लीला - Novels
by अशोक असफल
in
Hindi Fiction Stories
जिन दिनों कुएँ भरे पड़़े थे और नहर-बम्बों में पानी का पार न था, सारा गाँव धान की खेती करता। वह भी अपने नौजवान पति लाल सिंह के संग मिलकर पानी और कीचड़ से भरे खेत में धोती का कछोटा मारकर रुपाई करती और फसल पक जाने पर कटाई। घर में पालतू जानवरों में एक जोड़ी बैल, एक भैंस और एक गाय थी। भैंस उसके बाप ने दी थी और गाय पहले से थी। लाल सिंह की अंधी और बूढ़ी माँ के अलावा वे दो जन ही थे। अभी कोई बाल-बच्चा न हुआ था।
उन्हीं दिनों फ़ौज में भरती खुली तो लाल सिंह गाँव के दूसरे नौजवानों के साथ भाग्य आजमाने चला गया। क़द-काठी ठीक थी और दौड़-कूद भी, सो देह के बल पर वह भरती होकर ही लौटा। इस बात पर लीला तो ख़ुशी से भर गई कि चलो खेती-किसानी से पिण्ड कटा! पर अंधी घबड़ा गई। वह भाँति-भाँति से केरूना करने लगी,
‘‘हे ऽ राम! अब मोइ को बारेगो! लला तो चले, हम कौन के हैके रहेंगे...? खेत डंगरियन को का होगो भय्या! ए-मेए पूत! तू जिन जा, बा काल के ठौर...हम तो मठा पीकें गुजर करि लेंगे...।’’
लीला एक सामाजिक उपन्यास है। यदि अंग्रेजी का कोई अच्छा अनुवादक इसे अंग्रेजी में अनुदित कर बुकर पुरस्कार के लिए भेज दे तो यह जरूर शॉर्टलिस्ट हो जाएगा। क्योंकि यह बुकर ज्यूरी की मनोवृति के अनुकूल है।
पर मन साफ़ था लीला का और उसे अपने आदमी का भी ख़्याल था! सुहागिन है तभी तो सारा बनाव-शृंगार है! और सजधज के रहती है, इसका मतलब ये तो नहीं कि किसी को नौतती है! वो तो पूरी ...Read Moreसे अपनी गृहस्थी में जुटी थी। सास की सेवा-टहल, खाना-पीना; जानवरों का सानीपट्टा, दुहाऊ, सफ़ाई, नहलाना-धुलाना सब नियमित...। अजान सिंह को सफलता नहीं मिल पा रही! सब नए-नए गाने और डायलोग मुत गए उसके। ‘‘बड़ी पक्की है बेट्टा-आ, वा ने अपंओ कामु हनि के बाँधि लओ-ए!’’ ‘‘ही-ही-ही-ही, ही! ही-ही...’’ मज़ाक उड़ता उसका अहीर थोक के लौंडों के बीच। और तभी
घटना का असर इतना घातक हुआ कि डोकरी का बोल चिरई माफ़िक हो गया! देर तक हाथ-पाँव न डुलाती तो नब्ज़ टटोलकर तसल्ली करना पड़ती। लीला के भी काजर, बिंदी, लाली, पाउडर छूट गए थे। घर में मरघट-सी शांति ...Read Moreरहती जिसे पड़िया-बछिया या गाय-भैंस रँभाकर यदा-कदा तोड़तीं। चौबीसों घंटे भाँय-भाँय मची रहती। तब...महीनों बाद चाचा-चाची, भाई-भौजाई ने बात उकसाई कि ‘कहीं बैठ जाय-वो! फलाँ जगह वो दूजिया है, फलाँ जगह वो है! अरे, घर में ही कोई देवर-जेठ कुंवारा या रंड़ुआ होता तो अंत ठोर काए चिताउते?’ ‘पर या में कोई बुराई नईं है। हम लोगन में तो ऐसो
