रॉबर्ट गिल की पारो - 19

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भाग 19 मद्रास से वह जून के अंतिम सप्ताह 1856 को लौटा। रास्ते में सोचता रहा। अब पारो की डिलीवरी का समय नज़दीक है। वह मुस्कुरा उठा था। लेकिन...जयकिशन ने बताया ‘‘पारो नहीं रही सर।’’ ‘‘कैसे?’’ वह ज़ोर से चीखा। जयकिशन और मेहमूद थर-थर काँफने लगे। ऐसी हृदयविदारक चीख सुनकर सारे पेड़ पौधे सांस रोके उसे देखने लगे। पक्षी घबराकर चहचहाना भूल गए। वे सांझ होने से पहले ही घर लौटने लगे। हवा थम गई। आसपास का जंगल स्तब्ध और भौंचक हो उठा। एक सन्नाटा क्षितिज के पार फैल गया। क्या ऐसा बिछोह ब्रह्माँड को मंज़ूूर था। यह पहला ऐसा