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फैसला - 1

फैसला

(1)

शाम की ट्रेन थी बेटे की अभी सत्ररह साल का ही तो है | राघव पहली बार अकेले सफर कर रहा है | उसे अकेले भेजते हुए मेरा कलेजा कांपा तो बहुत फिर भी खुद को समझा के उसे ट्रेन में बिठा आई | सारी दुनिया से लड़ने वाली मै बस यहीं आकर कमजोर पड़ जाती हूँ, क्या करूँ चिड़िया की तरह अपने पंखो में सेंत सेंत कर पाला है अपने कलेजे के टुकड़े को | मेरी जान, मेरा राघव, मेरा ईकलौता बच्चा मेरे जीने का बहाना ---

वरना जिन्दगी तो रेगिस्तान बन कर रह ही गई थी | आज बारह साल बाद उसे उसके बाबा-दादी के पास भेज रही हूँ | नहीं भेजती, कभी नहीं भेजती | पर जब से सुना अम्मा जी की तबियत बहुत खराब है और अपने एकलौते पोते को हरदम याद करती रहती हैं, न जाने क्यों मन पसीज गया, सोचा औरत ही तो हैं उनका कोई बस ही नहीं था कुछ कर ही नहीं सकती थी वरना यह नौबत ही क्यों आती | फिर दादी को पोते से से दूर रखने का क्या हक है मुझे ? फिर राघव भी अब इतना बड़ा तो हो ही गया है, अब वह अपने परिवार को समझे परखे, वरना कभी कहीं यह न सोच ले कि माँ कि जिद ने उसे अपने रक्त के रिश्तों से दूर किया | बहुत सोचा फिर दिल को कड़ा कर ये फैसला ले ही लिया अब उसे भेजना ही ठीक ही होगा | डर भी लगता |कलेजा हौल के रह जाता यह सोच कर कि कहीं मेरा बेटा मेरे पास वापस न आया तो - कैसे जियूंगी मै उसके बिना ? नहीं भेजना मुझे अगले ही पल सोचती, नहीं भेजना तो होगा ही वरना कैसे जानेगा समझेगा फिर वह दादी को बहुत प्यार भी करता है पर कभी कहता नहीं -

बाकी तो वह खुद ही समझेगा -- उसकी अम्मी ने कुछ फैसले क्यों लिए -

अब आज की ट्रेन थी -- मैने तो कल ही फोन कर के राघव की बुआ को ट्रेन और कोच नम्बर बता दिया था और यह भी कहा कि वह अपनी दादी से मिलने जा रहा है, उसे कोई पहचान लेगा न ? आखिर बारह बरस बीत गया था | इस अरसे में नन्हा राघव किशोर हो गया नरम- नरम मूंछो की रेख भी आ गई थी | लम्बाई तो अपने खानदान पर ही गई थी पांच फिट दस या ग्यारह इंच का तो हो ही गया है अभी से लगता है छह तो डांक ही जाएगा, आवाज़ भी बदल गई है उम्र के साथ साथ | जब तक पहुँच नहीं जाता मेरी जान अटकी रहेगी, बार बार हिदायत दे रही थी | कुछ रुपये और पता भी अलग से रख दिया था समझाया भी -- " बेटा अगर मन न लगे या कोई कुछ कहे तो आ जाना पैसे संभाल कर रखना " ट्रेन में बिठा कर घर वापस आई तो पूरा घर भांय - भांय कर रहा था, लगता था जैसे कोई है ही नहीं, …

धम्म से ड्राइंगरूम के सोफे पर बैठ गई, " एक ग्लास पानी दो दुर्गा गला सूख रहा है ..."
--- पानी का ग्लास टेबल पर रख कुछ देर खड़ी रही दुर्गा फिर बोली " दीदी चाय बनाऊँ ? " उसकी तरफ एक नजर डाल कर मैने पूछा -- " अन्नी कहाँ हैं उन्हें चाय दी ? " -- " मां जी अपने रूम में लेटी है चाय के लिए कई बार पूछा, मना कर दिया उन्होंने --- " अच्छा तुम मेरी और अन्नी की चाय अन्नी के रूम में ही ले आओ "

मुझे पता है अन्नी नाराज हैं वह नहीं चाहती थी मै बेटे को भेजूं | अन्नी भाई के पास रहती हैं दो हफ्ते पहले ही लखनऊ आई हैं | जैसे ही उन्हें पता चला मै राघव को भेज रही हूँ एकदम भड़क उठी मुझ पर ---- " सुन मेघा तेरा तो दिमाग खराब है भेज दिया बच्चे को अगर बरगला लिया तो, क्या करेगी तू पागल है ….. कभी नहीं सुनती तेरी सारी तपस्या उनका पैसा लील जाएगा ---"

