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अपनी अपनी मरीचिका - 17

अपनी अपनी मरीचिका

(राजस्थान साहित्य अकादमी के सर्वोच्च सम्मान मीरा पुरस्कार से समादृत उपन्यास)

भगवान अटलानी

(17)

31 मार्च, 1959

कल से स्वास्थ्य जागरण ट्रस्ट के साथ जुड़ रहा हूँ। जुड़ा हुआ तो प्रारंभ से हूँ, अब पूरे समय के लिए जुड़ रहा हूँ। अब तक संतोष के रूप में ट्रस्ट से अपना पारिश्रमिक लेता था। कल से संतोष के साथ भरण-पोषण के लिए भी ट्रस्ट पर निर्भर हो जाऊंगा। ट्रस्ट मुझे मेडीकल कॉलेज के रीडर को मिलने वाला मासिक वेतन, भत्ते, वेतन वृद्धि सुविधाएँ आदि देगा। मैंने तय किया है कि अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के बाद जितना पैसा बचेगा उसे ट्रस्ट को ही गुप्त दान के रूप में सौंप दूँगा। घोषणा न मैंने इस इरादे की की है और न विवाह न करने वाले इरादे की।

राजस्थान के ग्रामीण क्षेत्र में मुख्यालय बनाने के लिए स्थान और जमीन की तलाश मेरा पहला लक्ष्य होगा। जयपुर सहित राजस्थान के बड़े शहरों में यहीं के अस्पताल के कार्यालय की तरह इकाइयाँ काम करेंगी। ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य शिक्षा की दृष्टि से प्रशिक्षण, बातचीत, पोस्टरों, पुस्तिकाओं, स्टिकरों, पैंफलैटों, गोष्ठियों, भाषणों आदि के माध्यम से कार्यक्रम शुरू करेंगे। कोशिश करेंगे कि प्रत्येक गाँव में यह काम करने के लिए सेवानिवृत्त और वृद्ध लोगों का सहयोग लें। धन की आवश्यकता निश्चित रूप से पड़ेगी। पाँच लाख रुपए से जो ट्रस्ट अभी बना हुआ है, उसका ब्याज इतने बड़े काम का आधार नहीं बन सकता। आर्थिक दृष्टि से राजस्थान और राजस्थान से बाहर के धनिकों को जोड़ने की चेष्टा करेंगे। इस समय स्वास्थ्य जागरण ट्रस्ट के पाँच ट्रस्टी हैं। सबसे बात हुई थी। प्रत्येक ने स्वयं और अपने स्रोतों से एक-एक करोड़ रुपए जुटाने का संकल्प लिया है।

जहाँ भी स्थापित होगा, मैं कालांतर में मुख्यालय में ही रहूँगा। वहीं एक चिकित्सा केंद्र चलेगा। चिकित्सा केंद्र में कार्यरत्‌ डॉक्टरों को वेतन आदि सरकारी नौकर के बराबर मिलेंगे। किंतु उन्हें प्राइवेट प्रेक्टिस करने की छूट नहीं होगी। उसके बदले वेतन की पचास प्रतिशत राशि प्रतिमाह नॉन प्रेक्टिसिंग अलाउंस के रूप में देने का प्रावधान होगा। चिकित्सा केंद्र में कार्यरत्‌ चिकित्सकों को परिसर में बनाए गए आवासों में ही रहना होगा। अनेक सपने हैं। उनकी पूर्ति कितनी हो पाती है, यह समय ही बताएगा। क्योंकि ये सपने मेरे अपने हैं, उधार लिये हुए सपने नहीं हैं, इसलिए मैं उन्हें साकार करने के लिए अपनी संपूर्ण क्षमता और प्रतिभा को झोंक देने के लिए कृत संकल्प हूँ।

