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किराए का कांधा

किराए का कांधा

गुडविन मसीह

स्वाति, जब तक तुम्हें मेरा पत्र मिलेगा, हो सकता है, तब तक मैं इस दुनिया से ही कूच कर जाऊं, क्योंकि मुझे फेफड़ों का संक्रमण हो गया है। डाॅक्टरों का कहना है कि मेरे पास जिन्दगी जीने के लिए हफ्ता या दस ही बचे हैं। जिसमें से तीन-से-चार दिन मैंने इसी सोच-विचार में निकाल दिये कि तुम्हें बताऊं या न बताऊं..? अंततः मैं इसी निर्णय पर पहुंचा कि तुम्हें अपने बारे में सबकुछ बता देना चाहिए।

स्वाति मेरी इच्छा है कि तुम मेरे इस दुःख में शामिल मत होना, क्योंकि यह मेरा अपना दुःख है, इसलिए मैं ही इसे झेलना चाहता हूं।

वैसे भी शादी से लेकर पूरे बीस-बाइस सालों तक मैं तुम्हें दुःख के सिवा कोई सुख नहीं दे पाया। इन वर्षों में तुम आर्थिक और मानसिक पीड़ा को झेलती रहीं। पल-पल टूटती रहीं और बिखरती रहीं। तुम्हारी बहुत सारी इच्छाओं और आकांक्षाओं का मैं हनन करता रहा। लेकिन मेरा यकीन करो स्वाति, मैंने कभी भी तुम्हें जानबूझ कर आर्थिक तंगी नहीं दी। मैं तो तुम्हें जिन्दगी की वो सारी खुशियां देना चाहता था, जिसकी तुम हकदार थीं। मैं जब भी किसी खूबसूरत और धनाढ्य महिला को लग्जरी गाड़ी में घूमते देखता, मंहगें-मंहगे कपड़ें और गहने पहने हुए देखता। माॅल्स और बड़े-बड़े शाॅपिंग सेंटरों में शाॅपिंग करते देखता था, तो यही सोचता था कि काश! तुम्हारे लिए भी मैं एक भव्य और सुन्दर-सा मकान बनाकर दे पाता। तुम्हारे घूमने के लिए बड़ी और लग्जरी गाड़ी खरीद पाता, मंहगे-से-मंहगे कपड़े और गहने पहना पाता, तुम्हारी हर ख्वाहिश और तमन्ना को पूरी कर पाता तो कितना अच्छा होता। मेरा यकीन करना स्वाति, मैं तुम्हें हर हाल में खुश रखना चाहता था, लेकिन अपनी आर्थिक तंगियों और खराब किस्मत के चलते मेरी इच्छाओं का दमन होता रहा। मेरी तंगहाली ने मुझे कभी भी एक अच्छा पति और अच्छा पिता नहीं बननेे दिया। स्वाति मेरी बदकिस्मती ने न सिर्फ मुझे छला, बल्कि तुम्हारे मन में भी मेरे प्रति यही दुर्भावना पैदा कर दी कि मुझे तुम्हारा खयाल नहीं रहता है, और मैं तुम्हें प्यार नहीं करता हूं। तुम्हारे सुख और खुशियों की मुझे जरा भी परवाह नहीं है।

स्वाति, तुम मेरे बारे में जैसा सोचती थीं, वो सच नहीं था। मैं तो तुम्हें बहुत प्यार करता हूं, तुम्हारी सांसों की खुशबू आज भी मुझे महकाती है। सच में स्वाति मैं बहुत महत्वांकाक्षी इंसान था। मैं भी जिन्दगी को लेकर बहुत सारे सपने देखता था, लेकिन मेरी वदकिस्मती ने मेरे सपनों को साकार नहीं होने दिया। उसने मुझे तुम्हारी नजरों में अच्छा पति नहीं बनने दिया। मैं रात-दिन मेहनत-मशक्कत करता रहा, दिन-रात खटता रहा, अपने शरीर को गलाता रहा और उससे मुझे जो भी छोटी-सी आय होती, उसे मैं ईश्वर का दिया आशीर्वाद समझकर माथे से लगाता रहा। मगर तुमने उस आय को कभी मन से नहीं स्वीकारा। हमेशा यह कहकर दिल तोड़ती रहीं कि इतने से पैसों से क्या होगा...?

