हवा में ठंडक आने से कुछ देर आँगन में किताब पढ़ना शुरू किया. हवा तेज चलने पर कमरे के भीतर चला आया, क्योंकी निर्मल वर्मा के शब्दों को इस शोर में पढ़ना संभव नहीं. आसमान में दोपहर से धुप और बादल के बीच रेस चल रही थी की कौन दिन के अंत में पहले पहुंचेगा इसलिए कभी बादल धुप को छिपाकर आगे हो जाता तो धुप बादलों को छोड़कर दूर निकल लाता. हवा तेज होने से कमरे के दीवाल पर लटके हुए समान उसी वेग में उड़ने लगे थे. सभी को स्थिर जगह पर रखकर. दरवाजा बंदकर फिर पढ़ने शुरू किया लेकिन ध्यान पानी के बीच आसमान में बादल और धुप के अंतिम रेस पर था. हवा के साथ तेज पानी से लग रहा था आज दिन के अंत में पहले बदला ही पहुंचेगा. पढ़ते हुए उत्सुकता से आसमान में देखा धुप संघर्ष करता नजर नहीं आया. एक घंटे बीत जाने से अब धुप की उम्मीद छोड़ चुका था. तभी खिड़की से धुप की रोशनी रूम में दाखिल हुए. तुरंत मैंने समय देखा 4 बजे थे. धुप अपने पुराने समय में कमरे के भीतर पहुंचा था. शायद उसने रेस के अंतिम समय में बादलों से जीत की लंबी छलांग लगाई होगी और जीत की रस्सी मेरे कमरे की खिड़की लगी होंगी. उसका रेफरी मै होगा जो खिड़की के पास जितने वाले का इंतजार कर रहा था. उस रेस में धुप पहले पहुंचकर दिन अंत में जीत गया. उस समय रोशनी कम थी शायद छलांग लगाने से धुप की सांस फूल गई हो थोड़ी देर बाद धुप पहली की तरह थी. रेस ख़त्म होने के आसमान से बादल हारकर लौट चूका था..अब धुप को देखकर यह कोई नहीं कह सकता था की थोड़ी देर पहले तेज हवा चली थी, वर्षा भी हुए और अब सब पहले जैसे शायद पानी के इस पूरी मेहनत में धुप की रोशनी पूरा पानी फेर दिया था.
पुराना लिखा हुआ पढ़ने पर वर्तमान में वही शब्द खूबसूरत चेहरे की तरह दिखाई पड़ता है, जिसे कठिन समय में एक दुःख जैसे लिखा था. पुराने शब्द ही मौजूदा दुःख से लड़ने की सांत्वना मिलती है. आश्चर्य भी होता है कैसा हमारा ही दुःख हमें एक वक्त बाद बेहद खुश कर सकता है, जबकि उसे दुःख के वक्त पढ़ते रहे है !अपने वर्तमान दुखों को पन्नों में शब्दों की एक तस्वीर बना लेनी चाहिए, इससे पहले की उसका चेहरा बदल जाए. सालों बाद उसी तस्वीर को देखने पर हमें एह्साह होगा यह हमारा बचपन का दुःख है जो आज बहुत बड़ा हो चूका है. उस वक्त इच्छा भी होगी काश वह पुरानी ही होता. शायद आज उसमें वक्त देकर खुश रहते.आज कुछ पन्नों को पढ़कर ऐसा लगा एक यात्रा में बहुत दूर निकल जाने के बाद एक जगह खड़ा होकर पीछे का रास्ता देख रहा हूँ. इच्छा होती है छुट गए यात्रा में फिर निकल जाना चाहिए. शायद इस बार गलत रास्ता पड़ने पर सही रास्ता मिल जाए ! लेकिन अब वह जगह पहली तरह नहीं होगी. डामर की सडको में रास्ता भटकने का केवल नाटक किया जा सकता है. यह भी हो सकता है उस रास्तो में अब लोगो की मौजूदगी का नाम लिखा होगा. शायद पिछली बार उस रास्ते में नाम न देखकर हम आगे निकलकर कभी दूसरे जगह भटक गए थे!
हमेशा एक दुःख में रोते हुए अचानक दूसरा दुःख खुद-ब-खुद बिना आमंत्रण के शामिल हो जाता है, जो कही बचा हुआ था. इस वक्त यह समझ पाना मुश्किल होता है आँख से निकल रहे आसू किस दुःख के है. हाथों में उस आसू की बूंदों को लेता हूँ और देखता हूँ छोटे और बड़े बूंद वह दुःख नहीं होते थे, जिसके लिए मैंने रोना शुरू किया था. यह उसी तरह है जब कोई पूछता है तुम किस बात से दुखी हो? ज़वाब में हमें अपना वर्तमान दुःख नजर नहीं आता वह दुःख पहले दिखाई पड़ता है जो कई दिनों से एक संबध की तरह साथ है. दुःख को बचाए रखने उस आँसू को फिर पी जाता हूं