार नहीं है कि आप किसी की मान—मर्यादा का ख्याल न रखें। यह सरासर गलत है। आपका कोई विरोध नहीं करता, इसका यह मतलब कतई नहीं है कि आपकी हर बात और हरकत जायज है।'

थोड़ी देर पहले किसलय को मन से बिना किसी राग—द्वेष के काम करने की सलाह देने वाला आशीष अपना पाठ खुद ही भूल गया। आशीष गुप्ता के बीच में कूद पड़ने से सुप्रतिम ने अपने को अपमानित महसूस किया। उसने तल्ख स्वर में कहा, ‘देखो, मुझे ज्ञान मत दो। घंटे भर कैंटीन में लोगों से चोंच लड़ाने के बाद लौटे हो। ...और मुझसे नैतिकता झाड़ रहे हो। यहां बीस फाइलें पड़ी अपनी किस्मत को रो रही हैं। आपको गप्पें लड़ाने से फुरसत मिले तब न! तुम मुझे चूतिया समझते हो या संपादक जी को। संपादक जी पिछले तीन साल से रोज समय पर पेज छोड़ने की कहते—कहते थक गए, लेकिन शायद ही कोई दिन गया हो, जिस दिन पेज समय पर छूटे हों। नैतिकता और ईमानदारी की बात करना आसान है। सुनने में अच्छा भी लगता है, लेकिन नैतिक होना बहुत मुश्किल है। ऑफिस आने के बाद जितना समय बकचोदी करने में खर्च करते हो, अगर वही समय खबरों के संपादन में लगाते, तो मेरा दावा है कि पेज रोज समय पर छूटते और गलतियां भी कम जातीं।'

आशीष तिलमिला कर रह गया। वह जानता था कि ट्रैक पर उन्नीस—बीस खबरें असंपादित पड़ी हुई होंगी। यह भी सच था कि वह शिवाकांत के साथ चाय पीने जाने के बाद से लगभग घंटे भर बाद लौटा था। वह समझ गया कि सुप्रतिम इसी बात को मुद्दा बनाकर वितंडा खड़ा करना चाहता है। उसने विरोध जताया, ‘पेज लेट होने के बहुत से कारण हैं। उसमें एक कारण यह भी है कि आप बिना कोई प्लानिंग किए समय—असमय सीट से गायब रहते हैं। आप जब सीट पर बैठेंगे ही नहीं, तो होगा क्या? आपके पास ऑफिस की महिला सहयोगियों की इज्जत उतारने और लड़कियों से बतियाने की फुरसत तो है, लेकिन बैठकर पेजों की प्लानिंग करने की फुरसत नहीं है। सच कह दूं, तो मिर्ची लग जाती है। आप खुद अपने काम के प्रति गंभीर नहीं हैं। दूसरों पर रौब डालते रहते हैं।'

‘मैं इस अखबार का डीएनई (डेपुटी न्यूज एडीटर) हूं। मैं क्या करता हूं? कहां जाता हूं? किससे बात करता हूं? इससे किसी भो...वाले का कोई लेना—देना नहीं है। मेरी जो मर्जी होगी, वह करूंगा।'

सुप्रतिम की बात से आशीष गुस्से से तमतमा उठा, लेकिन वह बात का बतंगड़ बनाने से बचने के लिए काम में जुट गया। उसको लगा कि अगर आज वह समय पर खबरों को संपादित नहीं कर पाया या साथियों से नहीं करा पाया, तो इसका ठीकरा सुप्रतिम उसके ही सिर पर फोड़ेगा। वह संपादक और समाचार संपादक से जरूर शिकायत करेगा। यह दोनों तो पहले से ही खार खाए हुए बैठे हैं। इनका वश चले तो उसे तत्काल कान पकड़कर ऑफिस के गेट से बाहर फिंकवा दें। वह सुप्रतिम को शिकायत करने का कोई मौका नहीं देना चाहता था। उसने सबसे पहले पैकेज वाली खबरें साथियों में वितरित की और अपराध की खबरें खुद संपादित करने लगा। रात साढ़े ग्यारह बजे तक वह बिना इधर—उधर देखे खबरों से जूझता रहा। इन सबसे निजात पाकर उसने पेजों की डमी खींची और पेजिनेशन को भिजवा दिया। एक पेज उसने खुद बनाया। एडिटोरियल डेस्क पर आशीष गुप्ता के साथ संजय शुक्ल, कपिल वर्मा, राम किंकर पांडेय और श्याम जी शर्मा थे। इन लोगों ने अपना—अपना पेज लाकर आशीष को दिखाया। बताई गई त्राुटियों को ठीक करने के बाद पौने दो बजे सारे पेज छोड़े गए। राम किंकर पांडेय ने रजिस्टर पर पेजों को छोड़ने का विवरण दर्ज किया। पेज बनाने की शुरुआत होने से पहले ही सुप्रतिम जा चुका था। सारे रिपोर्टर्स काफी पहले ही जा चुके थे। सबसे आखिर में आशीष ने ऑफिस छोड़ा।

जून का आखिरी सप्ताह चल रहा था। पूरा उत्तर भारत प्रचंड गर्मी की थपेड़ों से अकुलाया हुआ था। गांव—कस्बों में सुबह—शाम बच्चे दरवाजे—दरवाजे जाकर ‘कारे मेघा पानी दे...पानी दे गुड़धानी दे' की गुहार लगाकर इंद्रदेव को प्रसन्न करने का टोटका कर रहे थे। जिसके घर के सामने बादलों से पानी मांगते ये बच्चे ‘कारे मेघा पानी दे...' की गुहार लगाते, उस घर के लोग बाल्टी—दो बाल्टी पानी लाकर इन बच्चों पर डाल देते थे। बुजुर्गों के लिए यह जल के देवता इंद्र को प्रसन्न करने का टोटका था, बच्चों के लिए महज मनोरंजन और मिलने वाले रुपये—दो रुपये का लालच। अपने पर फेंके गए पानी से बने कीचड़ में ये बच्चे जब तक मन होता छप—छपैया खेलते और फिर किसी दूसरे के घर की राह लेते। अखबारों में कई जिलों में रात में महिलाओं के निर्वसन होकर हल चलाने की खबरें भी आ चुकी थीं, लेकिन इंद्रदेव प्रसन्न होने का नाम ही नहीं ले रहे थे। साल भर भरे—पूरे रहने वाले ताल—तलैया इस साल स्नेह शून्य हो रहे थे। पशु—पक्षी अकुला रहे थे। जून के पहले हफ्ते से ही खेती का काम—काज शुरू कर देने वाले किसान टुकुर—टुकुर आसमान की ओर निहार रहे थे। किसी दिन यदि कहीं कोई बादल का एक टुकड़ा भी दिख जाता, तो आशा बलवती हो उठती। मन गर्म लू में ही अंगड़ाइयां लेने लगता, मानो अभी यही बादल का एक टुकड़ा विशाल रूप धारण करके संपूर्ण धरा को जल प्लावित कर देगा। लेकिन अफसोस...बादल का यह टुकड़ा भी किसानों को मुंह चिढ़ाता हुआ कहां बिला जाता है, यह पानी बिना व्याकुल लोग नहीं जान पाते।

शहरों में पानी बरसाने को हवन—यज्ञ किए जा रहे थे। वातानुकूलित कारों में चलने वाले साधु—संत अपने प्रवचनों में भी वर्षा न होने की किसी न किसी रूप में चर्चा कर रहे थे। कुछ साधुओं ने अपने प्रवचन में तो यहां तक कहा कि देश में अनावृष्टि का कारण लगातार बढ़ता अनाचार और पाप वृत्ति है। यही अनाचार और पाप वृत्ति इन साधु—संतों की कमाई का जरिया भी बना हुआ था। प्रवचन और कथा—भागवत के नाम पर समाज का यह परजीवी समुदाय खूब चांदी काट रहा था। शहर—कस्बों में ऐसे प्रवचनों और धार्मिक आयोजनों की जैसे भरमार हो गई थी। सुरा पान कर धर्मोपदेश देने वाले साधु—संत सुबह होते ही आयोजक से मोटी रकम वसूलते और अपनी राह लेते। पर्यावरण प्रेमी और विशेषज्ञ अनावृष्टि के लिए ग्लोबल वार्मिंग को जिम्मेदार मानते थे। जहां भी ऐसी कोई चर्चा छिड़ती, सरकार और कार्बन डाई आक्साइड उत्सर्जित करने वाली कंपनियों और उनके मालिकों को कोसते। बड़ी—बड़ी परिचर्चाओं, गोष्ठियों और सेमिनारों में ग्लोबल वार्मिंग के खतरों से लोगों को आगाह करने की कोशिश की जाती, लेकिन लोग इस कान से सुनते और दूसरे कान से निकाल देते। विद्वानों की बातों और भाषणों से कहीं ज्यादा लोगों की रुचि इस बात में थी कि बंगाल की खाड़ी या प्रशांत महासागर में बनने वाला हवा का दबाव जल्दी ही मानसूनी बादलों को गति प्रदान करेगा या नहीं। मानसून न आने से पूरे देश में हाहाकार मचा हुआ था। केंद्र और राज्य सरकारें जनता को धैर्य धारण करने का उपदेश देने के सिवा और क्या कर सकती थीं। किसान आकाश में टकटकी लगाए बादलों की बाट जोह रहे थे, लेकिन निर्मोही बादल जैसे उनकी गुहार सुनने को तैयार ही नहीं थे। बारिश न होने से खेती पिछड़ रही थी। मौसम विभाग कुछ अलग ही राग अलाप रहा था। मौसम विभाग कभी कहता कि फलां तारीख तक देश में मानसून आ जाएगा। वह तारीख निकल जाती, तो कहा जाता कि हवा का दबाव कम बनने से मानसून के आने में देरी हो रही है। हां, अमुक तारीख तक बादलों के सक्रिय होने का अनुमान है। लोग मौसम विभाग की बुलेटिनों को लेकर खीझ प्रकट करते या बकवास कहकर मुंह बिचका देते। देश में लगभग सात सौ से अधिक लोग प्रचंड गर्मी और लू के चलते काल कवलित हो चुके थे।

बदन झुलसाती लू के थपेड़ों को झेलता शिवाकांत जब शाम को चार बजे टाइम्स चौराहे पर पहुंचा, तो वह पसीने से तर—बतर था। उसने अपनी मोटरसाइकिल टाइम्स चौराहे पर ही स्थित एक रेस्टोरेंट के सामने खड़ी की और उसमें घुस गया। टाइम्स चौराहे के आसपास कई अखबारों के दफ्तर होने से शहर के ज्यादातर पत्राकार दिन में एकाध बार यहां जरूर आते हैं। दैनिक जागरण और टाइम्स आफ इंडिया के दफ्तर तो बिल्कुल पास ही हैं, मात्रा कुछ ही कदमों की दूरी पर। स्वतंत्रा भारत और पायनियर कुछ साल पहले तक विधानसभा मार्ग से प्रकाशित होते थे, लेकिन जब से स्वतंत्रा भारत को एक कागज मिल मालिक ने खरीदा उसका कार्यालय जपलिंग रोड पर आ गया। उसकी भी टाइम्स चौराहे से कोई बहुत ज्यादा दूरी नहीं है। सिकंदर बाग चौराहे से गोमती नदी की ओर बढ़ने पर दैनिक हिंदुस्तान और हिंदुस्तान टाइम्स के दफ्तर हैं। पहले पत्राकारों का जमावड़ा विधानसभा मार्ग पर स्वतंत्रा भारत और पायनियर के दफ्तर के आसपास चाय के ठेलों और ढाबों पर लगता था, लेकिन बाद में टाइम्स चौराहा पत्राकारों की गपास्टिक का अड्डा बनता गया। इसकी शुरुआत किसने की, यह कोई नहीं जानता। दैनिक जागरण भी इससे पहले हजरतगंज कोतवाली के सामने वाली गली से प्रकाशित होता था।

आजादी के बाद साहित्यकारों, राजनीतिज्ञों, प्रोफेसर, कवियों और रंगकर्मियों की बैठक का महत्वपूर्ण अड्डा जहांगीराबाद मेंशन में स्थित ‘इंडियन कॉफी हाउस' हुआ करता था। आजादी से पहले इस कॉफी हाउस के बाहर ‘इंडियन्स एंड डॉग्स आर नाट एलाउड' का बोर्ड टंगा रहता था। एक दिन शिवाकांत को ही उसके किसी साथी ने बताया था कि आजादी के बाद के कुछ वर्षों तक यह बोर्ड टंगा रहकर ब्रिटिश हुकूमत का प्रतिनिधित्व करता रहा। उन दिनों ‘कॉफी हाउस' में बैठना स्टेटस सिंबल की तरह था। यहां नेता, मंत्राी, साहित्यकार, पत्राकार और रंगकर्मी दिन भर बैठे देश, समाज और राजनीति की दशा और दिशा पर गहन चिंतन और बहस करते। फिर अपने—अपने घर चले जाते। जब सांसदों, विधायकों और मंत्रिायों को आम जनता और बुद्धिजीवियों के बीच आने—जाने में हिचक महसूस होने लगी, तो वे यहां आने से कतराने लगे। शायद तभी उन्होंने अपने आपको सुरक्षा कवच से ढकना भी शुरू कर दिया था। शिवाकांत की समझ में यह बात नहीं आती थी कि कल तक जो नेता सड़कों, शहर और गांव की गलियों में स्वतंत्राता से घूमता था, अपने काका, बाबा, भाई—बिरादरी के बीच उठता—बैठता था। सत्ता मिलते ही उस पर सुरक्षा कवच में चलने की खब्त क्यों सवार हो जाती है। इसी खब्तीपने ने उन्हें जनता और साहित्यकारों, रंगकर्मियों के बीच बैठकर गपियाने के आनंद से वंचित कर दिया।

साहित्यकार या बुद्धिजीवी किस्म के लोग सुबह कॉफी हाउस खुलते ही आकर बैठ जाते। एक कप कॉफी पीते और सारा दिन कुर्सियां तोड़ते। बाद में आने वाला व्यक्ति या तो इनके आस पास पड़ी कुर्सियों पर आसन जमाता या फिर कहीं और बैठ जाता। यह सिलसिला दिन भर चलता। निठल्ले किस्म के साहित्यकारों, कवियों और टुटपुंजिया नेताओं की इस प्रवृत्ति से आजिज कुछ लोगों ने अमीनाबाद पार्क के सामने स्थित कंचना होटल में बैठना शुरू किया। इसके चलते बुद्धिजीवियों की महफिलें दोनों जगह आबाद होने लगीं। नौवें दशक तक आते—आते दोनों ही जगहें महत्वहीन होने लगीं। कंचना होटल अतीत का हिस्सा होकर रह गया, लेकिन कॉफी हाउस अब भी है। कुछ पुराने साहित्यकार, कवि और रंगकर्मी गाहे—बगाहे आज भी कॉफी हाउस पहुंच कर अपने पुराने दिनों की याद ताजा कर लेते हैं। नई पीढ़ी के पत्राकारों, साहित्यकारों और बुद्धिजीवियों को कॉफी हाउस रुचता नहीं। उन्होंने बैठकी का एक अड्डा टाइम्स चौराहे पर खोज लिया। टाइम्स चौराहे पर रंगकर्मी, कवि, लेखक किस्म के जीव तो इकट्ठा नहीं होते, लेकिन पत्राकारों की महफिल सुबह चार बजे तक जरूर जमती है। अखबारों की आपसी प्रतिद्वंद्विता और मैनेजर या संपादक द्वारा मौखिक रूप से लगाए गए प्रतिबंध की वजह से पत्राकार भी कुछ वर्षों से आपस में मिलने से कतराने लगे हैं। दैनिक ढमढम टाइम्स का पत्राकार परिचित होते हुए भी दूसरे अखबार के कर्मचारी से सिर्फ इसलिए बात नहीं करता कि कहीं यह बात संपादक तक न पहुंचा दी जाए। यही हाल लखनऊ के अन्य अखबारों के मुलाजिमों का है। लुब्बोलुआब यह है कि पत्राकार अब आपस में मिलने—जुलने से पहले चारों तरफ देख लेते हैं कि कहीं कोई देख तो नहीं रहा है। अखबार मालिकों की व्यापारिक प्रतिस्पर्धा की भेंट उनके कर्मचारियों की मित्राता चढ़ रही है। अखबारों के मालिक विभिन्न मंचों पर एक दूसरे से मिलते हैं, साथ बैठकर जाम छलकाते हैं। सरकार से अपने हितों के लिए सामूहिक रूप से लड़ते हैं, लेकिन जहां कर्मचारियों के आपसी मेलजोल का मामला आता है, खबरों और व्यावसायिक योजनाओं की गोपनीयता के नाम पर उन्हें एक दूसरे से मिलने से रोका जाता है। मालिकों के नुमाइंदे कभी प्रत्यक्ष और कभी परोक्ष रूप से मुलाजिमों को नौकरी से निकालने की धमकी देकर उन्हें आपस में मिलने से रोक देते हैं।

रेस्टोरेंट में पहुंचकर शिवाकांत ने चारों ओर निगाह दौड़ाई। एक मेज खाली देखकर उसने वहीं आसन जमाते हुए टेबिल फैन का मुंह थोड़ा—सा अपनी ओर घुमा लिया। उसे तात्कालिक रूप से गर्मी से निजात मिली। शिवाकांत ने चेहरे पर चुहचुहा आए पसीने को रुमाल से पोंछा। तब तक बहादुर गिलास और पानी से भरा जग रखकर जा चुका था। शिवाकांत ने भर पेट पानी पीने के बाद राहत की सांस ली। आलमबाग से टाइम्स चौराहे तक आते—आते उसकी हालत पस्त हो गई थी। चार बजे तक दैनिक आज के रिपोर्टर परितोष पांडेय ने उससे यहीं मिलने को कहा था। उसने रेस्टोरेंट मालिक को आवाज लगाते हुए कहा, ‘मनोहर! परितोष आया था क्या?'

‘हां भाई साहब, करीब एक घंटा पहले आए थे। उन्होंने कहा था कि आप आएं तो आपसे रुकने के लिए कहूं। आधा—पौन घंटे में लौटकर आने की बात कह गए थे। आपके लिए चाय भिजवाउं+?' ग्राहक को मिठाई तौलकर देते हुए मनोहर ने कहा।

‘ठीक है, भिजवा दो।' कहकर शिवाकांत चारों ओर देखने लगा।

करीब आधे घंटे बाद परितोष टाइम्स चौराहे पर पहुंचा। रेस्टोरेंट में घुसते ही उसने हांक लगाई, ‘मनोहर भाई! शिवाकांत जी आए थे क्या?'

मनोहर ने शिवाकांत की ओर इशारा करते हुए कहा, ‘आधे घंटे से भाई जी आपका इंतजार कर रहे हैं।'

परितोष ने आदरभाव से शिवाकांत का अभिवादन करते हुए कहा, ‘माफ कीजिएगा गुरु...एक फर्जी खबर के चक्कर में फंस गया था। कवर इसलिए करना पड़ा कि कल इसे सभी अखबार तानेंगे। आपके यहां का रिपोर्टर परिमल भी वहां मौजूद था।'

शिवाकांत ने विरक्त भाव से पूछा, ‘मामला क्या है?'

‘गुलिस्तां कालोनी में एक औरत रहती है। नाम है सुमन सोनकर। बड़ी चालू चीज है। उसने एक उद्योगपति को फांस रखा था। जब तक उसके पास पैसा रहा, चूसती रही। अब उसने एक जौहरी को फांस लिया है। अब सुमन उस उद्योगपति से पीछा छुड़ाना चाहती है। सो, उसने जौहरी की शह पर आज हंगामा खड़ा कर दिया। पहुंच गई हजरतगंज थाने में उद्योगपति के खिलाफ दुष्कर्म और यौन शोषण का मुकदमा लिखवाने। उसके साथ जौहरी और उसके कुछ चेले—चपाटे भी थे। भाई साहब, मैं व्यक्तिगत रूप से जानता हूं कि दुष्कर्म और यौन शोषण की बात बिल्कुल बकवास है। पुलिस ने मामला पंजीबद्ध कर लिया है। सो, खबर लिखना हम सबकी मजबूरी है। कल अखबारों में यह खबर तान के छापी जाएगी। कुछ अखबार तो अपनी तरफ से चटपटा—मसाला भी जोड़ देंगे। उन्हें अखबार बेचने के लिए कुछ तो चाहिए कि नहीं?'