डायरी आज अंतिम बार लिख रहा हूँ। क्यों लिखता हूँ? किसके लिए लिखता हूँ? क्या उपयोगिता है लिखने की? ये सवाल घूम-फिरकर कुछ वषोर्ं से मस्तिष्क में उठ रहे हैं। इन सवालों का एक ही जवाब है कि भविष्य में मैं डायरी नहीं लिखूँगा। अब तक लिखी हुई डायरी को मैं नष्ट नहीं करूँगा। चाहता हूँ कि मीनू के पति मेरी डायरी को पढें। मीनू की निर्दोषता का अहसास उन्हें यह डायरी करा सके, इससे बड़ी उपयोगिता इसकी क्या हो सकती है? एक तो उन्होंने पुनर्विवाह कर लिया है। दूसरा मीनू भी अब लौटकर उनके पास जाना नहीं चाहेगी। उसका विश्वास विवाह के रूप में घटित दुर्घटना को दोहराने की इजाजत नहीं देगा। इसलिए डायरी पढकर के वे मीनू को अपना लें, यह मंशा मेरी नहीं है। वे मीनू से क्षमा माँगकर गलती स्वीकार करें, इसमें भी मेरी रुचि नहीं है। मैं चाहता हूँ, उन्हें अहसास होना चाहिए कि विचार की एक जुंबिश से उन्होंने तीन जिंदगियाँ दांव पर लगा दी हैं। मीनू, उसकी बच्ची और मैं, तीनों उनकी अविवेकशीलता के शिकार हुए हैं। केवल उनके कारण मीनू ओर मैं असामान्य जीवन जीने को अभिशप्त हैं। केवल उनके कारण मीनू की बिटिया को जीवन में अनेक असुविधाजनक स्थितियों का सामना करना पड़ेगा। केवल उनके कारण मीनू के माता, पिता, भाई, भाभियाँ और मीनू से जुड़े अनेक लोगों को पीड़ा पहुँची है।

मैं प्रतिक्रियावादी नहीं हूँ। इसलिए डायरी पढ़वाकर मीनू के पति को जीवन-भर पश्चात्ताप की आग में झुलसने के लिए नहीं छोडना चाहता हूँ। बस, उन्हें अहसास हो जाए। उन्हें विश्वास हो जाए कि जीवन में एक बहुत बड़ी भूल वे कर बैठे हैं। लंबी उम्र उनके सामने पड़ी है। इस समय डायरी पढकर वे सोच-विचार और उथल-पुथल की जिस प्रक्रिया से गुजरेंगे उससे उनकी मानसिकता पर विपरीत प्रभाव पड़ सकता है। पश्चात्ताप की भावना उनके व्यवहार में असंतुलन और अस्वभाविकता पैदा कर सकती है। यह सब मैं नहीं चाहता। मीनू के साथ उनका विवाह हुआ था। उन्होंने चाहे जो कुछ किया हो, उनके प्रति अमंगल की भावना मुझमें नहीं है। जीवन जी लें। सुख भोग लें। अधिक परिपक्व हो जाएँ। इसके बाद भेंजूगा डायरी उनके पास। गोपनीयता में मेरी आस्था नहीं है। इसलिए न इसे सुरक्षित स्थान पर रखूँगा, न अपने साथ घुमाऊँगा। घर में किताबों के साथ यह भी पड़ी रहेगी। पच्चीस साल बाद, तीस साल बाद, जब भी उचित समय आएगा, डायरी मीनू के पति के पास पहुँच जाए, यह व्यवस्था कर दूंगा।

काश, डायरी के साथ अब तक का जीवन अध्याय बंद करना मेरे लिए संभव होता!