" अन्नी बहुत थक गई हूँ मै अब मन और शरीर दोनों टूट से गए है " --आशंकाओ में झूलता मन कभी आश्वस्त होता तो कभी भयभीत -- आँख मूंद ली मैने | कहीं खुद के अँधेरे मन में गुम होने की कोशिश, शुतुरमुर्ग की भांति अपने ही पेट में अपनी गर्दन छुपा कर सुरक्षित होने का भ्रम ...
अचानक अन्नी ने सर पर हाथ रखा - " चाय पी ले बेटा ठंडी हो रही है " --

चुपचाप चाय गले के नीचे उतार ली और मैगज़ीन उठा कर पन्ने पलटने लगी | दुर्गा ने खाना टेबल पर लगा दिया और बार - बार झाँक जाती आखिर मै उठ ही गई | थोड़ा बहुत खाना बहुत मुश्किल से हलक के नीचे उतारा वरना अन्नी भी मुंह बांधे सो जाती | उन्हें दवा खानी थी और खाली पेट कैसे खाती | जल्दी ही सब निबटा के मै लेट गई | राघव की ट्रेन सुबह देहरादून पहुंचेगी तब तक मुझे चैन नहीं आएगा जब तक उससे बात न हो जाएँ --ये रात तो बीत ही नहीं रही थी इस सन्नाटे भरी रात का प्रथम पहर धीमे धीमे सरक रहा था | मै खुली आँखों में सो रही थी --या यूँ कहे तो नींद दूर - दूर तक कहीं नहीं थी | मेरे भीतर तेज़ी से एक सन्नाटा सा खिंचने लगा --लेकिन फिर मेरी ख़ामोशी मुखर हो उठी शायद मुझसे बात करने के लिए इन्हीं एकाकी पलों को तलाशती रहती है -और मै अपने से ही बचती रहती हूँ कहीं मेरी ख़ामोशी विद्रोह न कर दें --और फिर मैनेअपनी डांवाडोल मन :स्तिथि को थपथपा कर स्वयं को एक खोखला सा दिलासा दिया --और फिर एक बर्फीला मौन तान लिया |

यूँ लगा अतीत का कालखंड फिर से वर्तमान के साथ - जुड़ गया क्यूँ ? कितना गूंथा था चिथड़े चिथड़े हुए अपने लहूलुहान वजूद को | मुझे लगा था दिल पर लगे इन पीड़ा के पैबन्दो को अब कोई उधेड़ नहीं पायेगा ---लेकिन उस दिन अप्पा के रिवोल्वर का लाइसेंस खोजते हुए मां की आलमारी के लाकर के कोने में कागज का बंडल बड़ी हिफाजत से रखा दिखा, लिफ़ाफ़े पर लिखी हुई लिखावट बहुत अलग सी थी, पहचानी हुई पर धुंधली सी | मैने चुपके से उन्हें उठा कर बगल के दराज़ में रख दिया, तभी अन्नी ने जोर से आवाज़ लगाई----- " मेघा मिला नहीं सामने ही तो रखा है तुझे तो सामने रखी चीज़ भी नहीं दिखती " ----

