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तक्सीम - 3

तक्सीम

प्रज्ञा

(3)

‘‘ जय धरती मां जय गऊ माता’ के शब्दों पर हलचल सी मच जाती सोसायटी में-

‘‘अरे गौ-ग्रास वाला आ गया। भाग के जा और वो रात की रोटी दे आ।’’

ऊपर के माले से तुरंत भागकर न आ पाने वाली थुलथुल काया बीबीजी महरी को तुरंत दौड़ाती। आस-पास कई लोग बड़े नियम से अपना धर्म निभाने लगे थे। जमील सोच में पड़ जाता- हमारे गांव में तो पहली-पहली, ताजी रोटी निकालकर लोग खुद गाय को खिला आते थे। बिना किसी गाड़ी और भोंपू के शोर-शराबे के। पर आज आने वाली ये गाड़ियां तो तेज गानों के साथ गाय का गुण गाती फिर रही हैं। जमील को समझने में बड़ी दिक्कत होती कि गौ-ग्रास लेने का ये कैसा तरीका है। और अगर ऐसा करना ही है तो शांत तरीके से मांगा जाए यह दान। उसने आस-पास भी गौर किया तो पाया ये गाड़ियां तो अब हर सोसायटी-मोहल्ले में आ रही थीं। शुभ अभियान के नारों, भाषणों और गीतों के साथ। मंदिरनुमा शक्ल की गाड़ियों में मंदिर की तरह ही घंटी लगी थी। नीचे चमकदार स्टील के दो ड्रम सजे थे। एक बात और जो वो सोचता कि जो लोग रोटी और खाने की अन्य चीजें न भी दे पाते थे उन सबके दिमाग में अगले दिन दान के लिए तैयार रहने की घंटी तो बज ही जाती होगी। ये गाड़ियां कौन से मकसद से आ रही हैं जमील समझ नहीं पाता। वैसे भी इन गाड़ियों की ड्यूटी दिल्ली भर में लग रही थी। पिछली सरकार ने नगर-निगम की कूड़ा बटोरने वाली गाड़ी ‘आपके द्वार पर’ खड़ी करवाई थी जिसकी आवाज गली-मोहल्ले में रोज गूंजती थी। नई सरकार आने के बाद से उत्साहित गौ रक्षक समिति ने उसी तर्ज पर गौ-ग्रास की रिक्शानुमा गाड़िया उतार दीं। जमील हर दिन हिसाब लगाता कि पूरे दिल्ली भर में ऐसी गाड़ियंा बनाने-चलाने का कितना खर्च आता होगा और ऐसी ढेर सारी गायें कहां बंधी होती होंगी जो इस खाने को खाती होंगी? उसे तो आज भी अपनी बस्ती और आस-पास के इलाकों में घूमती-फिरती गायें कूूड़े के ढेर में मुंह मारती दयनीय और कुपोषित ही दिखाई देतीं।

सोसायटी में अधिकांश परिवार हिंदू थे । जहां तक संभव होता जमील अपना नाम, धरम बताए बिना ही काम चलाता।

‘‘राम-राम जी’’ जैसा उसका सम्बोधन जहां लोगों को ज़हनी तौर पर संशय की सीमाओं से मुक्त करता वहीं उसके खुद के लिए जैसे ये राम-नाम एक ढाल बन गया था। अपने बचाव में एक हथियार सरीखा। जो लोग उसे नाम से जानते वो उसके इस सम्बोधन से खुश होते।

‘‘आया न सही राह पर। यहां रहना है तो हम रहते हैं वैसे ही रहना होगा। हमारी तरह राधे-राधे बोल या फिर जय राम जी की। ’’