‘समझ गया तुम्हारी दिक्कत। तुम सच की अनदेखी नहीं कर पा रहे हो। तुम्हारी सहानुभूति उस उद्योगपति के साथ है। सच क्या है? तुम जानते हो। तुम्हारी परेशानी यह भी है कि जौहरी अखबारों के लिए एक बड़ा विज्ञापनदाता है। इस खबर को न छापकर कोई भी अखबार मालिक अपने बड़े विज्ञापनदाता को खोना नहीं चाहता है। जौहरी की कथित रखैल के पक्ष में खबर लिखना, तुम्हारी मजबूरी हो सकती है। यह भी संभव है कि आत्मा की आवाज पर तुम खबर को माइल्ड कर दो। उद्योगपति के पक्ष की बातें न लिखो, लेकिन उतनी दमदारी से जौहरी की भी बात न रखो। यह तो तुम पर निर्भर करता है कि तुम इस खबर का क्या ट्रीटमेंट चाहते हो। तुम्हारी जगह मैं भी होता, तो शायद मुझे भी यही करना पड़ता। खैर...मैं नहीं, तो कोई दूसरा यही काम करेगा ही। अगर हमें नौकरी करनी है, तो वैसा ही करना पड़ेगा जैसा मालिकान चाहते हैं।' शिवाकांत ने जमुहाई लेते हुए परितोष की बात पूरी की।

‘हां गुरु...सचमुच यही बात है। कैसी विडंबना है कि हम जानते हुए भी सच नहीं लिख सकते। मुझे लगता है कि हम सभी पत्राकार नहीं, भडुवे हैं। हमें लिखना ही नहीं, सोचना भी वही पड़ता है, जो हमारे मालिक चाहते हैं, जो उनके हित में है। हमारे सोच पर इतने पहरे बिठा दिए जाते हैं कि हम इसके अलावा कुछ और सोच ही नहीं सकते।' परितोष के स्वर में दर्द उभर आया था। उसके मन की व्याकुलता और कडुवाहट शब्दों के जरिये बाहर निकल रही थी। लगता था कि उसके अंदर कोई लावा उबल रहा है। वह अकसर अपने साथियों से पत्राकारिता जगत की बात करता, लोग अपनी स्थिति से असंतुष्ट दिखाई देते, कई बार लोग जाहिर भी ऐसा ही करते। लेकिन पहल करने, अपना सोच बदलने या गुलामी जैसी परिस्थितियों को बदलने की बात शुरू होती, तो वे उठकर चल देते। वह अपने भीतर की ज्वाला इस आस में यहां वहां बोता फिरता था कि कभी तो अनुकूल परिस्थितियां होंगी और इस ज्वाला से बदलाव का कोई नन्हां—सा, सुकोमल—सा अंकुर फूटेगा और पत्राकारिता जगत में एक सकारात्मक बदलाव आएगा।

उसने गहरी सांस लेने के बाद कहना जारी रखा, ‘भाई साहब...इनका बस चले तो ये टाइम टेबल बना दें। हमें कब सोना है, कब खाना है...कब हगना—मूतना है। यहां तक कि हमें अपनी बीवी के पास कब जाना है, यह भी तय कर दें। लेकिन क्या करें...इस मामले में ये बेचारे लाचार हैं। इनका वश नहीं चलता, वरना ये यह भी तय कर दें कि हमें दिन में कितनी बार सांस लेना है और कितनी गहरी।'

‘छोड़ो...कहां की राम कहानी ले बैठे। और सुनाओ...तुम्हारी यूनिवर्सिटी बीट कैसी चल रही है? कुछ धंधा—पानी अब भी करते हो या पूरे भगत हो गए हो।' शिवाकांत ने माहौल को हलका करने का प्रयास किया।

‘कहां भाई साहब, दैनिक अखबारों की नौकरी में यह सब कहां संभव है। हां, साप्ताहिक ‘रामराज्य' में रहते हुए खूब मस्ती की। उसे आप मेरा लड़कपन भी कह सकते हैं। लड़कपन ही तो था। गलत करने पर मजा आए, तो उसे लड़कपन ही तो कहा जाएगा। हां, सच कहूं, तो पैसे की कभी कमी ही नहीं रही। दो—तीन सौ रुपये रोज मिल ही जाते थे। फिर उन दिनों ये अखबार पैसे भी कहां देते थे? बस जो पैसे इधर—उधर से मिल जाते थे, उसी से अपना खाना—खर्चा चलता था। उन दिनों पैसे भी कहां से लाता? घर फूंक तमाशा देखने की स्थिति में न तब था, न अब हूं।' परितोष पांडेय छह—सात साल पहले की घटनाओं को याद कर हंस पड़ा।

परितोष की यूनिवर्सिटी कथा से लखनऊ का लगभग हर पत्राकार परिचित था। तकरीबन सात साल पहले लखनऊ के नवधनाढ्य व्यापारी को अखबार निकालने का शौक चर्राया। मिर्च—मसाले का कारोबार कर करोड़ों रुपये कमाने वाले मसाला व्यापारी ने एक दैनिक अखबार के स्थानीय संपादक को मोटे वेतन पर अपने साप्ताहिक ‘रामराज्य' की पतवार थमा दी। लखनऊ और उसके आसपास के दैनिक समाचार पत्राों में काफी लंबे—चौड़े विज्ञापन देकर संवाददाता और उप संपादक, डीटीपी आपरेटर पदों के लिए आवेदन मांगे गए। हुसैनगंज चौराहे पर स्थित एक होटल में आवेदनकर्ताओं के साक्षात्कार लिए गए। इधर—उधर से जुगाड़ लगाकर परितोष ने भी साप्ताहिक ‘रामराज्य' का रिपोर्टर बनने में सफलता हासिल कर ली। परितोष को लखनऊ विश्वविद्यालय की बीट सौंपते हुए संपादक ने कहा था, ‘देखो! पत्राकारिता की शुरुआत मैंने लखनऊ यूनिवर्सिटी की बीट संभालने से की थी। वहां से शुरू हुआ करियर मुझे रेजीडेंट एडीटर की कुर्सी तक ले गया। बड़ी उर्वर बीट है...अगर तुम मेहनत करोगे, तो एक दिन बहुत तरक्की करोगे। जाओ...मस्त रहो। खूब मेहनत करो, तरक्की पाओ।' संपादक उम्र में परितोष से कोई दस—बारह साल ही बड़ा था, लेकिन वह व्यवहार ऐसे कर रहा था, मानो कोई बुजुर्ग हो।

पत्राकार बन जाने के उत्साह से भरा हुआ परितोष लखनऊ विश्वविद्यालय (कैनिंग कॉलेज) पहुंचा। दैनिक अखबारों के पहले से जमे जमाये रिपोर्टरों ने ‘यूनिवर्सिटी रिपोर्टिंग क्लब' की सदस्यता के नाम पर पहले ही दिन सौ रुपये की चाय पी डाली। शुरुआती पंद्रह दिन तक कोई रिपोर्टर उससे पान मंगवाता रहा, तो कोई सिगरेट। कोई—कोई तो एक रुपये की चूने में रगड़कर खाई जाने वाली तंबाकू की पुड़िया मंगवाता। उससे ही चूना तंबाकू मलवाता। इतना सब कुछ करने के बावजूद खबर के नाम पर वह ‘जीरो बटे सन्नाटा' रहा। मतलब घड़ी फुरसत की नहीं, काम धेले का नहीं। वह रोज देखता कि दिन भर विश्वविद्यालय में कहीं यहां, तो कहीं वहां गप लड़ाने वाले रिपोर्टरों की तीन—तीन, चार—चार कॉलम की स्टोरियां अखबारों में उनकी बाई लाइन छपी रहती थीं। वह नहीं समझ पाता कि वे खबरें कवर कब करते हैं? जिस घटना का जिक्र फलां रिपोर्टर ने इतने दावे के साथ किया है, वह हुई कब थी? वह तो सारा दिन चकरघिन्नी की तरह विश्वविद्यालय में घूमता ही रहा था। पंद्रह—बीस दिन तक खबरों के नाम पर शून्य रहने वाला परितोष एक दिन संपादक की झिड़की खाकर विश्वविद्यालय पहुंचा, तो वह गुस्से और क्षोभ से भरा हुआ था। मन ही मन यह बात घर करती जा रही थी कि यह सब कुछ उसके बूते का नहीं है। वह रिपोर्टिंग के काबिल ही नहीं है। पत्राकार बनना और भाड़ झोकना, दोनों उसको एक जैसा महसूस होने लगा था।

क्रोध में दांत पीसता परितोष उस दिन जब स्टैंड पर अपनी बाइक खड़ा कर रहा था, तो उसने बाइक को ही खड़े होकर एक जोरदार की लात लगाई, मानो उसकी असफलता के लिए वही दोषी हो। दैनिक हिंदुस्तान के रिपोर्टर ने उसके चेहरे पर विराजमान विफलता, क्रोध और क्षोभ के मिले—जुले भावों को गौर से पढ़ा। उसकी स्थिति पर विचार किया। उसे परितोष पर दया आ गई। उसे भी शायद अपने पुराने दिन याद आ गए होंगे, जब उसने भी रिपोर्टिंग में नौसिखिया होने की वजह से इधर—उधर धक्के खाए होंगे। उसने परितोष से कहा, ‘देखो...विश्वविद्यालय की रिपोर्टिंग का एक खास तरीका है। मैं तुम्हें बताता हूं। यहां के प्रोफेसर्स, विद्यार्थी और छात्रा नेता ‘छपास' रोगी होते हैं। अखबारों में इनकी तस्वीरें और नाम छपते रहें, इसके लिए ये कुछ भी करने को तैयार रहते हैं। छपने—छपाने के बल पर ही इनकी नेतागिरी चलती और चमकती है। सपा, बसपा, कांग्रेस, भाजपा या वामपंथी दलों सहित अन्य पार्टियों से जुड़े बड़े से लेकर छुटभैये छात्रा नेताओं को पकड़ो, उसका इंटरव्यू लो। बेहतर यही है कि खुद ही लिख लो। उनको दिखा लो। अगर वे कुछ संशोधन करने को कहें, तो कर लो। तस्वीर सहित उनका इंटरव्यू छापो। छपने पर एकाध कापियों को लाकर उस छात्रा नेता को थमाओ। साथ ही यह बताना मत भूलो कि अगर और कापियां चाहिए, तो फलां जगह या फलां न्जूज एजेंसी के स्टाल पर उपलब्ध है। अगले हफ्ते फिर किसी दूसरे को पकड़ो। इस तरह जितनों की तस्वीर और इंटरव्यू छापते जाओगे। वह तुम्हारा इंफार्मर बनता जाएगा। वह खोजकर खबरें तुम्हें बताने दौड़ा आएगा। एक बात और समझ लो! उनके कहने और करने पर इफ—बट मत करो। वे जैसा करते हैं, करने दो। वे आंदोलन करें, तो उनके रवैये पर प्रश्नचिह्न मत लगाओ। वे तोड़—फोड़, मार—पीट कुछ भी करें, तुम्हें बस अपनी खबर से मतलब होना चाहिए। उनके फटे में टांग अड़ाना, यहां सख्त मना है।'

उस रिपोर्टर की यह सीख परितोष के काफी काम आई। बाद में तो गुरु गुड़ ही रहा और चेला शक्कर हो गया। उस रिपोर्टर ने उस दिन एनएसयूआई के प्रदेश स्तरीय एक छात्रा नेता से मिलवा भी दिया। बस...फिर क्या था। कुछ ही दिनों में परितोष पांडेय की छात्रा नेताओं और विद्यार्थियों से अच्छी पहचान हो गई। उसके पास खबरें आने लगीं। इस बीच छात्रा संघ के चुनाव घोषित हो गए। परितोष ने छात्रा नेताओं और उनके चमचों में बड़ी सफाई से यह बात फैला दी कि साप्ताहिक ‘रामराज्य' में जिसको अपनी फोटो या खबरें छपवानी हो, वह डेढ़ सौ रुपये लेकर उससे मिले। किसी खबर में सिर्फ नाम जोड़ने की फीस दस रुपये है। धीरे—धीरे उसके पास नाम, फोटो या दोनों छपवाने वाले नेताओं और विद्यार्थियों की भीड़ जुटने लगी। अब परितोष खुश था। रोज तकरीबन दो—तीन सौ रुपये वह नाम और फोटो छपवाने के मद में वसूलने लगा। जिस तेजी और उत्साह के साथ ‘रामराज्य' का प्रकाशन शुरू हुआ था, कालांतर में मसाला व्यापारी की अखबार में उसी अनुपात में रुचि घटने लगी। अखबार के सहारे मसाला उद्योग के सफेद—काले धंधों को परवान चढ़ाने की योजना विफल होती नजर आने लगी थी। राजनीतिक क्षेत्रा में पहचान बनाकर राज्यसभा में पहुंचने को उत्सुक व्यापारी को किसी भी राजनीतिक दल ने घास नहीं डाली। उन्होंने किस दल के दरवाजे पर मत्था नहीं टेका। कांग्रेस, सपा, भाजपा, बसपा से लेकर टुटपुंजिया पार्टी तक के शीर्षस्थ नेताओं की चरण वंदना की, अपने साप्ताहिक में लंबे—चौड़े लेख, इंटरव्यू छपवाये, लेकिन काम नहीं बना। दाल नहीं गलनी थी, तो नहीं गली। फिर शुरू हुआ अखबार में मीन—मेख निकालने का, अखबार के कर्मचारियों को समय पर वेतन न देने और संपादक पर कर्मचारियों की छंटनी करने का दबाव बनाने का सिलसिला। इसी खींचतान में ढाई साल निकल गए। ‘रामराज्य' के मुलाजिमों को जब पांच महीने का वेतन नहीं मिला, तो उन्होंने विकल्प तलाशने शुरू कर दिए। परितोष पांडेय हवा का रुख बहुत पहले भांप चुका था। उसने इधर—उधर हाथ—पांव मारना शुरू कर दिया। ‘रामराज्य' की अवनति के दिन शुरू होने के तुरंत बाद ही उसने दैनिक ‘आज' में जूनियर रिपोर्टर की नौकरी हथिया ली। उसके लिए संकटमोचक बने परितोष पांडेय के फूफा अनिकेत नारायण तिवारी। अनिकेत नारायण तिवारी दैनिक आज में सीनियर मैनेजर (मार्केटिंग) थे। उन्होंने संपादक से रिक्वेस्ट की, तो उन्होंने जूनियर रिपोर्टर रख लिया। पांच महीने से वेतन न पाने वाले परितोष ने ‘रामराज्य' छोड़ने से एक दिन पहले मसाला व्यापारी की जमकर मां—बहन की और घर चला आया। अगले दिन उसने डाक से इस्तीफा भिजवा दिया और फिर भूलकर ‘रामराज्य' के दफ्तर कभी नहीं गया।

‘अरे! आप चाय बना रहे हैं या बीरबल की खिचड़ी? अब तक चाय नहीं आई।' परितोष ने रेस्टोरेंट मालिक को आवाज लगाते हुए कहा।

‘बस दो मिनट...परितोष भाई!' मनोहर ने तुरंत जवाब दिया। उसने नौकर को दो कप चाय लाने का इशारा किया। नौकर कुछ ही देर में चाय लेकर हाजिर हो गया। शिवाकांत ने गिलास पकड़कर मेज पर ही इधर—उधर खिसकाया और चाय पीने लगा।

परितोष ने चाय का घूंट भरते हुए कहा, ‘भाई साहब! यह बताइए, आज देश के सामने सबसे बड़ा मुद्दा क्या है? महंगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, दलगत राजनीति या बार—बार बनती—बिगड़ती केंद्र और राज्य की सरकारें। मैं एक फीचर स्टोरी लिखना चाहता हूं। वह न्यूज भी हो, फीचर भी। अगर आप कुछ गाइड कर दें, तो मैं लिखूं। मैंने योगेश जी से पता नहीं किस झोंक में परसों कह दिया था कि अगले हफ्ते की बॉटम स्टोरी मैं दूंगा। अब मेरी समझ में नहीं आ रहा है कि लिखूं, तो क्या लिखूं? मैंने बिना सोचे—समझे बयाना तो ले लिया। इतनी दिक्कत होगी, यह सपने में भी नहीं सोचा था। अब योगेश जी जब भी मिलते हैं, मुस्कुराकर यही कहते हैं, अगले सोमवार की बॉटम स्टोरी तुम्हारे नाम लिख दी है। समय पर दे दोगे न! उनके यह कहते ही मैं झेंपकर रह जाता हूं।'

‘यह तो तुम्हीं तय करोगे कि आज का सबसे बड़ा मुद्दा क्या है? यह एक ऐसा विषय है, जो विभिन्न काल परिस्थितियों और व्यक्तियों के सापेक्ष बदलता रहता है। इस बात को तुम ऐसे समझ सकते हो, हर व्यक्ति के पास अपना एक ‘नपना' होता है। इसी नपने से वह व्यक्ति, समाज और मुद्दे को नापता, परखता है। उसी हिसाब से वह व्यक्ति और समाज को अच्छा—बुरा बताता है। उसी नपने के हिसाब से अपनी—अपनी प्राथमिकताएं तय करता है। अच्छा, बताओ। एक भूखे बच्चे की सबसे पहली प्राथमिकता क्या होगी? ...एक रोटी का टुकड़ा, थोड़ा सा नमक। या और कुछ...। ...पूंजीपति, शराबी, कालगर्ल, बेरोजगार मजदूर...इन सबकी प्राथमिकताएं क्या एक हो सकती हैं? नहीं न! किसान से पूछोगे, तो वह अपनी प्राथमिकताएं कुछ और बताएगा। छात्रा कुछ और।' शिवाकांत ने समझाने वाले भाव से कहा।

‘मुझे लगता है कि आज किसी के सामने कोई मुद्दा ही नहीं रह गया है। हर आदमी ने अपने इर्द—गिर्द कछुए की तरह एक खोल तैयार कर ली है। उसमें दुबका हुआ बैठा है। उसे दूसरे के किसी सरोकार से कोई मतलब नहीं रह गया है। एक पड़ोसी अपनी ही गली में पीटा जाता है। दूसरे पड़ोसी चुपचाप दूर खड़े तमाशा देखते हैं। किसी की लड़की को शोहदे आते—जाते परेशान करते हैं। कोई इन शोहदों का विरोध करने नहीं आता। जैसे लोग मान लेते हैं कि उसकी लड़की इन शोहदों से आज बची हुई है, तो कल भी बची रहेगी।' परितोष अपनी रौ में आ गया था। उसका स्वर सामान्य से थोड़ा उं+चा और तल्ख था।

‘मुद्दे से भटको मत। बात को समझने की कोशिश करो। अभी तुम जिन स्थितियों का जिक्र कर रहे थे, वे स्थितियां इस व्यवस्था के संचालकों के हित में हैं। लोगों का ध्यान मुख्य मुद्दे से भटकाने में ये स्थितियां—परिस्थितियां काफी हद तक मदद करती हैं। लोग इन मुद्दों में ही उलझे रहें, तो व्यवस्थागत खामियों की ओर लोगों का ध्यान नहीं जाएगा। व्यवस्था बनी रहेगी और व्यवस्था के संचालक मौज उड़ाते रहेंगे।'

परितोष ने पंखे की हवा में उड़ रहे अपने बालों को हाथ से संवारते हुए कहा, ‘भाई साहब! आपने भी खूब कही। इसमें व्यवस्था के संचालक कहां से आ गए। यह तो लोगों की मनोवृत्ति का मामला है। लोगों की मनोवृत्ति ही गंदी हो गई है। कायर और नपुंसक लोगों से व्यवस्था नहीं बदला करती है, भाई साहब!'

शिवाकांत के अधरों पर मुस्कान दौड़ गई। उसने आखिरी घूंट चाय पीकर गिलास मेज पर रखते हुए कहा, ‘यह बताओ कि लोगों में यह मनोवृत्ति पैदा कहां से हुई?'

‘इसी समाज से।'

‘और यह समाज कैसा है? वर्ग समाज है...इस वर्गीय व्यवस्था का आधार क्या है

...मुनाफा। और मुनाफा कैसे पैदा होता है...शोषण से। इसका तात्पर्य यह है कि इसी वर्ग समाज में एक ऐसा वर्ग है जिसका शोषण हो रहा है। दूसरा वर्ग भी है, जो इनका शोषण कर रहा है। इन दोनों के बीच एक और वर्ग पैदा हो गया है...मध्यम वर्ग। जो शोषक यानी पूंजीपति वर्ग के दलालों की भूमिका में है। इस वर्ग में नौकरशाह, कारखानों के प्रबंधक और नेता आते हैं। यह मध्यम वर्ग...इस व्यवस्था में पूंजीपतियों के हित पोषक की भूमिका निभाता है।'

‘अच्छा गुरु...एक बात बताइए। आपके कहने के मुताबिक इस व्यवस्था का आधार शोषण है, तो फिर इसका विरोध क्यों नहीं होता। जब इतना सब कुछ समझते हैं, तो फिर एक धांसू लेख लिखकर समाज में विक्षोभ क्यों नहीं पैदा कर देते।' परितोष ने चुहुल भरे अंदाज में यह बात कही। वहीं शिवाकांत गंभीर था।

शिवाकांत ने शांत भाव से कहा, ‘इस बात को मैं ही नहीं, बहुत सारे लोग समझते हैं। जहां तक लिखने की बात है, तो यह सिर्फ मेरे या सौ—पचास लोगों के लिखने से कुछ होने वाला नहीं है। अगर अकेले किसी में समाज बदलने की ताकत होती, तो यह काम अब तक हो चुका होता। लोग जब तक वर्गीय चेतना से लैस होकर इस व्यवस्था के खिलाफ लामबंद नहीं होते, तब तक कुछ होने वाला नहीं है।'

‘क्यों, सभी संत—महात्मा अपने प्रवचनों से युग बदलने का दम तो भरते हैं। वे खुलेआम कहते हैं कि समाज में जितनी सद्‌प्रवृत्तियां हैं, उनकी वजह से, वरना इस घोर कलिकाल में समाज अब तक रसातल में चला गया होता।'

‘संत—महात्माओं और नेताओं को अपनी दुकानदारी चलाने के लिए ऐसे छल—छंद करने पड़ते हैं। मोह, माया और काम वासना से दूर रहने का उपदेश देने वालों ने कितनी माया इकट्ठी कर रखी है, इसे देखना हो, तो इनके आश्रमों और मठों में जाकर देखो। सबसे ज्यादा भोग विलास में यही डूबे रहते हैं। राष्ट्रीय—अंतरराष्ट्रीय स्तर के कई संतों के खिलाफ हत्या, बलात्कार, यौन शोषण, सरकारी और गैर सरकारी संपत्ति पर कब्जा करने के मुकदमे विभिन्न अदालतों में विचाराधीन हैं। ये घोर भ्रष्ट और पतित संत बदलेंगे समाज को? या वे सांसद, मंत्राी और विधायक समाज में परिवर्तन की बयार बहाएंगे जो इस भ्रष्ट व्यवस्था की दलाली को अपने जीवन का लक्ष्य मान बैठे हैं।' शिवाकांत ने अपने माथे पर चुहचुहा आए पसीने को पोछा।

शिवाकांत ने परितोष पांडेय पर नजर डाली। वह बाहर खड़ी एक युवती को देखने में मशगूल था। मोबाइल फोन पर किसी से बात करने में मगन युवती बार—बार चेहरे पर ढुलक आने वाली लट को पीछे ढकेल देती थी। लट किसी शरारती बच्चे की तरह बार—बार गालों पर ढुलक ही आती थी। बादामी रंग की कसी हुई जींस, चारखाने की टीशर्ट पहने युवती को इस बात का शायद खयाल ही नहीं था कि थोड़ा—सा झुकने पर उसके अंतःवस्त्रा नुमाया हो रहे हैं। वह अब भी फोन पर किसी से बतियाती जा रही थी। युवती के रेस्टोरेंट के बाहर आ खड़े होने से परितोष विचलित—सा हो गया। शिवाकांत ने पूछ ही लिया, ‘क्यों परितोष! तुम्हारी परिचित है?'

परितोष चौंक पड़ा, ‘कौन भाई साहब!'

‘अरे वही...जो रेस्टोरेंट के बाहर खड़ी फोन पर किसी से बातें कर रही है। जिसे तुम इतनी देर से अपलक निहारे चले जा रहे हो। कोई चक्कर तो नहीं है तुम्हारे साथ?'

‘हांऽऽऽऽ नहीं ऽऽ...।' परितोष अकबका गया।

‘हां या नहीं।'

‘दोनों...दरअसल अभी मैं इसका केवल नाम जानता हूं। जान—पहचान अभी उस स्तर तक नहीं पहुंची है कि जिसकी बात आप कर रहे हैं।' परितोष ने सफाई देते हुए कहा। वह जानता था कि आज नहीं, तो कल शिवाकांत को यह बात मालूम हो ही जानी थी, इसलिए अभी से अपनी बात कहकर स्थिति उसने स्पष्ट कर दी।

पिछले साल ही अक्टूबर में परितोष पांडेय की शादी हुई थी। उस शादी में शिवाकांत सहित दैनिक प्रहरी के कई लोग भी शामिल हुए थे। सामान्य रंग—रूप और इकहरी कद—काठी की मंजुला से पारिवारिक दबाव के चलते परितोष ने शादी की थी। उसने जीवन संगिनी के रूप में अत्यंत मॉड लड़की की कल्पना कर रखी थी। मंजुला से शादी के बाद उसके सपनों का महल रेत के ढेर की तरह ढह गया था। जुबान देने के नाम पर उसके पिता मंजुला के सिवा किसी और को बहू स्वीकार करने को तैयार ही नहीं थे। गोरखपुर के किसी डिग्री कॉलेज से स्नातक मंजुला के दो महीने लखनऊ में रहने के बावजूद परितोष टॉप—जींस नहीं पहना सका। दो महीने के बाद मंजुला के मायके वाले उसे आकर ले गए। दूसरी बार जब मंजुला को लखनऊ लाने की बात चली, तो परितोष के पिता ने बहू को यह कहते हुए अपने पास बुला लिया, ‘कुछ दिन मेरे पास रहकर बहू अपने सास—ससुर की सेवा कर ले। उसे तो जिंदगी भर परितोष के साथ ही रहना है।' डेढ़—दो महीने के अंतराल पर वह अपने घर आता—जाता रहता है।

‘मुझे तुम्हारे व्यक्तिगत मामलों में दखल देने का वैसे तो कोई हक नहीं है। उम्र में बड़ा होने के नाते समझा रहा हूं...सुधर जाओ। छिछोरी हरकतें तुम्हें शोभा नहीं देती। शादी से पहले तुम्हारा नाम कई लड़कियों से जुड़ा। मीडिया जगत में तुम्हें लोग वूमनाइजर (औरतखोर) कहते थे, तो मुझे बहुत बुरा लगता था। तुम्हारी शादी से पहले सोचता था कि शायद इनमें से कोई तुम्हारी जीवन साथी बन जाए। अब तुम्हारी शादी हो चुकी है। ऐसी हालत में यह सब क्या उचित है?' शिवाकांत ने उसे समझाना पता नहीं क्यों जरूरी समझा।

शिवाकांत और परितोष की उम्र में नौ—दस साल का फर्क होने के बावजूद दोनों अच्छे मित्रा थे। बातचीत के दौरान दोनों एक दूसरे का लिहाज करते। परितोष हमेशा आदरभाव प्रकट करता। पान और गुटखा खाने वाला परितोष कोशिश यही करता कि जब तक शिवाकांत के साथ रहे, वह इन चीजों का उपयोग न करे। कई बार अगर वह पान खाए होता, तो शिवाकांत की निगाह बचाकर कुल्ला कर लेता, ताकि पान की लालिमा कुछ कम हो जाए। शिवाकांत के सामने अगर दूसरा कोई पान या गुटखा पेश करता, तो वह विनम्रता से मना कर देता। हां, विधानसभा के सामने स्थित धरना स्थल पर फोटोग्राफरों और रिपोर्टरों की महफिल में नॉनवेज चुटकुले दोनों रस लेकर सुनते और सुनाते थे। कई बार परितोष भी शिवाकांत की उपस्थिति में ऐसे चुटकुले सुना चुका था। महफिल से निकले, तो दोनों का व्यवहार पूर्ववत हो जाता था। शिवाकांत ने बड़े होने के नाते कभी अपने विचारों को परितोष पर थोपने का प्रयास नहीं किया। किसी मुद्दे पर परितोष ने सलाह मांगी, तो उसे जो उचित लगा, वही सलाह दी। बिना किसी दबाव या परितोष के नाराज होने की चिंता किए बगैर। बाद में उस विषय पर अपनी तरफ से शिवाकांत ने चर्चा नहीं की। आज भी उसे परितोष को सलाह देना अजीब—सा लग रहा था। मित्रा धर्म का निर्वहन भी तो जरूरी था। वह परितोष के कई अन्य दुर्गुणों से परिचित था, लेकिन उसने कभी किसी के सामने उसकी चर्चा नहीं की। हमेशा गुणाें का ही बखान किया, ‘गुह्यम निगूहति गुणान प्रकटीकरोति।'

अचानक परितोष उठा और शिवाकांत से बोला, ‘भाई साहब...मुझे अभी बसपा की कॉन्फ्रेंस कवर करने जाना है। आप आज तो अपने ऑफिस जाएंगे न?'