सुनने में आता कि डोकरी कभी-कभी बहुत ज़्यादा बड़-बड़ कर उठती है! पर लीला कोई ध्यान न देती। उसे उसकी नसीहत, फ़िक्र और अवस्था पर दया आती। और वो सेवा-टहल में ज़रा भी कसर न रख छोड़ती। इसके अलावा ...Read Moreअपने भविष्य का भी ख़्याल था! सुनने में आ रहा था कि सरकार युद्ध विधवाओं को ज़मीनें और मकान दे रही है! उसे अनुकम्पा नियुक्ति भी तो मिल सकती है? इसी उम्मीद में वह ज़िला मुख्यालय तक दौड़ती थी। पहले अकेली दौड़ती थी और अब अजान सिंह मिल गए थे। उनके लिये साइकिल बड़ा वरदान सिद्ध हुई। क्योंकि साइकिल पर
घर देर से लौटने पर उसे डोकरी सोई पड़ी मिली। फिर उसकी खटर-पटर से नींद उचट भी गई तब भी वह मरी-सी पड़ी रही। ज्यों-ज्यों दम निकलता जा रहा था, उसकी चेतावनियाँ मिटती जा रही थीं। बूढ़ी ने ज़माना ...Read Moreथा...और यह बात उसके अनुभव में थी कि थाली रखी हो तो एक बार भूख ना भी लगे, पर न हो तो वही भूख डायन बन जाती है...। गाँव के चप्पे-चप्पे में अब तो ख़ासा मशहूर हो गए थे वे। घरों में, पथनवारों पर; गढ़ी पर जहाँ कि औरतें फ़राग़त को जातीं, उनके किस्से चलते। रोज़ एक नया शगूफ़ा गढ़ा
अजान को लगा कि यह इस बात का संकेत है कि ये खूँटा उखड़ा, सोई हम आज़ाद! फिर मस्ती से गलबहियाँ डाल सरकारी काटर में रहेंगे! पेंसिन और खेतीबारी है तो...का जरूरत नौकरी-चाकरी की?’ मगर उसने लीला की ओर ...Read Moreतो हैरत में पड़ गया, आँखें छलछला आई थीं, चेहरा कातर हो उठा था...। -इस औरत को वह शायद ही कभी समझ सके!’ उठकर चला आया। उसके चार-पाँच दिन बाद आधी रात के समय टूला की ओर से भारी रो-राट सुनाई पड़ी। सो फिर भोर तक उसकी आँख नहीं लगी। पौ फटे दिशा-मैदान के बहाने उधर से निकला... मिट्टी ज़मीन
अजान सिंह पहले इस विषय में इतना दुखी नहीं था। इस ओर उसका ध्यान ही न जाता था। पर अब, जबकि वह इस समाज का अंग बनता जा रहा है, उसे दलितों की दशा पर चिंता होने लगी है...। ...Read Moreके तीन ओर कच्ची गलियाँ हैं, जिनमें कि बीस-पच्चीस कुनबे बसे हैं। इन पर दो-दो, तीन-तीन बीघे खेती है। उसमें सालभर का अनाज नहीं होता! मर्द-मेहरिया सब सवर्णों के खेतों में काम करके पेट भरते हैं। जागरूकता के कारण चर्मकारी वाला पुराना काम छोड़ दिया है। अब न मरे हुए मवेशियों को उठाते हैं, न उनके चमड़े निकालते तथा मांस
विचार करते-करते उसके माथे पर बल पड़ गए। होंठ बुदबुदाने लगे कि, ‘वह एक सहृदय प्राणी है, उसे इतना रिजिड नहीं होना चाहिए। लीला के निश्छल प्रेम का यह कैसा प्रतिदान...?’ उसे ख़ुद पर शरम महसूस होने लगी और ...Read Moreसे अपनी तुलना कर वह थोड़ी हीन भावना का भी शिकार हुआ कि भले वह गाँव में रहता है, देहाती वेशभूषा में, पर इस रहन-सहन में भी तो स्मार्टनैस हो सकती है! यह क्या कि वह उजड्डों की तरह बीड़ी सुलगाता और पीता है, सरेआम! क्या वह इसी वेष में ठसक के साथ नहीं रह सकता, दूसरे-तीसरे दिन दाढ़ी बनाकर