याद करो स्वाति एक तरफ तो तुम मुझसे कहा करती थीं, कि बदनामी की खीर से ईमानदारी की चटनी अच्छी होती है। मेहनत और ईमानदारी की कमाई से घर में बरकत होती है, बच्चे फलते-फूलते हैं, ईश्वर भी ईमानदार लोगों से खुश होता है। और दूसरी तरफ तुम मेरी ईमानदारी और मेहनत से कमायी हुई छोटी-सी आय को देखकर नाक-भौं सिकोड़ लेती थीं। स्वाति तुमने कभी मेरी मेहनत और ईमानदारी की सराहना नहीं की, न कभी मेरी हौंसला अफजायी की।

जब भी हमारी रसोई का राशन खत्म हो जाता या घर का कोई उपकरण खराब हो जाता था, तो मेरी तो मानो सिट्टी-पिट्टी ही गुम हो जाती थी। मैं मन-ही-मन सोचने लगता था कि अब मुझे कामचोर और नाकारा कहा जायेगा। मुझे अब यह ताना सुनना होगा कि मैं इतना भी नहीं कमा पाता हूं कि घर का कोई सामान खराब हो जाये, तो उसकी मरम्मत करवा लूं, या कोई नया उपकरण ले आऊं।

तुम्हारा मानना था कि मैं जानबूझकर मेहनत नहीं चाहता हूं। मैं कामचोर और हरामखोर हूं। लेकिन यह मात्र तुम्हारी धारणा थी, जबकि मैं क्या, मेरे जैसा कोई भी इंसान, पैसा कमाना चाहेगा। वह भी चाहेगा कि मैं आधुनिक युग का कहलाऊं। आधुनिक सुख-सुविधाओं को भोगूं। लेकिन स्वाति, हर इंसान की किस्मत में हर चीज नहीं होती है। लेकिन तुम्हारा तो किस्मत के लिये भी यही कहना था कि इंसान अपनी किस्मत स्वयं बनाता है। मैं भी यही सोचता था, कि किस्मत इंसान स्वयं बनाता है, लेकिन मेरी वो सोच एकदम खोखली साबित हुई, क्योंकि सत्य वो नहीं, सत्य यह है कि आज के स्वार्थी और लालची जमाने में इंसान की प्रतिभा, मेहनत और ईमानदारी की कोई कीमत और कद्र नहीं रही है।

स्वाति तुम्हारे ऊपर तुम्हारी इच्छाएं इस कदर हावी हो चुकी थीं, कि तुमने महापुरुषों की उन बातों को भी बिसरा दिया, कि इंसान को उसकी किस्मत से ज्यादा और समय से पहले कुछ नहीं मिलता है। तुम मुझे सजेस करा करती थीं कि मेरे जो मित्र आर्थिक रूप से बेहद सक्षम हैं, या वो जिन जगाहों पर स्थापित हैं, मैं उनसे कहकर अपने लिये मदद मांगू, लेकिन मैं तुम्हारे सजेस करने से पहले ही अपने ऐसे सारे दोस्तों को टटोल चुका होता था, जिसको पता चल जाता था कि मैं आर्थिक रूप से कमजोर चल रहा हूं, वही मेरा फोन रिसीव करना बंद कर देता था।

स्वाति मैं तुम्हें बताना चाहता हूं कि आज कृष्ण और सुदामा जैसे दोस्त नहीं रहे। आज के स्वार्थी जमाने में जीजस क्राइस्ट का वो संदेश भी धूमिल हो गया है कि अगर कोई वस्त्रहीन है, तो उसे अपने वस्त्र दे दो, और कोई भूखा है, तो उसे अपने भोजन में से खिला दो।

तुम धैर्यविहीन ही नहीं, तुम बहुत उतावली भी हो स्वाति। तुम किसी भी काम का तुरंत परिणाम चाहती हो, और तुरंत परिणाम तो एक विनाशक विस्फोटक ही दे सकता है, जिससे धन-जन की हानि तो हो सकती है, मगर कोई लाभ नहीं। स्वाति, मैं तुम्हे एक बात और बताना चाहता हूं, वो यह कि तुम किसी भी काम को दूरगामी दृष्टि से नहीं देखती हो, जो तुम्हारे जीवन की बड़ी भूल भी हो सकती है।

तुम्हें याद होगा स्वाति, तुम्हारी ही प्रेरणा से मैं लेखन के क्षेत्र में सक्रिय हुआ। फिर भी मेरी लेखनी हमेशा तुम्हारे निशाने पर रही। मेरी लिखी जो कहानी तुरंत छप गयी, और उससे अच्छा पैसा मिल गया, वो तुम्हारी नजर में कहानी थी, बाकी सब बेकार और रद्दी कागज हुआ करता था। तुम हमेशा मेरी लेखनी को लेकर यही ताना मारा करती थीं, कि ऐसी लेखनी से क्या फायदा, जो समय पर पैसा न दे सके। और जो पैसा मिलता भी है, वो घर-गृहस्थी चलाने के लिए पर्याप्त नहीं होता है। यहां पर मैं तुम्हारे आशय को अच्छी तरह समझ जाता था, कि तुम यही चाहती हो, कि जिस काम में पैसा नहीं मिल रहा है, उसे छोड़कर कोई ऐसा कार्य करना चाहिए, जिसमें भरपूर पैसा मिल सके।