‘नहीं...मैं दो दिन के आकस्मिक अवकाश पर हूं। कोई काम है?'

‘नहीं...बस यों ही पूछा था।' इतना कहकर परितोष अभिवादन कर रेस्टोरेंट से बाहर निकल गया। रेस्टोरेंट के बाहर खड़ी लड़की कुछ देर पहले ही डॉलीबाग कालोनी की ओर गई थी। शिवाकांत ने चाय के पैसे चुकाए और बाहर आ गया।

दिन भर की भाग दौड़ के बाद शिवाकांत ऑफिस पहुंचा। उसने साथियों का बेमन से अभिवादन किया और बैठकर अपना काम निपटाने लगा। आशीष ने शिवाकांत की आंखों में उदासी और निराशा की झलक देख ली थी। उसने कुछ कहना उचित नहीं समझा। चिकित्सा और शिक्षा मामलों की बीट देखने वाले अरविंद चौधरी ने शिवाकांत के पास जाकर कहा, ‘क्या बात है, सर! आज कुछ ज्यादा ही गंभीर लग रहे हैं। आते ही काम में जुट गए। रोज की तरह न कोई हंसी, न मजाक, न कोई चुटकुला। घर—परिवार में सब खैरियत तो है? सब खैरियत हो, तो सुनाइए कोई धड़कता—फड़कता चुटकुला, ताकि हमारी बुद्धि के बंद कपाट खुल जाएं और हम अपने काम में लग जाएं।'

अपनी खबरें कंपोज करती मंजरी अग्रवाल बोल पड़ी, ‘बस दो मिनट...शिवाकांत सर...सोलह—सत्राह लाइन की खबर है, उसे पूरी कर लूं। फिर मैं भी आपसे चुटकुला सुनूंगी। प्लीज सर...अभी मत सुनाइएगा।'

शिवाकांत ने अपनी खबरों की सूची तैयार करते हुए कहा, ‘नहीं...कोई खास बात नहीं है। यह सब तो पत्राकारिता में होता रहता है। कोई नई बात नहीं है।'

शिवाकांत की बात सुनकर आशीष चौकन्ना हो गया। वह समझ गया, आज कोई ऐसी घटना जरूर हुई है जिसने शिवाकांत को भीतर तक आहत किया है। सच और सनक की खातिर किसी से भी भिड़ जाने वाला शिवाकांत अगर गंभीर है, तो जरूर कोई बड़ी बात है। पिछले दस—बारह साल से क्राइम बीट देखने वाले शिवाकांत का मन भीतर से बहुत कोमल था...बिल्कुल किसी गौरेया के नन्हें बच्चे की तरह। मानवीय मूल्यों के ास और रिश्तों को कलंकित करने वाली खबरों को लिखते समय वह भूल जाता कि उसका काम अपने पाठक को घटना की सिर्फ सूचना देना भर है। ज्यादा से ज्यादा वह घटना का विश्लेषण कर सकता है। सुप्रतिम अवस्थी कई बार उसकी खबरों को लेकर झल्ला जाता था, ‘यह क्या पूरा साहित्य लिख डाला है। हमारा काम खबरें छापना है, किसी का पक्ष लेना नहीं। यह शिवाकांत कैसे कह सकता है कि फलां ने गलत किया, अलां ने सही? मैं तो आजिज आ गया हूं, ऐसी रिपोर्टिंग से।' वह साइड स्टोरियां लिखता, तो अपनी सारी भावनाएं उड़ेल देता था। साइड स्टोरियां इतने मार्मिक ढंग से लिखता कि पाठक उसके लेखन के मुरीद हो जाते, लेकिन सुप्रतिम जल भुन जाता।

आशीष ने काम बंद कर दिया। शिवाकांत के पास खाली पड़ी कुर्सी पर बैठते हुए पूछा, ‘क्या बात है शिवाकांत? कुछ बताओ तो? दस—पंद्रह दिन पहले बता रहे थे कि बाबू जी की तबीयत खराब है। वे ठीक तो हैं न? भाभी या बच्चों को कोई तकलीफ तो नहीं है?'

शिवाकांत ‘की बोर्ड' पर अंगुलियां रखे कंप्यूटर स्क्रीन को घूर रहा था। उसने कहा, ‘आशीष भाई! मुझसे आज पाप हो गया।'

‘क्याऽऽऽ...?' आशीष के मुंह से सिर्फ यही निकला। शिवाकांत ने यह कहकर कमरे में धमाका कर दिया था। लोकल डेस्क पर काम कर रहे सभी लोगों की अंगुलियां ‘की बोर्ड' पर पहले स्थिर हुर्इं, फिर सबके चेहरे शिवाकांत की ओर घूम गए। उनकी आंखों में आश्चर्य था, उत्सुकता थी।

शिवानी भटनागर की आश्चर्य की अधिकता के कारण कांपती आवाज गूंजी, ‘यह आप क्या कह रहे हैं, शिवाकांत सर? कैसा पाप हो गया है? क्या पाप हो गया?'

हर सेकेंड के बाद सबके चेहरे पर उत्सुकता घनीभूत होती जा रही थी। सभी जानना चाह रहे थे, आखिर शिवाकांत से ऐसा कौन—सा पाप हो गया है? जिसने उसे इस कदर उद्वेलित कर दिया है। जिसे सबके सामने स्वीकार करना पड़ रहा है। कमरे में क्षणभर निस्तब्धता छाई रही। किसी को सूझ नहीं रहा था। सब मौन साधे बैठे शिवाकांत के बोलने की प्रतीक्षा में थे। आखिर क्या कहता है शिवाकांत? काम पूरी तरह ठप हो गया था।

शिवाकांत ने शांति भंग की, ‘हां...मुझसे पाप हो गया। मुझे प्रत्युष त्रिापाठी को गिरफ्तार करवाना पड़ा। हजरतगंज कोतवाली के सीओ से कहना पड़ा।'

शिवाकांत के इतना कहते ही कमरे में जैसे दूसरा धमाका हुआ। यह सुनकर आशीष के मुंह से तो कोई बोल फूटा ही नहीं। मंजरी, शिवानी सहित वहां उपस्थित बाकी लोग लगभग एक साथ चीख उठे, ‘क्याऽऽऽ...'

‘शिवाकांत...यह तुमने क्या किया...?' आशीष ने दुख और उलाहना भरे स्वर में कहा। बाकी सभी सकते की सी हालत में अपने स्थान पर बैठे रहे।

‘हां...मुझे यह पाप करना पड़ा। बाल—बच्चों का पेट पालने के लिए यह पातक करना पड़ा। वैसे भी अखबार की नौकरी में मालिक के हितों को ध्यान में रखना ही पड़ता है। मालिक राय साहब चाहते थे कि मैं प्रत्युष त्रिापाठी को गिरफ्तार करवाउं+। सो, मैंने गिरफ्तार करवा दिया।' शिवाकांत रुआंसा हो गया।

वहां उपस्थित रिपोर्टर और एडीटोरियल डेस्क के साथी अब तक आश्चर्य और क्षोभ की जकड़न से मुक्त हो चुके थे। परिमल जोशी ने कहा, ‘ठीक ही किया, शिवाकांत जी आपने। प्रत्युष ने भी कोई अच्छा तो किया नहीं था। संस्थान का डेढ़ लाख रुपये डकार गए थे। विज्ञापनदाताओं से फर्रुखाबाद में रुपये वसूलते रहे। संस्थान में जमा कराने के बजाय अपनी जेब भरते रहे। संस्थान ने जब मांगा, तो ठेंगा दिखा दिया। बाद में जब उन्हें लखनऊ बुलाया गया, तो उसमें भी नानुकुर की।' सुप्रतिम अवस्थी के खासुलखास माने जाने वाले परिमल जोशी ने मालिकों का पक्ष रखना जरूरी समझा। पिछले कुछ समय से परिमल जोशी भी सुप्रतिम की भाषा और बोली सीख रहा था। वह अपने साथियों पर सुप्रतिम की तरह रौब झाड़ने की कोशिश करता, तो कहीं डांट भी खाता। कुछ लोग उसे फटकारते हुए कह देते, ‘देख...तू अपनी औकात में रह। लाख कोशिश कर ले, तू सुप्रतिम नहीं बन सकता। तू जब भी रहेगा, सुप्रतिम का चमचा ही रहेगा। इससे अलग तेरी कोई औकात नहीं है।'

प्रशिक्षु संवाददाता राजेंद्र शर्मा ने प्रतिवाद किया, ‘पहले तो संस्थान ने ही कपट व्यवहार किया। संस्थान उनके साथ भला व्यवहार करता, तो वे भी उसकी सोचते। इस मामले में थोड़ी—बहुत सुनगुन मुझे भी है। सुना है कि दैनिक ‘प्रतिज्ञा' में त्रिापाठी जी को लगभग अट्ठारह हजार रुपये मिलते थे। हमारे मालिक राय साहब बड़ा मनुहार करके साढ़े बाइस हजार रुपये मासिक वेतन पर लाए थे। साथ में डेढ़ हजार रुपये फोन आदि के मद में देने की बात भी हुई थी। दो महीने तक तो उन्हें पूरी ईमानदारी से वेतन और भत्ते दिए गए, तीसरे महीने फोन आदि के मद में दिया जाने वाला पैसा न केवल बंद कर दिया गया, बल्कि मासिक वेतन भी घटाकर बारह हजार रुपये कर दिया गया। नियुक्ति पत्रा देने के मामले में भी धांधली की गई। चीफ रिपोर्टर की जगह सीनियर रिपोर्टर बनाया गया। यह तो सरासर बेईमानी थी। आप अपने प्रतिद्वंद्वी अखबार को नुकसान पहुंचाने के लिए उसका मुख्य आदमी तोड़ लेते हैं, तरह—तरह का लालच देते हैं। आप प्रतिद्वंद्वी को नीचा दिखाने में सफल हो जाते हैं, तो लाए गए आदमी के साथ घटिया मजाक करते हैं। आप यह जानते हैं कि अब यह आदमी अपने पुराने संस्थान में नहीं जा सकता। आपके यहां नौकरी करना, उसकी मजबूरी है। इसी मजबूरी का फायदा उठाकर वेतन घटा देते हैं।' कहते—कहते राजेंद्र की आवाज थोड़ी तेज हो गई। आशीष ने उसका हाथ दबाते हुए चुप रहने का इशारा किया। ऐसा करके उसने यह भी याद दिलाने की कोशिश की कि वह अपने ही अखबार के मालिक के खिलाफ बयानबाजी कर रहा है।

काफी देर से चुप बैठे डॉ. दुर्गेश पांडेय ने चश्मे को नाक पर समायोजित करते हुए कहा, ‘हमारे मालिक ने बेईमानी नहीं की थी, यह बात मैं दावे के साथ कह सकता हूं। दरअसल, संस्थान ने जिन अपेक्षाओं के चलते यह पैकेज देने का फैसला किया था, उन पर वे खरे नहीं उतरे। यहां सवाल ईमानदारी या बेईमानी का नहीं, उपयोगिता का है। प्रत्युष अपनी उपयोगिता नहीं सिद्ध कर पाए। उनके साथ जो कुछ हुआ, कम से कम मैं गलत नहीं मानता।'

‘यह तो आपको पहले सोचना चाहिए था कि उपयोगी सिद्ध होंगे या नहीं? एक बार नौकरी देने के बाद आप किसी की तनख्वाह या भत्ते कैसे रोक सकते हैं? आखिर वे इससे पहले जहां काम कर रहे थे, उनके लिए तो वे उपयोगी थे। आप किसी व्यक्ति से इतनी अपेक्षा पाल लें कि वह सात जन्मों तक पूरा न कर पाए, यह कहां का न्याय है? डॉक्टर साहब! आप से ही पूछती हूं, आप को चौबीस हजार रुपये मिलते हैं। कल संस्थान कहे कि आप हर महीने कम से कम अट्ठाइस एक्सक्लूसिव खबरें दें। इसके साथ ही साथ रुटीन की खबरें भी छूटनी नहीं चाहिए, तो क्या आप संस्थान की अपेक्षाओं पर खरे उतर पाएंगे और कितने दिन?' शिवानी भटनागर ने डॉ. दुर्गेश पांडेय को घेरने की कोशिश की। यह तर्क सुनकर डॉ. दुर्गेश सिटपिटा गए।

‘आपके मानने या न मानने से क्या होता है। आप तो प्रबंधन की भाषा बोलने लगे। जिस तरह का व्यवहार प्रत्युष त्रिापाठी के साथ किया गया है। खुदा न करे...कल आपके साथ वही हो, तब भी आप कहेंगे कि प्रबंधन और मालिक ने जो किया, सही किया। कोई कुछ भी कहे, शिवाकांत ने जो किया, वह बहुत गलत किया।' आशीष ने तल्ख स्वर में डॉ. दुर्गेश से कहा।

शिवाकांत ने भीगे स्वर में कहा, ‘पिछले बीस दिन से मुझ पर लगातार दबाव डाला जा रहा था। प्रत्युष को गिरफ्तार करवाकर जेल भिजवाओ। मैंने राय सर को समझाने की पूरी कोशिश की, लेकिन वे नहीं माने। उनकी बस एक ही जिद थी। वे डेढ़ लाख रुपये हजम कर जाने वाले को जेल भिजवा कर रहेंगे। भले ही इसके लिए तीन—चार लाख रुपये खर्च करना पड़े। वे चार—पांच लाख रुपये और खर्च करने को तैयार थे, लेकिन डेढ़ लाख रुपये भूलने को तैयार नहीं थे। प्रकारांतर से मुझे भी धमकाया गया, अगर मैंने यह सब कुछ नहीं किया, तो मैं इस संस्थान में नौकरी नहीं कर पाउं+गा। बेहतर है कि अभी से मैं कोई दूसरा दरवाजा देख लूं।'

‘मतलब यह कि आपने अपनी नौकरी बचाने के लिए त्रिापाठी जी को गिरफ्तार करवा दिया।' मंजरी अग्रवाल की घूरती निगाहों को शिवाकांत अपने चेहरे पर महसूस कर रहा था। तीन साल पहले एक दैनिक में प्रत्युष त्रिापाठी के साथ काम कर चुकी मंजरी इस घटना से आहत थी। एकाध लोगों को छोड़कर हॉल में मौजूद सभी इस घटना से दुखी थे।

प्रत्युष त्रिापाठी का नाम मीडिया जगत में बड़े सम्मान के साथ लिया जाता है। पचपन वर्षीय प्रत्युष पिछले अट्ठाइस साल से पत्राकारिता जगत में सक्रिय थे। अट्ठाइस साल पहले एक दैनिक में प्रशिक्षु रिपोर्टर के रूप में करियर की शुरुआत करने वाले प्रत्युष ने कभी पैसे और करियर की परवाह नहीं की। नौकरी उनकी आजीविका का साधन जरूर थी, लेकिन साध्य नहीं। मान—सम्मान को उन्होंने हमेशा ऊपर रखा। कई बार तो वे चपरासियों के लिए मालिक या संपादक से भिड़ जाते थे। उनका अखबार में होने वाली राजनीति से कोई सरोकार नहीं होता था। वे अपने से जूनियर रिपोर्टरों और सब एडीटरों को सिखाने—समझाने से पीछे नहीं हटते थे। जो भी उनके पास अपनी समस्याओं को लेकर जाता और कहता, ‘दद्दा! इस खबर को देख लें। इसका एंगिल सही है या नहीं।' तो दद्दा न केवल उसे गंभीरता से पढ़ते, बल्कि उसमें आवश्यक सुधार करवाते। कई बार तो अपने जूनियर साथियों की कापियां देखकर झुंझलाते, उससे कई बार लिखवाते। इस पर भी अपेक्षित सुधार नहीं होता, तो वे खीझ उठते, ‘अबे गधे! तेरी मोटी बुद्धि में कुछ घुसता भी है या नहीं।' यह उनका तकिया कलाम था। जिससे यह बात कही जाती, वह या तो दांत निपोर देता या सिर खुजाने लगता। इन सबके बावजूद उनके मन में किसी के प्रति दुराग्रह नहीं था। वे यह मानने वाले जीव थे कि ‘न जानना कोई अपराध नहीं। न जानते हुए भी जानने का ढोंग करना, अक्षम्य है।' उनके साथ काम कर चुके अपराध संवाददाताओं की एक लंबी फेहरिस्त थी, जो विभिन्न अखबारों में काम कर रहे हैं। उनसे सीखकर कई अपराध संवाददाता ढेर सारे संस्थानों में महत्वपूर्ण पदों पर थे। शिवाकांत ने भी कई साल तक प्रत्युष त्रिापाठी की शार्गिदी की थी।

‘मैं पिछले बीस दिन से किस तरह के तनाव में जी रहा था, आप लोगों को नहीं बता सकता। कई बार सोचा, नौकरी छोड़ दूंं, लेकिन तात्कालिक रूप से विकल्पहीनता के चलते मुझे यह पाप करना पड़ा। हजरतगंज कोतवाली इंचार्ज उन्हें गिरफ्तार करने को तैयार ही नहीं था। कह रहा था, त्रिापाठी जी का रसूख उत्तर प्रदेश में कोई कम तो है नहीं। आज भले ही फर्रुखाबाद में रह रहे हों, कल को फिर लखनऊ रहने आ गए, तब...? तुम बता रहे हो कि पिछले आठ दिन से वे लखनऊ में ही हैं। उनको गिरफ्तार कर लिया, तो कल तुम्हीं लोग मुझे बुरा कहोगे। तुम्हारे कहने से त्रिापाठी जी को गिरफ्तार करके शहीदों में अपना नाम क्यों लिखाउं+। मैं उन्हें गिरफ्तार करूंगा, बीस पत्राकार उन्हें छुड़ाने पहुंच जाएंगे। कल अखबारों में मैं विलेन की तरह पेश किया जाउं+गा। जान—बूझकर आग से क्यों खेलूं।' शिवाकांत अपने साथियों के समक्ष सफाई पेश कर रहा था। इसके पीछे उसका अपराधबोध था या साथियों के सामने अपने कृत्य को सही साबित करने की मंशा, यह आशीष गुप्ता सहित अन्य लोग नहीं समझ पा रहे थे। ज्यादातर लोगों को शिवाकांत का गमगीन होना, मुंह लटका कर बैठना, स्वाभाविक कम, नाटक ज्यादा लग रहा था। भले ही उसने नौकरी के दबाव में यह काम किया था, लेकिन कहीं न कहीं उसकी भी सहमति रही होगी? वह कहता है कि बीस दिन से उस पर संस्थान के कर्ताधर्ताओं का दबाव था, जिस बात का खुलासा आज प्रत्युष त्रिापाठी को गिरफ्तार कराने के बाद कर रहा है, उसने पहले क्यों नहीं किया। अगर उसकी मंशा साफ थी, तो वह पहले भी लोगों को बता सकता था। तब हो सकता है, मिल बैठकर सोचने से कोई हल निकल आता। नहीं कुछ होता तो प्रबंधन या राय साहब को सब मिलकर समझाने या कोई सम्मानजनक समझौता करवाने में सफल हो जाते। लेकिन नहीं ...सब कुछ मटियामेट करने के बाद अब मुंह लटका कर बैठे हैं, मानो गौ हत्या का पाप लगा हो। वैसे भी प्रत्युष त्रिापाठी जैसे वरिष्ठ पत्राकार का बुरा सोचना, गौ हत्या के बराबर का पाप है। इस पाप का कोई प्रायश्चित भी नहीं है। शिवाकांत भले ही कुछ भी कहता फिरे।

मंजरी अग्रवाल कहने से नहीं चूकी, ‘सर जी! आप चाहे जो कहें। आपके हाथों जो कुछ भी हुआ, बिल्कुल गलत हुआ। एकदम गुरु द्रोणाचार्य के वध जैसा। अगर आपने नौकरी के दबाव में यह सब किया है, जैसा कि आप कह रहे हैं, तो भी न्यायपूर्ण नहीं है। यह सब कहने से न तो आपका अपराध कम हो सकता है, न ही आपका कलंक धुल सकता है।'

मंजरी की बात पूरी होने से पहले ही कमरे में सुप्रतिम ने प्रवेश किया। उसने सब पर निगाह डालते हुए कहा, ‘शाबाश शिवाकांत! शाबाश! तुमने तो इतिहास रच दिया। देखना, इस बार तुम्हारा प्रमोशन और बंपर इंक्रीमेंट पक्का है। आगे—पीछे की सारी कसर निकल जाएगी। इतना इंक्रीमेंट मिलेगा। वाकई मजा आ गया।'

सुप्रतिम की बात सुनकर परिमल और दुर्गेश पांडेय के चेहरे पर कुटिल मुस्कान दौड़ गई। वे सुप्रतिम का मंतव्य समझ गए। सब कुछ जानते हुए भी परिमल ने पूछा, ‘सर, मामला क्या है? कुछ हमें भी बताएंगे या खुद मन ही मन लड्डू फोड़ते जाएंगे।'

‘हाय मेरे भोले बलम...मैं मर जांवा...अब भी नहीं समझ पाए? अरे, मैं उसी साले बुड्ढे प्रत्युष त्रिापाठी की बात कर रहा हूं जिसकी गिरफ्तारी पर तुम लोग पिछले दस—पंद्रह मिनट से रोना रो रहे हो। रुदाली की तरह छाती पीट रहे हो।' सुप्रतिम का स्वर तेज और तल्ख हो उठा, ‘दस मिनट से तो मैं दरवाजे पर खड़ा रुदाली रुदन सुन रहा हूं। चला था हरामखोर डेढ़ लाख रुपये मारने। आज साले की अच्छी छीछालेदर हुई। वाकई मजा आ गया...मैं तो आज काम खत्म करके कहीं बैठकर इतना पियूंगा कि मन मयूर झूम उठे। जिसको भी आज दारू पीनी हो, वह जल्दी—जल्दी काम खत्म करके मेरे साथ चले। आज दारू की नदी बहा दूंगा। सब को पिलाउं+गा। मंजरी, शिवानी...तुम लोग भी पीना चाहो, तो स्वागत है।'

शिवाकांत यह सुनकर भी चुप रहा। शिवानी भटनागर से रहा नहीं गया। वह बोल उठी, ‘आप अच्छे इनसान नहीं बन सके, तो कम से कम अच्छे पत्राकार बन गए होते। संपादक—मालिक की चमचागिरी करते—करते आप इंसानियत का तकाजा भी भूल गए। क्या हो गया है आपको? आज आप प्रत्युष जी की गिरफ्तारी पर लोगों को दारू पिलाने का वायदा कर रहे हैं, कल जब आपकी एक मामूली सी गलती पर यही मालिकान दूध में गिरी मक्खी की तरह संस्थान से निकाल फेंकेंगे, तो लोग अपने घर पर कथा—भागवत सुनेंगे।'

‘पहली बात यह है कि मेरे साथ ऐसा कुछ नहीं होने वाला है। मैं ऐसी गलती करूंगा ही नहीं। जहां तक प्रतिबद्धता की बात है, अपने अखबार और मालिक के प्रति निश्चित तौर पर है। मेरी समझ में नहीं एक बात आती कि आप लोग उस ‘न्यूरोसिस्टो सरकोसिस' से इतनी सहानुभूति क्यों रखते हैं?'