वे शार्टकट से निकल रहे थे, इसलिए आमों की बग़िया रास्ते में पड़ी। जेठ मास में सूरज आँख खोलते ही अंगार गिरा उठता है। पसीने से लथपथ अजान ने कहा, ‘‘दो घड़ी विलमा कर फिर चलते हैं। पानी-वानी पी ...Read Moreमनोज उसके पीछे ही था, मुड़ लिया बग़िया की तरफ़। वहाँ वे तख़्त पर आकर बैठ गए और बाक़ायदा सुस्ताने लगे...। ‘‘बड़ी प्यारी जगह है!’’ थोड़ी देर बाद मनोज ने अपना ख़याल ज़ाहिर किया। ‘‘जगह क्या, स्वर्ग कहो!’’ अजान बोला। आगे मन ही मन कहा उसने, गोपी-बल्ले न आ जाते तो उस दिन यहीं पे सेज़ सज गई होती तुमाई
अंत में अजान सिंह ने उसके हाथ ऐसे चूम लिये, जैसे, सतफेरी नारि...! अब क्या संकोच रह गया...? पर पसरट्टा पसरा था, जिसे समेटना था उन्हें...। ज़्यादातर मेहमान चले गए पर मौसिया सास, माईं और एक दूर के रिश्ते ...Read Moreकक्का और सगा भाई रुक गए थे। आधी रात तक वे लोग समेटा-समाटी में लगे रहे। चाचा का परिवार भी लगा था। कारज का काम! पसर तो हाल जाता है, समिटता नहीं है जल्दी! बड़े-बड़े बर्तन-भाँड़े उन्होंने इकट्ठे करके एक ठौर पर जमा कर दिए थे। उनकी माँजा-धोई चल रही थी। बची हुई तरकारियाँ टूला में बँटवा दी थीं। गर्मी
गाँव में रहना मुश्किल हो रहा था। बदनामी सिर ऊपर होने लगी थी। और...टूला को तो कोई ख़ास एतराज न था, पर अजान के टूला में पड़े रहने से अहीर थोक की नाक जड़ से कटी जा रही थी। ...Read Moreकी आँखें हमेशा लाल बनी रहतीं। चचेरे भाई भी उस पर थूकते और बात-बेबात अवहेलना कर उठते। भाभी, चाची, माँ, बीवी और बहनें आँखें चुरातीं। वह वैसे भी घर में कम आता, पर जब आता तभी कलेश मच जाता। घबराकर लीला से कहता कि अब तो ये गाँव हमेशा के लिये छोड़ देने का समय आ गया है! लीला को
वह सनाका खा गई। अब तो रेप की नौबत है! अब तो दोनों ओर से घिर गई...? दिल डर से फटा जा रहा था। हाथ कोई हथियार भी न था, न चलाना आता उसे! कुत्ते चहुँओर भौंक रहे थे...। ...Read Moreवह थर-थर काँपती बीच की दीवार से चिपकी खड़ी थी। उसे देख के जाना जा सकता था कि स्त्री मौत से भी ज़्यादा रेप से डरती है। लेकिन कुत्तों का शुक्र कि वे शराबियों पर भारी पड़ गए! और जब वे बक-झक कर चले गए और कुत्तों की आवाज़ें भी दूर निकल गईं तो वह जहाँ खड़ी थी वहीं बैठ