लेकिन सुनहरे कल के इंतजार में मैं उम्र के उस दो राहे पर आकर खड़ा हो चुका था, जहां से मुझे सरकारी या अच्छी गैर सरकारी नौकरी मिलना मुश्किल ही नहीं असम्भव भी था। इसलिए मेरे सामने आय का सिर्फ एक ही साधन बचा था, और वो था, लेखन। स्वाति यहां मैं एक बात और कहना चाहूंगा, कि लेखक कल्पना का जो बीज कहानी अथवा लेख के रूप में बोता है, यह जरूरी नहीं कि वो बीज तुरंत अंकुरित होकर पुष्पित और पल्लवित भी हो जाये? उसके फल की हमें कभी महीनों तो कभी सालों भी प्रतीक्षा करनी होती है। वैसे भी लेखक एक साधक होता है, और वह कल्पना में लीन होकर स्वयं को भी भूल जाता है। लेकिन मैं वैसा साधक नहीं बन पाया, क्योंकि मुझे तुम्हारी और हमारे बच्चों की कल्पना से बाहर निकलने का कभी अवसर ही नहीं मिल पाया। मेरी कल्पना में हमेशा तुम और हमारे बच्चे ही रहे और तब तक रहेंगे, जब तक इस शरीर में प्राण रहेंगे।

स्वाति, मैं नहीं चाहता था कि मैं मुम्बई आऊं, क्योंकि मुझे मालूम था कि तुम सांसारिकता और व्यवहारिकता में परिपक्व नहीं हो, तुम्हें अभी भी मेरी जरूरत है। स्वाति मैं तुम्हें बहुत बड़ी नहीं, लेकिन छोटी-छोटी खुशियां देकर हमारे छोटे से परिवार को समेट कर रखना चाहता था। पर तुम्हें ऐसा लगता था, जैसे मैं मुम्बई आकर रातो-रात बड़ा राइटर बन जाऊंगा। मेरी यहां अच्छी पहचान और पकड़ है, जिसके सहारे मेरे पास काम की कमी नहीं रहेगी और मैं तुम्हारी इच्छानुसार बहुत पैसा कमा लूंगा। अगर मैं मुम्बई आने के लिए न-नुकर करता, तो तुम मुझ पर इल्जाम लगा देतीं, कि मैं मुम्बई जाना ही नहीं चाहता हूं। मैं बहुत ज्यादा पैसा कमाना ही नहीं चाहता हूं। मैं नहीं चाहता कि तुम खुशहाल जिन्दगी बसर करो आदि-आदि।

स्वाति, मैं तुम्हें बता दूं कि हर शहर का अपना अलग मिजाज होता है। वह किसे अपनाए, और किसे ठुकराये, यह उसके ऊपर निर्भर करता है। इसके अलावा इस शहर की एक और फितरत है, वो यह कि इस शहर के लोग अपने होकर भी अपने नहीं होते। छोटे शहरों में इंसान जितने पैसों में तीन टाइम का खाना पेट भर के खा सकता है, उससे मंहगा तो यहां एक दिन पीने का पानी मिलता है। जबकि मेरे पास तो यहां रहने के लिए न घर था और न सफर करने के लिए पर्याप्त पैसा। फिर भी तुम्हारी आलोचनाओं, तानों और आरोपों से बचने के लिए मैं बिना सोचे-विचारे, बिना किसी योजना के यहां चला आया।

स्वाति तुम्हें याद होगा। हमारे गमले में स्वतः ही एक नीबू का पौधा उग आया था। तुमने इस उम्मीद से उसमें खाद पानी देना शुरू कर दिया, कि जल्द ही उस पेड़ से हमें नीबू प्राप्त होने लगेंगे। छह महीने तक तुमने उसकी खूब देख-भाल की। इस अवधि में वो एक अच्छा-खासा पेड़ बन गया। पर उसपे नीबू नहीं आते देख, तुम्हें निराशा होने लगी। तुमने एक दिन मुझसे कहा, ‘‘लगता है यह पेड़ जंगली है इस पर नीबू नहीं आयेंगे, क्यों न हम इसे उखेड़ दें और इसकी जगह इस गमले में गुलाब का अच्छा-सा पौधा़ लगा लें....?’’

