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पार्वती चाची

पार्वती चाची

नीरजा द्रिवेदी

पार्वती चाची नई नवेली दुल्हन के स्वागत की तैयारी मे व्यस्त थीँ. कितने चाव से अपने मझले बेटे के लिये रिश्ता पक्का किया था. पहली बार इस गाँव मे एक बडे अफसर की बेटी ब्याह कर आ रही थी.

बडे घर की बेटी तो आनी ही है--- बडी शान से चाची बोली थीँ-- मेरा लाल किसी से कम है क्या? पहली बार इस गाँव का एक बेटा बडा अफसर बना है. अब बडा अफसर बन गया तो एक नहीँ हज़ार रिश्ते आयेँगे.

यह सुन कर नलिनी बुआ चुप न रह सकीँ अपने पोपले मुँह को गोल घुमाकर बोलीँ-- बडे अफसर की बिटिया ला रही हो, पछताओगी.

नन्हे की अम्मा बाएँ हाथ पर तम्बाकू की पत्तियोँ को दायेँ हाथ से चूने से मसल, पीट कर मुँह मे रखते हुए बोलीँ— अरे दरोगिन चाची पर लडकी के अफसर बाप का रौब पड गया. ना न कह पाईँ. अब देखना बुढापे मेँ बहू पानी को भी नहीँ पूँछेगी.

पार्वती चाची मन मेँ कुछ क्षण आशँकित हुईँ पर जब होने वाली बहू की भोली छवि नेत्रोँ के समक्ष झलकी तो अपने नकारात्मक भावोँ को दरकिनार करते हुए मन ही मन बुदबुदाकर बोलीँ- अरे गाँव की औरतेँ जलन के मारे ऐसी बातेँ करती हैँ और पुनः मनोयोग से काम मे लग गईँ. नाइन को बुलउआ (निमंत्रण) लगवाने के लिये बता कर कहारिन से गेहूँ पछोरने के लिये कहा. शांती दीदी और कल्लू की अम्मा आकर दाल, चावल बीनने मेँ सहायता कर रही थीँ. कढोरे कक्का बगीचे से लकडी काट कर लाये थे और दालान मेँ रखकर दहलीज पर खडे होकर भैस की सानी लगाने के लिये दाना माँग रहे थे. भरोसे कक्का चारपाइयोँ की ढीली बान कस कर ठीक कर रहे थे.

चाची ने सबको काम बताने के बाद अपनी सीधे पल्ले की धोती से माथे तक लिये गये घूँघट को सँवारते हुए अपना आँचल सामने कमर मे खोँसा और बरामदे मे मूढा डाल कर बैठ गईँ. गाँव के छोटे-छोटे बालक-बालिकायेँ जो अब तक घर के अंदर-बाहर चक्कर काट रहे थे, चाची के पास सिमट कर बैठ गये और वे उनकी ओर तिरछी दृष्टि से देख लेते थे. चाची मन ही मन हँसी और अपनी चारपाई की बगल मेँ रखे झोले से एक बडा सा सेब और चाकू निकाल लिया. सेब के छोटे-छोटे टुकडे करते हुए चाची ने एक बच्चे को बुलाया तो सब गोल बनाकर खडे हो गये और कुछ ने शरमाते और कुछ ने मुस्कराते हुए सेब की फाँक हाथ मेँ पकडी और पल मे उडनछूँ हो गये. जब भी चाची की खाट के बगल मे टँगा झोला भरा दिखता तो बालकोँ की पारखी आँखेँ ताड लेतीँ और बच्चोँ की टोली किसी न किसी बहाने आकर टोह लेती रहती. चाची भी घर मेँ लाई गई प्रत्येक खाद्य वस्तु का जब तक बाल टोली को भोग न लगा देतीँ, कोई वस्तु उनके हलक मे नहीँ उतरती. अब जाकर उन्हेँ ध्यान आया कि उन्होँने सुबह से चाय भी नहीँ पी है. रामसागर बचपन से साथ रहा था, उनकी आदत जानता था कि चाची एकांत में ही खायेंगी, अतः चाची के लिये एक बडे से कप मे चाय और एक प्लेट मे बिस्कुट रखकर ले आया और बोला—चाची पहले चाय पी लो, मैंने सबको खिला-पिला दिया है. अभी यहाँ एकांत है, अतः आप खा लो नहीँ तो आप फिर ऐसे ही भूखी बैठी रहोगी. वास्तव मेँ चाची की यह आदत बडी पुरानी है. चाची कभी किसी के सामने भोजन नहीँ करती हैँ. एक बार बडे लला ने उनको कोने मे बैठकर नाश्ता करते देखा तो पूछ लिया—चाची क्या कर रही हो? चाची ने घूँघट ठीक करते हुए उत्तर दिया था— कुछ नहीँ, काम कर रही हैँ. उस दिन से उनके पति जो अवकाशप्राप्त दरोगा हैं और दरोगा जी कहलाते हैं अक्सर उनसे मसखरी करते हुए कह देते हैँ—जाओ काम कर आओ.