‘भाई साहब...यह न्यूरोसिस्टो सरकोसिस क्या बला है? यह किस भाषा की गाली है?' परिमल जोशी ने कान खुजाते हुए कुछ ऐसे लहजे में पूछा कि आशीष सहित कई लोगों के चेहरे पर मुस्कान आ गई।

‘यह विशुद्ध अंग्रेजी गाली है...बबुआ। इसका मतलब है सुअर के गू का कीड़ा। अमानत में खयानत करने वाला व्यक्ति सुअर की विष्ठा में पड़े कीड़े से भी बदतर होता है। संस्थान आप पर विश्वास करता है। आपको जिम्मेदारी सौंपता है, आपको नौकरी देता है, तो आप संस्थान को यह सिला देंगे? उसका पैसा मार लेंगे? ऐसे नमकहरामों के साथ यही सुलूक होना चाहिए।' सुप्रतिम ने भद्दे ढंगे से मुंह को फैलाकर काफी देर से रखे गए पान को चबाने के बाद डस्टबिन में थूक दिया। उसने जेब से रुमाल निकालकर मुंह साफ किया और अपने कंप्यूटर पर आई हुई खबरों को देखने लगा।

‘संस्थान के पैसों को वसूलने के बाद जमा नहीं करने को मैं भी गलत मानती हूं। यह कोई अच्छी बात नहीं है। लेकिन यह बात तो आपको स्वीकार ही करनी पड़ेगी, आज जिन परिस्थितियों से प्रत्युष त्रिापाठी जी जूझ रहे हैं, कल मेरे सामने आ सकती है। परसों आपको भी यह सब कुछ झेलना पड़ सकता है।' शिवानी अब भी मुखर थी। उसे आश्चर्य हो रहा था कि ऐसे मौके पर शिवाकांत और आशीष जैसे वरिष्ठ साथी चुप क्यों हैं? उसने एक बार सबकी ओर देखा। उन सबके सिर झुके हुए थे। शिवाकांत ने तो अपनी आंखें भी बंद कर रखी थी। शिवानी ने मन ही मन आशीष और शिवाकांत को कोसते हुए कहा, कायर कहीं के! अपने को मर्द कहते हो। अपने ही सीनियर के साथ विश्वासघात करके उसे गिरफ्तार करवाकर यहां घड़ियाली आंसू बहाते हैं। यह आशीष सर...बातें तो बड़ी बड़ी करते हैं, लेकिन मौके पर मुंह में दही जमा लेते हैं। लानत है ऐसी मर्दानगी और पत्राकारिता पर, जो सच को सच और गलत को गलत कहने से रोक दे।

सुप्रतिम अवस्थी ने कुर्सी से उठते हुए कहा, ‘चलो बच्चो! अपना—अपना काम करो। खबरें लिखो और घर जाओ। आज मैं बहुत खुश हूं कि बुड्ढे को भले ही चार घंटे हवालात में रहना पड़ा, लेकिन उसका गुरूर टूट गया। दूसरे अखबारों के हरामखोर रिपोर्टरों की वजह से जेल नहीं भेजा गया। साले ने एक बार प्रेस क्लब में दारू पीकर मुझे खूब गालियां दी थीं। और शिवानी...आज तो मैं तुम्हारी बदतमीजी माफ कर रहा हूं। आइंदा ध्यान रखना, माफ नहीं करूंगा। मैं अभी प्रदीप जी से मिलकर आता हूं। फिर कैंटीन से चाय—समोसा मंगाकर तुम सबको खिलाता—पिलाता हूं।' इतना कहकर सुप्रतिम बाहर चला गया।

थोड़ी देर तक कमरे में निस्तब्धता छाई रही। भंग किया मंजरी ने, ‘ क्या शिवाकांत सर...आपने तो सुप्रतिम के सामने मुंह में दही जमा ली। विरोध के दो बोल तक नहीं फूटे। और आशीष सर...आप भी।' ‘आप भी' उसने इस लहजे में कहा, मानो वह कह रही हो, ‘ब्रूटस...यू टू!'

आशीष ने कहा, ‘आप लोगों के साथ बस यही एक दिक्कत है। कुछ समझती हैं नहीं। भिड़ जाती हैं तीर—कमान लेकर। सुप्रतिम जान—बूझकर जली—कटी सुना रहा था, ताकि उत्तेजना में कुछ ऐसा बोल जाएं जिसको लेकर वह बात का बतंगड़ बना सके। वह अपने को मैनेजमेंट का एक हिस्सा समझता है। व्यवहार भी वैसा ही करता है। उसकी हरकतों से पता लगता कि उसे संपादक से लेकर मालिकान तक ने शह दे रखी है। तभी तो वह इतना कूदता—फांदता है। अगर शह नहीं मिली होती, तो वह हमारी—तुम्हारी तरह जमीन पर रहता, आसमान में नहीं उड़ता।'

आशीष की बात पूरी होने से पहले ही दुर्गेश पांडेय और परिमल जोशी बाहर चले गए थे। टीटीएम यानी आदित्य सोनकर इस प्रकरण पर कुछ बोलने से अब तक कतरा रहा था। दुर्गेश और परिमल के जाने के बाद उसने पहली बार मुंह खोला, ‘आशीष सर की बात सौ फीसदी सही है। यही साले संस्थान का कबाड़ा करके मानेंगे। गुटबाजी और एक दूसरे की चुगली करके इंक्रीमेंट और प्रमोशन हथिया लेने की होड़ संस्थान को कहां ले जाएगी, कोई नहीं जानता। इनकी ही बदौलत मेहनती और कर्मठ लोग संस्थान छोड़कर जा रहे हैं। सुप्रतिम ने पूरा माहौल बिगाड़ रखा है। कभी—कभी कोफ्त होती है। जी करता है मुंह पर थूक कर चला जाउं+।'

मंजरी अग्रवाल अपने खुल गए बालों को समेट कर जूड़ा बनाती बोली, ‘अफसोस की बात है कि एक नौकर दूसरे नौकर को नौकर कहता है। अरे...नौकर तो हम सभी हैं। चाहे संपादक हो या चपरासी। फर्क सिर्फ इतना है कि कोई बड़ा नौकर है, तो कोई छोटा। सभी अपने को मालिक समझ बैठें, तो कैसे काम चलेगा? दिक्कत यही है, यहां मालिक ज्यादा, नौकर कम हैं। काम कोई करना नहीं चाहता है। अपनी जिम्मेदारी दूसरे के सिर पर थोपकर लोग मस्ती करते हैं। सीधे—सादे लोग गधे हैं। गधे की तरह काम करते हैं। घर जाकर बीवी के साथ बिस्तर गर्म करते हैं और सो जाते हैं। लानत है ऐसी जिंदगी पर।'

‘सुनो मंजरी! अब इन बातों का कोई मतलब नहीं है। हम सबको जल्दी से अपना काम निबटाना चाहिए। अभी सुप्रतिम लौटेगा, काम अधूरा देखकर चीखेगा। कभी इनकी थुक्का फजीहत करेगा, कभी उनकी। इस बात पर हम फिर कभी चर्चा कर लेंगे। जहां तक प्रत्युष त्रिापाठी जी की बात है, उन्हें छोड़ दिया गया है। हजरतगंज कोतवाली इंचार्ज ने उनके खिलाफ कोई मुकदमा नहीं दर्ज किया है। बस चार—पांच घंटे कोतवाली में बिठाए रखा था। बाद में रिपोर्टरों के कहने पर छोड़ दिया था। आज ही वे फर्रुखाबाद से लखनऊ आए थे। राय सर को पता नहीं कैसे यह बात मालूम चल गई थी। उन्होंने आज खुलेआम चेतावनी दी, तो मुझे यह अपराध करना पड़ा।' शिवाकांत ने हैंग हो गए कंप्यूटर को रिस्टार्ट करते हुए कहा। कंप्यूटर स्टार्ट होने पर खबरों की अधूरी सूची पूरी करने लगा। उसे काम करता देखकर सभी अपने काम में जुट गए।

कमरे में लगा जीरो वाट का बल्ब अपनी मद्धिम लाल रोशनी से अंधेरे के खिलाफ मोर्चा खोले हुए था। कूलर की ‘घर्र...घर्र...' आवाज नीरवता भंग कर रहा था, लेकिन वह अपने काम में विफल था। कूलर में दोपहर में भरा गया पानी खत्म हो जाने से हवा में ठंडक नहीं थी। शिवाकांत की आंखों से नींद कोसो दूर थी। पिछले कई घंटे से वह लेटा हुआ था। नींद थी कि आने का नाम ही नहीं ले रही थी। प्रत्युष त्रिापाठी की गिरफ्तारी उसके मन पर एक बोझ की तरह थी। उसे लगा कि उसे सांस लेने में तकलीफ हो रही है। वह उठ बैठा। साइड में टेबुल पर रखे जग से निकालकर एक गिलास पानी पिया, फिर आकर लेट गया। सुप्रतिम का बार—बार ठहाका लगाकर हंसना और सभी साथियों को चाय के साथ समोसा खिलाना, अपमानजनक लगा। कई बार मन हुआ कि वह उठकर सुप्रतिम के मुंह पर एक घूंसा जमाए और नौकरी से इस्तीफा देकर चला आए। लानत है ऐसी नौकरी पर। जो लोग बेरोजगार होते हैं, क्या वे लोग नहीं जीते? उनके बच्चे क्या भूखों मर जाते हैं? मर ही जाते होंगे? नहीं मरते होंगे, तो आत्महत्या कर लेते होंगे? नौकरी को निंदनीय इसीलिए कहा गया हैं क्योंकि उसमें नौकर की मर्जी नहीं चलती है। जो मालिक चाहता है, वह करना नौकरी की मजबूरी है। मालिक कहता है, फलां के खिलाफ लिखो, तो नौकर यह नहीं पूछ सकता है, आखिर उसकी गलती क्या है? बस, उसका धर्म अपने मालिक को उसके कहे मुताबिक करके संतुष्ट करना है। उसने नौकरी इसलिए नहीं छोड़ी क्योंकि सुख—सुविधाओं में कमी आ जाती? बीवी बेरोजगार होने का ताना देती? नहीं ...नहीं...ऐसा नहीं होता। माधवी पैसे को पकड़ती है, लेकिन इतनी निर्दय नहीं है कि वह बेरोजगार पति को ताना दे? फिर क्यों नहीं इस्तीफा राय साहब के मुंह पर मार दिया। उसे एक वरिष्ठ पत्राकार का कथन याद आ गया, बेरोजगारी व्यक्ति को नपुंसक बना देती है। बेरोजगार व्यक्ति को हर कोई ‘यूज' कर सकता है। खाली ही तो बैठे हो, जरा बाजार से सब्जी लाकर फ्रिज में रख देना। सुनो...मुझे फुरसत नहीं है, जरा, अपनी मां के लिए केमिस्ट के यहां से दवा ला देना। तो फिर क्या बेरोजगार व्यक्ति अपने मां—बाप, भाई—बहन, पत्नी या बच्चों के काम कर दे, तो वह यूज होने लगा? शिवाकांत को अपनी ही सोच पर घृणा होने लगी। उसके दिमाग में फिर यही सवाल कौंधा? उसने आखिर गलत बात को स्वीकार क्यों किया? उसके मन ने जवाब दिया, तुम कायर हो शिवाकांत! तुम्हारी नस—नस में कायरता भरी हुई है। तुम संघर्ष की शुरुआत करना तो जानते हो, लेकिन जब उसका चरम बिंदु आता है, तो पीछे हट जाते हो। तुम्हारी भीरुता तुम पर हावी हो जाती है। यह कापुरुष की पहचान है। शिवाकांत पसीने—पसीने हो उठा। वह बुदबुदाया, ‘नहीं...मैं कायर नहीं हूं। मैं कायर नहीं हूं। समय आने पर यह साबित कर दूंगा।' मन ठहाका लगाकर हंसा, देखूंगा...तुम्हारा समय जब आएगा, तब तुम्हारी मर्दानगी भी देखूंगा।

बगल में लेटी माधवी को बिस्तर पर आते ही सो जाने की आदत थी। सुबह पांच बजे उठने के बाद माधवी मशीन बन जाती थी। दैनिक कार्यों से निवृत्त होकर स्नान कर लेना, उसकी पुरानी आदत थी। तब तक दोनों बच्चे उठ जाते। बच्चे चाय नाश्ता करके सवा सात बजे स्कूल चले जाते। माधवी भी झटपट कोई हल्का—फुल्का नाश्ता या सब्जी—पराठा बनाकर अपना लंच बाक्स तैयार कर लेती। उसे सोते में जगाकर कहती, ‘उठिए...दरवाजा बंद कर लीजिए। खाना बनाकर फ्रिज में रख दिया है। दोपहर में गर्म करके खा लीजिएगा। सब्जी कम पड़े, तो दही रखी है। उससे काम चला लीजिएगा। कल बाजार नहीं जा पाई, इसलिए सब्जी कम पड़ गई थी।'

लखनऊ के पुराने और प्रतिष्ठित गर्ल्स कॉलेज में अर्थशास्त्रा पढ़ाने वाली माधवी की मानसिकता भी अर्थ प्रधान थी। भरी दोपहरी में पैदल दो किलोमीटर चली जाती, लेकिन दस रुपये खर्च करके रिक्शा कर लेना उसे गंवारा नहीं था। सब्जी वाला हो, राशन वाला हो, एक—एक, दो—दो रुपये के लिए झिकझिक करती। सब्जी वाला घर के सामने से गुजरता, तो आवाज नहीं लगाता। जब वह दूर होता, तभी माधवी जरूरत होने पर दरवाजे पर आ खड़ी होती। पहले तो वह सब सब्जियों के दाम पूछ जाती, ‘आलू क्या भाव? गोभी कितने रुपये किलो? बथुआ कैसे दिया?' यह तक कि मिर्च के दाम भी पूछना नहीं भूलती। सभी सब्जियों के दाम पूछने के बाद कहती, ‘क्या भइया! सभी सब्जियां महंगी दे रहे हो? बारह के बजाय नौ में दो, तो पाव भर दे दो।' सब्जी वाला माधवी का स्वभाव जानता था। वह पहले से रुपये—दो रुपये दाम बढ़ाकर बताता और काफी ना—नुकुर करने के बाद एकाध रुपये कम कर देता। माधवी अपनी जरूरत भर की सब्जियां खरीद लेती। कभी—कभार शिवाकांत सब्जी लेने आ जाता, तो माधवी कहती, ‘आप जाकर अखबार पढ़िए, मैं खरीद लेती हूं सब्जियां। अभी आप महंगे दाम पर सब्जियां खरीद लेंगे। सब्जी मंडी में कल आलू पंद्रह रुपये किलो बिक रहा था और आज यह मुआ अट्ठारह रुपये किलो दे रहा है। लूट मचा रखी है...लूट, इन सब्जी वालों ने।'

शिवाकांत खीझ जाता, ‘तुम रुपये—दो रुपये के लिए इतनी मगजमारी क्यों करती हो? ये लोग दिन भर गली—गली भटकते हैं। अब अगर रुपये—दो रुपये प्रति किलो नहीं कमाएंगे, तो इन्हें गली—गली सब्जी बेचने से फायदा क्या है?' इसके एवज में माधवी घंटे—आधे घंटे तक मुनाफे का अर्थ शास्त्रा समझाती। कुछ शिवाकांत के पल्ले पड़ता, कुछ ऊपर से निकल जाता, लेकिन वह सिर्फ सुनता। बोलता नहीं।

शादी के तीन—चार महीने के बाद की बात है। रात में शिवाकांत पत्राकारिता से जुड़े अपने अनुभव और मीडिया जगत की कार्य पद्धति समझाने का प्रयास कर रहा था। बीच में माधवी बोल पड़ी, ‘आप मीडिया—फीडिया की बात छोड़िए। यह बताइए, इतनी भागदौड़ करते हैं। आप ही बता रहे थे कि कई बार हालात ऐसे पैदा हो जाते हैं, आपको चार—पांच घंटे की भी फुरसत नहीं मिल पाती। इतनी भागदौड़ और मेहनत के बाद आपको मिलता क्या है? ...वही दस—बारह हजार रुपल्ली महीने। आपसे ज्यादा तो मैं कमाती हूं। सिर्फ चार—पांच पीरियड पढ़ाने होते हैं। पंद्रह हजार रुपये तनख्वाह और छुट्टियां भी सबसे अधिक। आप क्यों करते हैं इतनी मेहनत? क्या मिलता है? सिर्फ नाम ही न! सुबह अखबार में नाम छपा देखने से तो पेट नहीं भर जाएगा? आप यह सब छोड़कर अध्यापन क्यों नहीं करते? मेरे मामा के ससुर सचिवालय में हैं। उनकी ऊपर तक पहुंच है। कल ही मामा जी का फोन आया था। कह रहे थे, यदि दामाद जी चाहें, तो मैं बाबूजी यानी अपने ससुर जी से बात करूं? किसी भी डिग्री कॉलेज में लगवा देंगे। मैंने मामा जी से कहा है कि आपसे पूछ कर बताउं+गी। क्या कहते हैं आप? उन्हें हां कह दूं?'

शिवाकांत अवाक रह गया। वह सपने में भी नहीं सोच सकता था, कोई उसे पेशा बदलने की सलाह दे सकता है। वह भी पत्नी जिसे उसके जीवन में आए बामुश्किल चार महीना भी नहीं हुआ है।

उसने प्रतिवाद करते हुए कहा, ‘देखो...सवाल पैसे का नहीं है। पत्राकार को तनख्वाह कितनी मिलती है? यह एक अलग मुद्दा हो सकता है। यह भी सच है कि इस लोकतांत्रिाक व्यवस्था में पत्राकारों के कंधों पर एक बहुत बड़ा दायित्व होता है। वे जनता के हितों के पहरेदार होते हैं। अखबार में छपे एक—एक शब्द को उसका पाठक सही मानता है, तो सिर्फ इसलिए कि वह उनके हितों की रखवाली करता है। जहां कहीं भी कोई काम नियम विरुद्ध होता कोई पत्राकार देखता है, तो वह उसका खुलासा करता है। यह उसके पेशे की मांग है। पत्राकारिता गुरुत्तर दायित्व की मांग करती है। अगर पैसा ही सब कुछ होता, तो शायद कोई भी अपने बेटे को सीमा की रखवाली करने के लिए फौज में नहीं भेजता। एक सैनिक को कितनी तनख्वाह मिलती है, यही बीस—बाइस हजार रुपये? सैनिक सिर्फ बीस—बाइस हजार के लिए अपनी जान की बाजी नहीं लगता है। सैनिक का कर्तव्य, उसका धर्म यही है कि वह जान पर खेल कर देश की रक्षा करे। आपदा के समय वह यह सोचकर अगर पीछे हट जाए कि उसका काम तो सीमा की रखवाली करना है, वह किसी आपदाग्रस्त व्यक्ति की जान क्यों बचाए? तो...? लोग सैनिक को इतना मान क्यों देते हैं? क्योंकि वह देश और जनता की रक्षा करता है, यह सोचे बिना कि उसे उसकी सेवाओं का सिला यह राष्ट्र या जनता क्या देती है?'

माधवी ने शिवाकांत की शरारत कर रही अंगुलियों पर हलकी चपत लगाते हुए कहा, ‘इसका मतलब जनता ने पत्राकार नाम का एक कुत्ता पाल रखा है, जो उसके हितों के नाम पर दस—बारह हजार रुपल्ली महीने पर गाहे—बगाहे भौंकता रहे।'

शिवाकांत सन्न रह गया। उसे माधवी के इस जवाब की आशा नहीं थी। उसे लगा कि माधवी ने शब्दों का एक बड़ा—सा पत्थर उठाकर शिवाकांत के सिर पर दे मारा है। उसने इस बात का भी ख्याल नहीं रखा कि शब्दों की मार बहुत बुरी होती है। शब्दों की चोट जिंदगी भर सालती रहती है। शब्दों की चोट वैसे तो ऊपर नहीं दिखाई देती, लेकिन सांस की डोर टूटने तक वह दर्द करती रहती है। टीसती रहती है। माधवी के शरीर पर शरारत करती शिवाकांत की अंगुलियां थमक कर रुक गर्इं। उसने माधवी के शरीर से अपने को इस तरह झटके से दूर कर लिया मानो उसमें विद्युत प्रवाहित हो रही हो। उसने झुंझलाए स्वर में कहा, ‘तुम हर बात पर मेरी तनख्वाह का जिक्र क्यों करती हो? क्या हर काम सिर्फ पैसे के लिए किया जाता है? क्या दया, ममता, कर्तव्य परायणता, समाज, धर्म जैसे शब्दों का कोई महत्व नहीं है? समाज में बहुत सारे काम ऐसे होते हैं जिनको लोग स्वार्थ रहित होकर करते हैं। अगर भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, नेताजी सुभाष चंद्र बोस जैसी महान हस्तियों ने तुम्हारी तरह सोचा होता, तो क्या वे आज सम्मान और श्रद्धा के पात्रा होते? गुलाम भारत आजाद होता? देश और दुनिया के विकास में न जाने कितने लोग अपनी गुमनाम भागीदारी निभा रहे हैं, वे क्या बेवकूफ हैं?'

माधवी ने तपाक से उत्तर देते हुए करवट बदल ली, ‘इन लोगों ने शादी भी नहीं की थी। इनके कोई बाल—बच्चे भी नहीं थे। आपने शादी की है। कल बच्चे भी होंगे। इन बच्चों के पालन—पोषण के लिए पैसा चाहिए। सिर्फ सुबह अखबार में नाम छप जाने से बच्चे पल—बढ़ नहीं जाएंगे। अब आप ऐसा करें, खुद सोएं और मुझे भी सोने दें। दो दिन से ठीक से नहीं सो पाई हूं। मुझे नींद आ रही है।' इतना कहकर माधवी ने पैरों के पास पड़ी चादर खींची और सिर से पांव तक ओढ़कर लेट गई। कुछ देर बाद माधवी गहरी निद्रा में थी। शिवाकांत की नींद गायब हो चुकी थी। वह माधवी की बातें सुनकर तिलमिला उठा था। माधवी के लिए पैसा जीवनयापन का साधन नहीं, साध्य था। साधन क्या है? साधन की पवित्राता क्या है? इससे उसे कोई मतलब नहीं था। और शिवाकांत के लिए पैसा कभी साध्य रहा ही नहीं। पैसे के पीछे भागते लोगों को देखकर उसमें एक अजीब किस्म की वितृष्णा पैदा होती थी। क्या करे अब वह? कैसे निभेगी उसकी माधवी के साथ?

