Chakra book and story is written by अशोक असफल in Hindi . This story is getting good reader response on Matrubharti app and web since it is published free to read for all readers online. Chakra is also popular in Fiction Stories in Hindi and it is receiving from online readers very fast. Signup now to get access to this story.
चक्र - Novels
by अशोक असफल
in
Hindi Fiction Stories
आबू और वापसी यात्रा इतनी गहरी पैठ गई थी जे़हन में कि निकाले नहीं निकलती। वे थोडे़ से दिन पूरी उम्र पर छा गए थे। स्त्री-पुरुष मैत्री, जो प्राण-प्राणों में उतर जाने पर तुल जाय और प्यार कहलाये, ऐसा प्यार मुझे पहली बार हुआ था! ...अब तक तो देह सम्बंध एक भूख की तरह जिये थे। शौक़-शौक़ में ब्याह हुआ, उछाह-आवेग में बच्चे! स्त्री-पुरुष के बीच इसके अलावा और कोई ऐसी अदृश्य डोर भी है जो क्षण-क्षण, तिल-तिल बांधे रखती है, बिना गुज़रे इसका पता चलता नहीं।
ना चाहते हुए भी बेचैनी के आलम में तीन-चार दिन बाद मैंने फोन मिलाया, कहा, ‘‘नौ बजे सेंट्रल लाइब्रेरी में मिलो।’’
मुलाकात छह-सात वर्ष पुरानी थी। पहले मैथ्स और इंग्लिश पढ़ाता था उसे। फिर केमिस्ट्री और बायोलॉजी पढ़ाने लगा। संयोग से उसके शैक्षिक उत्थान के साथ ही मैं भी इंटर कालेज से पी.जी. कालेज तक के अध्यापन सफर पर पहुंचा। जननेन्द्रियों के क्रियाकलाप समझाता तो उसकी बाडी की केमिस्ट्री बदल जाती थी। अन्य छात्राओं में ऐसा परिवर्तन देखने को नहीं मिलता...। उसमें शुरू से ही कोई अलग-सी कैफियत थी, जो मेरी सायिकी में शरीक होती गई।
आबू और वापसी यात्रा इतनी गहरी पैठ गई थी जे़हन में कि निकाले नहीं निकलती। वे थोडे़ से दिन पूरी उम्र पर छा गए थे। स्त्री-पुरुष मैत्री, जो प्राण-प्राणों में उतर जाने पर तुल जाय और प्यार कहलाये, ऐसा ...Read Moreमुझे पहली बार हुआ था! ...अब तक तो देह सम्बंध एक भूख की तरह जिये थे। शौक़-शौक़ में ब्याह हुआ, उछाह-आवेग में बच्चे! स्त्री-पुरुष के बीच इसके अलावा और कोई ऐसी अदृश्य डोर भी है जो क्षण-क्षण, तिल-तिल बांधे रखती है, बिना गुज़रे इसका पता चलता नहीं। ना चाहते हुए भी
शाम का वक्त। ग्रुप सूर्यास्त देखने की हड़बड़ी में आगे निकल गया था। हम होटल से ही पिछड़ गए थे। चाह कर भी पीछा नहीं कर पाए। मगर ‘सनसेट’ की तरफ पैदल ही काफी लोग जा रहे थे। आखिरश ...Read Moreपहुंच ही गए ‘सनसेट पाइंट' पर जहां का माहौल ही कुछ अलग था...। जगह-जगह सीढियां बनी हुई थीं। सब सैलानियों से भरी हुईं। रंग-बिरंगे वस्त्राभूषणों में सुसज्जित स्त्री-पुरुष और बच्चों का हुजूम देखकर ही बहुत अच्छा लग रहा था। अंततः हमने भी एक ऊंची-सी जगह तलाश कर ही ली! बड़ा सुंदर नजारा था। एक
कई रोज बाद एक रोज लाइब्रेरी हाल से निकल कर अनजाने में ही हम उस बस में आ बैठे, जो उधर से निकलती थी, जिधर से निकलने पर बस की खिड़की से हमेशा दिखता था एक डाक बंगला। नदी ...Read Moreटीले पर अकेली खड़ी इमारत। वह जैसे बुलाती थी। मगर कोई जाता नहीं था। मेरे जे़हन में अर्से से वही एक ऐसी जगह थी आसपास की जानी-पहचानी सारी जगहों में जहां हम जा सकते थे...।नदी-पुल पर बस टोलटैक्स गुमटी पर रुकी तो मैंने आंख के इशारे से कहा, ‘चलो, इसे भी देख लें!’वह हँसती
एक दिन पता चला कि वह तो साध्वी बन गई है! परीक्षा भी नहीं दी!! घर छोड़ दिया!!! सुनकर मेरा कलेजा मुंह को आ गया। मुझे अक्सर अपनी स्थिति पर दया आती और हँसी। एक स्टूडेंट ने मुझे किस ...Read Moreनाथ लिया है। मैंने कितने स्टूडेंट्स निकाले...। यह तो सब जानते हैं कि शासकीय निकायों के मुकाबले निजी संस्थाओं का अमला बहुत तेजतर्रार, मेहनती और सजग होता है, क्योंकि उन्हें निरंतर संघर्ष करना है। निरंतर अपनी अनिवार्यता सिद्ध करनी है। निरंतर अपना होना साकार करना है...। मगर उसके आगे
अगले दिन मैं प्रातःकाल ही शिविर में पहुंच गया। लता मुझे पाकर ऐसे खिल गई जैसे, सूर्य-रश्मि को पाकर कमल-पुष्प। थोड़ी देर बाद वह अपने तंबू से अपना सफेद झोला उठा लाई। जिसमें से उसने कम्पित हाथों से मुझे ...Read Moreसफेद लिफाफा निकाल कर दे दिया। आशंकित मन मैं उसे, एक कोने में जाकर पढ़ने लगाः“फिर आई जुदाई की रात...मैं तुमसे जुदा होना नही चाहती! तुमको पा न सकी क्योंकि/यह मेरी खुदाई नही चाहती! मिलकर बिछुड़ना ही था इक दिन/तो यह मुलाकात क्यों हुई? उल्फत में ठोकरें थीं, दर्द