***

डायरी-लेखक ने डायरी के अंतिम पृष्ठ में जो इच्छा व्यक्त की है, उसे पूरा करने का उचित समय उसकी नजर में अब आया है। इसीलिए यह डायरी मेरे पास पहुँची है। जी हाँ, यही कबाड़ बेचने वाला मैं, मीनू का पति हूँ। मैंने ही मीनू की बात पर विश्वास न करके केवल शक के आधार पर उसे तलाक दे दिया था। दरअसल हमारी शादी के बाद एक दिन मीनू की भाभी के मुँह से यह बात निकल गई कि मीनू तो डॉक्टर पति के सपने देखती थी। मीनू से मैंने पूछा। सीधा नहीं पूछा। अनुमान लगाकर डॉक्टर के बारे में पूछा। पूछा भी इस तरह जैसे कि मुझे सारी बात मालूम है। मीनू ने मासूमियत से सारी बात बता दी। सत्रह साल की घरेलू लड़की से हेर-फेर की उम्मीद आप कर भी नहीं सकते। बात खराब तो लगी लेकिन मैंने मीनू से कुछ कहा नहीं। गृहस्थी पहले की तरह चलती रही। शादी के छः-आठ महीनों के बाद पता लगा कि डॉक्टर मेडीकल कॉलेज छात्रसंघ का महासचिव चुना गया है। मेडीकल कॉलेज छात्रसंघ का महासचिव सीधा-सादा आदमी तो हो नहीं सकता। वह एक तरह से गुंडों का सरदार होता है। आए दिन मार-पीट, आए दिन तोड़-फोड़, आए दिन दादागिरी दिखाकर चंदे की वसूली, आए दिन लड़कियों के साथ छेड़-छाड़, आए दिन सिनेमा हॉलों में हुड़दंग मेडीकल कॉलेज के लड़के करते रहते हैं। अब तो फिर भी कम हो गई हैं ये बातें, मगर उन दिनों आए दिन मेडीकल कॉलेज के लड़कों का नाम झगडे़-फसाद की वारदातों में सुनते रहते थे। ये सारे काम होते थे महासचिव की सरपरस्ती में। डॉक्टर का महासचिव बनना इस बात का सबूत था कि वह बिगड़ों का सरगना है।

इसके बाद मैंने मीनू पर जोर डालना शुरू किया। वह अपनी तरफ से हरचंद कोशिश करके मेरे शक को दूर करने की चेष्टा करती थी मगर डॉक्टर का मेडीकल छात्रसंघ का महासचिव बनना मुझे उसकी बातों पर विश्वास करने नहीं देता था। मुझे लगता था कि जरूर मीनू और डॉक्टर में अनैतिक संबंध रहे होंगे। मीनू सच नहीं बोल रही है। मीनू ने कसम खाने के लिए कहा तो मुझे लगा कि मीनू मुझे विश्वास दिलाने के लिए झूठी कसम खाएगी। आए दिन लोग ‘कसम से, कसम से' करते रहते हैं। किसी को कसम आज तक लगते नहीं देखी। मैं खुद नहीं चाहता था कि मीनू को छोड़ दूँ। इस शक के अलावा मुझे मीनू से कोई शिकायत थी भी नहीं। ऐसा नहीं है कि मैं खुद को समझाने के लिए दलीलें नहीं देता था। देता था। मगर शक के कीड़े का डंक इतना तेज था कि दलीलों का मेरे ऊपर कोई असर नहीं होता था।

कशमकश के उस दौर में मैं कभी-कभी यह कल्पना करके पागल हो जाता था कि मीनू ने इस तरह हँसी को दुपट्‌टे में छिपाते हुए तिरछी निगाहों से डॉक्टर को देखा होगा या कि डॉक्टर के आगोश में मीनू की मुद्राएँ इस तरह की रही होंगी। फाहिश और वाहियात बातें सोच-सोचकर मेरा खून -गरम हो जाता था। इच्छा होती थी, मीनू का गला घोंटकर मार दूं और अभी जाकर डॉक्टर को गोली से उड़ा दूं। कभी ऐसा भी होता था कि मन बहुत शांत होने पर मैं डॉक्टर को निर्दोष मानने के लिए दलीलें गढ़ने लगता था। जरूरी तो नहीं है कि मेडीकल कॉलेज छात्रसंघ का .हर एक महासचिव गुंडा हो। डॉक्टर बातचीत करने में बहुत शिष्ट और समझदार है। पढाई में भी सुनते हैं, तेज है। उसके ऊपर शक करना ठीक नहीं है। ऐसे ही किसी दौर में मैंने तय किया कि मीनू से डॉक्टर को राखी बाँधने के लिए कहूँगा। पहले कभी दोनों के बीच नाजायज ताल्लुकात रहे भी हैं तो शादी के बाद ऐसी संभावनाएँ राखी बाँधने के कारण खत्म हो जाएँगी।