उस समय मैंने तुमसे यही कहा था, ‘‘स्वाति, जहां तुमने इस पेड़ को छह महीने तक पाला है, वहीं छह महीने और इंतजार कर लो, हो सकता है इसमें एक साल बाद या उससे भी ज्यादा समय बाद नीबू आने लगें...?’’

मेरे कहने पर तुमने उस नीबू के पेड़ को गमले में ही लगा रहने दिया था। संयोगवश जब पेड़ पूरे एक साल का हो गया, तो उस पर फूल आने लगा। उसके बाद उस पर नीबू आने शुरू हो गये। अचानक नीबू के पेड़ पर आते ढेर सारे नीबुओं को देखकर तुम बहुत खुश हुई थीं। स्वाति नीबू के पेड़ की बात मैंने तुम्हें इसलिए याद दिलायी, ताकि तुम इस बात से भली-भाँति परिचित हो जाओ कि इंसान द्वारा किया गया कोई भी कार्य व्यर्थ नहीं जाता, उसे एक-न-एक दिन उसके परिश्रम का फल अवश्य मिलता है। मैं मुम्बई के हिसाब से अपनी कहानियों को कमजोर मानता था। या यूं कह लो कि मुम्बई आने का मेरा वक्त नहीं था, लेकिन तुम्हारी जिद ने मुझे मुम्बई आने पर मजबूर कर दिया।

स्वाति, मैं तुम्हें यह नहीं बताऊंगा कि मुम्बई के आरंभिक दिन मैंने कहां और कैसे गुजारे। उन दिनों मैंने कितने दिन खाना खाया और कितने दिन भूखा रहा, कितने दिन सोया और कितने दिन जागा। तुम्हारे चेहरे पर मुस्कान लाने के लिए मैंने यहां किन मुश्किलों और परेशानियों का सामना किया, यह सब तुम्हें बताने से कोई फायदा नहीं होगा। तुमसे फोन पर बात होने, या तुम्हारे भेजे मैसेज को पढ़ने के बाद मैं महसूस करता हूं कि अब तुम खुश हो। तुम्हारे पास अब सारी सुख-

सुविधा की सारी आधुनिक चीजें हैं। हमारे बच्चे भी पढ़-लिखकर कामयाबी के मुकाम होंगे। इस बात की मुझे बेहद खुशी होती है।

स्वाति, एक तमन्ना थी कि अपने इकलौते बेटे के लिए एक छोटा-सा, किंतु अच्छा-सा घर बनाकर दूं, उसकी और अपनी बिटिया की शादी धूमधाम से करूं, जो मैं नहीं कर सका, जिसका अफसोस मुझे मरते दम तक रहेगा। क्योंकि चैबीस घण्टों में से बीस घण्टें मेहनत-मजदूरी करने के बाद मैं जितना भी कमा पाता था, वो सब मैं तुम्हें भेज देता था। रही बात मेरी, तो मैंने इन पन्द्रह सालों में न कभी पेट भरकर खाना खाया, और न अपना मकान बनाया। अब तक की सारी जिन्दगी दुकानों के छज्जों और ठेले के नीचे रहकर गुजार दी। इसीलिए, जब भी तुमने और बच्चों ने मेरे पास मुम्बई आने की इच्छा जाहिर की तो मैंने कोई-न-कोई बहाना बनाकर तुम्हें टाल दिया, क्योंकि मैं तुम्हें सच्चाई बताकर निराश नहीं करना चाहता था। तुमने कई बार फोन पर मुझसे कहा भी कि मैं तुमसे और बच्चों से नाराज हूं इसलिए तुम्हें और बच्चों को मुम्बई बुलाना नहीं चाहता हूं, तो वो सच्चाई नहीं थी, सच्च तो यह था कि तुम्हें और बच्चों को बुलाकर ठहराता कहां ? दुकान के छज्जों के नीचे या फिर ठेलों के नीचे ?

स्वाति, तुम और हमारे दोनों बच्चे शायद इसी भ्रम में जी रहे होगे कि मैं यहां मुम्बई में बड़ी-बड़ी फिल्मों की कहानियां लिख रहा हूं। मैं बड़ा राइटर बन गया हूं और मुझे अच्छी आमदनी हो रही है। मेरे पास रहने के लिए अच्छा मकान है और घूमने के लिए गाड़ी है। लेकिन वो सब मैंने तुमसे इसलिए झूठ बोला था ताकि तुम्हें किसी प्रकार की निराशा न हो। तुम खुद सोचो स्वाति, जो इंसान जिन्दगी के चालीस-पैंतालीस सालों में कामयाबी की एक सीढ़ी नहीं चढ़ पाया हो, वह रातों-रात कामयाब राइटर कैसे बन सकता है ? सच तो यही है स्वाति कि मेरे अन्दर का राइटर तो तभी मर गया था, जब मैं अपना शहर छोड़कर मुम्बई आया था।

