Robert Gill ki Paro - 19 books and stories free download online pdf in Hindi

रॉबर्ट गिल की पारो - 19

भाग 19

मद्रास से वह जून के अंतिम सप्ताह 1856 को लौटा। रास्ते में सोचता रहा। अब पारो की डिलीवरी का समय नज़दीक है। वह मुस्कुरा उठा था।

लेकिन...जयकिशन ने बताया ‘‘पारो नहीं रही सर।’’

‘‘कैसे?’’ वह ज़ोर से चीखा। जयकिशन और मेहमूद थर-थर काँफने लगे। ऐसी हृदयविदारक चीख सुनकर सारे पेड़ पौधे सांस रोके उसे देखने लगे। पक्षी घबराकर चहचहाना भूल गए। वे सांझ होने से पहले ही घर लौटने लगे। हवा थम गई। आसपास का जंगल स्तब्ध और भौंचक हो उठा। एक सन्नाटा क्षितिज के पार फैल गया। क्या ऐसा बिछोह ब्रह्माँड को मंज़ूूर था। यह पहला ऐसा प्रेम था जो जंगल ने जाना था। अजंता की एक-एक गुफा उनके प्रेम की साक्षी थी।

वह सिर पकड़कर बैठ गया जैसे अभी धरती फटेगी और वह उसमें समा जाएगा। नहीं जी सकेगा वह पारो के बिना।

वह बारादरी के आँगन में खड़ा होकर ‘पारो’ चिल्लाया कि भय से आक्रांत होकर अलाउद्दीन हिनहिनाने लगा। जयकिशन ने पहली बार रॉबर्ट का यह रूप देखा। मेहमूद ने डरते हुए रॉबर्ट को बताया कि कन्हैया गाँव में ही था तब। महावीर अब किसी को गाँव से बाहर जाने नहीं दे रहा था। उसे पता था कि कन्हैया जाएगा और रॉबर्ट को सब कुछ बता देगा। सिर्फ वही बता सकता है रॉबर्ट को कि पारो प्लेग की बीमारी से नहीं मरी, बल्कि उसके गर्भ के नौ महीने पूरे भी हो रहे थे। जानते हुए भी उसे पत्थरों से मारा गया।

सब कहते हैं सर... अंतत: महावीर ने पारो और रॉबर्ट से बदला ले ही लिया।

‘‘कन्हैया को बुलाओ...।’’ रॉबर्ट ने कहा। काफी दिन से वे दोनों गाँ की तरफ नहीं गए थे।

‘‘वह 23 मई थी सर, जब यह कांड हुआ।’’

‘‘नहीं सर... कन्हैया को भी गाँव से बाहर नहीं जाने मिल रहा है।’’ जयकिशन ने कहा।

‘‘किसने रोका उसे?’’ रॉबर्ट ने कहा।

‘‘अब आदिवासी समुदाय का मुखिया महावीर बन गया है सर... महादेव काका भी नहीं रहा।’’ मेहमूद ने कहा।

‘‘मतलब?’’ रॉबर्ट ने फिर पूछा।

‘‘सर, आपके जाने के बाद महादेव काका और महावीर के दो गुट बन गए। बहुत लड़ाई-झगड़ा होता था। आप नहीं थे ना सर इसलिए महावीर ने पारो को लेकर काका से बहुत झगड़ा किया। मारपीट हुई और महादेव काका तो बीमार ही थे... वह चल बसे।’’

‘‘पारो अकेली पड़ गई सर... इन लोगों ने उस पर इतने पत्थर बरसाए कि उसका बच्चा ही गिर गया। कहने लगे कि प्यार करती है तू अंग्रेज से... अब न तू रहेगी और न ही उसका बच्चा।’’

‘‘और पिहू... उसने क्या पारो को नहीं बचाया?’’

