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मैं ईश्वर हूँ - 2

एक आवाज ,एक शब्द मुझे सुनाई दिया। आश्चर्य है इस शांत अंधकार में ये शब्द कैसा, ये आवाज क्या है। अब वो आवाज लगातार आने लगी, कुछ रुक-रुक कर पर लगातार। में उस आवाज को सुनकर बैचेन हो गया और अपने भ्रूण रूपी शून्य में घूमने लगा, उस शब्द को सुनने और उसकी बजह जानने के लिए। मुझे लगा शायद ये आवाज कुछ समय बाद बंद हो जाएगी, पर वो लगातार, अनवरत आ रही है।

इस शब्द से, आवाज से अब अंधकार डरावना सा लगने लगा, पहले जो आवाज मुझे अच्छी लग रही थी अब वही मुझे डराने लगी। पर में ये भी जानना चाहता था कि ये आवाज आ कहाँ से रही है। में बहुत ध्यान से, अपने डर को अलग करके आवाज को सुनने लगा। अचानक मुझे जैसे कुछ समझ आया हो,

"हाँ ये आवाज तो मेरे पास से ही आ रही है, ये मेरे शून्य की आवाज है"
"पर शून्य तो मैं खुद हूँ, मतलब ये मेरी ही आवाज है, पर कैसे?"
"अगर ये आवाज मेरी है तो निश्चित ही ये मेरे अंतः-मन की आवाज है, मतलब मेरा अवचेतन मन, अब सचेतन हो गया है, उसमे चेतना का प्रादुर्भाव होने लगा है?
"आह ह: आखिरकार अब मुझे मेरे होने का अहसास होगा, में खुद को महसूस कर पाऊंगा"

ऐसे ही सोचते-सोचते बहुत सा समय व्यतीत हो जाता है पर मन के सचेतन होने का या मेरा, कुछ भी अहसास नाही होता है। आवाज अब अभी आ रही थी, रुक-रुक कर, पर अब मुझे इससे डर नहीं लग रहा है। क्योंकि मुझे पता है कि ये आवाज मेरे मन की ही है।

पर यह शब्द है क्या, इसका रहस्य क्या है? मैं एक बार फिर उसी आवाज में खो गया, उसमें एक अजीब सा आकर्षण था। उस लगातार होने वाले नाद से एक ऊर्जा निकलना चालू हो गई, और धीरे-धीरे इस ऊर्जा से मानो सम्पूर्ण ब्रह्मांड व्याप्त हो गया। अंधकार की काली स्याह परत हट गई और उसकी जगह सफेद कांति ने ले ली।

अब में स्पष्ट रूप से सब कुछ देख पा रहा हूँ, हाँ में देख पा रहा हूँ, बिना नेत्रों के भी देख रहा हूँ, मेरा मन इस समय मेरे नेत्र बन गया है।

मेरे मन की शक्ति से ही वो ऊर्जा निकल रही है और मेरे नेत्र न होते हुए भी मेरा मन मुझे सब कुछ दिखा रहा है, तब लगा मन ही सर्व शक्तिमान है।

जो इस गहन अंधकार की परत को एक क्षण में अपने प्रकाश से व्याप्त कर सकता है, जो उस आवाज को भी देख सकता है उसे नियंत्रित कर सकता है उससे बड़ा और ताकतवर भला कौन हो सकता है।

"पर ये मन, ये तो मेरा मन है मेरा अपना। मतलब ये सारी सक्तियाँ मेरी ही हैं, में अभी-अभी जिस मन को सर्वशक्तिमान कह रहा था, वो में स्वयं ही हूँ। मैं सर्वशक्तिमान हूँ, मुझसे ज्यादा ताकतवर कोई और नहीं।"

अगर मेरा मन अर्थात मैं इतनी ऊर्जा उत्पन्न कर सकता हूँ, इस आवाज को सुन सकता हूँ, सर्वशक्तिमान हूँ तो में कोंन हूँ? कोंन हूँ जो इतना शक्तिशाली है, हाँ सिर्फ एक ही है जो इतनी शक्तियाँ रखता है "ईश्वर"। तो क्या मैं ईश्वर हूँ, हाँ मैं ईश्वर हूँ"।

मुझे मेरे ईश्वर होने का अहसास मेरे मन, मेरी आत्मा ने कराया है, पर फिर.....

