Leela book and story is written by अशोक असफल in Hindi . This story is getting good reader response on Matrubharti app and web since it is published free to read for all readers online. Leela is also popular in Fiction Stories in Hindi and it is receiving from online readers very fast. Signup now to get access to this story.
लीला - Novels
by अशोक असफल
in
Hindi Fiction Stories
जिन दिनों कुएँ भरे पड़़े थे और नहर-बम्बों में पानी का पार न था, सारा गाँव धान की खेती करता। वह भी अपने नौजवान पति लाल सिंह के संग मिलकर पानी और कीचड़ से भरे खेत में धोती का कछोटा मारकर रुपाई करती और फसल पक जाने पर कटाई। घर में पालतू जानवरों में एक जोड़ी बैल, एक भैंस और एक गाय थी। भैंस उसके बाप ने दी थी और गाय पहले से थी। लाल सिंह की अंधी और बूढ़ी माँ के अलावा वे दो जन ही थे। अभी कोई बाल-बच्चा न हुआ था।
उन्हीं दिनों फ़ौज में भरती खुली तो लाल सिंह गाँव के दूसरे नौजवानों के साथ भाग्य आजमाने चला गया। क़द-काठी ठीक थी और दौड़-कूद भी, सो देह के बल पर वह भरती होकर ही लौटा। इस बात पर लीला तो ख़ुशी से भर गई कि चलो खेती-किसानी से पिण्ड कटा! पर अंधी घबड़ा गई। वह भाँति-भाँति से केरूना करने लगी,
‘‘हे ऽ राम! अब मोइ को बारेगो! लला तो चले, हम कौन के हैके रहेंगे...? खेत डंगरियन को का होगो भय्या! ए-मेए पूत! तू जिन जा, बा काल के ठौर...हम तो मठा पीकें गुजर करि लेंगे...।’’
लीला एक सामाजिक उपन्यास है। यदि अंग्रेजी का कोई अच्छा अनुवादक इसे अंग्रेजी में अनुदित कर बुकर पुरस्कार के लिए भेज दे तो यह जरूर शॉर्टलिस्ट हो जाएगा। क्योंकि यह बुकर ज्यूरी की मनोवृति के अनुकूल है।
पर मन साफ़ था लीला का और उसे अपने आदमी का भी ख़्याल था! सुहागिन है तभी तो सारा बनाव-शृंगार है! और सजधज के रहती है, इसका मतलब ये तो नहीं कि किसी को नौतती है! वो तो पूरी ...Read Moreसे अपनी गृहस्थी में जुटी थी। सास की सेवा-टहल, खाना-पीना; जानवरों का सानीपट्टा, दुहाऊ, सफ़ाई, नहलाना-धुलाना सब नियमित...। अजान सिंह को सफलता नहीं मिल पा रही! सब नए-नए गाने और डायलोग मुत गए उसके। ‘‘बड़ी पक्की है बेट्टा-आ, वा ने अपंओ कामु हनि के बाँधि लओ-ए!’’ ‘‘ही-ही-ही-ही, ही! ही-ही...’’ मज़ाक उड़ता उसका अहीर थोक के लौंडों के बीच। और तभी
घटना का असर इतना घातक हुआ कि डोकरी का बोल चिरई माफ़िक हो गया! देर तक हाथ-पाँव न डुलाती तो नब्ज़ टटोलकर तसल्ली करना पड़ती। लीला के भी काजर, बिंदी, लाली, पाउडर छूट गए थे। घर में मरघट-सी शांति ...Read Moreरहती जिसे पड़िया-बछिया या गाय-भैंस रँभाकर यदा-कदा तोड़तीं। चौबीसों घंटे भाँय-भाँय मची रहती। तब...महीनों बाद चाचा-चाची, भाई-भौजाई ने बात उकसाई कि ‘कहीं बैठ जाय-वो! फलाँ जगह वो दूजिया है, फलाँ जगह वो है! अरे, घर में ही कोई देवर-जेठ कुंवारा या रंड़ुआ होता तो अंत ठोर काए चिताउते?’ ‘पर या में कोई बुराई नईं है। हम लोगन में तो ऐसो
सुनने में आता कि डोकरी कभी-कभी बहुत ज़्यादा बड़-बड़ कर उठती है! पर लीला कोई ध्यान न देती। उसे उसकी नसीहत, फ़िक्र और अवस्था पर दया आती। और वो सेवा-टहल में ज़रा भी कसर न रख छोड़ती। इसके अलावा ...Read Moreअपने भविष्य का भी ख़्याल था! सुनने में आ रहा था कि सरकार युद्ध विधवाओं को ज़मीनें और मकान दे रही है! उसे अनुकम्पा नियुक्ति भी तो मिल सकती है? इसी उम्मीद में वह ज़िला मुख्यालय तक दौड़ती थी। पहले अकेली दौड़ती थी और अब अजान सिंह मिल गए थे। उनके लिये साइकिल बड़ा वरदान सिद्ध हुई। क्योंकि साइकिल पर
घर देर से लौटने पर उसे डोकरी सोई पड़ी मिली। फिर उसकी खटर-पटर से नींद उचट भी गई तब भी वह मरी-सी पड़ी रही। ज्यों-ज्यों दम निकलता जा रहा था, उसकी चेतावनियाँ मिटती जा रही थीं। बूढ़ी ने ज़माना ...Read Moreथा...और यह बात उसके अनुभव में थी कि थाली रखी हो तो एक बार भूख ना भी लगे, पर न हो तो वही भूख डायन बन जाती है...। गाँव के चप्पे-चप्पे में अब तो ख़ासा मशहूर हो गए थे वे। घरों में, पथनवारों पर; गढ़ी पर जहाँ कि औरतें फ़राग़त को जातीं, उनके किस्से चलते। रोज़ एक नया शगूफ़ा गढ़ा