रॉबर्ट अजंता ग्राम जाने को निकलने लगा।

‘‘पिहू को भी बहुत मारा महावीर ने... बाद में एक दिन कन्हैया बीच रास्ते में मिला था। उसने बताया। महावीर के साथ जाने को पिहू ने मना कर दिया। सर, वे लोग गाँव के मकानों को आग लगाकर पूरा काफिला कहीं दूर निकल गया। आप न जाएँ सर, अब वहाँ कुछ नहीं है।’’ जयकिशन ने कहा।

यह एक हृदयविदारक हाहाकार था, जो रॉबर्ट के भीतर हिलोरे ले रहा था। क्या कानून, पुलिस कुछ भी नहीं कर सकी? वह छह महीनों बाद लौटा था। और यहाँ सब कुछ खतम था।

रॉबर्ट नहीं माना। वह अजंता ग्राम की ओर चला गया। रोना तो मानो जानता ही नहीं है रॉबर्ट। बस टूट जाता है भीतर तक और इस बात को जयकिशन और मेहमूद समझते हैं।

सचमुच गाँव के अधिकांश घर जल चुके थे। महावीर ने अपने घर को छोड़ दिया था। बाग, बगिया यहाँ तक कि वे लोग अनाज को सुरक्षित रखने वाले बड़े-बड़े पुआल को भी जला गए थे। उसने पारो के घर के सामने घोड़ा रोका। काला पड़ा मकान, जले दरवाजे और उसकी पूरी बगिया उजड़ी जली पड़ी थी। वह घोड़े से उतरा और घर के सामने जाकर खड़ा हो गया। बहुत देर हो गई थी उसे खड़े-खड़े।

‘‘चलें सर।’’ जयकिशन बांस के जले हुए छोटे से फाटक के पास खड़ा था। न जाने कब दोनों रॉबर्ट के पीछे भागते हुए आ गए थे। रॉबर्ट घूमा और अचानक रुक गया। बगिया में आधा जला पौधा खड़ा था। मानो रॉबर्ट की राह देख रहा हो। उसमें एक काला गुलाब अधखिला और उसके आजू-बाजू कुछ कलियां थीं। जयकिशन समझ गया... और पौधे के नज़दीक गया। वह सम्हाल कर काफी लंबी डंडी के साथ फूल और कलियाँ तोड़ लाया। लंबी डंडी टूटते ही पूरा पौधा जला दिखने लगा।

रॉबर्ट ने देखा सामने से पिहू आ रही है। वह नज़दीक आते ही ज़ोरों से चिल्लाकर रो पड़ी। ‘‘सर, पारो नहीं रही... उन लोगों ने उसे पत्थरों से मार डाला। महावीर चाहता था कि पारो ताई उसके साथ सोए... आप चले गए थे। वह कहता था अब अंग्रेज कभी नहीं लौटेगा। तू मेरी है। पारो ताई मेरे पास आकर रोती थी। एक दिन महावीर ने उसे जबरदस्ती पकड़ा। उसने झपटकर कुल्हाड़ा उठा लिया। कहा-मेरे पास आया तो इसी कुल्हाड़े से सर काट दूँगी ...महावीर उसके पीछे दौड़ा। उसके वह पाँच-छह साथी भी उसके पास दौड़े। पारो ताई पेट से थी। पूरे दिन हो रहे थे। फिर भी ताई ने कुल्हाड़ी चारों ओर घुमाई। कोई पास नहीं आ सका। गाँववाले इन लड़कों से डरकर बाहर नहीं निकले। फिर उन लोगों ने बड़े-बड़े पत्थर उठाकर ताई को मारा। ...उसका सिर फूट गया। पेट फट गया। लेकिन फिर वह कुछ नहीं कर पाई सर।’’ पीहू रॉबर्ट के पैरों के पास बैठकर बिलखने लगी...। ‘‘लेकिन साहब, ताई ने हार नहीं मानी। उसको मरता देखकर वे लोग भाग गए।’’

ताई ने कहा-जब सर आएँ तो बता देना मैं उनकी थी। उनकी ही रहूँगी। अरे पिहू, मैं उनसे बहुत प्यार करती हूँ। वो भी मुझे बहुत प्यार करते हैं। पिछले जन्म का कोई पाप रहा होगा पिहू, जो मैं उनकी जाति में पैदा नहीं हुई... वरना मुझे कौन मार सकता था। साहब वह प्राण निकलते तक आपको याद करती रही। पूरा आँगन उसके अजन्मे शिशु और उसके रक्त से भरता रहा।’’ पिहू रॉबर्ट के पैरों पर सिर रखकर रोती रही।