शिवाकांत थोड़ी देर तक हतप्रभ और चिंतित—सा लेटा रहा। फिर उठकर बैठ गया। समझ में नहीं आ रहा था कि वह करे भी, तो क्या? माधवी की बातें हृदय में शूल की तरह चुभ रही थीं। वह चाहता तो उसे कटु जवाब दे सकता था! जवाब था उसके पास। वैवाहिक जीवन की अभी शुरुआत ही हुई थी, वह कटुता पैदा नहीं करना चाहता था। विवाद...वह भी पत्नी से, इसकी उसने कभी कल्पना भी नहीं की थी। आज की बातचीत से वह इतना तो समझ गया था, माधवी उन औरतों में से है जिनके लिए रुपया—पैसा, संपत्ति और ऐशोआराम ही सब कुछ है।

जिस स्थिति को वह उस रात टालने में सफल हुआ था। बाद में वही स्थितियां बार—बार पैदा होने लगीं, तो उनमें छोटे—मोटे झगड़े भी होने लगे। आमतौर पर शिवाकांत ही या तो चुप हो जाता या फिर बहस को टाल जाता। अब तो बात—बात में माधवी उससे कहती कि आप नाम के साथ त्रिापाठी क्यों नहीं लिखते? कोई कांप्लेक्स है क्या? शिवाकांत अपने नाम के साथ ‘त्रिापाठी' सरनेम नहीं लगाता था। हां, मार्कशीट में जरूर दर्ज था। उसके लिए सरनेम की उतनी ही महत्ता थी। माधवी ने पितृकुल के सरनेम ‘शुक्ला' के साथ त्रिापाठी भी जोड़ लिया। यदि कभी कहीं शिवाकांत साथ होता, तो वह परिचय के दौरान बड़े गर्व से नाम बताती, माधवी शुक्ला त्रिापाठी। उन दिनों महिलाओं में एक नया शौक पैदा हुआ था। पति और पितृ कुल का सरनेम एक साथ लिखने का। कुछ महिलाएं तो सिर्फ विवाह पूर्व के सरनेम का ही उपयोग करने लगीं। राम मोहन दुबे की पत्नी अपने परिचितों में वंदना अवस्थी के नाम से ही जानी जाती थीं। महफिलों में जब भी सरनेम को लेकर बात चलती, तो कहा जाता, जब मर्द शादी के बाद अपना सरनेम नहीं बदलता, तो वे ही क्यों अपने नाम के पीछे उनका पुछल्ला लगाए घूमें। यदि दूबे सरनेम पति की पहचान है, तो अवस्थी सरनेम मेरी पहचान है। अब तक मैं वंदना अवस्थी जानी जाती थी, शादी के बाद दुबे क्यों लिखूं। मेरी कोई वैयक्तिक पहचान है कि नहीं। और फिर

शादी अकेले मैंने ही तो नहीं की है। अगर मेरे पति को आपत्ति है, तो हम दोनों कोई नया सरनेम लिखने लगें। सरनेम छोड़ें, तो दोनों छोड़ें। अकेले हम ही अपने सरनेम की कुरबानी क्यों दें?

शिवाकांत की समझ में आने लगा था, माधवी उसे पास आने का मौका तभी देती है, जब उसकी मंशा होती है। शादी के डेढ़ साल बाद अंकिता पैदा हुई। लगा कि नदी के दो किनारों के बीच वह सेतु बनकर आई है। माधवी और शिवाकांत, दोनों ने अपने—अपने स्तर पर हालात से मौन समझौता कर लिया था। दोनों अपने मूल स्वभाव और प्राथमिकताओं के साथ—साथ एक दूसरे का ख्याल रखने लगे। पत्राकारिता जगत में अपनी बेबाकी और टांग अड़ाऊ प्रवृत्ति के लिए कुख्यात शिवाकांत भीतर से रिक्तता महसूस करने लगा था। किससे कहे अपनी पीड़ा? पीड़ा...जो अथाह सागर की तरह हृदय में हिलोरें लेती, तो उसका मन होता कि वह किसी कंधे का सहारा लेकर अपनी पीड़ा बताए, उसकी सहानुभूति हासिल करे, उससे स्नेह हासिल हो। शिवाकांत को माधवी जैसे इन सभी भावनाओं से कहीं दूर नजर आती। अंकिता के साढ़े तीन साल बाद पैदा हुआ था अभिनव। दोनों बच्चों के पालन—पोषण के साथ उनकी वैवाहिक जीवन की गाड़ी किसी तरह धचके खाती हुई घिसट रही थी। दोनों अपने—अपने स्तर पर बच्चों की जिम्मेदारी निभाने का भरसक प्रयास कर रहे थे। संबंधों में माधुर्य नहीं था। हां, इसकी थोड़ी—सी भी भनक इन दोनों के अलावा किसी को नहीं लगी। दोनों अपने में मस्त, एक दूसरे से बेपरवाह किंतु अभिभावक की भूमिका में पूरी तरह सतर्क। बच्चे दोनों की आंखों का तारा, हृदय के टुकड़े, बेपनाह मुहब्बत के हकदार।

शिवाकांत के अनुज अमरकांत त्रिापाठी ने केजीएमसी से डॉक्टरी की पढ़ाई पूरी कर ली थी। बाराबंकी में प्रैक्टिस करने लगा था। पिता चंद्रकांत त्रिापाठी हैदरगढ़ में खेती—बाड़ी देखते थे। अमरकांत शाम को क्लीनिक बंद करके गांव पहुंच जाता। अपने सास—ससुर को माधवी पूरा सम्मान देती, उनको थोड़ी सी भी तकलीफ होती, तो वह बाराबंकी पहुंच जाती। इकलौता देवर तो जैसे छोटा भाई बन गया था। डॉक्टर शरारत करने पर भाभी से झिड़की खाता, मुस्कुराता और मुस्कुरा कर अपने काम में लग जाता। शिवाकांत से लाख मतवैभिन्य रहे हों, लेकिन किसी ने यह बात उसके व्यवहार से कभी महसूस नहीं की। वह सबके सामने हंसती, मुस्कुराती, गाती—खिलखिलाती, तो लगता कि वह लखनऊ में पति के साथ बहुत खुश है। उसे शिवाकांत के किसी अन्य व्यवहार से आपत्ति भी नहीं थी। वह तो सिर्फ इतना चाहती थी कि वह जितनी मेहनत करता है, उसके अनुरूप मेहनताना भी मिले। उसे लगता कि अखबार की नौकरी उसे वह नहीं दे सकती, जिसका सपना उसने शादी से पहले देखा था। जिन एशोआराम के सपने उसने संजोये थे, वह पत्राकारिता में पूरे होते नहीं दिखाई दे रहे थे। गांव या रिश्तेदारी में किसी के बीमार होने, शादी—विवाह, मुंडन, छेदन का आयोजन होने पर माधवी मौका निकाल कर जरूर पहुंचती। परिजनों की हर जरूरत पर वह छुट्टियां लेकर गांव जाती थी। सास—ससुर की सेवा में कभी कोई कमी नहीं आने दी। वह इतनी सेवा—सुश्रुषा करती, लगता ही नहीं कि वह पराये घर से आई है। उसका यह व्यवहार देखकर शिवाकांत मन ही मन खुश होता। कभी नितांत अंतरंग क्षणों में वह उसकी इस बात के लिए प्रशंसा भी करता।

माधवी कहती, ‘यह तो मेरा धर्म है। एक मां—बाबू जी को छोड़कर आई, तो उनसे ज्यादा प्यार और मान—सम्मान देने वाले मां—बाबू जी मिल गए। मैं घाटे में कहां रही?'

शिवाकांत मुस्कुराकर कहता, ‘यहां भी घाटा—मुनाफा देखती हो?'

‘क्यों न देखूं। तुमसे विवाह करके फायदे में सिर्फ मैं ही रही। अब मेरे पास दो मां और दो पिता हैं। छोटे भाई की तरह देवर है। बस, आप ही फायदे का अर्थशास्त्रा नहीं समझ पाए।' माधवी की बात सुनकर शिवाकांत चुप रह जाता। वह जानता था, बात आगे बढ़ी, तो फिर वह पत्राकारिता और तनख्वाह का रोना लेकर बैठ जाएगी।

ऑयलिंग की जरूरत वाली दोपहिया गाड़ी की तरह वैवाहिक जीवन घिसट रहा था। शादीशुदा जिंदगी के पंद्रह साल किस तरह बीत गए, दोनों को पता ही नहीं चला। हां, खटर—पटर का सुरा—बेसुरा राग आए दिन जरूर बजता रहा, लेकिन संबंधों को दोनों ने कभी बोझ बनने नहीं दिया। न शिवाकांत ने, न माधवी ने। हर नोक—झोंक, खटर—पटर के बाद दोनों चुप हो जाते। बहुत जरूरी बातें करते, लेकिन वितंडा खड़ा करने की कोशिश किसी तरफ से नहीं हुई। ऐसे कई मौके आए, जब एक ही बिस्तर पर पत्नी के साथ होने के बावजूद शिवाकांत नितांत अकेला रहा। वैसे भी माधवी देह के मामले में परम स्वतंत्रा थी। मर्जी हो तो शिवाकांत प्रियतम, अन्यथा ऐसे हाथ झटक देती, मानो दुनिया का सबसे निकृष्टतम कार्य करने जा रहा हो शिवाकांत। संबंध बनाने के मामले में वह बहुत उत्सुक भी नहीं रहती। वैवाहिक जीवन का धर्म समझकर वह हफ्ते में एकाध बार निकटता हासिल करती। फिर दोनों विपरीत ध्रुवों की तरह व्यवहार करने लगते।

अकेलापन महसूस होने पर यादों के घने कुहासे को भेदकर एक छवि शिवाकांत के मस्तिष्क में उभर आती थी। पिछले सत्ताइस साल से उसके हर दुख—दर्द, अकेलेपन की साथी वह छवि ही तो थी। सत्ताइस साल पहले की वह छवि तब बारह—तेरह साल की मासूम—सी, गोरी चिट्टी और गोलमटोल लड़की थी। तकलीफ में ही विभा आती। याद आते ही उसके चेहरे पर फीकी—सी मुस्कान उभर आती। तकलीफ में भी वह मुस्कुरा पड़ता। इस मुस्कुराहट में कितनी पीड़ा थी, कितनी विवशता, कितना अपनापन, यह शिवाकांत महसूस नहीं कर पाता। शायद करना भी नहीं चाहता था। वह बंद हो चुके अध्याय को खोलकर खुद को तकलीफ नहीं पहुंचाना चाहता था। माधवी भले ही चाहे जैसी हो, लेकिन वह माधवी के प्रति ईमानदार रहना चाहता था। मन से भी, तन से भी। वैसे विभा के मामले में तन तो था ही नहीं। केवल मन ही था, उस समय भी और आज भी। अब तो मन भी शायद नहीं रहा। लेकिन फिर वह बार—बार याद क्यों आती है? कहीं न कहीं मन के किसी कोने में, दिमाग के किसी न्यूरोन्स में वह छिपी बैठी उसके अस्तित्व को बार—बार कोंचती रहती थी, ‘मैं तुम में हूं। तुम मुझे अपने से दूर नहीं कर सकते। अपने मस्तिष्क के न्यूरोंस को खुरच को निकाल सकते हो? लाखों न्यूरोंस में से उस न्यूरोंस की खोज बहुत मुश्किल है, शिवाकांत जिसमें मैं छिपी बैठी हूं। चलो, मान लिया। तुमने वह न्यूरोंस खोज भी लिया, तो क्या अपने दिमाग से निकाल पाओगे? दुनिया का बड़े से बड़ा डॉक्टर उस न्यूरोंस को निकाल सकता है?'

आज जब वह प्रत्युष त्रिापाठी को गिरफ्तार कराने का बोझ दिल पर लिए घर आया, तो उसके आने से पहले ही माधवी को पूरी खबर मिल चुकी थी। सुप्रतिम अवस्थी फोन करके आग लगा चुका था। उसे उदास देखकर माधवी ने कहा, ‘इसमें इतना भावुक या उदास होने की क्या बात है? जिस संस्थान में काम करते हो, उसके प्रति तुम्हारी कोई जिम्मेदारी है कि नहीं। जीवन में कई ऐसे मौके आते हैं, जब मन मारकर कोई काम करना पड़ता है। सब कुछ अगर अपने मन का ही होने लगे, तो उसे नौकरी नहीं कहते हैं। महाकवि घाघ ने इसीलिए नौकरी को निंद्य कहा है।'

वह चुप रहा। सोचने लगा, यदि आज विभा उसके साथ होती, तो क्या वह भी ऐसा ही सोचती? शायद नहीं ...वह ऐसी लड़की नहीं थी। हां, उसे याद है। जब कोई सहपाठी अपनी शरारतों के चलते पीटा जाता था, तो विभा बेचैन हो उठती थी। वह किसी को दुखी नहीं देख पाती थी। क्या पता...बाद में वह बदल गई हो? हो सकता है, वह भी माधवी की तरह ही सोचने लगी हो? उसे लगता है कि पूरी दुनिया की औरतों की केमिस्ट्री एक जैसी ही है। सभी एक ही ढर्रे पर सोचती हैं। वह तय नहीं कर पाता कि विभा बदली होगी या नहीं। उस समय तो विभा मासूम और नर्म दिल हुआ करती थी। परिस्थितियां कई बार व्यक्ति को हृदयहीन बना देती हैं। परिस्थितियां ही थीं कि ब्राह्मण पुत्रा अहिंसक को अंगुलिमाल बनना पड़ा और परिस्थितियां बदलीं, तो वह बौद्ध धर्म का सबसे बड़ा अनुयायी बन गया। कुछ ऐसा भी कहा जाता है कि जब अहिंसक गुरुकुल में पढ़ रहा था, तो गुरु पत्नी ने उससे काम निवेदन किया। अहिंसक को यह स्वीकार नहीं था। वह अतिपातक का भागीदार नहीं बनना चाहता था। मां, बहन, बेटी, भावज और गुरु पत्नी से शारीरिक संबंध बनाना अतिपातक नहीं तो और क्या था? काम निवेदन अस्वीकार करने से तिलमिलाई गुरु पत्नी ने अपने बूढ़े पति को उकसाया कि वह गुरु दक्षिणा में अहिंसक से एक हजार अंगुलियां मांगें। ठीक ही कहा गया है कि पुरुष पुरातन की वधू क्यों न चंचला होय। चंचल चित्त वाली उस गुरु पत्नी के मोह पाश में बंधे पुरुष पुरातन (बूढ़े पुरुष) ने अपने सबसे योग्य शिष्य को दस्युवृत्ति अपनाने को मजबूर कर दिया। अपने गुरु के योग्य शिष्य अहिंसक को चंचल चित्त वाली गुरु पत्नी के प्रणय निवेदन को अस्वीकार करने की सजा अंगुलिमाल बनकर भोगनी पड़ी।

विभा से उसकी मुलाकात बाराबंकी के सर गंगा राम उच्चतर माध्यमिक विद्यालय में हुई थी। शिवाकांत ने उस साल छठवीं कक्षा में प्रवेश लिया था। उससे पहले वह हैदरगढ़ के एक सरकारी विद्यालय में पढ़ता था। शिवाकांत के चाचा श्यामाकांत त्रिापाठी बाराबंकी में आढ़त का काम करते थे। तब उनके कोई संतान नहीं हुई थी। वह आगे की पढ़ाई किसी अच्छे स्कूल में कराने के नाम पर बाराबंकी ले आए थे। गांव के स्कूल में पढ़ा शिवाकांत जब बाराबंकी के सर गंगा राम उच्चतर माध्यमिक स्कूल में पहली बार गया, तो उसके सहपाठियों ने उसकी चुटिया खींची। बड़े प्यार से नाम रखा—‘लल्लू लाल।' वेशभूषा और बोलचाल के देहाती लहजे ने उसे वाकई ‘लल्लू लाल' बना दिया था। धीरे—धीरे समय बीतता गया। शिवाकांत शहरी माहौल में ढलने लगा। पहले दिन रबड़ की (हवाई) चप्पल और हाफ पैंट पहनकर स्कूल आने वाला शिवाकांत अब ज्यादातर बच्चों से अच्छी टाई बांध लेता था। त्रौमासिक और छमाही परीक्षा में सर्वोच्च अंक हासिल कर न केवल अध्यापकों का स्नेहभाजन बना, बल्कि सहपाठियों को भी रवैया बदलने पर मजबूर कर दिया। इसी दौरान सहपाठियों में अजीब—सा मजाक शुरू हो गया। हुआ यह कि एक दिन मजाक—मजाक में दिनेश कुशवाहा ने सतीश सिंह से कहा, ‘अबे देख! मीनाक्षी सिंह तुझे ऐसे देख रही है, जैसे कि तू उसका पति हो?' उन दिनों मीनाक्षी और सतीश में कोई खिचड़ी पक रही थी। दोनों उम्र में बड़े भी थे, यही कोई पंद्रह—सोलह वर्ष के। शायद पढ़ाई लिखाई देर से शुरू हुई थी या कोई और बात थी। छठवीं कक्षा में वे सबसे बड़े थे। खिसियाये सतीश ने तपाक से कहा, ‘तेरी बीवी भी तो सामने से आ रही है।' उस समय कांति कुशवाहा क्लास में प्रवेश कर रही थी। फिर क्या था? इस मजाक का विस्तार होने लगा। सिंह लड़के का जोड़ा सिंह लड़की से, मुस्लिम लड़के का नाम मुस्लिम लड़की से, ब्राह्मण लड़की को किसी ब्राह्मण लड़के के साथ जोड़ दिया गया। पहले तो मजाक की यह बात छात्राों में ही रही, लेकिन साल बीतते—बीतते सभी छात्रााएं भी इस तथ्य से अपरिचित नहीं रहीं। उन्होंने भी इस चुहुल को मानो मौन स्वीकृति दे दी थी या यों कहें कि वे इसका प्रतिकार करने की स्थिति में नहीं थीं। उनकी शालीनता ही प्रतिरोध के मार्ग की सबसे बड़ी बाधा थी। कई बार छात्राों में मारपीट हो जाती, तूने मेरी वाली से बात क्यों की...? उसकी तरफ घूर कर क्यों देखा...? मारपीट होने पर बात अगर अध्यापक तक पहुंच जाती, तो मारपीट का कोई दूसरा कारण दोनों पक्ष गढ़ लेते। मजाल है कि अध्यापकों को किसी ने इसकी भनक तक लगने दी हो।

रिसेस में शिवाकांत खेलने में मस्त हो जाता। यदि विभा को कुछ मंगाना होता, तो वह शिवाकांत का मुंह ताकती। शिवाकांत खेल छोड़कर उसके लिए भेलपूरी, मसालेदार चने, आइसक्रीम लेने जाता। दोनों मिलकर खाते। आठवीं कक्षा में पहुंचने पर छात्रााओं में एक नया शौक चढ़ा, मिट्टी की कुज्झी (प्याली) के टुकड़ों को खाने का। शिवाकांत की बाल बुद्धि उन दिनों यह नहीं समझ पाती थी कि आखिर मिट्टी के टुकड़ों को खाने में कौन—सा स्वाद मिलता है। मिट्टी के इन टुकड़ों की लड़कियां इतनी दीवानी क्यों हैं? उन दिनों स्कूल के बाहर कुज्झियों में बर्फ को घिस सैक्रीन का घोल मिलाकर बेचने एक बूढ़ा आया करता था। लड़कियां शिवाकांत को भेजकर चार—पांच कुज्झी बर्फ मंगवाती थीं। जाते समय उसे कुछ और कुज्झियां चुराकर लाने की भी जिम्मेदारी सौंपी जाती थी। फालतू कुज्झियां मिलने पर उसे शाबाशी भी खूब मिलती थी। इससे उसे खुशी मिलती थी। शिवाकांत नजर बचाकर पैंट की जेब में कुज्झियां रखता जाता। लड़कियां बर्फ खाने के बाद कुज्झियां खा जातीं। यह तो बड़े होने पर उसकी समझ में आया कि उन दिनों शरीर में कैल्शियम की कमी को पूरा करने के लिए लड़कियां ऐसा करती थीं। छुट्टी होने से पहले शिवाकांत अपनी कापियां विभा को देकर निश्चिंत हो जाता। उसका गृहकार्य विभा घर से कर लाती, लेकिन अपना गृहकार्य अकसर वह पूरा नहीं कर पाती। इतिहास और गणित का गृहकार्य छूटने पर अकसर वह पिट जाती। पिटाई के बाद भी विभा के चेहरे पर अफसोस कहीं नहीं झलकता। रिसेस में वह सबसे पहला काम यही करता कि वह विभा से काम पूरा न कर पाने की वजह पूछता।

हर बार विभा का बस एक ही जवाब होता, ‘तुम्हारा क्या है? घर गये, खाया—पिया और खेलने निकल गये। हम लड़कियों का घर पहुंचने से पहले ही ढेर सारे काम इंतजार करते रहते हैं। इसके बाद फुरसत मिलने पर पढ़ाई हो पाती है। ये घरेलू काम ही इतना थका देते हैं कि तुम्हारा होमवर्क पूरा करने के बाद अपने होमवर्क के लिए समय ही नहीं बचता। दस बजे के बाद मम्मी जबरदस्ती सुला देती हैं।'

उसे अपनी स्वार्थपरता पर लज्जा आती। जैसे ही छुट्टी का समय नजदीक आने लगता, वह सब कुछ भूल जाता। शिवाकांत के बस्ते की कापियां विभा के बस्ते में पहुंच जातीं। यह क्रम तीन साल तक छठवीं से लेकर आठवीं क्लास तक लगभग रोज दोहराया जाता रहा। पता नहीं कैसा अधिकार था कि वह अपनी कापियां विभा को देता और पता नहीं कैसा समर्पण या प्यार था कि विभा अपना काम भले ही न पूरा कर पाए, लेकिन शिवाकांत का होमवर्क जरूर पूरा कर लेती।

आज जब शिवाकांत उन दिनों को याद करता है, तो उसे उस मासूम प्यार पर रोमांच—सा हो आता है। जितना प्यार वह विभा से करता था, उससे कहीं ज्यादा विभा उससे करती थी। इस प्यार के बीच शरीर तो कहीं था ही नहीं। शारीरिक आकर्षण महसूस करने की वह उम्र भी नहीं थी। शारीरिक संरचना का गूढ रहस्य तब उन दोनों के लिए अबूझ था। हां, दोनों के मन की केमिस्ट्री शायद एक थी जिसकी वजह से दोनों जुड़े हुए थे। आठवीं की परीक्षा के बाद जब दोनों टीसी (स्थानांतरण प्रमाणपत्रा) लेकर स्कूल से बाहर निकले, तो उन्होंने एक दूसरे को इस तरह देखा, मानो अब कभी नहीं मिलेंगे। विभा चुपचाप रो रही थी, लेकिन शिवाकांत का हृदय हाहाकार कर रहा था। बिछड़ते वक्त दोनों हृदय से रोये थे। दोनों ने बाराबंकी में ही अलग—अलग इंटर कॉलेजों में दाखिला लिया। अब कभी—कभार दोनों की मुलाकात हो जाती, लेकिन दोनों में संकोच की एक महीन—सी दीवार आ खड़ी हुई थी। दोनों एक दूसरे का हालचाल पूछते और अपनी—अपनी राह चले जाते। दसवीं की परीक्षा से कुछ दिन पहले नाका सतरिख चौराहे पर दोनों की मुलाकात हुई। विभा की मम्मी भी उसके साथ थीं। विभा ने बताया कि परीक्षा के बाद वह मेरठ चली जायेगी। उसके पिता का तबादला मेरठ छावनी में हो गया है।

दोनों ने एक दूसरे को नजर भरकर देखा और अलग हो गये। शायद कभी न मिल पाने का दुख दोनों की आंखों में था, लेकिन इस बार दर्द उतना सघन नहीं था जितना आठवीं की परीक्षा के बाद टीसी लेकर स्कूल से निकलते वक्त था। शायद समय ने दर्द की सघनता को कम कर दिया था या प्यार की वह तीव्रता ही कम हो गई थी। शरीर का विकास होने से उनमें आ रहे परिवर्तन ने एक सामाजिक संकोच पैदा कर दिया था। दिल की धड़कन तो पहले जैसी ही थी, लेकिन उस धड़कन में से टीस का रसायन समाज और परंपराओं ने जैसे चुरा लिया हो। विदा होते समय बस दिल में एक कचोट—सी पैदा हुई। इसके बाद दोनों की मुलाकात अमीनाबाद पार्क में करीब छह साल बाद हुई। शिवाकांत अपने एक पत्राकार साथी से मिलकर लौट रहा था। पीछे से विभा ने आवाज दी। पलभर को वह पहचान नहीं पाया। गोल मटोल, गोरी विभा औरत बन चुकी थी। मांग में सिंदूर, गले में मंगलसूत्रा और हाथों में रंगबिरंगी चूड़ियां पहने विभा मुस्कुरा रही थी। उसके चेहरे पर आत्मविश्वास और संतोष झलक रहा था। देहयष्टि भर गयी थी। शरीर का यह भराव शिवाकांत को अच्छा भी लगा, बुरा भी। यह विभा तो उसके दिल में बसने वाली से नितांत अलग थी। कहीं कोई मेल नहीं था। सकुचाई, धीरे स्वर में बात करने वाली विभा की जगह तेज तर्रार, खनकती आवाज वाली महिला ने लिया था। विभा ने चहकती आवाज में कहा, ‘पहली नजर में आप पहचान नहीं पाये थे न!'