टाकीज पर आकर उसने योजनानुरूप एक लेडीज और दो फर्स्ट क्लास के टिकट ले लिये। और लीला अपना टिकट हाथ में लिये लेडीज क्लास की ओर बढ़ गई तो वह भी भीड़भाड़ भरी गैलरी में प्रकाश का हाथ खींचता ...Read Moreउसे फर्स्ट क्लास में ले आया। अंदर भीड़ भरी हुई थी। जिसे जहाँ जगह मिल रही थी, कुर्सियाँ घेर रहा था। ना टिकट पे नम्बर, ना सीट पे! उसने भी एक कुरसी घेर कर प्रकाश के हवाले कर दी, बोला, ‘‘मैं और कहीं देखता हूं, तुम उठना मत...।’’ प्रकाश का पहला अनुभव था, वह डरा हुआ था। नज़रें उसी पर
यात्रा के अंतिम छोर पर जब वे अपने सामान लादे होटल ‘‘मानसरोवर’’ पहुँचे तो अपना डीलक्स रूम देखकर सचमुच दंग रह गए, जो ख़्वाब से भी बढ़कर था! ‘‘येऽहै, ज़िंदगी-तो!’’ लीला बेड पर पसर कर अंगड़ाइयाँ लेने लगी। अजान ...Read Moreमें बावला-सा फ्रेश होने चला गया। लौटा तो पाया, वह कलर टीवी का आनंद उठा रही है...! ‘‘गर्मियाँ होतीं, ए.सी. चलता तो और मज़ा आता...!’’ अजान ने दुर्भाग्य जताया। पर उसने कोई ध्यान न दिया, उठकर फ्रेश होने चली गई। तब उसका ध्यान ख़ुद पर चला गया। वह उघारे बदन आईने में बड़ा अद्भुत दिख रहा था। मनोज से भी
उसने लजाकर कनखियों से देखा उसे। मगर वह तो ख़ुद वाक़ये से अनजान-सा अपलक स्क्रीन पर नज़रें टिकाए हुए! तब वह उसकी चौड़ी छाती, मांसल भुजाएँ, मोटी-मोटी जाँघें और गोलमटोल मुखड़ा बड़ी ठहरी निगाहों से निरखने लगी...। आइसक्रीम निबटाने ...Read Moreबाद गहने, जैसे, विहँसते हुए उतार कर दराज में रख दिए। मगर बेख़ुदी में श्वेत मोतियों की माला गले में पड़ी रह गई! अजान उसकी चमक आँखों में भर मंद-मंद मुस्कराया, ‘आज इसे नाहक तुड़वाओगी-तुम!’ पर वह नादाँ उस गूढ़ मुस्कान का भेद नहीं जान पाई...सोने-सा पिघलता बदन लिये उसकी बग़लगीर हो रही! तब सिरहाने की ओर हाथ बढ़ा बेडस्विच
तब वे अपना दिमाग़ ख़राब किये आधीरात तक वहीं बैठे रहे। टट्टी-पेशाब, भूख-प्यास सब मर गई थी। अच्छा हनीमून मनाने गए! क्वाटर पे गुण्डों का कब्ज़ा और हो गया...। ‘तो-क्या, कहीं जाएँगे-आएँगे नहीं?’ ...ख़ून खौल रहा था। पर कोई ...Read Moreनहीं सूझ रही थी। अगर नीचे से कोई आवाज़ न आती तो रात वहीं ग़ुज़ार देते। पर नीचे से आवाज़ आई तो उन्होंने मुँड़ेर से झाँक कर देखा...रज्जू भय्या ख़ुद बुला रहे थे! ‘‘काहे आएँ!’’ अजान सिंह ने उखड़े स्वर में पूछा। ‘‘दरवज्जा बंद करने...’’ आवाज़ रूखी हो गई, ‘‘तुमें भारी दिक्कत है तो, कल से कहीं और बैठ-उठ लेंगे
लीला चमार...उनके तो हज़ार टुकड़ा होंगे किसी दिन! याद करो, बेताल की बहू के कैसे कुचला भए-ते! और यह अजान भी जानता था कि रज्जू की नज़र लीला पर है! वो उसे काँटा समझता है। अगर किसी तरह हटा ...Read Moreतो राजीबाजी न सही, जबरन ही सही...उसे तो वह हथिया ही लेगा! ...उसे अपने प्राणों का संकट दिख रहा था। उसके पास हथियार भी न था। दो-चार बार मुँहबाद भी हो चुका है, क्योंकि बिजली की लाइन उसी साइड थी। धर्मशाला की छत से लगा है खंभा। ऐसी भीषण गरमी में गुण्डे आएदिन तार हटा देते हैं...। उपद्रव इतने बढ़ते
