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पंडित राहुलसंस्कृत्यायन एव बौद्ध दर्शन

पण्डित राहुल सांकृत्यायन एव बौद्ध दर्शन-----

जीवन परिचय-----

पंडित राहुल सांकृत्यायन को उनकी अन्वेषी प्रबृत्ति उन्हें घुमक्कड़ बनाती विश्व के अनेक संस्कृतियों भाषाओं एव परिवेश को आकर्षित करती है। पंडित राहुल सांकृत्यायन का जन्म आजमगढ़ के पंदहा गांव में नौ अप्रैल सन अठ्ठारह सौ तिरानवे को हुआ था उनको महापंडित कि उपाधि प्राप्त थी
उनके वाल्यकाल का नाम केदारनाथ पांडेय था उनके पिता गोवर्धन पांडेय धार्मिक विचारों के व्यक्ति थे उनकी माता कुलवंती माता पिता की इकलौती संतान थी बचपन मे माता पिता का देहांत हो जाने के कारण पालन पोषण नाना राम शरण पाठक एव नानी ने किया प्रारंभिक शिक्षा गांव के मदरसे से हुई । किशोरावस्था में ही राहुल ने घर छोड़ दिया और एक मठ पर गए लेकिन अपनी घुमक्कड़ी प्रबृत्ति के कारण चौदह वर्ष की अवस्था मे कलकत्ता चले गए ज्ञान प्राप्त करने की जिज्ञासा के कारण सारे भारत का भ्रमण करते रहे। राहुल का जीवन जीवन रचना धर्मिता की यात्रा थी।जहां भी गए वहां की भाषा बोली एव संस्कृति अर्थव्यवस्था का अध्ययन किया ब्रिटिश शासन के दौरान समाज सुधारकों एव कांग्रेस से प्रभवीत हुये बिना नही रह सके किसान नेता का लंबा सफर तय किया सन ऊँन्नीस सौ तीस में लंका में बौद्ध धर्म दीक्षित हुये रामोदर साधु से राहुल हो गए उनकी अद्भुत तर्क शक्ति एव ज्ञान भंडार को देखकर काशी के पंडितों ने उन्हें महापंडित की उपाधि प्रदान किया।राहुल का विवाह बचपन मे हो चुका था फिर भी उन्होंने ऊँन्नीस सौ सैंतीस में लेलिन ग्राड के एक स्कूल में संस्कृत अध्यापक कि नौकरी की उसी दौरान एलेना नामक महिला से दूसरी शादी की जिससे पुत्र रत्न कि प्राप्ति हुई ।छत्तीस भाषाओं के ज्ञाता राहुल उपन्यास, निबंध, कहानी, आत्म, कथा संस्मरण एव जीवनी आदि आदि विधाओं में साहित्य सृजन किया।
1916 आते आते राहुल का झुकाव बौद्ध धर्म की ओर हो चुका था जिसके कारण पाली प्राकृति अपभ्रंश आदि भाषाओं का अध्ययन किया 1917 कि रूसी क्रांति से प्रभवीत राहुल भारतीय किसान महासभा के महासचिव भी रहे उन्होंने तिब्बत की चार बार यात्रा किया एव बहुत साहित्य वहां से लेकर आये 1932 में यूरोप 1935 जापान कोरिया की यात्रा किया ।