शेष लोगों के लिए तो वह केवल कबाड़ीवाला ही था। उन्हें इतनी फुर्सत ही कहां थी जो उसका नाम जानते और उसके बारे में। अधिकतर घरों में तो वैसे भी ये काम घरेलू नौकरों के ही जिम्मे थे। फिर तौल के पुराने तराजू भी अब अनुपयोगी होकर किसी कबाड़ का हिस्सा हो चुके थे। स्प्र्रिंग बैलेंस जैसे छोटे से औजार की बदोैलत अब जल्दी से कबाड़ को बोरी में भरकर उसमें हुक फंसाकर बोरे को अपनी समूची ताकत से जमील उठा लेता। स्प्रिंग बैलेंस का कांटा किलो के निशान के आगे रूक जाता। जितने किलो के हिसाब से तय होता उतने पैसे जमील हिसाब लगाकर तुरंत चुकता कर देता। शुरू से ही घुलने-मिलने की आदत नहीं थी उसकी। शरीर से ताकतवर दिखता था पर इधर उसने अपनी खास भंगिमा से उसे भी कतरने की कोशिश की। दोनों हाथ पीछे की ओर बांधकर एक फर्माबरदार मुलाजिम की मुद्रा और ढीले-ढाले कंधों में गर्दन झुकाकर चलना। कमीज को पैंट के अंदर डालकर कभी चुस्त दिखने की कोशिश नहीं करता। शरीर की सारी मजबूती को इस भंगिमा ने जैसे उपेक्षणीय बना दिया था। काम बचा-बना रहे, जमील इसके लिए बड़े सचेत प्रयास करता। उसके ऐसा करने के पीछे वो चेहरे भी नुमायां थे जो उसे ऐसा करने पर बाध्य करते। एक कामवाले की औकात को अपनी बेबाक नज़रों से हरदम तौलते।

काम से फारिग होते ही वह पार्काें में काम करने वाले अनोखे के संग बैठ जाता। अनोखे यहां माली का काम करता था। कड़ी मेहनत और मजदूरी कम। वो तो ड्यूटी के बाद कुछ घरों में उसका अपना काम था गमलों के रख-रखाव का नहीं तो गुजारा मुश्किल था। बातून अनोखे समझदार था। जमील का गार्जियन बनकर रहता था सोसायटी में-

‘‘क्यों फालतू काम करता रहता है बे तू इन लोगों के। जब देखो ऊपर सामान चढ़ाना है कबाड़ी वाले को भेज दो। अरे जरा ये कर दे और वो कर दे... किसी का टाईम खोटी हो इनकी बला से।’’ अनोखे की इस बात से जमील अपने आज में लौट आया।

‘‘कोई नहीं थोड़ी देर के कामों के लिए क्या घबराना। और कौन सी ये सरकारी नौकरी है हमारी? दो काम फालतू करेंगे तो कोई न निकालेगा और गलत भी न सोचेगा। क्यों? बात का सिरा पकड़कर जमील ने कहा।

‘‘इस फेर में न रहियो तू। जिस दिन निकालना होगा तेरा पिछला किया-कराया काम न आएगा देख लियो। तू किसलिए करता है, जानता हूं सब। पर अच्छाई का जमाना नहीं है। फिर हम जैसों की कोई यूनियन-वूनियन कहां जो बचा ले। हमसे सही तो ये माईयां हैं बर्तन-झाड़ू वालीं। पैसे बढ़वाने होते हैं तो सब जनी एक हो जाती हैं। पर हमारा.... जानता है छत्तीस नम्बर वालों ने दशहरे के दिन कहा भई रावण बनवा दे बच्चों का। अब बता मैं क्या रावण का कारीगर हूं जो बनवा दूं? दो घड़ी हमारा सुस्ताना भी इन्हें बर्दाश्त नहीं। साफ मना कर दी मैंने। तू भी कर दिया कर।’’ कहने को कह दिया अनोखे ने पर जानता था जमील नहीं करेगा ये सब। अनोखे ने बात खत्म की ही थी कि जमील का फोन बजा।

‘‘ रौशन की तबीयत बड़ी खराब है। बस तुम आ जाओ किसी तरह। गर्दन एक तरफ लटक गई है और कुछ नहीं खा रहा कई दिन से।’’फोन पर सोनी ने बताया।