‘आं...हां...काफी बदल जो गई हो। थोड़ी लंबी भी।'

‘दरअसल इसमें दोष आपका भी नहीं है। आपने तो मेरे इस रूप की कल्पना भी नहीं की होगी। आप जिस विभा को जानते हैं, वह आपकी अपनी है। खेल—खेल में बनाई गई बीवी।'

शिवाकांत झेंप गया। उसने सफाई दी, ‘वह तो बच्चों का खेल था। बचपन खत्म हुआ, वह खेल भी खत्म हो गया। और जो सत्य है, वह समक्ष है।'

‘हां...यही सत्य है...। शायद...मैं शायद इसलिए कह रही हूं कि इस सत्य को सामाजिक रूप से तुमने और मैंने भले ही स्वीकार कर लिया हो, लेकिन मन के किसी कोने में वह छवि आज भी दुबकी बैठी है। इसे हम दोनों को खुले मन से स्वीकार करना चाहिए। एक बात है...मानिक चंद त्रिापाठी के साथ फेरे लेते वक्त आप बुरी तरह याद आये थे। एक हल्का—सा दर्द सीने में उठा था। फेरे पूरे होने के बाद तुम्हारे प्रति कोई भावना शेष नहीं बची थी।'

‘तुम लखनऊ में ही रहती हो?'

‘नहीं...' विभा इठला उठी, ‘लेकिन जहां मैं रहती हूं, उस शहर का नाम और पता नहीं बताउं+गी। मेरे पति मानिक चंद त्रिापाठी वायु सेना में इंजीनियर हैं। आपमें और उनमें साम्यता सिर्फ इतनी है कि दोनों का सरनेम त्रिापाठी है। स्वभाव से शायद तुम दोनों एक दूसरे से विपरीत ही होगे। हां, अगर इधर तुम्हारे स्वभाव में परिवर्तन न आया हो, तो?'

शिवाकांत ने संकोच से बताया, ‘मैं तो बस एक हिंदी दैनिक में मामूली अपराध संवाददाता हूं।'

‘मैं जानती हूं पत्राकार महोदय! अभी पिछले हफ्ते आपकी एक खबर छपी थी। हम लोग आपके अखबार के नियमित पाठक हैं।'

शिवाकांत को क्षोभ हुआ। उसने अब तक चाय पूछने की औपचारिकता भी नहीं निभायी थी। उसने विभा के चेहरे को निहारते हुए कहा, ‘आइए, कहीं बैठकर चाय पीते हैं।'

‘नहीं...मुझे देर हो रही है। अभी मुझे निराला नगर पहुंचना है। शाम को सात बजे की ट्रेन पकड़नी है। चलती हूं...हो सकता है, अब जीवन के किसी मोड़ पर इसी तरह मुलाकात हो। यह भी हो सकता है, अब हम जीवन में कभी न मिलें। एक बात जाते—जाते जरूर कहूंगी। आप मुझे आजीवन याद आयेंगे। दिल का एक कोना आज भी बचपन की स्मृतियों से आबाद है। बस...एक तमन्ना है, जब मौत हो, तो मानिक चंद के साथ—साथ तुम्हारा चेहरा भी सामने हो। तुम्हें यह इच्छा भले ही बचकानी लगे, लेकिन इच्छा है, तो है। अब इस इच्छा पर मेरा कोई वश भी नहीं है। मैं तन और मन से अपने पति के प्रति पूर्ण समर्पित और ईमानदार हूं। बस, बचपन का वह निर्मल और कामना रहित प्रेम नहीं भुलाया जा रहा है मुझसे। मैं भूलना भी नहीं चाहती।' यह कहते—कहते विभा की आंखें और आवाज दोनों नम हो गयीं। विभा ने एक रिक्शेवाले को रुकने का इशारा किया और उस पर बैठकर चल दी।

शिवाकांत उसे तब तक ताकता रहा, जब तक वह दृष्टिसीमा से ओझल नहीं हो गयी। शिवाकांत उसके एकाएक चल देने का कारण समझ गया। विभा को शायद भय था कि वह उससे संपर्क साधने की कोशिश कर सकता है, जो उसके वैवाहिक जीवन में विवाद का कारण बन सकता है। शिवाकांत को उसने यह बताने का मौका ही नहीं दिया कि उसे उस विभा में कोई रुचि नहीं है, जो युवा है, विवाहित है, भरे—पूरे देहयष्टि वाली है। उसे तो बस उस विभा की तलाश थी, जिसकी चोटियों को वह जब चाहे खींच लेता था। उसे अपना होमवर्क करने को कापियां सौंप सकता था। कुछ दिनों बाद तो वह वाकई युवा विभा को भूल गया, लेकिन गोलमटोल, भोली—सी विभा उसके जेहन में हमेशा रही। उस रात जब वह छत पर लेटा, तो फूट—फूटकर रोया। क्यों?...यह न तब शिवाकांत की समझ में आया था, न अब तक आ सका है। शायद मानस में बसी छवि के खंडित होने की वजह से। विभा का विवाह हो जाने से या कुछ और बात थी? शिवाकांत नहीं जानता। जानना भी नहीं चाहता। वह तो इतना चाहता था कि उसकी उस बाल सखी विभा की वह छवि अक्ष्क्षुण रहे, जो सर गंगा राम उच्चतर माध्यमिक विद्यालय छोड़ते समय उसके मानस पटल पर अंकित हुई थी। आज भी उसे विभा बुरी तरह याद आ रही थी। वह बिस्तर पर लेटा आंखें बंद किये उसकी धुंधली—सी तस्वीर पर अपना ध्यान केंद्रित करने की कोशिश कर रहा था। कैसी विडंबना है कि जिस आग में वह जल रहा है, वैसी ही आग विभा भी अपने सीने सुलगाए इस विराट संसार में कहीं गुम हो गई है। वह लाख प्रयत्न करने के बावजूद न तो उससे मिल सकता है, न बात कर सकता है। विभा के बारे में सोचते—सोचते थोड़ी देर बाद उसे नींद आ गई। पहले भी ऐसा कई बार हुआ था।

सुबह साढ़े दस बजे शिवाकांत ऑफिस पहुंचा तो मीटिंग शुरू हो चुकी थी। मोबाइल का स्विच ऑफ करके वह चुपचाप अपनी सीट पर बैठ गया। संपादक चतुर्भुज शर्मा, समाचार संपादक प्रदीप तिवारी और सुप्रतिम सहित सभी संवाददाताओं के चेहरे झुके हुए थे। संपादक शर्मा बार—बार नाक पर ढुलक आने वाले चश्मे को समायोजित करते हुए कह रहे थे, ‘एक बात आप लोग अच्छी तरह से समझ लें। भविष्य में सरवाइव वही कर पायेगा, जो अपने काम में परफेक्ट होगा। कंपनी अब किसी को ढोने को तैयार नहीं है। अगर आप इसी तरह खबरें छोड़ते रहे, तो दूसरे अखबार आपको पीटकर रख देंगे। ऐसे में कोई संपादक या मालिक आपको कितने दिन बर्दाश्त करेगा?'

‘भाई साहब, हिंदुस्तान और जागरण में जो खबरें पहले पेज पर छपी हैं, उनकी भनक दुर्गेश पांडेय को भी नहीं लगी। इसका तो एक ही मतलब है कि ये फील्ड में जाते ही नहीं। यही हाल अपराध और नगर निगम बीट देखने वाले रिपोर्टरों का है।' प्रदीप तिवारी ने अपनी अंगुलियां चटकाई और सुप्रतिम को चुनौतीपूर्ण नजरों से देखा। ‘यह बात सही है कि दुर्गेश जी से खबर छूटी, लेकिन ऐसे सेमिनार तो विश्वविद्यालय में रोज होते रहते हैं। प्रतिस्पर्धी अखबारों ने इसे बेवजह तान दिया है। ऐसा क्यों किया, यह मैं नहीं जानता। कई बार उनके पास खबरें नहीं होने पर ऐसी फालतू खबरें छाप देते हैं। खबर भी फर्जी है। हां, नगर निगम देखने वाले दिवाकर शुक्ल का मामला गंभीर है। अगर नगर निगम कहीं अतिक्रमण विरोधी अभियान चलाकर पांच घर गिरा देता है, तो यह सेमिनार से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण खबर है।' सुप्रतिम ने बचाव किया, तो दुर्गेश ने आभार पूर्ण निगाहों से उसकी ओर देखा।

सुप्रतिम की बात सुनते ही दिवाकर सतर्क होकर बैठ गया। वह समझ गया कि अब उसकी खाल खींची जाएगी। बाल की खाल निकालने में सभी सिद्धहस्त थे। जब भी ऐसा मामला आता, वह अकेला पड़ जाया करता था। शिवाकांत से बचाव की अपेक्षा थी, लेकिन वह जानता था, शिवाकांत भी थोड़ी देर में खुद कटघरे में खड़ा होने वाला है। वे उसका या अपना बचाव करें। दिवाकर से संपादक चतुर्भुज शर्मा भी खार खाते थे। दरबार सजाने के आदी संपादक शर्मा को यह बात अच्छी नहीं लगती थी कि दिवाकर उनके आवास पर होली, दिवाली और दशहरा जैसे पर्वों पर भी हाजिरी देने न आये। वे कई बार संकेत दे चुके थे, दिवाकर! लोगों से मिलते—जुलते रहना चाहिए। इससे संबंध ‘हरे—भरे' रहते हैं। सफलता के लिए सिर्फ मेहनत और ईमानदारी ही जरूरी नहीं है, मेल—मुलाकात भी जरूरी होते हैं। इंक्रीमेंट और प्रमोशन का रास्ता इन मेल—मुलाकात से ही होकर गुजरता है। संबंधों के ‘हरे—भरे' रहने का अर्थ दिवाकर खूब समझता था। इसके बावजूद उसने संपादक शर्मा के दरबार में माथा टेकना जरूरी नहीं समझा।

‘सर! पांच घर नहीं गिराए गए थे। एक घर की केवल थोड़ी—सी चहारदीवारी तोड़ी गई थी।' दिवाकर ने सफाई पेश की।

‘बकवास मत करो। गलती करके कुतर्क करते हो।' संपादक शर्मा ने डपटते हुए कहा, ‘तुमने अखबार की नौकरी को सरकारी समझ रखा है क्या? ऐसा ज्यादा दिन नहीं चलने वाला। प्रदीप! सबको निकाल बाहर करो। इस नाकारा टीम को ढोने का कोई मतलब नहीं है। दिवाकर को तीन दिन के लिए ‘फोर्स लीव' पर भेजो। इसकी तीन दिन की तनख्वाह कटेगी, तो आगे से सतर्क रहेगा। गोस्वामी तुलसीदास ने भी लिखा है, भय बिनु होई न प्रीति। आगे से तनख्वाह कटने का भय रहेगा, तो फील्ड में भी यह जाएगा।'

शर्मा की बात सुनकर दिवाकर का चेहरा लटक गया। वह जानता था, यदि वह माफी भी मांग ले, तो उसकी सजा माफ होने वाली नहीं। चतुर्भुज शर्मा पहले से ही उसे फोर्स लीव पर भेजने का मन बनाकर आए थे। उससे कोई इतनी बड़ी खबर तो नहीं छूटी थी कि जिसको लेकर इतनी हाय—तौबा मचाई जाती। दिवाकर को फोर्स लीव पर भेजने के फरमान से कमरे में सन्नाटा छा गया। लोग एक दूसरे को चोर निगाहों से देखते और सिर झुका लेते।

प्रदीप तिवारी ने कहा, ‘सुप्रतिम! प्रिंटिंग यूनिट का इलेक्ट्रिक लोड कम कराने के मामले में क्या हुआ? पिछले तीन दिन से प्रिंटिंग मशीन गड़बड़ा रही है। बिजली विभाग कौन देखता है? उससे कहो, किसी तरह मैनेज करे। राय साहब जल्दी ही रिजल्ट चाहते हैं।'

‘हां, यह मामला जल्दी ही निपटवाता हूं। कल तक अमितेश आ जाएगा। उसको इसकी जिम्मेदारी दी गई थी। उसने बात भी की थी बिजली विभाग के अधिशासी अभियंता से। वह कुछ सुनने को तैयार ही नहीं है। हां, शक्ति भवन में सब कुछ सेट हो गया है।' सुप्रतिम ने प्रदीप तिवारी को जानकारी दी।

‘इंजीनियर नहीं सुनता, तो एमडी को पकड़ो। कुछ भी करो, लेकिन मामले को जल्दी से जल्दी सुलझाओ। और शिवाकांत...तुमसे यह उम्मीद नहीं थी। सभी अखबारों ने चिनहट में हुई महिला की हत्या के मामले में अवैध संबंधों की बात लिखी है। तुमने नहीं लिखा। इन दिनों तुम पता नहीं क्या अवांट—बंवाट लिख रहे हो। दूसरे अखबारों ने इसी एंगल से चांप कर खबर लिखी है।' संपादक शर्मा के निशाने पर अब शिवाकांत था। सुप्रतिम के चेहरे पर क्रूर मुस्कान दौड़ गई। उसने तिरछी नजर से शिवाकांत को देखा और मुंह बिचका दिया। उसकी नाक से एक फुफकार—सी निकली।

‘लेकिन सर...यह तो अपने अखबार की पालिसी में नहीं है।' शिवाकांत ने स्पष्टीकरण पेश किया।

‘क्या पालिसी में नहीं है?'

‘यही कि किसी महिला का चरित्रा हनन...महिला को तो हत्यारे ने मार दिया। ऐसे में उसका चरित्रा हनन करके उसके परिजनों की भी हत्या कर दें...क्या यह उचित है? वह भी तब, जब अवैध संबंध की बात पुष्ट न हो।'

‘तो फिर खबर ही क्यों लिखते हो...? क्या हर खबर पुष्ट होने के बाद ही लिखते हो?'

‘नहीं...लेकिन ऐसे मामले में अब तक अपने अखबार में संयम बरतने की नीति रही है।' शिवाकांत की जगह इस बार राजेंद्र शर्मा ने जवाब दिया था।

‘तुम लोग मिलकर मुझे सिखाओ मत...। मैं भी क्राइम रिपोर्टर रहा हूं। ‘सूत्राों के अनुसार' लिखकर बड़ों—बड़ों की मां—बहन एक की है मैंने। तुम सूत्राों के अनुसार अवैध संबंध की बात नहीं लिख सकते। आज सभी अखबारों ने हमें पीटकर रख दिया। जानते हो, सुबह से तीन बार राय साहब का फोन आ चुका है। हर बार उन्होंने क्राइम रिपोर्टर की छुट्टी करने की बात कही है। तुम्हारा क्या किया जाए, यह तुम्हीं बताओ? सुप्रतिम आज की कार्य योजना सबसे लेकर सेंट्रल डेस्क को भिजवाओ। मैं चलता हूं।' इतना कहकर चतुर्भुज शर्मा और उनके पीछे—पीछे प्रदीप तिवारी बाहर निकल गए।

‘सुप्रतिम सर...पांच घरों की दीवार गिराई जाने की खबर क्या इतनी बड़ी थी कि उसके लिए तीन दिन के फोर्स लीव पर भेज दिया जाए।' संपादक और समाचार संपादक के बाहर निकलते ही दिवाकर फट पड़ा, ‘और दुर्गेश जी से इतनी बड़ी खबर छूट गई, तो उनसे पूछा तक नहीं गया।'

‘देखो दिवाकर...मैं आदरणीय संपादक जी के फैसले के खिलाफ कोई टिप्पणी नहीं करूंगा। इस संस्थान में संपादक जी के तीन—चार चिंटू हैं। सबसे बड़ा चिंटू तो मैं हूं, दूसरे चिंटू दुर्गेश अवस्थी हैं, तीसरे राम जी त्रिापाठी ‘दिनकर' हैं। अब अगर तुम भी संपादक जी के चिंटू या पीसी...मतलब पत्ता चाटू होते, तो तुम्हें भी कुछ नहीं कहा जाता।' सुप्रतिम अवस्थी ने गुटखे का पाउच फाड़कर मसाला मुंह में डालते हुए कहा। थोड़ी देर तक मसाला चबाने के बाद उसने डस्टबिन में थूक दिया और हंसने लगा।

‘पत्ता चाटी आपको मुबारक...लेकिन हम अपने साथ होने वाली नाइंसाफी बर्दाश्त नहीं करेंगे। हमारी राई भर की गलती आप लोगों को पहाड़ सरीखी दिखती है। दूसरों की पहाड़ बराबर गलती पर आपका ध्यान नहीं जाता है। मैं जानती हूं कि जितने भी ऊटपटांग फैसले होते हैं, उनके पीछे कहीं न कहीं आपका हाथ होता है। आप ऐन मौके पर इतने भोले बन जाते हैं, जैसे आपको मालूम ही न हो।' मंजरी अग्रवाल ने मुंह खोला। उसने हिकारत भरी नजरों से सुप्रतिम को देखा। वहां बैठे लोग मंजरी का समर्थन करने की बजाय सुप्रतिम की ओर ताकने लगे, मानो यह जताना चाह रहे हों कि मंजरी के इस बयान से उनका कोई लेना—देना नहीं है। वे उसकी बात का समर्थन भी नहीं करते हैं।

‘लो...कर लो बात...आदरणीय संपादक जी के फैसले के बीच मैं कहां से आ गया।' सुप्रतिम ने फिर डस्टबिन में थूकते हुए कहा, ‘मेरे सामने कितनी दिक्कतें हैं। मैं अपने वरिष्ठ लोगों की कितनी लताड़ सुनता हूं, आप लोगों के सामने सार्वजनिक रूप से नहीं बता सकता। आपको लगता है, मैं संपादक से लेकर मालिक तक का खास हूं। मालिकान के बीच मेरी बातें सुनी जाती हैं। सच तो यह है कि मेरी अहमियत इन लोगों के बीच कुत्ते से भी बदतर है। मुझे कोई कुछ गिनता ही नहीं। सब आदेश दनदनाकर चले जाते हैं। सुबह से शाम तक इन लोगों के सामने झुकते—झुकते मेरी कमर धनुष हो जाती है, कुत्ते से भी बदतर हालत बनाकर रख दी है इन लोगों ने। आप सब अपने दुख—दर्द, गुस्सा, आक्रोश और तिरस्कार मेरे सामने प्रकट कर संतोष पा लेते हैं। मैं कहां जाउं+? किससे कहूं? मेरी व्यथा सुनने वाला ही कोई नहीं है?'

‘यह सब कहने की बातें हैं। ...आप अपनी तानाशाही को संपादक, मैनेजमेंट और मालिकों की आड़ में हम सब पर थोपते हैं। ऊपर से हमारे सामने नाटक करते हैं। दिवाकर को फोर्स लीव पर भेजने के फैसले के पीछे भी कहीं न कहीं आपकी मंशा जरूर रही है। आप इससे मुकर नहीं सकते हैं।'

‘हे भगवान! ...मैं आप लोगों को कैसे विश्वास दिलाउं+। मैंने ऐसा कभी नहीं चाहा है। मैं क्या हृदयहीन हूं? अपने साथियों को फोर्स लीव पर भिजवाने का षड्यंत्रा रचता हूं? मैं कितना अपमानित होकर नौकरी कर रहा हूं, इसे या तो मैं जानता हूं या फिर मेरा भगवान। अब मैं क्या कहूं। जानती हो शिवानी! ...परसों चिंतामणि राय जी ने कहा, यदि सुप्रतिम इस यूनिट की बजाय कहीं और होता, तो अब तक दस कंटाप खा चुका होता।' यह कहते—कहते सुप्रतिम की आंखें भर आर्इं और टप—टप आंसू बहने लगे। गला अवरुद्ध हो गया। थोड़ी देर बाद उसने जेब से रुमाल निकाल कर आंसू पोछे और अखबारों की फाइल निकालकर पलटने लगा।

शिवाकांत ने अंगुलियों से मेज थपथापते हुए कहा, ‘अगर ऐसा है, तो लिखिए इस्तीफा। हम सब इस्तीफा देते हैं। ऐसे माहौल में काम करने का कोई मतलब नहीं है। नहीं चाहिए हमें ऐसी जलालत भरी नौकरी। हम पत्राकार हैं, भडुवे नहीं। आप पता नहीं कैसे और क्यों इतना अपमान सह लेते हैं? और अगर सहते हैं, तो उसका लाभ भी तो आप ही उठाते हैं। दूसरों को तो उन लाभों की भनक तक नहीं लगती। कंपनी आपको पिछले सात महीने से मकान का किराया दे रही है, हाउस एलाउंस के बाद भी। यह बात आपने किसी को बताई? किसी और को यह सुविधा दिलाने की कोशिश की? नहीं न

...तो फिर। वाह...आपके भी क्या कहने, मीठा—मीठा गप्प, कड़वा—कड़वा थू।'

इस बार दुर्गेश ने बातचीत का सिरा अपने हाथ में लिया, ‘यह बहुत पुरानी मान्यता है कि हर संपादक क्रूर होता है, निर्दयी होता है, उत्पीड़क होता है, रक्त पिपासु होता है। इस बात को क्यों भूल जाते हो कि संपादक मालिक की इच्छा का गुलाम होता है। ‘यस सर...यस सर...' कहते हुए उसे अपनी नौकरी बजानी पड़ती है। उस पर सौ किस्म की जिम्मेदारियां होती हैं। वह एक समय में सबको संतुष्ट नहीं कर सकता है। वह अगर राम को संतुष्ट करेगा, तो श्याम रूठ जाएगा। श्याम को संतुष्ट करेगा, तो गिरधारी नाराज हो जाएगा। इतना ही नहीं, अगर संपादक थोड़ा—सा अपने अधीनस्थों के प्रति नरम हो जाए, तो अधीनस्थ संपादक की खोपड़ी पर मूतने लगेंगे।'

‘जिस तरह आजकल आप लोग संपादक जी की खोपड़ी पर मूत रहे हैं?' दिवाकर की इस टिप्पणी ने सुप्रतिम सहित कई लोगों को तिलमिला कर रख दिया।