बौद्ध दर्शन--

ईश्वर को नही मानना अन्यथा मनुषयः स्वय अपना मालिक है इस सिंद्धान्त का विरोध होगा।
आत्मा को नित्य नही मानना अन्यथा नित्य मानने पर उसकी परिशुद्धि और मुक्ति के लिये गुंजाइश नही रहेगी।
किसी ग्रन्ध को प्रमाण नही मानना अन्यथा बृद्धि एव अनुभवों की प्रामाणिकता समाप्त हो जाएगी।
जीवन प्रवाह को इसी शरीर तक परिमित ना मानना अन्यथा जीवन एव उसकी विचित्रताये कार्यकारण नियम से उतपन्न ना होकर सिर्फ आकस्मिक घटनाएं रह जाएंगी।
चार प्रमुख बाते बौद्ध धर्म मे सर्वमान्य है -
ईश्वर है लेकिन प्रश्न यह उठता है कि ईश्वर किस प्रकार का है जैसे उपादान कारण घड़े का कारण मिट्टी तथा कुंडल का कारण सुवर्ण है
यदि ईश्वर जगत का उपादान कारण है बहुत स्पष्ट एव प्रमाणित है की सृष्टि युग जगत ईश्वर का ही रूपांतरण है तो क्या दया सेवा क्रूरता बुराई अच्चाई सुख दुख संसार मे ईश्वर से ईश्वर में है यहां ईश्वरीय अपेक्षा सुखमय से दुखमय अधिक है ईश्वर दयालु से अधिक क्रूर एव दुख दाता है संसार मे प्रत्येक प्राणी एक दूसरे का ग्राहक है जैसे कि बकरी हिरन घास पर निर्भर है और शेर बकरी हिरन पर दृश्य अदृश्य सारा ही जगत एक विस्मयकारी युद्धक्षेत्र है जहां हर प्राणी जीवन प्राण का नित्य युद्ध लड़ रहा होता है जिसमे निर्बल सबल का ग्रास बन जाता है।पुनर्जन्म मानने वालों को धर्म को इसे अर्ध स्वीकृत प्राप्त सम्भव है।
निमित्त कारण माना जाय अर्थात जगत का निर्माण वैसे ही है जैसे कुम्हार घड़े का या सुनार कुंडल का प्रश्न यह है कि क्या वह बिना किसी उपादान कारण के वह जगत को बनाता है कार्य कारण सिंद्धान्त ही स्वतः समाप्त हो जाता है जगत को देखकर उसके कारण ईश्वर को मानने की जरूरत क्या है यदि बिना कारण ही ईश्वर द्वारा माया स्वरूप जगत की संरचना की गई है उस स्थिति में प्रत्यक्ष माया मय होने पर ईश्वर के अनुमान ही किस कारण से सम्भव है
यदि उपादान कारण से बनता है कुम्हार कि भांति अलग रहकर बनाता है या उसमें व्यप्त हो होकर क
अलग रहने पर सर्वव्यापक नही हो सकता है और सृष्टि निर्माण में उंसे सहयोग एव सहायक की आवश्यकता होगी विद्युतकणों से भी सूक्ष्म नवकणो
तक पहुचने और उसके मिश्रण से स्थूल बनाने में किस शस्त्र का प्रयोग करेगा यदि शत्र का ही प्रयोग उंसे करना होगा तो सर्व शक्तिमान नही होगा यदि उपादान कारण से सर्व व्यापक मान लिया जाय तब भी उपादान कारक के बिना निर्माण करने में सक्षम नही होगा तो सर्व शक्तिमान कैसे?
ना वह उपादान कारण हो सकता है ना ही निमित्त फिर भी जगत का कोई आदि कारण होना अनिवार्य नही है
प्रश्न करने पर की उसका कारण कौन उसका कारण कौन ? उत्तर में जगत किसी शुक्ष्मतम वस्तु या उसकी विशेष शक्ति पर ही स्थिर रहने दिया जाय तो ईश्वर तक क्यो अतः ईश्वर को दूसरा कारण तो माना जा सकता है आदि कारण नही।
ईश्वर सृष्टिकर्ता है यह सत्य बौद्ध दर्शन नही स्वीकार करता क्योकि सृष्टि अनादि है उंसे किसी कर्ता की आवश्यकता नही है क्योंकि कर्ता होने की स्थिति में उंसे कार्य से पहले उपस्थित होना होगा यदि सृष्टि आदि है तो सचित्य अनंत वर्षों से लेकर सृष्टि उतपन्न होने तक क्रिया रहित ईश्वर के होने का क्या प्रमाण है ?क्रिया ही उसके अस्तित्व का प्रमाण हो सकती है ईश्वर मानने पर मनुष्य को उसके अधीन मानना पड़ेगा मनुष्य अपना स्वामी है सिंद्धान्त समाप्त हो जाता है और मनुष्य के लिये शुद्धि एव मुक्ति के यत्न की गुंजाइश समाप्त हो जाती है और धर्म मार्ग एव उनके रास्ते निष्फल है