सोनी के सुबकते हुए शब्दों ने जमील का सारा चैन छीन लिया। रौशन की तबीयत और काम का हर्जा समेत तमाम चिंताएं उसके सर पर सवार हो गईं। बच्चे की तकलीफ सुनकर पहली फुर्सत में जमील गांव रवाना हो गया। अपनी पहचान के एक दूसरे कबाड़ी को काम पर लगा दिया उसने। सोसायटी ने जमील को काम पर रखने से पहले ही बता दिया था एक-दो दिन से ज्यादा की छुट्टी नहीं मिलेगी। गांव जाकर पाया तो वाकई बच्चे की तबीयत काफी खराब थी। पहले जब भी जमील लौटता था रौशन अपनी हंसी से उसका स्वागत किया करता था। छह-सात महीने के रौशन ने बोलना तो शुरू नहीं किया था पर उसके ‘बा बा’ जैसे शब्द जमील को अब्बा सुनाई दिया करते। हाथों में उछाल-उछालकर अपने बेटे से घंटों खेलता था जमील। पर आज उसके आने पर बच्चे में पहचान की एक भी हरकत नहीं दिखी उसे। उसके हंसते-खेलते बच्चे को क्या हो गया? दिल-दिमाग जैसे सुन्न पड़ रहे थे जमील के।

‘‘ अरे घबरा मत तू बच्चे दांत निकालते हैं तो ऐसी परेशानी आती ही है। पहली औलाद है न इससे ज्यादा परेशान हो रही है सोनी। वैसे मजार पे जाकर झाड़ा तो मैं लगवा आई हूं।’’ अम्मा चिंतित होते हुए भी उसका हौसला बढ़ा रही थी।

‘‘कल चलेंगे इसे बड़े अस्पताल लेकर।’’गांव के इलाज से कोई खास फायदा न देखकर उसने जल्दी से फैसला लिया।

अगले कई दिन अस्पताल में डाॅक्टर को दिखाने में बीते। लंबी लाइनों में लगना, टेस्ट के लिए भटकना, दवाइयों के लिए दौड़ना पड़ा उसे। रूपया खर्च हो रहा था पर बच्चा सही होने में नहीं आ रहा था। पता नहीं डाॅक्टर ढंग से देख भी रहा है या नहीं। आखिर डाॅक्टर ने बताया दिमाग से नीचे आने वाला कोई पानी शरीर में नहीं पहंुच पा रहा है। कोई नली लगानी पड़ेगी चीरकर तब ठीक होगा बच्चा। घर में आॅपरेशन के नाम पर कोहराम मच गया। अम्मा-अब्बा मानने को तैयार ही नहीं थे कि ऐसी भी कोई बीमारी होती है-

‘‘ठग रहा है डाॅक्टर। हमने तो अपने पूरी जिंदगी में ऐसी बीमारी न देखी किसी बच्चे की।’’ अम्मा बोली।

‘‘बेटा दिल्ली ले चल एक बार वहां ही दिखा लेते हैं।’’ अब्बा ने कहा।

दिल्ली के अस्पतालों के जनरल वार्डाें की असलियत जमील जानता था। लंबे इंतजार और मंहगे इलाज। कहने को तो सरकारी हैं पर टेस्ट के पैसे क्या कम हैं वहां? पर बेटे की हालत देखते हुए उसे दिल्ली जाना ही ठीक लगा। अगले दिन जाने की तैयारी हो गई पर उसी रात रौशन चल बसा। सोनी के साथ जमील भी पगला गया। बच्चे के दुख ने तोड़ दिया उसे। वो सारे सपने, सारी उम्मीदें मिट्टी में लिपटी बेरौनक हो गईं जिस मिट्टी में रौशन खामोश लेटा था। बार-बार खुद से यही सवाल करता-