मीनू राखी बाँधे यह फैसला कशमकश के चलते हुआ था। इसलिए जब मीनू से बात हुई तो उसे मैंने यही कहा कि राखी बाँधो, फिर विचार करूँगा। डायरी पढने के बाद लगता है कि यदि मैं ऐसा नहीं कहता तब भी मीनू डॉक्टर को राखी बाँधने के लिए तैयार नहीं होती। मीनू ने डॉक्टर को राखी बाँधने से इनकार किया तो मेरा शक विवास में बदल गया। मन में पाप नहीं है तो राखी बाँधने से इनकार क्यों करती है मीनू? मीनू के मन में पाप है। राखी बाँधने से इनकार उस इरादे की घोषणा है कि शादी के बाद भी मीनू डॉक्टर के साथ नाजायज ताल्लुकात बनाए रखेगी। डायरी पढने के बाद ही मीनू और डॉक्टर के संबंधों की गूढ़ता को मैं समझ पाया। राखी बाँधकर भाई स्वीकार न करने का अर्थ अनिवार्यतः अनैतिक संबंध होता है, यह भ्रम डायरी ने तोड़ा। डायरी जब तक नहीं पढी थी, मैं आश्वस्त था कि मीनू को तलाक देकर मैंने कोई गलत काम नहीं किया है। पढाई पूरी करने के बाद भी तलाकशुदा मीनू से डॉक्टर ने शादी नहीं की तो मुझे भरोसा हो गया कि डॉक्टर ने मीनू का शरीर इस्तेमाल किया था। उसकी गुंडई का जैसे प्रमाण मिल गया था मुझे। यह बात मैं सोच भी नहीं सकता था कि विवाह का प्रस्ताव डॉक्टर ने तो रखा था, मगर मीनू ने उसे नहीं माना था। डायरी में व्यक्त भावनाएँ, बताया हुआ घटनाक्रम ऐसा है जो दुनिया की रवायत से मेल नहीं खाता। डायरी को पढकर भी उसमें लिखी हुई बातों पर अविश्वास करने को जी चाहता है।

डायरी के अंतिम पृष्ठ में जो कुछ डॉक्टर ने लिखा है उसे और जीवन का सूरज पश्चिम की ओर जाने की उम्र में डायरी मिलने की घटना को जोड़कर देखता हूँ तो इस नतीजे पर पहुँचता हूँ कि डायरी लिखते समय डॉक्टर के सामने यह विचार नहीं रहा होगा कि मीनू से संबंधित घटनाएँ ओर भावनाएं कभी मैं भी पढूंगा। डायरी में जो कुछ लिखा है उसे गलत मानने या मिलावटी समझने का कोई कारण मुझे नजर नहीं आता है । घटनाओं, संशयों, चिंताओं के उस दौर में डॉक्टर को मेरे कारण जो तकलीफ हुई उसके लिए माफी माँगने के मकसद से मैं उसे तलाश करूँ, यह अलग बात है। वरना इसलिए डॉक्टर को तलाश करने की जरूरत नहीं महसूस होती है कि डायरी का सच जानने के लिए, मुझे उससे बातचीत करनी है। खुद को संदेह का लाभ देने की स्थिति भी नहीं लगती मुझे कि जिसके सहारेे मैं डॉक्टर से कह सकूं, ‘‘तुम्हारे अमुक बयान पर मुझे विश्वास नहीं होता।''

डॉक्टर जब मीनू के बारे में बात करने मेरी दुकान पर आया था, तब भी मेरी नजर में उसकी हैसियत गुंडों के सरगना जैसी थी। मैं उससे बिगाड़ना नहीं चाहता था। अंदर-ही-अंदर डरता था कि वह खुद मार-पीट न कर दे या उसके इशारे पर सौ-पचास लड़के आकर मेरी दुकान में आग न लगा दें। इसलिए उसके साथ बहुत सलीके से बातचीत की। उसकी मेहमान नवाजी की। उसे इज्जत दी। सच यह है कि उस समय भी मेरे दिमाग में बिच्छू रेंग रहे थे। मेरा वश चलता और मुझे उसके शोहदेपन से डर नहीं लगता तो मैं धक्के मारकर उसे दुकान से बाहर निकाल देता। उस समय या उस दौर में एक बार भी मैंने सोचा नहीं कि अगर डॉक्टर वैसा ही है जैसा मैं उसके बारे में सोचता हूँ, तो कोई नमूना उसने दिखाया क्यों नहीं? घर मिले तब तो ठीक है लेकिन दुकान पर भी उसने बेइंतिहा शराफत से बात की। पूर्वाग्रह आदमी के सोच-विचार को किस सीमा तक कुंद करके बिगाड़ देते हैं, डॉक्टर की डायरी पढने के बाद यह बात समझ में आई है। दूर खड़े होकर हम आदमी के बारे में जो कुछ सोचते हैं वह उससे बिलकुल उलटा हो सकता है। इसलिए सुनना काफी नहीं है, देखना भी काफी नहीं है। धारणा बनाने से पहले आदमी को समझना जरूरी है। अगर डॉक्टर को समझने की कोशिश मैंने उन दिनों की होती, छात्रसंघ का महासचिव बनने के बाद अपने आग्रह उस पर थोपे नहीं होते तो इतनी बड़ी दुर्घटना नही घटती।