उन दिनोँ शादी-ब्याह आज की तरह दो चार घँटे मे सम्पन्न नहीँ होते थे. बारात पूरी सज-धज के साथ जाती थी. तीन दिंन तक खातिर कराकर लौटती थी. दरोगा जी के अफसर बेटे की बारात मे गाँव के हर घर का एक सदस्य बाराती होकर जा रहा था. बडी धूम-धाम से चाची अपने लाडले की निकरौसी करने की तैयारी में व्यस्त थीं. गाँव की अन्य औरतेँ एकत्रित हो गईँ और आँगन मेँ लकडी का चूल्हा जला कर बडी सी कढाई चढाकर पूडी बनाने की तैयारी करने लगीँ. कुछ औरतेँ जो पूडी बनाने मेँ सिद्ध्हस्त थीँ उनको ही चाची ने पले की पूडी ( बहू की विदाई मेँ वर पक्ष के यहाँ से भी एक टोकरी पूडी जाती थी जिसे पले की पूडी कहा जाता था) बनाने का जिम्मा दिया था. चाची ने समझाया था कि हमारा गाँव छोटा है पर लडकी वालोँ के सामने हमारी भद्द न पिटे इसका ध्यान रखना. चाची की एक खास बात है कि कहने को तो पाठशाला की शकल नहीँ देखी पर ज्ञान की बातोँ मेँ पढे लिखोँ के कान काटती हैँ. कभी प्रसन्न मुद्रा मेँ होती हैँ तो कह भी देती हैँ – हम पढी लिखी नहीँ हैँ तो क्या गुनी तो हैँ.

बडे अफसर की बेटी के चाची की बहू के रूप में आगमन की प्रतीक्षा पूरा गांव खासकर महिला मंडली बडी उतावली से कर रही थीं—कुछ ईर्ष्यावश और कुछ उत्सुकतावश. कुछ स्त्रियाँ दबी ज़बान से कह रही थीं कि जब बडे बाप की बेटी पनही भिगो-भिगो कर सर पर मारेगी तो दरोगिन को पता चलेगा, अभी तो बहुत इतरा रही हैं. चाची ने भी बहू को बेटी बना लेने का प्रण किया हुआ था. अनोखी सज-धज के साथ गांव के बाराती नई दुल्हन ले आये थे. जब मुंह दिखरौनी की रस्म के पश्चात गांव के बच्चे नई दुल्हन को चारों ओर से घेर कर बैठ गये और कुछ औरतें अवसर की तलाश में काकदृष्टि लगाये बैठी थीँ कि कब चाची की नज़र बचे और वे बहू से दहेज का विवरण प्राप्त करें. चाची बहू की सुरक्षा के लिये चाक-चौबंद थीं. जैसे ही दुबली, लम्बी चौबाइन चाची ने बहू का हाथ पकड कर सोने के कंगन को छू कर उसका वज़न मापते हुए प्रश्न दागा-- बहू तुम्हारे बाप ने तुम्हें का- का दओ है--- चाची एकदम सामने आते हुए बोलीं— अरे जिसने अपनी लडकी दे दी उसने सब कुछ दे दिया. देखना है तो शहर जाकर बंगले पर देख आओ. --- यह कहकर बडी बिटिया से बोलीं—बेटा चाची को छत पर ले जाओ, यहां बहुत गर्मी है. इस प्रकार के प्रश्नों से अनभिज्ञ, शहर की पढी लिखी लडकी सास के इस ममतामय सुरक्षा कवच से सुरक्षित होकर इतना प्रभावित हुई कि उसे अपने माता- पिता की शिक्षा कि अब तुम्हारे दो मम्मी- पापा हैं, सच लगने लगी. उन दिनों जब विवाह के समय दहेज का खुला प्रदर्शन शान की बात समझी जाती थी, लडके के माता-पिता ने लडकी वालों से दहेज की मांग नहीं रखी थी और शालीनता से कह दिया था कि जो आपको देना हो वह लडकी को दे देना. हम कोई सामान गांव में नहीं ले जायेंगे. जहां लडके की नियुक्ति हो वहीं भेज दीजियेगा. -. इस बात ने वैसे ही लडकी व उसके घरवालों के हृदय में इस परिवार के प्रति आदर उत्पन्न कर दिया था.