‘‘मैंने क्या बिगाड़ा था किसीका, जिसकी ये सजा मुझे मिली।’’ पर जवाब नदारद रहता। सारी दिशाएं अजीब से सन्नाटा में डूबी जान पड़तीं और इस सन्नाटे के बीच कभी-कभी लगता रौशन घर के किसी कोने में पहले की तरह हंस-खेल रहा है। जैसे अभी सोनी गोद में ले आएगी उसे और रौशन ‘बा बा’ करता लपकने लगेगा उसकी तरफ। पर उस सन्नाटे को केवल सोनी की सिसकियां और तेजी से उठने वाली चीखें ही तोड़ा करतीं और उसके बाद फिर से एक लंबा सन्नाटा घर भर में छा जाता।

जमील की जिंदगी का गिरता-उठता ग्राफ यों तो पहले भी उसे तोड़ता आया था पर फिर एक नई उम्मीद से खड़े हो उठना उसकी फितरत में था। चोट लगती थी, घायल भी होता था पर मरहम-पट्टी के बाद दुरूस्त और फिर पहले जैसा। पुराने रोग और गम पालने की फुर्सत भी अब कहां थी उसे। जिंदगी को बदलते देखता और खुद भी बदलने की कोशिश करता। पर इस बार संभलना मुश्किल हो रहा था।

‘‘ बेटा तू हिम्मत हारेगा तो सोनी कैसे जिएगी? मरद का काम है हौसला देना,औरत को संभालना। औलाद का दुख तो दोनों को एक जैसा है बेटा पर उसने जनम दिया था रौशन को। उसके दुख की तो सोच। जाने क्या-क्या सोचती होगी।... और ऊपर वाला है न भरोसा कर... जैसे लिया है वैसे दोबारा देगा भी।’’ मां ने इशारों में बता दिया कि बहू उम्मीद से है। उसके शब्दों में जाने कौन-सी मरहम थी कि दर्द हरे होने के बावजूद कम दुख रहे थे। जमील दर्द की तमाम हदों को पार कर फिर खड़ा हो गया। कुछ दिन सोनी के साथ गुजारे। जिंदगी पूरी तरह नहीं अधूरी ही सही, पुरानी शक्ल में लौटने लगी। इधर जमील की बचाई रकम खर्च हो गयी थी। अब उसे दो-दो मोर्चे संभालने थे-घर और घर के लिए पैसा। उसे शहर आना ही था।

‘‘ नहीं साहब ऐसा कैसे हो सकता है? इतने बरस खिदमत की है आप लोगों की। मुसीबत के मारे को और न मारो साहब।’’ जमील को खुद पर यकीन नहीं था वो लगभग गिड़गिड़ा रहा था अपने काम के लिए।

‘‘देख भाई, तू इतने साल से है न यहां, कभी मांगा तुझसे कुछ? बोल? अब इतना कमाता है कि गांव जाकर ठाठ से रहता है तू । मकान-वकान भी बनाया ही होगा। साल के बीस हजार ही तो देने हैं बस और कौन सा तुझ अकेले से मांग रहे हैं सबकी एंट्री का चार्ज है और हम कौन-सा अपनी जेब में रखेंगे। सोसायटी के कामों में लगेगा सारा पैसा।’’सोसायटी नए प्रधान ने बड़ी ही सहजता से कहा।

‘‘गरीब आदमी हूं साहब। साल में लाख रूपया कमा सकूंगा तभी तो दे पाऊंगा बीस हजार.. पर इतनी कमाई कहां है मेरी... ।’’

‘‘ वो तू जान और फिर ये भी तो देख कितना सुरक्षित है तू यहां... हमारे पास... देख नहीं रहा इतने साल से... हैं जमील?’’ जमील शब्द पर सारा वजन डालते हुए प्रधान ने उसके हिस्से के सच को बयां कर दिया। कमीशन और जमील नाम के आदमी की प्रोटेक्शन मनी दोनों ही मुद्दे नए प्रधान की लिस्ट में थे।