डायरी पढने के बाद स्पष्ट रूप से अहसास हो गया है कि मैंने मीनू को उस जुर्म की सजा दी है जो उसने किया ही नहीं। अट्‌ठारह साल की उम्र में जिस लड़की को तलाक दे दिया गया हो, उसकी मनःस्थिति कितनी खराब हो जाएगी, यह मैं समझ सकता हूँ। उस समय मेरी नजर में वह सिद्ध दोषी थी। इसलिए उसकी मनःस्थिति की चिंता मैंने नहीं की। लोग उसको किस नजर से देखते होंगे, यह बात कभी जहन में नहीं आई। उसके मां-बाप, भाई-भाभियां भी इस इलजाम के साथ तलाक मिलने के बाद उसकी पवित्रता को लेकर संदिग्ध होंगे। जुबान से कुछ न कहकर भी हजार तरीकों से यह बात वे लोग कह देते होंगे। रेडीमेड कपड़ों का काम शुरू करने के बाद बाजार में दुकानदार उसे देखकर व्यंग्यपूर्वक हँसते होंगे। इशारों में उसे अश्लील आमंत्रण देते होंगे। हम भी तो कहते हैं, मिर्च नहीं होंगे तो मिर्ची की गंध कहाँ से उठेगी? मीनू के मामले में मिर्च नहीं थे, फिर भी मिचोर्ं की तेज गंध फैल गई, मेरी बदौलत।

बिटिया की शादी में भी मैं नहीं गया। स्कूल में पढते समय, बच्चों के साथ खेलते समय, बच्चों के माता-पिता की कटूक्तियाँ सुनकर बिटिया को जरूर संदेह हुआ होगा कि माँ के चरित्र में कोई दोष तो रहा ही होगा। वरना कौन अपने बसे-बसाए घर को उजाड़ता है! मैं उसकी शादी में नहीं गया तो मेरे मन में बैठी नफरत का अनुमान उसने लगाया होगा। माँ पर उसका संदेह अधिक पुख्ता हुआ होगा। डॉक्टर का मीनू से मिलना-जुलना पिछले पच्चीस-तीस सालों में कितना होता रहा है, यह मैं नहीं जानता। हो सकता है, डॉक्टर के चरित्र को भी बिटिया शक की निगाहों से देखती हो। और किसी को समझा सकूं चाहे न समझा सकूं, मगर बिटिया को तो मुझे हकीकत बतानी ही चाहिए। डायरी पढ़ने के बाद मीनू के लिए कम-से-कम इतना तो कर ही सकता हूँ मैं। मीनू से माफी मांगूंगा तो कोई अंतर नहीं पड़ेगा। मीनू के मन में मेरे के प्रति नाराजगी का भाव कभी रहा होगा, डायरी पढकर इस पर शक होता है। जिस विवाह को दुर्घटना मानकर मीनू ने निरस्त कर दिया हो, उसके खलनायक के प्रति घृणा, अवसाद, नाराजगी, नाखुशी या शिकायत मीनू के मन में अगर है, तो ताज्जुब की बात होगी। माफी माँगने उसके सामने जाऊंगा तो शायद हँस देगी। यह भी नहीं पूछेगी कि जिसे मुजरिम मानकर तुमने सजा सुनाई थी इतने साल गुजर जाने के बाद कैसे महसूस हुआ कि उसने तो कोई जुर्म ही नहीं किया? तलाकशुदा जीवन को तपस्या मानकर व्यतीत करने वाली औरत का कद, किसी तरह की माफी से बहुत ऊँचा होता है। मैं मीनू को छू नहीं पाऊंगा, तो अपनी क्षमायाचना उस तक पहुंचाऊंगा कैसे? अनकिए अपराध की सजा जिसे तोड़ नहीं पाई, मेरी माफी उसे संतोष कैसे देगी? जमाने की निगाहों, संकेतों और इरादों को झेलतेे, पचाते प्रौढ हो चुकी मीनू के लिए करने को है ही क्या मेेरे पास? मीनू के साथ जो कुछ मैंने किया है उसका प्रायश्चित्त संभव ही नहीं है शायद।