कुछ देर में वे लोग हरिजन थाने में खड़े थे। रिपोर्ट बाक़ायदा नामज़द कराई गई हरिजन एक्ट के तहत। वहाँ से लौटते वक़्त नंगे मास्साब ने कहा, ‘‘कलेक्टर साब से और मिल लो, हरिजनों की अच्छी सुनते हैं!’’ तो ...Read Moreबेहद कृतज्ञ हो उठी, ‘‘रावण की लंका में आप तो भक्त विभीषण की तरह मिले हैं मुझे...।’’ नेत्र सजल हो उठे थे। नंगे बोले, ‘‘वो इंसान भी क्या जो म़ौके पर काम ना आए! तुम्हारी तो उमर ही क्या है अभी, हमसे पूछो, बाल पक गए... इसी बुरी दुनिया में एक से एक भलेमानस पड़े हैं।’’ फिर वे घर लौट
लीला वहाँ लगातार छह-सात दिन बनी रही, पर अजान अथाईं पर नहीं फटका। वह मन ही मन उसके लिये हींड़ रही थी। उसे यक़ीन नहीं हो रहा था कि अजान से उसका रिश्ता पानी पर पड़ी लकीर है! घूम-फिर ...Read Moreवह वहीं आ जाती कि वे इतने डरपोक और ख़ुदग़र्ज़ तो नहीं हैं, फिर क्या हुआ...? कहीं, बरैया जी अपने भाषणों में जो कहते हैं, वही तो सही नहीं है कि ‘जाति का रोग मिटेगा नहीं हमारे समाज से...। बड़े शहरों की बात अलग है। वहाँ व्यक्ति की जाति से नहीं योग्यता और सामथ्र्य से पहचान होती है। वहाँ के
अरविंद का घर मोहल्ले की दूसरी गली में था। माली हालत अच्छी नहीं थी उसकी और दो जवान बेटियाँ थीं घर में। गुण्डों के मारे आए दिन नाक में दम था। सुबह से ही घर घेर लेते। सेठानी किवाड़ ...Read Moreलड़कियों को भीतर ठूँसे रखतीं। लेकिन लड़कियाँ ऊबतीं और छत पर जातीं या खिड़की-दरवाज़े पर तो लफंगे सरेआम फब्तियाँ कसते। गली से बजर उठा ऐसे फेंक उठते उन पर, जैसे, दरवाज़े पर चढ़ आए दूल्हे पर दुल्हन और उसकी सखियाँ चावल फेंकती हैं! कभी चिट्ठियों में उल्टी-सीधी अश्लील बातें लिख दरवाज़े पर डाल देते और चिढ़ाते हुए कहते, ‘डाकिया डाक
सुबह पाँड़ेजी उधर से निकले, अपनी दाढ़ी पर हाथ फेरते हुए बोले, ‘‘भई, कुछ भी कहो, तुम्हारा ये रोल तो हमें भी बेहद पसंद आया!’’ लीला ने आँखों से उन्हें धन्यवाद दिया और विनम्रता की मूर्ति बनी खड़ी रही। ...Read Moreकुछ देर में वे बाहर से ही लौट गए तो नंगे मास्टर क्वार्टर खुला देखकर भीतर घुस आए। लीला ने बड़ी प्रफुल्लता से उनका हार्दिक स्वागत करते हुए प्रकाश से कहा, ‘‘जरा चाय बना लो!’’ इस पर उन्होंने तुरंत नकार में हाथ हिला दिया, ‘‘न... सत्ताईस साल हो गए नेम लिये! जूते भी तभी छोड़ दिये थे।’’ ‘‘और क्या-क्या छोड़ेंगे!’’