ईश्वर ना मानने पर मनुष्य वर्तमान में जो कुछ भी है वह स्वय के शक्ति पर निर्भर है और भविष्य में जो कुछ भी होगा वह भी अपने ही कर्म पर मनुष्य की स्वतंत्रता ही धर्म की सार्थकता हो सकती है।
आत्मा की नित्य ना स्वीकार करना---
ब्राह्मण परिब्राजक एव बिभिन्न मतों के आचार्य थे
मानते थे शरीर के भीतर एव शरीर से भिन्न एक नित्य चेतन शक्ति है जिसके आने से शरीर मे उष्णता एव ज्ञान पूर्वक चेष्टा दृष्टिगत होती है जब वह शरीर छोड़ कर कर्मानुसार शरीरान्तर में चली जाती है तब शरीर शीतल चेष्टारहित हो जाता है इसी नित्य चेतन शक्ति को आत्मा कहा जाता है पुनर्जन्म को छोड़कर अन्य मतों के अनुसार शरीर से अलग कोई किसी का कोई अस्तित्व नही है यानी आत्मा कोई चीज नही है शरीर मे बिभिन्न रसों के कारण उष्णता और चेष्टा का जन्म होता है रसों में विकृति से चली जाती है।
शरीर पल प्रति पल परिवर्तित होता रहता है पांच वर्ष एव पच्चीस वर्ष के शरीर मे अंतर होता है एक एक अणु जिससे शरीर बनता है प्रतिपल नवोतपन्न के लिये स्थान खाली करता रहता है शरीर निर्मापक परमाणु का उत्तराधिकारी बहुत सी बातों में सादृश्य होता है यद्यपि पहले वर्ष का शरीर दसवें वर्ष में नही रहता है बीसवें वर्ष दसवें वर्ष वाला समाप्त हो चुका होता है मोटे तौर पर शरीर को एक कहते है आत्मा में पल प्रति पल बदलाव होता रहता है शदृष्य परिवर्तन के कारण उसे एक कहा जाता है उदारणार्थ कभी सिगरेट के धुंए से घृणा करने वाला सिगरेट पिता है तो कभी शिकार को तड़पडा तड़पडा कर मारने वाला तड़पदाहट देख कर स्वय तड़फड़ाने लगता है यदि मन के झुकाव एव प्रबृत्ति को लिखने रहने देने का अभ्यास है तो अपने ही पिछले दस वर्षों की डायरी पढ़ डालिये जाने कितने ही विचार मिल जाएंगे। यदि उन विचारों में से कोई भी आपके समक्ष प्रस्तुत करे तो आप स्वीकार नही कर पाएंगे
मन बदलता है आत्मा नही बदलती मगर मन से परे आत्मा नाम की किसी वस्तु का आस्तित्व ही नही है
आत्मा ईश्वर के अस्तिव को राहुल स्वीकार नही करते बौद्ध धर्म में आस्था होने के कारण अनीश्वर एव ईश्वरवाद एव जगत जीव की वास्तविकता को उसकी स्वय की कायांतरण सिंद्धान्त के स्वरूप में ही स्वीकार करते थे पुनर्जन्म को अस्वीकार करते हुये प्राणि के कर्म के परिणाम को जगत में उसकी वर्तमान स्थिति से ही परिभाषित राहुल ने अपनी लेखनी के द्वारा किया है पंडित जी लेनिन एव रूसी क्रांति से बहुत प्रभवीत थे जन्म एव लालन पालन उनका हिन्दू संस्कृति धर्म हुआ था परन्तु उन्होनें अपने भ्रमण के अनुभवों के आधार पर अपने जीवन के मौलिक मुल्यों को उन्होंने स्वय निर्धारित किया उनका स्पष्ट मानना था कि मनुषयः की स्वतंत्रता उसकी अपनी दौलत है जिसके लिये ना तो ईश्वरीय संस्कृति का आवरण की आवश्यकता है ना ही आत्मा के ईश्वरीय अंश की स्वीकार्यता की आवश्यकता है उनके अनुसार शरीर का निर्माण अणु कि सतत प्रक्रिया है एव उसकी चेतना उसके अवयव के रस से निर्मित होना एक सतत प्रक्रिया है जिससे चेतना का सांचार होता है ।
निष्कर्ष में कहा जा सकता है कि पंडित राहुल सांकृत्यायन का बौद्ध दर्शन स्वयं के अनुभवों एव मनुषयः की भौतिकता पर आधारित वैगयानिक व्यख्या है।

नन्दलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर गोरखपुर उत्तर प्रदेश।।