ऐसा भी नहीं है स्वाति, कि मैंने राइटिंग के लिए प्रयास नहीं किया। मैंने पूरे डेढ़ साल तक बराबर प्रयास किया। इन डेढ़ सालों में मेरे अन्दर जितनी शक्ति और क्षमता थी, मैंने झोंक दी। इस बीच मैं न जाने कितने फिल्म निर्माता-निर्देशकों से मिला। उनकी खुशामद की, उनसे मिन्नते और गुजारिश की, लेकिन आश्वासन से सिवा मुझे किसी से कुछ नहीं मिला। अंत में जब मुझमें लोगों की खुशामद करने और संघर्ष करने की क्षमता नहीं बची, तो मैं निराश हो गया। उम्र के आखिरी पड़ाव पर आकर मैंने हार मान ली और सोच लिया कि राइटर बनना मेरी किस्मत में नहीं है।

तुम्हें और हमारे बच्चों को यही उम्मीद थी कि मैं लाखों रुपया कमाकर तुम्हें ऐश-ओ-आराम की जिन्दगी दूंगा, तो तुम्हारी उन्हीं उम्मीदों को पूरा करने के लिए अपने राइटर को मारकर मेहनत-मजदूरी में जुट गया। तब से अब तक मैं वही सब करके अपनी हड्डियों को गला रहा था और आत्मा को रुला रहा था।

स्वाति, पता नहीं क्यों, आज मुझे तुम्हारी बहुत याद आ रही है। बात-बात पर तुम्हारा मुझे झिड़कना, डांटना-फटकारना, मुझे जली-कटी सुनाना, झूठे आरोप लगाना और बात-बात पर ताने मारना। सब कुछ मुझे रह-रहकर याद आ रहा है। अब तो तुम्हें मेरे कपड़े भी नहीं धोने पड़ते होंगे, मेरे लिए खाना भी नहीं बनाना पड़ता होगा। तुम काफी आराम में होगी। स्वाति, मुझे इस बात का दुःख हमेशा रहेगा, कि तुम मुझसे कभी भी खुश नहीं रहीं। हमेशा तुम्हें मुझसे एक ही शिकायत रही कि मैं तुम्हारा ध्यान नहीं रखता हूं। मुझे तुम्हारी किसी बात की चिंता नहीं रहती। न तुम्हारे खाने की न पहनने की, न दुःख की, न हारी-बीमारी की। बात-बात पर तुम्हारा रूठ जाना, टूट जाना, और हिम्मत हार जाना, मुझे सब याद आ रहा है।

तुम्हें और हमारे बच्चों को देखने का मन तो बहुत कर रहा है स्वाति। मन कर रहा है कि जिन्दगी के इन आखिरी दिनों में तुम सब को गले से लगाऊं। लेकिन ऐसा हो नहीं सकता, क्योंकि अगर हम मिले भी, तो फिर वही पुरानी यादे ताजा हो जायेंगी और मन कड़वा हो जायेगा, जबकि सच यह है कि अब कड़वाहट झेली नहीं जायेगी।

तुम तो जानती हो स्वाति कि मुझे दिखावा, छलावा लगता है, और औपचारिकताएं निरी बेईमानी। इसलिए तुम भूलकर भी मेरे अंतिम संस्कार पर मत आना। आजकल किराये पर कांधा देने वाले और रोने वाले सब मिल जाते हैं। मैंने उन सबका किराया चुका दिया है। मैंने अपने अंतिम संस्कार की भी सारी तैयारियां कर ली हैं। स्वाति हो सके तो हमारे बच्चों को कभी मत बताना कि मैं मर गया या जीवित हूं।

एक आखिरी बात और सुन लो स्वाति, मैं इन पन्द्रह सालों में कितना भी टूटा, कितना भी रोया, मगर तुम्हें कभी नहीं कोसा। तुम्हें दिल से अपनी पत्नी माना और दिल से प्यार किया। मैं हमेशा तुम्हें परियों की रानी जैसा खूबसूरत बनाने का सपना देखता रहा, मुझे मालूम है कि अब तुम बहुत खूबसूरत दिखने लगी होगी। लेकिन अफसोस कि मैं तुम्हारी खूबसूरती को देख नहीं पा रहा हूं। बस तुम ऐसे ही अपने बच्चों के साथ हमेशा हंसती-मुस्कुराती रहना।

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