ज़िंदगी के चढ़ाव उतारों ने उसे ख़ुद विस्मय से भर दिया था! जाने कैसे किसी पत्रकार को ख़बर लग गई इस काण्ड की और एक संभागीय दैनिक में फोटो सहित पूरा विवरण छप गया! उसे नींद नहीं आ रही ...Read Moreनींद सामान्य स्थिति में ही आती है। न सम्मान में, न अपमान में। कतरन उसने सँभाल कर रख ली। कई लोगों ने बधाइयाँ दीं। जैसे पाँड़ेजी ने, नंगे मास्साब ने, बरैया जी ने...। सबने कहा कि उसकी इमेज अब बदल गई है। वह एक दीन-हीन अबला से जुझारू सामाजिक कार्यकर्ता बन गई है। उसे इसी ओर अपने कदम बढ़ाने चाहिए!
किशोरावस्था में वह बेहद अड़ियल और नकचिढ़ी लड़की थी। मनोज सातवीं-आठवीं में पढ़ता होगा...। कठोंद से साइकिल उठाकर अक्सर रतनूपुरा आ जाता। तब वह उसके साथ बे-रोकटोक हार-खेत घूमती रहती। बात-बात में लड़ाई हो जाती, बात-बात में सुलह! उनका ...Read Moreअपरिभाषित और रिश्ता बड़ा अजीबोग़रीब था। कुछ दिन तक वह न आता तो वह भाभी को लेकर ख़ुद कठोंद चली जाती। ...नदी किनारे का गाँव। कछार की खेती। भरखों-टीलों भरा मारग! नदी तक अक्सर दौड़ते ही चले जाते...। मनोज उसे तैरना सिखाता था। पहले घुटनों-घुटनों पानी में नदी की धार के संग-संग पाँव रेत में थहाती वह ख़ुद तैरती थी।
वह इतनी डरी हुई थी कि उसने बरैया जी को भी पकड़ के रखा था। और उन्होंने एक ब्याधि लगा दी थी! उसे पार्टी के ज़िला महिला प्रकोष्ठ का प्रभारी बना दिया था, जबकि पार्टी की गतिविधियाँ ज़िले में ...Read Moreशून्य थीं। ...जहाँ ठाकुर और ब्राह्मण जनसंख्या में लगभग आधे हों, वहाँ दलित पार्टी भला कैसे फलफूल सकती है! वैसे भी एकसौ दलितों पर एक राजपूत भारी पड़ता है। जो शुरू से ही दबे-कुचले हैं, उनमें कितनी भी हवा भरो, उठ नहीं पाते! बूथ केप्चरिंग की सारी घटनाएँ सवर्ण पार्टियों में ही रेवड़ी सी बँटी हुई हैं। पार्टी कमान ख़ुद
लेकिन मनोज नहीं आ रहा था। दिन तेजी से लुढ़कते चले जा रहे थे। केस बग़ैर राजीनामा के काफ़ी हद तक आगे जा चुका था। नंगे ने पूरा साथ दिया था। उनकी जगह कोई और होता तो जान जोख़िम ...Read Moreडालने के बजाय बयान बदल देता! अब उसकी ख़ुद की गवाही शेष थी, जिसमें ख़ुद रज्जू की शिनाख़्त कर आरोप सिद्ध करना था उसे! भारी घबराहट हो रही थी...। जैसे-तैसे नींद आती तो सपने में कभी छुन्ना तो कभी रज्जू गोली खाकर गिर पड़ता। और कभी तमाम अपरिचित लोग एक साथ इन दोनों की गोलियों के शिकार हो जाते। लेकिन
