Hudson tat ka aira gaira - 37 books and stories free download online pdf in Hindi

हडसन तट का ऐरा गैरा - 37

न भूख, न प्यास, न नींद, न थकान और न बोरियत! कोई अपनी जगह से हिला तक नहीं। सब एकाग्रचित्त होकर सुन रहे थे बंदर महाराज की कहानी।
- मेरे पिता नाव लेकर युवाओं की भांति दुनिया भर में घूमने के लिए निकल तो गए पर उनके पास था क्या? न कोई धन- दौलत और न कोई कीमती सामान। थोड़े ही दिनों में फाकाकशी की नौबत आने लगी। चलो, शरीर ढकने के लिए तो उन्हें इधर- उधर कुछ न कुछ मिल भी जाता पर पेट भरने के लिए तो रोज़ सुबह- शाम कुछ न कुछ चाहिए ही था।
दुनिया की सैर में उन्हें कई तरह के लोग मिले। कभी किसी सयाने ने उन्हें कह दिया कि दुनिया में सबसे पौष्टिक और सुस्वादु भोजन किसी भी प्राणी का "मगज़" है। अर्थात दिमाग़ या मस्तिष्क।
बस, उन पर ये धुन सवार हो गई। उन्हें अपनी यात्रा में कभी भी कहीं कोई जीव- जंतु या इंसान ऐसा दिखाई देता जो मर चुका हो तो वो उसका दिमाग़ निकाल कर अपने पास रख लेते। कई बार टापुओं, तटों या वनों में उन्हें मृत या मरणासन्न मनुष्य भी मिले। वो ऐसे लोगों का मस्तिष्क निकाल कर अपने पास रख लेते और ज़रूरत पड़ने पर भोजन के रूप में उसका सेवन भी कर लेते।
बंदर महाराज से इतना सुनना था कि ऐश खुशी और आश्चर्य से उछल पड़ी। वह उत्तेजित होकर बोली - हां तुम ठीक कह रहे हो। मैंने तुम्हारे पिता को देखा है। वो हडसन तट पर एक दिन हमारे घर भी आए थे। वो समुद्र में एक भयंकर तूफ़ान में फंस गए थे। तब एक रात उन्होंने हमारे यहां विश्राम भी किया था। सुबह वो चले गए। ऐश बोलते- बोलते इतनी उत्तेजित हो गई कि उसकी सांसें तेज़- तेज़ चलने लगी। उसे ये भी ख्याल न रहा कि वो इतने महान संत बंदर महाराज को "आप" की जगह "तुम" कहने लगी है। शायद महाराज की बातों में इतनी सच्चाई थी कि ऐश उन्हें एक ऐसा छोटा बच्चा ही समझने लगी थी जिसका पिता उसे अकेला छोड़ कर चला गया हो।
बंदर महाराज और ऐश के वो तमाम दोस्त मुंह बाए उसे देखने लगे। सबके रोंगटे खड़े हो गए।
ऐश कहने लगी कि उन्होंने मृत प्राणियों के मस्तिष्क को खाने की बात उसे और उसके साथी रॉकी को भी बताई थी। बल्कि कुछ मगज़ उन्हें खाने के लिए भी दिए थे।
- अच्छा। बंदर महाराज बोले।
- हां, ऐश ने कहना जारी रखा। वह बताने लगी कि मस्तिष्क खाने से ऐसा असर होता था कि आपने जिस प्राणी का मस्तिष्क खाया हो, आप उसी की तरह व्यवहार करने लग जाते थे। इंसान का दिमाग़ खा लेने के बाद कई दिन तक मैंने और रॉकी ने भी मनुष्यों की तरह ही व्यापार भी किया था। हमने हडसन तट पर एक अजूबे प्राणियों की दुकान खोल ली थी जिन्हें हम शौकीन लोगों को बेच कर खूब धन कमाते थे।
ये सुन कर ऐश के सभी दोस्तों ने दांतों तले अंगुली दबा ली। सब उसे हैरानी से देखने लगे।
- बिल्कुल सही, बिल्कुल ठीक। सच बात है। बंदर महाराज भी बोले।
बंदर महाराज ने बताया कि फ़िर कुछ समय पहले ही उनके पिता अपनी यात्रा पूरी करके वापस लौट आए।
लौट कर आने तक वो बहुत बूढ़े और जर्जर हो गए थे। उनका शरीर सूख कर कांटा हो गया था। वह इतने जर्जर हो गए थे कि चल फ़िर भी नहीं पाते थे। बस कांपते- हांफते हुए पड़े रह कर अपने बेटे को अपनी यात्रा के सारे अनुभव सुनाते रहते थे।
उन्होंने ही अपने पुत्र बंदर महाराज को एक विचित्र बात बताई। वो कहते थे कि यात्रा से लौटते समय उन्हें जंगल में रात्रि - विश्राम करते समय एक विलक्षण पुरुष से ये भी पता चला कि इस तरह किसी के मस्तिष्क को खा लेने का परिणाम भी विचित्र होता है। आपने जिसका दिमाग़ खाया है वो प्राणी यदि दिमाग़ निकाले जाते समय पूरी तरह मरा न हो तो कुछ समय बाद आप भी उसी प्राणी का रूप ले लेंगे जिसका जीवित मस्तिष्क आपने खा लिया हो।
ओह! सभी श्रोता चकित रह गए। वो मंत्रमुग्ध होकर सुनने लगे।
बंदर महाराज ने बताया कि उनके पिता का देहांत कुछ समय पहले ही हुआ। उन्होंने मरने से पहले बेटे को बताया कि ऐसा केवल दो बार हुआ जब उन्होंने एक घायल छटपटाते हुए बंदर और एक बेहोश पड़े शिकारी का मस्तिष्क निकाला था।
किस्सा कुछ इस तरह था। पिता अपनी यात्रा में नाव से पानी के किनारे- किनारे जंगलों से गुज़र रहे थे कि उन्होंने एक भयानक बाघ को एक बंदर पर हमला करते हुए देखा। शायद किसी आहट को पाकर बाघ तत्काल वहां से भाग गया। पिता ने दूर से तड़पते हुए बंदर को देखा तो नाव रोकी और उसके पास जा पहुंचे। घायल बंदर की हालत लगभग मरणासन्न ही थी। उन्होंने उसका मगज़ निकाल लिया और बंदर को वहीं पड़ा छोड़ कर चले आए।
पिता की मौत के बाद शायद वही मस्तिष्क किसी दिन अनजाने में बंदर महाराज ने खा लिया।
और एक दिन अचानक बैठे- बैठे वो इधर- उधर उछलने - कूदने लगे!