यहां आने पर जमील ने सारा माहौल बदला पाया। सोसायटी में काम करने आने वालों के लिए एंट्री फीस का नया फरमान जारी होने वाला था। कई दिन सब पर तलवार लटकती रही। जमील का मन किया भाग जाए किसी ऐसी जगह जहां कोई दिक्कत न हो परेशानी न हो पर जानता था कि ऐसी जगह न कहीं थी, न होगी। सोसायटी के कुछ लोगों के दखल और सदाशयता से कई दिन बाद समस्या हल हुई। एक बीच का रास्ता निकाला गया कि सोसायटी को पैसा देने में असमर्थ लेबर को अब हफ्ते में कुछ घंटे यहां के काम-धाम करने होंगे बिना किसी आना-कानी के।

‘‘ देख लिया सब। करो अब जमींदार की बेगारी। इधर से न सही तो उधर से कान तो उमेठ ही लिया न।... और जमील तुझे बचाने कौन साला आएगा बताए जरा? याद नहीं है कैसे निकला था तू पुराने मोहल्ले से। किसी एक ने भी किया था तेरी नेकी का बखान? बड़े आए पैसा मांगने वाले।’’ अनोखे चुप न रहा।

बेटे के दुख और एक नया आसमान टूटने के बाद बहुत बड़ी राहत महसूस करके जमील ने कहा-‘‘ उसमें क्या है अनोखे, जहां एक घंटे बाद आते थे तो एक घंटा पहले आ जाएंगे। तू न घबरा... सोच कहां से लाते इतना रूपया और फिर निकाले जाकर कहां काम ढूंढते?’’

बंधी-बंधाई नौकरी न होते हुए भी माली, कबाड़ी, गाड़ी धोने वाले, बिजली मरम्मत वाले और मिस्त्रियों के लिए ये सोसायटी ही कमाई का आधार थी। जैसे-तैसे सबने नयी स्थिति को स्वीकार कर लिया। काम की मारा-मारी के इन भयंकर दिनों में अधिकांश को इसमें किसी जुल्म की कोई गंध नहीं आई। मेहनत के कुछ घंटे और बढ़ गए थे पर पगार उतनी ही रही सबकी। दिन बीतने पर अनोखे जैसे कामगारों की ये खलिश भी दूर हो गई। गौ-ग्रास के रिक्शे से नियत समय पर तेज आवाज में रोज का गीत आज भी चल रहा था-‘‘हे धरती मां हे गऊ माता.. गूंज रहा है मंत्र महान.... पूर्ण सफल हो शुभ अभियान... जीवमात्र का हो कल्याण।’’

अब जमील और भी जिम्मेदारी से काम करने लगा । रद्दी के अपने काम से फुर्सत मिलते ही रोजाना उसे किसी न किसी काम से दौड़ना ही पड़ता। कभी किसी आॅफिस चेक जमा कराने तो कभी किसी के निजी काम से। शाम के समय भी कई बार मुसीबत पेश आ ही जाती जब उसे अपने कबाड़ को ठिकाने लगाना होता। पर जमील चूं नहीं करता। एक जमील ही क्या सभी मुलाजिम इन्हीं हालातों से गुजर रहे थे। कामों का तूफान जब गुजरता तब दो घड़ी की फुर्सत में नन्हें रौशन का चेहरा उसकी आंखों में घूम जाता। सोनी से भी लगभग रोज ही बात होती थी उसकी। उसे मोबाइल खरीदकर दे आया था इसलिए सोनी भी अक्सर बात-चीत कर लेती। उसकी जचगी के दिन भी पूरे होने वाले थे। जमील को चिंता सताती रहती। यों अम्मा पूरी देखभाल कर रही थी पर जमील हर बार उन्हें सोनी का ध्यान रखने, डाॅक्टर को दिखाने और ढंग की खुराक जैसे निर्देश देता रहता। सोनी से वादा किया था तो समय से पहले गांव पहुंच गया जमील।

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