अभी मैंने आपका पार्वती चाची से पूरा परिचय तो कराया ही नहीँ. सन 65 मे मैंने उन्हेँ प्रथम बार देखा था. पार्वती चाची जगत चाची कहलाती थीं. उस समय उनकी आयु लगभग 47 या 48 वर्ष रही होगी. गौर वर्ण, पतली ऊँची नासिका, तेजस्वी नेत्र, चौडा माथा, छोटी सी सिंदूर की बिंदी, बौद्धिक गरिमा से दैदीप्यमान मुखाकृति. आज भी उनकी छवि मेरे नेत्रोँ के समक्ष साकार हो उठी है. टेरीकौट के सफेद ब्लाउज़ और नारँगी नेट की साडी मे उनका सौंदर्य उभर आया था. ज़मीन पर बैठकर काम करने की आदत के कारण कमर कुछ झुकी सी थी. मैंने लोगोँ को कहते सुना था कि आगे पल्ले की साडी मे माथे तक छोटा घूँघट निकाले जब चाची अपने कार्य मे व्यस्त थीँ तो दुबाइन अइया (दादी) बोली थीँ-- दरोगिन लला का ब्याह कर रही हो और तुम अभी भी घूँघट काढे हो. अफसर की बेटी तुम्हारी बहू बन कर आ गई है और वह उघारे मुँह घूमेगी तो तुमसे कैसे देखा जायेगा? चाची ने लपक कर उत्तर दिया था- अरे वह तो बहू बिटिया है जैसे रहना चाहे रहे. इस पर चौबाइन चाची बोली थीँ—अरे बहू पर्दा नहीँ करेगी तो हमसे कैसे देखा जायेगा? चाची ने पलट कर उत्तर दिया था- जिससे न देखा जाये वह अपनी आँखेँ बंद कर लेना. चाची की प्रत्युत्पन्नमति की सराहना लोग बार-बार करते थे.

आप सोचेँगे कि चाची की इतनी सारी बातेँ मुझे कैसे ज्ञात हैँ? भला मुझे न मालूम होँगी तो किसे होँगीँ.? वास्तव मेँ मुझे पार्वती दुबे या पान कुँवर दुबे या जगत चाची की बहू होने का सौभाग्य प्राप्त है. अब यह परिचय कराना आवश्यक इसलिये हो गया है कि मैँ आपका ऐसी ममतामई सास से परिचय कराना चाहती हूँ जो ग्रामीण वातावरण मे पली-बढी थीँ, शिक्षा के नाम पर घर पर केवल अक्षर ज्ञान भर पाया था जिसे समय के अंतराल पर भुला चुकी थीँ परंतु इतनी बुद्धिमती थीँ कि जब मेरे पति इंटेलीजेंस विभाग में पुलिस अधीक्षक थे तब चुनाव के पूर्व उन्होँने मनन कर बता दिया था कि इंदिरा गाँधी इस बार चुनाव नहीँ जीतेँगी और सच मेँ चुनाव का परिणाम यही निकला था.