‘नहीं...ऐसी बात नहीं है...।' शिवाकांत ने प्रतिवाद किया, ‘दरअसल जो बच्चा अपने बचपन में मां—बाप या भाई—बहनों द्वारा प्रताड़ित होता है, जब वह खुद मां या बाप बनता है, तो अपने बच्चों को प्रताड़ित कर बचपन में अपने साथ हुए अन्याय का बदला लेता है। वह बचपन में अपने साथ हो रहे अन्याय का प्रतिकार करने की स्थिति में नहीं होता। ऐसी हालत में बदले की यह भावना उसके अंतरमन में छिपकर बैठी रहती है। यह एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है। हां, अगर ऐसे मां या बाप को यह बताकर उनके बचपन की याद दिलाई जाए, तो इस बात की संभावना काफी कम है कि ऐसे लोग इस बात को स्वीकार करेंगे। ठीक यही बात सास—बहू, अध्यापक और छात्रा आदि के रिश्तों पर भी लागू होती है। जो लोग अपने पत्राकारिता के प्रारंभिक चरण में अपने संपादक या इंचार्ज से प्रताड़ित हो चुके होते हैं, वे संपादक या इंचार्ज बनने पर अपने अधीनस्थों के साथ वैसा ही दोहराते हैं। बात—बात पर अधिकारी को कोसने और उस पर झल्लाने वाला व्यक्ति अफसर बनने पर अधीनस्थ की आलोचना बर्दाश्त नहीं कर पाता। उसके दो सहयोगी भले ही बैठे काम की बातें कर रहे हों, लेकिन उसे हमेशा यही लगता है कि वे उसके खिलाफ षड्यंत्रा रच रहे हैं।'

शिवाकांत की बात पर लोग आपस में बहस करने लगे। इससे कमरे में शोर मचने लगा। सुप्रतिम ने अंगूठी से मेज को ठोंककर लोगों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया, ‘मुझे लगता है, यह एक निहायत थोथी परिकल्पना है। इसका सच्चाई से कोई लेना—देना नहीं है। जो बच्चा बचपन में प्रताड़ित होता है, बड़ा होकर वह अपने बच्चों की समस्याएं अच्छी तरह से समझ पाता है। अब मुझे ही लीजिए। बचपन में अपनी शरारतों के चलते काफी पीटा जाता था। स्कूल में भी और घर में भी। अपने बच्चों को मैंने आज तक नहीं पीटा। अपने बच्चों की तकलीफों को मैं अच्छी तरह से समझता हूं।'

‘शब्दों का चाबुक बरसाने को हम लोगों की पीठ जो आपको मिल जाती है।' शिवानी के शब्दों में चाबुक जैसी फटकार बरस रही थी। वह रोष में थी। उसे दिवाकर को फोर्स लीव पर भेजने के फैसले पर गुस्सा आ रहा था।

पिछले काफी देर से बोलने का मौका तलाश रहे परिमल जोशी ने बात लपक ली, ‘मैं सुप्रतिम सर की बात से पूरी तरह सहमत हूं।'

मंजरी अग्रवाल ने तल्ख स्वर में परिमल की बात काट दी, ‘तुम चुप ही रहो, तो अच्छा है। तुम्हारी नौकरी मालिकों, संपादक और स्थानीय डेस्क के इंचार्ज की पत्ता चाटी के सहारे चल ही रही है। मैं सोच रही थी कि तुम अब तक आखिर चुप क्यों हो? अब समझ में आया कि पत्ता चाटी का कोई मौका तलाश रहे थे। जो तुम्हें अभी मिला है। तुम इस अवसर पर भी कैसे चूक सकते थे।'

सुप्रतिम और परिमल के चेहरे पर नागवारी के भाव उभरे। परिमल कुछ कह पाता कि इससे पहले सुप्रतिम अवस्थी की गुर्राती हुई आवाज गूंज उठी, ‘चापलूसी करना कौन नहीं चाहता है? अगर तुम्हें मौका मिले, तो तुम भी ऐसा ही करोगी। बल्कि तुम इससे भी कहीं आगे बढ़ जाओगी। मेरा मुंह मत खुलवाओ सब लोग। मेरा मुंह खुला तो बहुतों के मिर्ची लग जाएगी। आज का युग ही चापलूसी पर टिका हुआ है। जो जितनी बड़ी मक्खन की टिकिया लगाता है, वह उतना ही बड़ा पद पाता है, आगे बढ़ता है। ...और तुम इधर कुछ दिनों से ज्यादा बकवास करने लगी हो। लड़की होने के नाते तुम हर बार मेरे कोप का भाजन बनने से बचती आ रही हो। अब अगर आइंदा बदतमीजी की, तो मैं शायद बर्दाश्त न कर पाउं+। यह बात अपने दिमाग में अच्छी तरह बिठा लो।'

‘तो क्या मुझे भी फोर्स लीव पर भिजवा देंगे?' मंजरी भी उखड़ गई।

‘नहीं...मैं संपादक जी से अनुरोध कर तुम्हारा तबादला आगरा या बरेली यूनिट में करवा दूंगा। मैं यह भी जानता हूं कि चाहे जो कुछ हो जाए, तुम लखनऊ छोड़ना नहीं चाहती हो। जरूरत पड़ी तो नौकरी छोड़ सकती हो।' सुप्रतिम कुटिलतापूर्वक मुस्कुरा रहा था, ‘तुम्हें अभी मेरी हैसियत का अंदाजा नहीं है। बेहतर यही है कि तुम कुछ बोलो ही नहीं। अगर बोलो, तो मीठा बोलो।'

‘अगर आप मुझे धमकी दे रहे हैं, तो वह पूरी करके देख लें। एक बात अच्छी तरह से जान लें, आपके किसी भी तरह के मनसूबे पूरे होने वाले नहीं हैं। मैं आप सबकी मानसिकता से अच्छी तरह वाकिफ हूं। जब मैं इस संस्थान में आई थी, तो श्रद्धावश कुछ कथित वरिष्ठ पत्राकारों के पैर छूती थी। आशीर्वाद देने के बहाने उनके हाथ कहां—कहां पहुंचते थे या पहुंचना चाहते थे, क्या मैं नहीं जानती थी। मुझे यह भी पता है कि पीठ पीछे आप लोग हम लड़कियों को लेकर क्या कमेंट करते हैं। इस डेस्क पर कुछ लोगों को छोड़कर किसकी निगाह कहां—कहां तक भटकती है, इससे हम अंजान नहीं हैं।'

मंजरी की बात से कमरे में एक बार फिर सन्नाटा खिंच गया। अब माहौल दूसरा ही रंग अख्तियार करने लगा था। मंजरी की बात सुनकर डॉ. दुर्गेश पांडेय असहज हो उठे। मंजरी ने यह बात कहने के बाद डॉ. दुर्गेश पांडेय की ओर देखा। उनका चेहरा फक पड़ गया। चेहरे पर कई रंग आ रहे थे, जा रहे थे। उन्होंने बड़ी मुश्किल से थूक घूंटा।

डॉ. दुर्गेश ने अपनी वरिष्ठता की आड़ में मामले पर धूल डालने की कोशिश की, ‘मंजरी...बोलते समय कुछ तो सोच लिया करो...इस तरह की बातें तुम्हें शोभा नहीं देतीं। माना कि जमाना बदल गया है, लेकिन लखनऊ का माहौल इतना नहीं बदला है कि आप लोग खुले आम इस तरह की बातें करती फिरें। लज्जा नारी का आभूषण है। जब नारी में लज्जा ही नहीं रहा, तो बाकी क्या रहा? अच्छा होगा, अब आप लोग खबरों के लिए निकलें। मुझे डेढ़ घंटे बाद एक कार्यक्रम कवर करने के लिए प्रेस क्लब जाना है। मैं तो अभी कुछ देर यहीं रुकूंगा।'

बीच में कूद पड़ी शिवानी, ‘खूब कहा, आपने डॉक्टर साहब! लज्जा सिर्फ हमारे लिए ही है, आपके लिए नहीं? हम लज्जा से अपनी आंखें बंद करके सिकुड़ी—सिमटी रहें, आप पैंट खोलकर सड़कों पर आवारा पशुओं की तरह घूमें। आप स्त्राी को उपभोग की वस्तु समझकर उसे जब चाहे रौंदते रहें, स्त्राी लज्जा, इज्जत और कौमार्य के नाम पर आपका बर्बर और नपुंसक ‘पुरुषत्व' बर्दाश्त करती रहे। आप अपनी बर्बरता और आदिम वासना को काबू में क्यों नहीं रखते हैं?'

डॉक्टर दुर्गेश अचकचा गए। उन्हें इतने तीखे प्रहार की उम्मीद नहीं थी। शिवानी की बात सुनकर शिवाकांत मुस्कुरा दिया। उसने सोचा, वह भी कुछ कहे। लेकिन बात का बतंगड़ बनने के भय से चुप रहा।

सुप्रतिम ने मामले को खत्म करने की नीयत से कहा, ‘अरे...काफी समय बीत गया। मीटिंग बर्खास्त की जाती है। अब आप लोग फील्ड में निकलें। मुझे कुछ प्रशासनिक कार्य करने हैं, इसलिए मैं तो रुकूंगा अभी।'

सुप्रतिम की बात सुनते ही शिवाकांत सहित सभी रिपोर्टर उठ खड़े हुए। डॉ. दुर्गेश पांडेय और परिमल जोशी अपनी सीट पर बैठे ही रहे। सबके बाहर निकलने पर कुछ देर तक तीनों शांत बैठे रहे। थोड़ी देर बाद परिमल ने खामोशी भंग की, ‘सर जी...आपका भी कोई जवाब नहीं। आपकी आंखों में इतनी जल्दी आंसू कैसे आ गए? आपने कहां से सीखी है यह कला? मुझे भी कुछ गुर सिखा दीजिए। जिंदगी में कभी काम आएंगे।'

‘बेटा...यही मैनेजमेंट है। साम, दाम, दंड और भेद की नीति यही है। जब जरूरत पड़े, वैसी नीति अपनाओ। तुमने देखा होगा कि कई बार बड़ी से बड़ी गलतियों पर मैं किसी से कुछ नहीं कहता। जब मुझे हौंकना होता है, तो मामूली—सी गलती को इतना तूल दे देता हूं कि संपादक जी को मजबूरन गलती करने वाले को डांटना—फटकारना पड़ता है। जहां लगे कि झुक जाने में ही भलाई है, वहां झुककर पैर पकड़ लेने को मैं बुरा नहीं मानता। वैसे भी कहा गया है, पैरा छूना बड़प्पन की निशानी है।' कहकर सुप्रतिम अवस्थी बेहयाई से हंस पड़ा।

‘लेकिन गुरु...आज मंजरी तो कुछ ज्यादा बोल गई। उसने तो डॉ. साहब की पैंट बीच चौराहे पर उतार दी, सबसे सामने नंगा ही कर दिया।' परिमल ने हंसते हुए डॉ. दुर्गेश पांडेय पर व्यंग्य कसा।

‘डॉ. साहब भी न...लौंडिया देखते ही फिसल जाते हैं। लार टपकाने लगते हैं। किसी दिन कोई जड़ीली मिल जाएगी, तो भरे बाजार इस बुढ़ापे में इनकी इज्जत का फालूदा बनाकर बेच देगी। अपनी नौकरी तो गंवाएंगे ही, संस्थान की भी मिट्टी पलीद करवाएंगे।' सुप्रतिम का स्वर काफी तेज था। उसकी आवाज काफी दूर तक सुनी जा सकती थी। उसने शायद यह कला बड़ी साधना के बाद हासिल की थी। जब चाहता, किसी को भी तेज स्वर में हौंकने लगता। इसी बीच अगर कोई दूसरा कुछ पूछ बैठता, तो वह उसे शिष्ट और मंद स्वर में जवाब देने के बाद पहले वाले को फिर हौंकने लगता। कई बार जब वह किसी की थुक्का—फजीहत करने की घर से सोचकर आता, तो कमरे के बाहर तक वह बिल्कुल सामान्य रहता। वह पहले ही किसी को फोन करके पता लगा लेता, अमुक व्यक्ति ऑफिस आया है कि नहीं। यदि वह व्यक्ति आया होता, तो कमरे में घुसते ही इतने तेज स्वर में चीखने—चिल्लाने और डांटने लगता कि अगल—बगल के कमरे से लोग भागे चले आते मानो उसका किसी से झगड़ हो रहा हो। चीख—चीखकर सवाल—जवाब करने लगता, जैसे अभी किसी बात पर नाराज हुआ हो। निशाने पर आए व्यक्ति की पूरी इज्जत उतारने के बाद क्षण भर में ही वह सामान्य भी हो जाता। इस तरह हंसी मजाक करने लगता, मानो कुछ हुआ ही नहीं हो। सुप्रतिम से डांट खाया व्यक्ति तिलमिला कर रह जाता। वह अगले चार—पांच घंटे तक सामान्य नहीं रह पाता। सुप्रतिम उस व्यक्ति की बेबसी, क्रोध और कुंठा पर बैठा हंसता रहता। उसे छेड़कर आनंद लेता रहता। इसी प्रवृत्ति के चलते उसके अधीनस्थ उसे सैडिस्ट (दूसरों के दुख में सुखी रहने वाला) बताते थे।

डॉ. दुर्गेश ने खिसियाये स्वर में कहा, ‘साली...न जाने कितनों के साथ रात भर टांग उठाए रहती है। बनती है सती—सावित्राी। जरा—सा कभी कहीं ठांव—कुठांव हाथ लग गया होगा किसी दिन। उसका रांड इतना बतंगड़ बना रही है।'

‘भले ही वह बतंगड़ बना रही हो। आपकी इस आदत से परिचित मैं भी हूं। कई लोग भीतर—बाहर आपकी इस यौन कुंठा को लेकर बातें करते हैं, खिल्ली उड़ाते हैं। आप क्यों करते हैं ऐसा? कौन—सा सुख मिल जाता है? आप लड़कियों को किसी न किसी बहाने छूने की कोशिश क्यों करते हैं? सच बताउं+, मैंने अपनी आंखों से आपको ऐसा करते देखा है।' सुप्रतिम का स्वर अब भी तेज था, ‘यह बताइए...इसमें आपको कौन से चरम सुख की अनुभूति हो जाती है? ऑफिस की कुछ लड़कियां इसकी शिकायत दबे लहजों में पहले भी कर चुकी थीं। मंजरी ने तो आज ही कहा है।'

‘ताज्जुब की बात है सुप्रतिम सर...आज शेरनी की मां शिवानी भटनागर ज्यादातर चुप ही रही।'

‘वाकई...वह जब बोलने लगती है, तो बड़ों—बड़ों की बोलती बंद हो जाती है। अच्छा हुआ शैतानी की नानी चुप रही। आज जिस तरह का माहौल था, उसका चुप रहना बेहतर रहा।' सुप्रतिम ने उठते हुए कहा, ‘आप लोग भी ऑफिस से निकलिए, हाथ—पांव डुलाइए। कोई खबर छूटनी नहीं चाहिए। अगर मेरे ‘जी' में बंबू डाला गया, तो छोड़ूंगा मैं भी नहीं। आप लोगों की दुर्गति करके छोडूंगा। मैं संपादक जी से मिलकर आता हूं। अखबारों की समीक्षा रिपोर्ट भी सेंट्रल डेस्क को देनी है।' इतना कहकर सुप्रतिम बाहर निकल गया। उसके पीछे—पीछे डॉ. दुर्गेश पांडेय और परिमल जोशी भी निकल गए।

ऑफिस परिसर में बने स्टैंड पर रिपोर्टरों की महफिल जमा थी। शिवाकांत और शिवानी जा चुके थे। डॉ. दुर्गेश ने अपनी बाइक निकाली, चलते बने। परिमल जोशी रिपोर्टरों की महफिल में जा मिला। दिवाकर कह रहा था, ‘संपादक जी, इतनी नैतिकता झाड़ते हैं, लेकिन जिस घर में रहते हैं। वह कब्जे के बल पर हासिल हुआ है। लखनऊ के चर्चित भू माफिया वीरेंद्र शुक्ला से संपादक जी की अच्छी पटती है। उसी का फायदा उठा रहे हैं। एक विधवा का मकान खाली था। वीरेंद्र की उस मकान पर काफी दिनों से नजर थी। इधर वह मरी, उधर वीरेंद्र ने मकान पर कब्जा कर लिया। किसकी हिम्मत है, जो वीरेंद्र शुक्ला के खिलाफ खड़ा हो सके। विरोधियों का पता ही नहीं लगता। परिजन तो छोड़िए, पुलिस भी नहीं पता लगा पाती कि फलां कहां गुम हो गया। धरती खा गई या आसमान निगल गया। बाद में पता नहीं कैसे, क्या जुगाड़ अपने संपादक जी ने फिट किया। वे रहने लगे उस विधवा के मकान में। सात कमरे का मकान समझ लो मुफ्त मिल गया। विधवा के बेटे ने बहुत भाग—दौड़ की, तो भी मकान खाली नहीं करा पाया। उसे बारह सौ रुपये महीने का किराया भर मिलता है, ज्यादा चूं चपड़ करे, तो धमकी सेत में मिलती है। वह बेचारा रहता भी तो चेन्नई में है। वहां किसी कंपनी में इंजीनियर है।'

फोर्स लीव पर भेजे जाने से तिलमिलाया दिवाकर आज संपादक का कच्चा चिट्ठा खोलने पर उतारू था। हालांकि इस बात से वाकिफ तो सभी थे, लेकिन सार्वजनिक रूप से कहने का साहस किसी में नहीं था।

‘अबे भुतनी के! तू रहेगा बेवकूफ का बेवकूफ। जिस बात को पूरी दुनिया जानती है। उस बात को कोई जरूरी है कि अपने मुखारविंद से सबको ढोल पीट कर सुनाया जाए? तेरी ज्ञान—ध्यान की बातों को जो लोग बिना मूंडी—पूंछ हिलाए सत्य नारायण व्रतकथा की तरह सुन रहे हैं, वे क्या इस बात को नहीं जानते हैं? इतने लोगों में एक तू ही बचा है शहीद होने को। बाज आ जा अपनी हरकतों से, वरना तेरा वध निश्चित है, बेटा!' परिमल ने हेलमेट पहनते हुए दिवाकर को समझाने का प्रयास किया।

‘मुझे ये चाहे जितना प्रताड़ित कर लें। नौकरी से निकालने की हिम्मत इनमें नहीं है।' दिवाकर ने परिसर में धू्रमपान वर्जित होने के बावजूद सिगरेट सुलगाई और नाक से धुआं छोड़ते हुए कहा, ‘पूरा राय खानदान जानता है कि जिस दिन मैंने दैनिक प्रहरी की नौकरी छोड़ी, उस दिन यहां की आधी इमारत बुलडोजर चलाकर गिरा दी जाएगी। हैं ये लोग किस भूल में? मेरे से उलझकर तो देखें? मैंने भी कोई चूड़ियां नहीं पहन रखी हैं। इन सबकी ऐसी—ऐसी पोल खोलूंगा कि ये बाप—बाप चिल्लाएंगे।'

परिमल अभी गया नहीं था। उसने व्यंग्य कसते हुए कहा, ‘क्यों पूरी इमारत को तुमने शेषनाग की तरह थाम रखा है क्या?' इतना कहकर उसने बाइक स्टार्ट की।

‘हां...शेषनाग की तरह कम से कम लखनऊ ऑफिस को तो मैंने थाम रखा है। यह तुम अपने भडुवे मालिक को बता देना। वैसे तुम नहीं बताओगे, तो दूसरे चुगलखोर बता आएंगे। मैं तो चाहता हूं, मेरे खिलाफ ये लोग कोई कार्रवाई करें। मैं मजा न चखा दूं, तो अपने बाप की औलाद नहीं। साले...पत्राकारिता को बदनाम करने वाले कुत्ते।' दिवाकर चिल्लाया।

‘अब बस भी करो...तुम विरोध के नाम पर गाली—गलौज करने लगते हो। यह तुममें सबसे बड़ी कमी है।' मंजरी अग्रवाल ने मीठी झिड़की दी।

‘अपने मुलाजिमों और अखबार के पाठकों को राय साहब और संपादक जी रोज नैतिकता का पाठ किस तरह पढ़ाते हैं, तुम तो जानती ही हो। लेकिन जब अपनी बारी आती है, तो सारी नैतिकता...में घुस जाती है।'

मंजरी ने उसकी बात सुनकर मुंह घुमा लिया। वह अब भी धारा प्रवाह बोलता जा रहा था, ‘यह शानदार ऑफिस नगर निगम की जमीन पर बना हुआ है। चिंतामणि राय के बाप पंचानन राय ने सालों पहले तीन बीघा जमीन नगर निगम से खरीदी थी। वह भी दबाव डलवाकर बहुत सस्ते में। बाकी आठ बीघे जमीन पर थोड़ा—थोड़ा करके कब्जा किया गया था। राय साहब के विरोधियों के आवास पर किए गए अतिक्रमण को हर साल नगर निगम के प्रवर्तन दस्ते पर दबाव डलवाकर गिरवा देता हूं। अपने पड़ोसियों का रत्ती भर भी अवैध निर्माण राय साहब को बर्दाश्त नहीं होता है। हां, उन्हें अपना पहाड़ भर का अतिक्रमण नहीं दिखता।'

इतना कहकर दिवाकर सांस लेने को रुका, ‘एक और मजेदार बात सुनो...। विकास नगर के जिस पॉश एरिया में राय साहब की कोठी है, उनके बगल में एक रिटायर्ड अध्यापक राम बाबू दीक्षित ने अपना मकान बनवा रखा है। अब इन अमीरों को उस रिटायर्ड अध्यापक की झोपड़ीनुमा मकान फूटी आंखों नहीं सुहाता। कहते हैं कि पूरी कालोनी में उसका टूटा—फूटा मकान मखमल में टाट के पैबंद जैसा लगता है। वह शिक्षक अगर अपनी खाली पड़ी जमीन पर धनिया भी बो ले, तो इनकी आंखों में खटकता है। कई बार मैं उस बेचारे का टट्टर और बारी—फुलवारी नष्ट करवा चुका हूं। वह भी न जाने किस मिट्टी का बना है, झुकने को तैयार नहीं।'

वहां मौजूद सारे लोग अवाक होकर दिवाकर की बात सुन रहे थे। वह अब भी जारी था, ‘पिछले हफ्ते चिंतामणि राय ने ऑफिस के बायें हाथ रहने वाले अग्रवाल जी का नगर निगम की जमीन पर बना गैराज गिरवाने को कहा। मैंने उनके कहने पर अतिक्रमण विरोधी दस्ते के प्रभारी डीएस मेहरोत्राा से बात की। उसने पलटकर कहा कि अगर अग्रवाल जी का गैराज गिरेगा, तो फिर दैनिक प्रहरी द्वारा किए गए अवैध कब्जों पर भी नगर निगम का बुलडोजर चलेगा। दिवाकर भाई...मैं तो तुम्हारा लिहाज कर रहा हूं। जिस दिन तुमने नौकरी छोड़ी और उस दिन तक मैं लखनऊ में रहा, तो सबसे पहले दैनिक प्रहरी द्वारा किए गए कब्जे मुक्त कराउं+गा। राय साहब से कहना, वे दुआ करें, हम दोनों यथावत बने रहें। अगर मेरा तबादला किसी दूसरे विभाग या शहर में हुआ और मेरी जगह पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त टीएन शेषन की तरह कोई ईमानदार और अक्खड़ अधिकारी आया, तो फिर सबसे पहले वह दैनिक प्रहरी की फाइल निपटाएगा। दैनिक प्रहरी के खिलाफ शिकायतों का एक मोटा पुलिंदा है मेरे पास। जिसे मैं अपने कार्यकाल में तो रोके रह सकता हूं, लेकिन उसे नष्ट नहीं कर सकता।'

‘हूंऽऽऽ...अब समझा। हर साल सबकी बीट बदल दी जाती है, लेकिन तुम्हारी बीट क्यों नहीं बदली जाती।' इतना कहकर अरविंद चौधरी भी चलता बना। फिर मंजरी, आदित्य आदि एक—एक कर चलते बने। कुछ देर तक स्टैंड में खड़ा दिवाकर सोचता रहा, फिर अपना स्कूटर निकाला और परिसर से निकल गया।

सुप्रतिम जब संपादक के केबिन में पहुंचा, तो वे फोन पर किसी से वार्तालाप करने में मशगूल थे। उन्होंने सुप्रतिम को बैठने का इशारा किया। सुप्रतिम ने कुर्सी पर बैठते हुए संपादक को निहारा। संपादक ने बातचीत खत्म होने पर रिसीवर रखते हुए सुप्रतिम से पूछा, ‘आज की समीक्षा रिपोर्ट लाए हो? और यार! समीक्षा रिपोर्ट सेंट्रल डेस्क को क्यों नहीं भेजते। वहां से अकसर फोन आते रहते हैं। गलत बात है। ऐसा मत करो। किसी दिन संकट खड़ा हो जाएगा। तुम्हारे लिए भी, मेरे लिए भी।'

‘जी भाई साहब, दो—तीन खबरों में हम बुरी तरह पिटे हैं। सबसे बड़ी चूक, विश्वविद्यालय वाली खबर का छूटना रहा। दूसरी बड़ी चूक, खाला बाजार में व्यापारी नेता के ठिकाने पर आयकर विभाग का छापा रहा। इसकी भनक न तो हमारे अपराध संवाददाता को लगी, और न ही कॉमर्स देखने वाले को।' सुप्रतिम ने समीक्षा रिपोर्ट पर सरसरी निगाह दौड़ा रहे संपादक शर्मा की ओर देखते हुए कहा।

‘डॉ. दुर्गेश को क्या हो गया है? पिछले दस दिन से उनसे बराबर खबरें छूट रही हैं। आखिर उन्हें मैं कब तक बचाता रहूंगा? उन्हें समझाओ सुप्रतिम। हालात पहले जैसे नहीं रहे। अब चिंतामणि राय जी हर बात को बड़ी गंभीरता से वॉच करते हैं। किसी दिन उन्होंने ऐसी गलतियां पकड़ ली, तो बड़ी मुश्किल होगी।' शर्मा ने रिपोर्ट के पन्ने पलटते हुए कहा, ‘क्या बताउं+...तुम सबकी गलतियों और कमियों को छिपाने के लिए कैसे—कैसे खेल खेलने पड़ते हैं। कैसे पापड़ बेलने पड़ते हैं? फिर भी तुम लोग नहीं सुधरते।'

‘भाई साहब! आपसे कई बार निवेदन कर चुका हूं, रिपोर्टरों में शिवाकांत और डेस्क पर आशीष गुप्ता अपेक्षित सहयोग नहीं कर रहे हैं। ये लोग तो कई बार हद पार कर जाते हैं। आपका लिहाज करके चुप रह जाता हूं, वरना इन्हें औकात बताने में कितनी देर लगती। आपने ही इन्हें इतना सिर पर चढ़ा रखा है। आपके दम पर ही ये लोग इतना भाव खाते हैं।'

‘क्यों...ये काम नहीं करते?'