"अगर मैं ईश्वर हूँ तो इस दशा में क्यूँ हूँ, क्यों में एक शून्य समान रूप में विचरण कर रहा हूँ?"

इस समयँ मेरा अस्तित्व ही क्या है? में सिर्फ एक शून्य हूँ जो अँधकार रूपी गर्भ में पड़ा हुआ हूँ। और एक अनवरत नाद से कभी आनन्दित और कभी भयभीत हो रहा हूँ।

अचानक ही उस आवाज से एक प्रकाश-पुंज निकला, जो शून्य को जिसमें में था, भेदती हुई सीधी निकल गई। अब में उस प्रकाश-पुंज से चारों और से घिर गया। मेने अपने चेतन मन रूपी आंखों के द्वारा उस प्रकाश की देखा, पर उसका न तो कोई आदि था न कोई अंत, उसका कोई आकर भी समझ नही आया अर्थात वह निराकार है।

उसने अपने तेज-पुंज से सारे ब्रह्मांड को व्याप्त कर रखा है मतलब वो सर्वत्र है। जहां देखो सिर्फ वही है खोजने पर भी सिरा प्राप्त नही होता, उसके अंत और प्रारब्ध को समझना कठिन है वो अनंत है।

उसकी इस कांति से मंत्र-मुग्ध हुआ सा में उसे देख रहा हूँ, अपितु उसकी चमक से आंखे उस पर टिकती नहीं हैं, पर पता नहीं कैसे में उसे देख रहा हूँ। मैं जैसे उससे पूछना चाहता हूँ कि वो कौन है, उसका परिचय लेना और अपना परिचय उससे पूछना चाहता हूँ।

तभी एक विकट नाद हुआ, जिसका शब्द संपूर्ण जगह फेल गया, स्पष्तः उस नाद ने कहा था "मैं ओम हूँ", पर में शायद समझा नहीं तब एक बार फिर से आबाज आई "में मन हूँ" , में हीं ईश्वर हूँ। मैं तेरा मैन हूँ और जब तक मैं तुझमे हूँ तब तक तूँ मैं है अर्थात ईश्वर है। मेरे मन ने कहा "मैं ईश्वर हूँ"।

उस प्रकाश-पुंज की बातों को सुनकर भी मेने अनसुना कर दिया, और उसे ही ईश्वर मान कर उससे बहुत सी आशाएं लगाने लगा, अंदर ही अंदर उसका आदर करने लगा। वास्तव मै तो वो मेरा मन था जो मुझे ईश्वर होने का अहसास करवा रहा था, वो मुझे बता रहा था कि जो कुछ भी है वो मैं हूँ, मेरे कारण तूँ ईश्वर है, जब तक में तेरे साथ हूँ तब तक तूँ ईश्वर है।

पर मुझे कुछ भी समझ नहींआ रहा है, या में समझना नहीं चाहता । में अब भी अपने अवचेतन मन जिसे में सचेत समझ रहा था को ही सब कुछ समझ कर चल रहा था, वास्तव ये सत्य भी था बस अंतर था मेरे मानने और जानने में, में उसे मान तो रहा था पर जान नही रहा था।

अचानक जैसे सब शांत हो गया में एक बार फिर अपनीं पूर्व की अवस्था मे पहुंच गया, जहां में अब भी शून्य हूँ और चारों और से केवल अंधकार से घिरा हुआ हूँ। मगर वो आवाज अभी भी आ रही है, इस शून्य-काल की अवस्था में बिना आँखों के मेने बहुत कुछ देखा, बिना कानों के बहुत कुछ सुना और बिना अपना अस्तित्व हुए बहुत कुछ महसूस भी किया।

मेरे मन ने मुझे ज्ञान भी दिया, वो भी तब जब में उस ज्ञान को समझने के लिए उवयुक्त नही था। पर इस ज्ञान से एक बात तो स्पष्ट है कि मैं ईश्वर हूँ। क्यों कि ईश्वर न तो मृत है न जीवित है, न नर है और न मादा, न ही उसका कोई आकर है, वो अजन्मा है और वो सर्वदा सर्वत्र है। ठीक इसी तरह की अवस्था मे ही तो में हूँ, ये शून्यकाल इसी अवस्था का नाम तो है, मतलब मेरे मन द्वारा दिया गया ज्ञान सत्य है उसने कदाचित सत्य ही कहा है मुझसे की "मैं ईश्वर हूँ" ।