जब मेरा विवाह हुआ था उस समय घर में जूठे बर्तन माँजने के लिये एक स्त्री आती थी. जब अगली बार मैं ससुराल गई तो बर्तन माँजने वाली स्त्री कहीं चली गई थी, जिसका मुझे ज्ञान नहीं था. भोजन लकडी के चूल्हे पर बनाया जाता था. मैंने भोजन बनाने में सहायता करनी चाही तो चाची ने दृढ्ता से कहा तुम सब्जी धोकर काट दो. खाना मैं ही बनाऊँगी. मैं रसोईघर के बाहर बैठ कर चाची की सहायता करती रही. भोजन परोसने का कार्य मैंने किया. अब सारे जूठे बर्तन चाची ने नल के पास रखवा दिये और मुझसे बोलीं कि तुम घर के दूसरी तरफ बने ताई के घर जाकर सबसे मिल आओ. इस समय दद्दा (ताऊ जी को दद्दा कहा जाता था) बाहर चले गये होँगे. मैं चाची की आज्ञानुसार दूसरे घर में भौजी (ताई जी) से मिलने चली गई. जब मैं लौट कर आई तो सब बर्तन धुले-पुँछे रक्खे थे. मैंने समझा कि बुद्धवती नामक कहारिन जिज्जी आकर सब बर्तन धो कर रख गई होंगी. रात को भोजन के उपरांत चाची ने सब बर्तन नल के समीप रखवा कर मुझे बच्चों के साथ छत पर भेज दिया. अगले दिन दोपहर के भोजन के पश्चात चाची ने फिर बर्तन नल के पास एकत्रित करा कर मुझे दूसरे घर भेज दिया. किसी कारणवश मुझे थोडी देर में ही अपने घर आना पडा. अपने आंगन में आकर मैं आश्चर्य से क्या देखती हूं कि चाची नल के पास बैठकर शीघ्रता से सब बर्तन मांज रही हैं. मैं चकित सी उनके पास जाकर बैठ गई और बर्तन धुलवाने लगी. मैंने चाची से पूछा कि आप बर्तन क्यों धो रही हैं? इस पर चाची ने बताया कि अब कोई महरी जूठे बर्तन धोने का कार्य नहीं करती है. मैंने कहा—आपने मुझे क्यों दूसरे घर भेज दिया.? मैं आपके साथ बर्तन धो लेती. अब चाची के जिस ममतामय स्वरूप का दर्शन मैंने किया वह अद्वितीय था. चाची बोलीं—बेटा! मैं तुम्हारी आदत समझ गई हूं. यदि तुम्हेँ मालूम होता कि अब गांव में कोई जूठे बर्तन उठाने या धोने का काम नहीं करता है तो तुम मुझे बर्तन धोने नहीं देतीं. मैं जानती हूं कि तुमने कभी ऐसे काम नहीं किये हैं. मेरी रोज की आदत है मुझे कोई फर्क नहीं पडेगा पर तुम्हें कष्ट होगा. उनके इस वात्सलय को देख कर मेरा हृदय भर आया. मैं उनसे लिपट गई और बोली चाची मैं आपके साथ कुछ सहायता तो कर सकती थी.

चाची की दयालुता की भी मैँ दृष्टा रह चुकी हूँ. गाँव मेँ फसल खराब हो जाने से भुखमरी की नौबत आ गई थी. महाजन मनमाना ब्याज लगाकर रुपये उधार देते थे. जो निर्धन चाची की शरण मेँ आते थे चाची उन्हेँ अनाज बिना किसी शर्त के उधार दे देती थीँ. जिनके पास वापस करने का साधन नहीँ होता, चाची उन्हेँ ऐसे ही दे देतीँ थीँ. उनके गाँव मे आने के बाद से ऐसा कभी नहीँ हुआ कि कोई निर्धन भूखे पेट सोया हो. एक बार रात के समय उन्हेँ ज्ञात हुआ कि किसी के घर मे भोजन नहीँ बना, एक वक्त आलू खाकर उनका परिवार गुज़ारा कर रहा है तो उन्होँने उसे चुपचाप बुलाया और उसकी आवश्यकतानुसार गेहूँ और तेल आदि दे दिया और कहा कि किसी को बताना नहीँ.

पार्वती चाची केवल बुद्धि की ही धनी नहीँ थीँ, उनकी न्यायप्रियता और दयालुता की भी कोई सानी नहीँ थी. उस समय गाँव मे कहीँ भी झगडा होता तो लोग फैसले के लिये चाची के पास ही आते थे. चाची जो फैसला सुना देतीँ वह सर्वमान्य रहता. सुप्रीम कोर्ट की एक बार अवमानना हो सकती थी पर चाची की बात की नहीँ. लोग बेहिचक चाची के पास फैसला कराने आते. चाची का खुफियातंत्र इतना सुदृढ था कि कहीँ चूक की सम्भावना न रहती. वह पंच या सरपंच न थीँ पर सबके सर्वोपरि आदर की पात्र थीँ.

आज चाची नहीं हैं पर उनका वात्सल्य, उनकी ममता, उनका स्नेहमय वरद हस्त उनकी स्मृति को अक्षुण्ण बनाये है.

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