और डॉक्टर? उसकी जिंदगी तबाह करने का क्या अधिकार था मुझे? व्यक्तिगत जीवन में खुश आदमी समाज को जितना दे सकता है अपने आप से लड़ता हुआ आदमी उसका पासंग भी देने की स्थिति में नहीं होता। अपने आपको सँभालने में खर्च शक्ति का बचा हुआ हिस्सा ही तो समाज के काम में आएगा। पत्नी, बच्चों के लिए लगाया हुआ समय भले ही समाज-सेवा के लिए दिए जाने वाले समय में कटौती जैसा महसूस होता हो किंतु प्रसन्न परिवार से जो ऊर्जा मिलती है वह उस कटौती की पूर्ति कई गुना अधिक कर देती है। डॉक्टर को झंझाओं में झोंककर मैंने समाज का भी अहित किया है। डॉक्टर ने भले ही समझा दिया हो अपने आपको, किंतु विवाहित जीवन छीनकर मैंने उसके साथ-साथ अनगिनत गरीब, पीड़ित, जरूरतमंद लोगों के प्रति अपराध किया है।

पत्नी हैं, बच्चे हैं। न होते तब भी मीनू को वापस लौटने के लिए मनाना संभव नहीं होता। डॉक्टर ने मुझे पश्चात्ताप की आग में जलने से बचाने के लिए अपनी डायरी इतने समय के बाद भेजी है। पहले पता लगता तो मैं इतना असहाय और असमर्थ महसूस नहीं करता, जितना अब करता हूँ। मीनू के लिए न सही, अपनी बिटिया के लिए तो निश्चित रूप से बहुत कुछ कर सकता था मैं। उसकी शिक्षा-दीक्षा, उसका पालन-पोषण, उसका विवाह, उसकी उलझनें, उसकी परेशानियां, उसके संत्रास मेरी चिंता का विषय होते। वह अकेली मीनू की बिटिया तो नहीं है। मीनू को दोषी मानकर मैंने बिटिया को भी सजा में शामिल कर दिया। जानता हूँ, गुजरा हुआ पल वापस नहीं लौटता। जो विध्वंस मैंने किया है, उसका परिष्कार संभव नहीं है। मृत्युपयर्ंत पश्चात्ताप की आग में जलने के अलावा कोई रास्ता नहीं है मेरे पास। डॉक्टर का हृदय विशाल है। सामाजिक जीवन में काम का बहुत लंबा अनुभव है उसे। जितना बड़ा अपराध मैंने किया है उसके सौवें हिस्से को धो सकूं, तब भी मेरे अपराधी मन को राहत महसूस होगी। मुझे उम्मीद नहीं है कि डॉक्टर के अलावा कोई और मुझे रोशनी दिखा सकता है।

मृग-मरीचिका के पीछे दौड़ने से कुछ हासिल नहीं होता, किंतु यह दौड़ जिजीविषा को सहारा देती है। जो अपराध मैं कर बैठा हूँ, उसका कोई प्रायश्चित्त नहीं हो सकता। बीते समय को वापस लौटा सका है कोई आज तक? फिर भी मैं डॉक्टर को तलाश करने की कोशिश करूंगा। जब तक डॉक्टर से मुलाकात हो तब तक तो, अपने आपको धोखे में रख सकूंगा मैं!

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