‘करते तो हैं, लेकिन बस रुटीन का। इन दोनों के चलते ऑफिस में काम का माहौल नहीं बन पा रहा है। बात—बात पर अपने सीनियरों से उलझना, उन्हें बेइज्जत करना, रोज की बात है। इनके उकसाने पर अब अरविंद चौधरी के साथ—साथ मंजरी और शिवानी जैसी रिपोर्टर मुंहजोरी करने लगी हैं।' सुप्रतिम ने शिकायती लहजे में कहा।

‘यह तो तुम आज बता रहे हो? तुमने इससे पहले कभी ऐसी बात नहीं कही? आखिर इसका कारण क्या है? या तो तुम ठीक से काम नहीं ले पा रहे हो या फिर ये लोग अनुशासनहीन होते जा रहे हैं? अगर ये दोनों कारण हैं, तो भी तुम्हारी ही गलती है। अधिकारी को इतना भी उदार नहीं होना चाहिए कि अधीनस्थों के बीच उसका कोई खौफ न रहे।'

‘कमी मेरे काम लेने के तरीके में नहीं है। आप किसी से भी पूछ लें, मैं उदार तो कतई नहीं हूं। पिछले चार साल से स्थानीय डेस्क संभाल रहा हूं। मुझे लगता है कि इन लोगों को कहीं और से ऊर्जा मिल रही है?'

‘ऊर्जा का वह ोत है कहां? मुझे बताओ। मैं एक मिनट में सप्लाई बंद करा देता हूं। मैं संपादक हूं, कोई घसियारा नहीं। पर कतरना जानता हूं। बताओ...खुलकर बताओ।' संपादक शर्मा ने सुप्रतिम के चेहरे पर नजर गड़ा दी।

सुप्रतिम के चेहरे पर क्षण भर असमंजस की छाया डोलती रही। यह छाया कभी गहरी, तो कभी विरल हो जाती। फिर कानाफूसी वाले अंदाज में आगे झुकते हुए कहा, ‘सर...प्रदीप जी से...'

संपादक शर्मा चौंक गए, ‘क्या...प्रदीप से...?'

‘हां सर...प्रदीप जी के घर पर अक्सर शिवाकांत, आशीष गुप्ता और मंजरी अग्रवाल वगैरह की महफिल जमती है। मैं निराला नगर अकसर आता—जाता रहता हूं। वहां मेरी मौसी रहती हैं। कई बार मौसी से मिलने गया, तो प्रदीप जी से भी मिलने चला गया। जितनी बार प्रदीप जी के घर गया, ज्यादातर बार इन लोगों को वहां मौजूद पाया। मुझे आया देखकर ये लोग बात बदल देते हैं। परिमल भी प्रदीप जी के मोहल्ले में ही रहता है। उसकी अक्सर इन लोगों से मुलाकात होती रहती है। ये लोग या तो प्रदीप जी के यहां जा रहे होते हैं, या फिर आ रहे होते हैं। मैंने तो सुना है कि प्रदीप जी और मंजरी में...' कहते—कहते सुप्रतिम रुक गया। उसने संपादक शर्मा के चेहरे का निरीक्षण किया।

संपादक जी ने कुछ पल उसके बोलने का इंतजार किया, ‘प्रदीप और मंजरी में

क्या...? डरो मत...साफ—साफ बताओ। आखिर मैं भी तो जानूं कि मामला क्या है?'

‘मैंने सुना है कि दोनों में ऐसे—वैसे संबंध हैं। लोग कहते हैं कि दोनों कई बार एक ही दिन छुट्टी लेकर दूसरे शहर में घूमने जाते हैं। ऑफिस में भी दोनों काफी घुटकर बातें करते हैं।'

‘देखो...यह उनका व्यक्तिगत मामला है...। दोनों बालिग हैं, वे ऑफिस से बाहर क्या करते हैं, इससे हमें कोई लेना देना नहीं है। इसमें वैसे भी कोई कुछ नहीं कर सकता। हां, अगर प्रदीप अनुशासनहीनता या अराजकता को बढ़ावा दे रहे हैं, तो बताओ। मैं अभी उनको निकाल बाहर करता हूं। मैं कतई यह बर्दाश्त नहीं करूंगा कि कोई ऐसी हरकत करे।'

‘भाई साहब...इस मामले में मेरा नाम न आए। प्रदीप जब आपके खिलाफ मुहिम चला सकते हैं, तो मैं किस खेत की मूली हूं। मैंने लोगों से जो बातें सुनी थीं, आपको बता दीं। मेरा नाम आने पर मैं कहां तक सुबूत और सफाई देता फिरूंगा। मेरी तो दुर्गति हो जाएगी।'

‘तुम निश्चिंत रहो। तुम्हारा नाम नहीं आएगा। इन लोगों को सबक सिखाना जरूरी है। एक काम करो...पिछले पंद्रह दिन में इन लोगों से कौन—कौन—सी प्रमुख खबरें छूटी हैं, शिवाकांत या दूसरों ने कितनी एक्सक्लूसिव खबरें की हैं। इसका पूरा रिकार्ड चाहिए।' संपादक शर्मा ने समीक्षा रिपोर्ट पर दोबारा नजर डालते हुए कहा। इसी बीच टेलीफोन की घंटी बजी। उन्होंने रिसीवर कान में लगा लिया। उधर से बात सुनने के बाद सिर्फ इतना कहा, ‘उसे मेरी केबिन में भेज दो।'

‘अच्छा भाई साहब, चलता हूं। शायद आपसे मिलने कोई आ रहा है?'

‘हां, आ तो रहा है। तुम जानते ही हो कि अखबार के दफ्तर में दो ही तरह के लोग आते हैं। अपनी खबरें छपवाने वाले या फिर नौकरी मांगने वाले। बलिराम श्रीवास्तव आ रहा है। इन दिनों पटना के एक दैनिक में चीफ सब एडीटर है। कई न्यूज चैनलों में भी रह चुका है। बड़ा तेज तर्रार लड़का है। मालिकों को पटाने में नंबर वन है। इससे होशियार रहना।'

‘जब तक आपका मुझ पर वरदहस्त है, मुझे किसी से होशियार रहने की जरूरत नहीं। सर...एक बात आपसे कहना चाहता हूं। जिस दिन आपने दैनिक प्रहरी छोड़ा, उसी दिन आपके साथ—साथ मेरा भी इस्तीफा आ जाएगा। मैं आपके सिवा दूसरे के साथ काम नहीं कर सकता। इसे आप मेरा निकम्मापन मानें या कुछ और..., लेकिन मेरी कही बात है सौ फीसदी सच।' सुप्रतिम ने संपादक की कमजोर नस दबाई। वह जानता था, थोड़ी—सी चापलूसी करने पर शर्मा कुप्पे की तरह फूल जाते हैं। उनकी प्रशंसा करके कुछ भी कराया या कहलवाया जा सकता है। उसने चापलूसी भरे स्वर में कहा, ‘भाई साहब, लखनऊ से लेकर दिल्ली तक आपकी कार्यशैली और जर्नलिस्टिक एप्रोच की प्रशंसा होती है। हर कोई आपके जुझारूपन और विजन का कायल है। लखनऊ—दिल्ली के दर्जनों पत्राकारों को

तो मैं जानता हूं, जो आपके साथ करने को लालायित हैं। उनको बस एक इशारा करने की देर है, वे अपनी जमी—जमाई नौकरी को लात मारकर आपके साथ काम करने को

तैयार हैं।'

शर्मा को भीतर ही भीतर गर्वानुभूति हुई। चेहरे पर गंभीरता बरकरार रही। उन्होंने कहा, ‘मैंने हमेशा अपने कलीग का भला चाहा, उसका ध्यान रखा। प्रत्येक की तकलीफ को अपनी तकलीफ मानकर उसके निराकरण का हर संभव प्रयास किया। उन्हें किसी तरह की तकलीफ नहीं होने दी। जो मेरी शरण में आया, महात्मा बुद्ध की तरह उसका स्वागत किया। उसे निराश नहीं किया। चपरासी के साथ भी अन्याय होता देखा, तो उसके लिए मालिकों से लड़ पड़ा हूं। हां, काहिली और लापरवाही, ये दो अवगुण मुझे बर्दाश्त नहीं हैं। ऐसे लोगों को देखकर मेरा रोयां—रोयां क्रोध से सुलग उठता है।'

तभी केबिन का दरवाजा खोलकर एक युवक ने शर्मा का सिर झुकाकर अभिवादन किया और अंदर आने की इजाजत मांगी। शर्मा ने अंदर आने का इशारा करते हुए कहा, ‘आओ बलिराम...मैं तुम्हारा ही इंतजार कर रहा था।'

बलिराम ने चतुर्भुज शर्मा का चरण स्पर्श करते हुए कहा, ‘सर...मुझे देर तो नहीं हुई? दरअसल मैं लखनऊ पहली बार आया हूं। सो, ऑफिस ढूंढने में थोड़ी दिक्कत हुई।'

संपादक जी ने सुप्रतिम और बलिराम का एक दूसरे से परिचय करवाने के बाद पूछा, ‘तुम अपना सीवी लाए हो?'

‘यस सर...' कहते हुए बलिराम ने एक फाइल संपादक की ओर बढ़ा दी। चतुर्भुज शर्मा ने फाइल को पलटकर बड़ी गौर से देखा और बलिराम से कहा, ‘तुम थोड़ी देर रिसेप्शन के पास बैठो। मैं राय साहब से मिलकर तुम्हें बुलवाता हूं।'

बलिराम ने सम्मान से झुकते हुए ‘यस सर' कहा और केबिन से बाहर चला गया। बलिराम के बाहर जाने तक चुपचाप बैठे सुप्रतिम ने भी जाने की इजाजत मांगी। शर्मा भी खड़े हो गए। उन्होंने पूछा, ‘राय साहब केबिन में बैठे हैं?'

‘कौन से, छोटे वाले, मंझले वाले या बड़े वाले?'

‘चितांमणि जी।'

‘वह तो शायद बैठे हैं। जब मैं आया था, उनकी गाड़ी खड़ी थी।'

चतुर्भुज शर्मा ने बलिराम की फाइल उठाते हुए कहा, ‘मैं राय साहब से मिलकर आता हूं। कहीं निकल न गए हों। तुम तो अभी ऑफिस में रुकोगे? सूची और समीक्षा सबको भेजकर ही जाना। इधर कुछ लोगों को सूची और समीक्षा समय पर नहीं मिल पा रही है। इसका ध्यान रखो। एक बार फिर कहता हूं।'

‘वह सब काम निबटा दिया है। अब तो घर जाउं+गा, भाई साहब।' सुप्रतिम इतना कहकर बाहर निकल गया। उसके साथ चतुर्भुज शर्मा भी निकले। बाहर निकलते ही सुप्रतिम ने न्यूज एडीटर प्रदीप तिवारी को गैलरी से आते देखा। वह लपककर प्रदीप के पास पहुंचा। अभिवादन करते हुए कहा, ‘आपकी बड़ी लंबी उम्र है भाई साहब! अभी कुछ देर पहले संपादक जी से आपकी ही चर्चा हो रही थी।'

‘किस संदर्भ में...' प्रदीप तिवारी ने अपनी केबिन का दरवाजा खोलते हुए जिज्ञासा प्रकट की।

‘बस कुछ नहीं ...संस्थान के प्रति आपकी प्रतिबद्धता की चर्चा हो रही थी। मैंने संपादक जी से साफ कहा, भाई साहब। संस्थान में आपके जैसा प्रतिबद्ध कोई है ही नहीं ...मैं भी नहीं। इस बात को संपादक जी ने भी खुले मन से स्वीकार किया। क्या मैंने कुछ गलत कहा? ...' सुप्रतिम के होंठों पर मुस्कान थी। प्रदीप तिवारी अगर उस मुस्कान के पीछे छिपे रहस्य से वाकिफ हो पाते, तो उसके मन में भरे विष कलश के बारे में भी जान पाते। इतनी तरक्की के बाद भी विज्ञान किसी के मन को सटीक पढ़ने में सफल नहीं हो सका है। मानव मन आज भी अबूझ है। यही वह रहस्य है, जिसके आगे विज्ञान अपना माथा टेक देता है। भाववादी मन के इसी रहस्य को न जाने क्या—क्या नाम और रूप देकर मानव जाति से मंदिरों, मस्जिदों और चर्चों में माथा झुकवाते हैं। थोड़ी देर पहले प्रदीप तिवारी को चरित्राहीन और संस्थान के पत्राकारों को भड़काने वाला बताकर निंदा करने वाला सुप्रतिम प्रशंसा के पुल बांधे जा रहा था। सुप्रतिम उन लोगों में था, जो चापलूसी और चुगलखोरी को अपनी उन्नति का साधन मानकर चलते हैं। इन ‘सद्‌गुणों' से हासिल होने वाली उपलब्धि पर इन्हें संतोष भी नहीं हो पाता। दूसरों के अधिकार पर कुंडली मारकर बैठने में जितने प्रवीण इस प्रवृत्ति के लोग होते हैं, उतने दूसरे नहीं। ऐसे लोग यह भूल जाते हैं कि वे दूसरों की ईर्ष्या का कारण हैं।

सुप्रतिम अवस्थी की बात सुनकर प्रदीप थोड़ा लजा गए। बोले, ‘अरे नहीं ...संस्था का हर मुलाजिम प्रतिबद्ध है। उनकी मेहनत और लगन में कहीं कोई खोट कम से कम मुझे नहीं दिखती है। तुम्हारी मेहनत और लगन भी काबिलेतारीफ है। इससे कौन इनकार कर सकता है।'

‘लेकिन मुझे ऐसा नहीं लगता, भाई साहब।'

‘छोड़ो यार! तुम भी कहां की बात ले बैठे। यह बताओ, सेंट्रल डेस्क को खबरों की सूची भेज दी थी या नहीं?' प्रदीप तिवारी सुप्रतिम की बातों पर मन ही मन सतर्क हो गए। वह समझ गए, सुप्रतिम ने किसी खास मकसद से यह चर्चा छेड़ी है। वह इस चर्चा के बहाने किसी न किसी पर निशाना साधना चाहता है। किस पर? अभी इसका खुलासा होना बाकी था।

‘सूची तो आपको भेजनी थी न! संपादक जी थोड़ी देर पहले इस बारे में पूछ भी रहे थे। सेंट्रल डेस्क वाले अक्सर यह शिकायत करते हैं, उन्हें समय पर सूची नहीं मिलती। मैंने संपादक जी की इस बात का विरोध किया था। भाई साहब, हमेशा समय पर सूची भेज देते हैं। हां, कई बार जिलों से सूची देर से आती है, तो सेंट्रल डेस्क को ऐसा कहने का मौका मिल जाता है। इस पर जानते हैं, संपादक जी ने क्या कहा?' उसने ‘विरोध' शब्द पर जोर दिया। वह प्रदीप के चेहरे को गौर से देखने लगा।

सुप्रतिम की बात पर प्रदीप मौन ही रहा। सुप्रतिम ने कहा, ‘संपादक जी का कहना है, आपको काम लेना नहीं आता। एकदम ढुलमुल आदमी हैं। भला बताइए...जो आदमी संस्थान के लिए जी—जान से जुटा हुआ हो, उसे ढुलमुल बताना, कहां की बुद्धिमानी है। भाई साहब! मैं तो आजिज आ गया हूं, इस कुत्ता घसीटी से। कभी—कभी मन करता है, सब कुछ लात मारकर चला जाउं+। फिर सोचता हूं, जब रहना इसी पेशे में है, तो क्या मोटा, क्या पतला। सब कुछ झेलना पड़ेगा।'

प्रदीप ने केबिन में प्रवेश करते हुए कहा, ‘जाने दो यार! मेरा काम राय साहब की समझ में आता, दूसरे साथियों की समझ में आता है, यही बहुत है। मुझे किसी से तेज तर्रार होने का प्रमाणपत्रा नहीं चाहिए।'

सुप्रतिम ने रिस्टवॉच पर नजर दौड़ाई, ‘भाई साहब...मैं तो चलता हूं। मेरे घर में कुछ रिश्तेदार आए हुए हैं जिन्हें चारबाग रेलवे स्टेशन छोड़ने जाना है। हां, सूची जरूर भिजवा दीजिएगा। समीक्षा मैंने भेज दी है।' इतना कहकर सुप्रतिम आगे बढ़ गया। प्रदीप अपना काम निबटाने लगे। सुप्रतिम टाइम ऑफिस तक पहुंचा ही था कि उसे डायरेक्टर चिंतामणि राय का संदेश मिला, ‘सुप्रतिम से कहो, वह मुझसे मिलकर जाए।'

वह मन ही मन हजार गालियां देता हुआ मन मसोसकर रह गया।

बलिराम श्रीवास्तव काफी देर से बैठा ऊब रहा था। उसने समय बिताने के लिए अपने चारों ओर देखना शुरू किया। सामने बैठी रिसेप्शनिष्ट की अंगुलियां पीबीएक्स बोर्ड पर बड़ी दक्षता से दौड़ रही थीं। इस बीच कई लोग आए—गए। उसने सबका व्यवसाय सुलभ मुस्कान के साथ स्वागत किया। चेहरे पर मुस्कान सजाये बैठी रिसेप्शनिष्ट परेशान है, इसे वह पहली नजर में भांप गया था। मनोविज्ञान से स्नातक बलिराम को चेहरा पढ़ने में महारथ हासिल थी। टेलीफोन की घंटी बजने पर बलिराम उसकी ओर इस उम्मीद से देखता था, शायद उसे बुलाने के लिए संपादक जी ने फोन किया हो। उसकी उम्मीद पर हर बार पानी फिर जाता। उसके भीतर एक उथल—पुथल मची हुई थी। यहां नौकरी मिलेगी या नहीं। कहीं पटना से यहां आना बेकार तो नहीं जाएगा? वह इन्हीं बातों पर विचार करता हुआ सोफे पर पहलू बदल रहा था। तभी एक बार फिर टेलीफोन की घंटी बजी। उसने आशा भरी निगाहों से रिसेप्शनिष्ट की ओर देखा। रिसेप्शनिष्ट ने फोन उठाकर ‘हेल्लो' कहा। चंद सेंकेड बात की। उसने रिसीवर रखते हुए बलिराम श्रीवास्तव को इशारे से पास बुलाया। बलिराम लपक कर उसके पास पहुंचा।

रिसेप्शनिष्ट ने कहा, ‘आपको संपादक जी ने डायरेक्टर साहब के ऑफिस में बुलाया है। आप यहां से बायें जाकर सीधे चले जाइए। अंत में डायरेक्टर साहब का ऑफिस है। बाहर चपरासी चंद्रमोहन बैठा होगा। वह आपको अंदर भिजवा देगा।'

काफी देर से बैठे—बैठे ऊब चुके बलिराम के चेहरे पर मुस्कान दौड़ गई। उसने कहा, ‘अगर आप बुरा न मानें, तो मैं आपका नाम जान सकता हूं।'

‘उर्वशी...उर्वशी सक्सेना।'

‘पुरुरवा की तलाश पूरी हुई कि नहीं ...?' बलिराम धीरे से बुदबुदाया।

‘क्या...? आपने कुछ कहा?' उर्वशी ने प्रश्न किया। बलिराम ने क्या कहा, वह नहीं जान पाई। उसने होंठों के हिलने के आधार पर अंदाजा लगाने की कोशिश की।

‘जीऽऽऽ...कुछ नहीं। बस इतना कहना चाहता हूं, आपकी झील—सी आंखों में डूबना चाहता हूं। ये कुछ ज्यादा ही चंचल हैं आपकी अंगुलियों की तरह।'

यह सुनकर वह लजा गई। उसने कुछ कहना चाहा, तब तक बलिराम आगे बढ़ चुका था। वह डायरेक्टर चिंतामणि राय के ऑफिस के बाहर पहुंचा, तो चपरासी चंद्रमोहन ने अंदर उसके आने की सूचना दी। उसे तत्काल बुला लिया गया। अंदर संपादक शर्मा और डायरेक्टर चिंतामणि राय में बातचीत चल रही थी।

बलिराम ने कमरे में प्रवेश करते ही लपककर राय साहब के चरण स्पर्श किये। राय साहब ‘अरे...रे...' कहकर मना करते रहे, तब तक बलिराम चरण छूकर सीधा खड़ा हो चुका था। बातचीत की कमान संभाली चतुर्भुज शर्मा ने, ‘सर...यही बलिराम श्रीवास्तव है, जिसकी चर्चा अभी आपसे की थी। इन दिनों पटना के एक दैनिक में चीफ सब एडीटर है। अपने यहां काम करने की मंशा से लखनऊ आया है।'

इसके बाद उन्होंने बलिराम से पूछा, ‘तुम वहां कितने साल से हो?'

‘जी...पांच साल से।' बलिराम का स्वर अतिविनम्र था। वह झुककर खड़ा था। चिंतामणि राय को उसकी विनम्रता देखकर कहीं पढ़ा हुआ याद आया, ‘अति विनम्रता सबसे बड़ा पाखंड है।'

क्रमषः...