उसने कहा, ‘‘डिनर का काल हो चुका है, चलो, ले लें! लौटकर आपके लिये रूम खुलवा दूँगा।’’ उसने सहर्ष हाँ में गर्दन हिला दी। सो, रूम लाक करके वे खरामा-खरामा टेरेस की तरफ़ जा रहे थे...। उसे आज पहली ...Read Moreजीवन में दिव्यता का आभास हो रहा था। पर वह अपनी भावना किसी भी माध्यम से उस तक पहुँचा नहीं सकती थी। उसके सामने तो बोलने में भी गला भर आता था। इतनी कृतज्ञ तो वह शायद, ईश्वर के प्रति भी नहीं हो सकेगी, जिसने बनाया! क्या सचमुच दलितों को भी उसी ने बनाया? टेरेस पर आकर वह अचंभित थी।
राह भर बीती रात के ख़यालों में बेतरह उलझी रही वह। ना नींद आई ना आँखें खुलीं। घर आते ही नहा-धोकर बिस्तर पकड़ लिया और लगभग घोड़े बेचकर सो गई। रात दस बजे के लगभग किसी ने ज़ोर से ...Read Moreखटकाया तो प्रकाश एकदम डर गया। हालाँकि लीला ने लौटते ही उसे आश्वस्त कर दिया था! पर उसका भय बड़ा पुराना था। मगर लीला को जगाने के बजाय उसने छत पर चढ़कर देखा, दरवाज़े पर उसी का हमउम्र एक लड़का खड़ा था। ‘‘कौ ऽ न?’’ उसने कड़े स्वर में पूछा। ‘‘खोलो, प्रकाश!’’ लड़के ने ऊपर की ओर मुँह फाड़कर जैसे,
उसकी औरत शर्बत बना लाई थी। लीला से ना करते न बना। शाम घिर रही थी। थोड़ी देर में वह उठकर नेहनिया थोक में अपने घर चली आई। भौजाई का चेहरा उसे देखते ही खिल गया। उसने खूब दाब-दाब ...Read Moreपाँव छुए और दोनों हाथों की मिट्ठी लेकर अपने कलेजे से लगा ली। पूछा, ‘‘दौड़े पे आईं...?’’ ‘‘दौड़ा-का...!’’ उसने कहना चाहा फिर कुछ सोच कर रह गई। ‘‘और सुनाओ, का चल रओ हेगो! वो केस निबटि गओ?’’ ‘‘वे-ई निबटि गए, केस-का!’’ उसने संक्षेप में बता दिया। तब देर बाद भौजी उसे आराम की सलाह देकर ख़ुद गगरा-तम्हाड़ी उठा पानी भरने
दिमाग़ चकरी की भाँति घूम रहा था। ज़िंदगी में इतनी हलचल क्यों है? एक भी दिन शांति से नहीं ग़ुज़रता...। पहले की तरह फिर यकायक जा खड़ी हो तो वे भी क्या सोचेंगे उसके बारे में! कह भी चुके ...Read More‘राजनीति तो गंदी है, शौक के लिये थोड़ी-बहुत समाज सेवा अलग बात है!’ तब वह सोचने लगी कि यह केस राजनीति का है या समाज सेवा का? माना कि राजनीतिक षड्यंत्र का शिकार आज सवर्ण समाज बना है, पर सदियों से तो दलित वर्ग ही सामाजिक अन्याय, शोषण, उत्पीड़न और उपेक्षा का शिकार रहा आया है! इस ख़्याल ने उसे
दियाबत्ती के घंटे भर बाद जबकि, बिजली अचानक चली गई और पेड़ जुगनुओं की बदौलत बिजली की झालरों की तरह जगमगा उठे...तब रेस्ट हाउस के लान में कलेक्टर शोजपुर की जीप धीरे से आकर रुकी और उस शख़्स को ...Read Moreकर वापस चली गई जिसका लीला को बड़ी बेसब्री से इंतजार था! ...आते ही उसने परदा उठाकर कमरे में जैसे ही झाँका, लीला पर नज़र पड़ते ही हड़बड़ा गया, ‘‘देर तो नहीं हुई?’’ उसे जैसे याद आ गया कि मैंने तुम्हें यहाँ कबसे बिठा रखा है, ‘‘सारी! एक मिनट और...आता हूँ अभी!’’ वह क्षमा-सी माँग उन्हीं पाँवों लौट गया। और