" मिल गया अन्नी बस लाई "--- कह कर दौड़ कर अप्पा को लाइसेंस पकडाया देर हो रही थी | आफिस बंद हो जाता शायद रिनियुवल करवाना था | मेरे लिए मम्मी - पापा न जाने कब अन्नी, अप्पा हो गए याद ही नहीं पर सिर्फ मै ही पुकारती इस दुलार भरे संबोधन से | अप्पा चले गए | दोपहरी थी सब सोने चले गए यहाँ सब आलसियों की तरह सो जाते है दोपहर में, पर मेरी आँखों से तो नींद कोसों दूर थी | मै चुपचाप वो लिफाफा उठा लाई अपने बेडरूम की कुण्डी लगा कर उसे पढ़ती गई और दोनों आँखों से आंसू भी बह रहे थे | कई बरसों से जिस घाव पर पपड़ी पड़ रही थी आज पूरा का पूरा उधड़ गया | चुपचाप सारे खत छुपा कर लेट गई, सर बहुत दर्द हो रहा था | अभी राघव भी स्कूल से नहीं आया था | उस का इंतजार करते - करते मै कब सो गई पता ही नहीं चला | आँख खुली तो शाम गहरा गई थी | राघव नानी के पास बैठ कर होमवर्क कर रहा था, लेकिन मेरे मन में उथल - पथल मची थी | वो खत नहीं दर्द के दस्तावेज़ ही तो थे | तकिये के नीचे रखे अन्नी की पुरानी आलमारी के लाकर से मिले दर्द के इन दस्तावेजों को मुट्ठी में मींच मींच कर मै अपने आंसू पीती रही ... उफ़ क्या कहूँ -- माघ की उस सर्द बर्फीली रात में भी मै पसीने से नहा गई ---माँ ने सारे लिफाफे अपनी छोटी सी अनुभवहीन बेटी से छुपा लिए थे | वो सारे षडयंत्र कैद हो गए लोहे की मजबूत आलमारी में ! दर्द और क्रोध की लहर दौड़ जाती है सोच कर | मेरे अपने मेरी अन्नी जानती थी, मेरे अप्पा भी जानते थे -पर मै नहीं | यह सब पर मुझे क्यों नहींबताया ?---शायद पिता को संस्कारों और उसूलों के बीच पली बेटी परखुद से ज्यादा भरोसा था --
न जाने क्या सोचती रही और अपने जीवन की किताब उलटती - पलटती रही | बस कुछ ही
पन्ने पलटे और फिर पलट गया वक़्त भी---मै बरसों पहले पहुँच गई ---अपने अतीत को खुरचते, स्मृतियों को टटोलते टटोलते अपने बचपन में ---

हमारा परिवार शहर के प्रतिष्ठित परिवारों में था | पिता सूर्यनारायण सिंह जमींदार परिवार से थे और शहर के नामी वकील थे | उनका दखल और दबदबा राजनीति में भी था | शहर के किनारे बनी कोठी काफी बड़ी थी, करीब पन्द्रह सोलह बीघे में फैली हुई | पीछे आम और मौसमी फलों का बड़ा बाग़ और सामने सुंदर लान, जिसकी घास जेठ में भी हरी रहती और क्यारियां फूलों से भरी रहती | अप्पा को फूलों का बहुत शौक था, खासकर गुलाबों का | उनके लान में काला गुलाब भी था जिसे वह बहुत सहेजते थे | लान के बीचोबीच बना खूबसूरत फाउन्टेन जिसमें खिली हल्की बैगनी कुमुदनी की भीनी महक आज भी मन में बसी है | डबल ड्राइवे की खूबसूरत नीली कोठी मेरे बाबा की सुरुचिपूर्ण पसंद का उदहारण थी,, गेट में प्रवेश करते समय दोनों ओर लगे बाटल ब्रश के पेड़ उनसे लटकते फूल मानो हर आगन्तुक का हार ले कर स्वागत कर रहें हो | दोनों तरफ बने टैंकों में लाल कमल थे , पर मुझे वह कुमुदनी के आगे फीके लगते | हम चार भाई - बहन थे | मुझसे बड़े दो भाई थे और एक छोटा भाई | अन्नी अक्सर बताती अप्पा को बेटी की बहुत चाह थी |मेरा जन्म बहुत मन्नत मुरादों के बाद हुआ | मेरे पैदा होते ही अपनी दुनाली बंदूक से सात फायर कर अप्पा ने मेरा स्वागत किया | फूल की थाली बजाई गई और खूब उत्सव हुआ | अपने खानदान और बिरादरी की पहली लड़की थी जिसका ऐसा शानदार इस्तकबाल हुआ था ---

अपने पिता के दुलार और हिटलर माँ के कड़े अनुशासन के बीच मैं बड़ी होती गई ....
वक़्त गुजरता गया और मै नाइंथ क्लास में आ गई ! पढने में तेज़ थी इसलिए मुझे डबल प्रमोशन भी मिला पढ़ाई लिखाई और जीवन बहुत मज़े में गुजर रहा था कि अचानक बाबा को दिल का दौरा पड़ा | यह दूसरा अटैक था सब बहुत घबरा गए | उन दिनों यह बहुत गंभीर रोग माना जाता था | बाबा मुझे लेकर बहुत परेशान रहने लगे | उनको कुछ हो गया तो मेरा क्या होगा | माँ बहुत परेशान रही हम सब भाई बहन अभी छोटे ही थे | मेरी उम्र अभी तेरह साल की ही थी पर माँ बाबा से मेरे लिए लड़का ढूंढने को कहने लगी | पहली बार जब बोली तो बाबा बहुत नाराज़ हो गये, " अभी तेरह साल की ही तो है मेरी बेटी अभी से इसकी शादी की बात कर रही हो तुम्हारा दिमाग तो नहीं खराब हो गया | "

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