‘‘महावीर पोट्टा (गाली) मेरे बेटे को भी ले गया। बाबा तो आपके जाने के पंद्रह दिन बाद ही मर गया।

इतना दु:ख कैसे सहा होगा पारो ने। अंत तक वह मुझे याद करती रही। रॉबर्ट की आँखें भरी थीं। लेकिन आँसू नहीं टपके। वह उठ खड़ा हुआ। पिहू भी उठकर खड़ी हो गई। रॉबर्ट ने देखा पिहू गर्भवती है।

‘‘जॉय! पिहू कहाँ रहेगी तुम लोग तय करोगे। लेकिन जब तक मैं जीवित हूँ, इसकी पूरी जिम्मेदारी मेरी है। इसे किसी अनुभवी चिकित्सक को दिखाकर योग्य दाई का प्रबंध कर दो। इसके बच्चे का जन्म ठीक तरह से हो यह देखना। उसने आज भर नज़र से पिहू को देखा। मासूम चेहरा... सभी को खो देने के बाद भी आत्मविश्वास से भरा हुआ। यही आत्मशक्ति पारो में थी। तभी तो उसने किसी को गलत नियत से अपने नज़दीक नहीं आने दिया।

’’’

वह बारादरी वापिस लौट आया।

आज एक सच्चे प्यार का अंत हो चुका था। उसने पारो के अंतिम संस्कार की जगह चबूतरा बनवाया और उस पर लिखवाया-23 मई, 1856 फॉर माई बीलव्ड पारो-रॉबर्ट (ाङ्म१ े८ ुी’ङ्म५ी िढं१ङ्म-फङ्मुी१३)

’’’

उसे पिहू से ही ठीक जानकारी मिली थी। वरना दूर-दूर तक के गाँवों में यही खबर थी कि पारो प्लेग से मरी। रॉबर्ट ने इस बात का खंडन किया था कि क्या प्लेग जैसी महामारी से सिर्फ एक व्यक्ति ही मरेगा। महावीर के साथ लेनापू गाँव के बाकी लोग कहाँ चले गए? इस बात का पता पुलिस भी नहीं लगा पाई।

रॉबर्ट के पास सिर्फ दो पेन्टिंग्ज़ थीं जो उसने पारो के बनाए थे। एक चित्र पूरा था, जिसमें वह जेवरों से सजी थी। कसी हुई चोली और स्तनों के बीच में आँचल। याद है रॉबर्ट को पेन्टिंग बनाते समय उसने स्वयं जाकर उसका आँचल ऐसा करने कहा था। गले की कंठी, हाथों में कड़े और कंठी के आकार-प्रकार जैसे पाँवों में मोटे चाँदी के कड़े। पैरों में पायल और बाएँ पैर में बंधा एक काला डोरा। पारो कहती थी-यह नज़र के लिए है सर। जानते हैं मैं एक अंग्रेज की हिन्दू पत्नी हूँ। तो मुझसे सभी ईर्ष्या करते हैं। इसलिए बाँधा है।’’

करीब एक डेढ़ घंटे में स्कैच पूरा हुआ था। फिर उसको एक हफ्ता लग गया था रंग भरने में।

दूसरी पेन्टिंग में पारो एक चट्टान पर बैठी थी। एक हाथ पीछे टेका था। एक घुटने पर था। वह दूर कहीं क्षितिज में कुछ देख रही थी। इस समय उसने चोली नहीं पहनी थी। एक स्तन साड़ी के आँचल से ढका था। एक खुला था। कठोर और उन्नत स्तन। पीछे केव्ज़ थीं, जो चित्र में दिख रही थीं। चित्र पूरा करके उस दिन रॉबर्ट ने खुले आसमान के नीचे पारो के सारे कपड़े उतार दिए थे। और सांझ ढलने तक वे इसी तरह चट्टान पर लेटे रहे थे। अद्भुद दृश्य था। शायद विधाता ने उन्हें प्रेम के लिए ही इस धरती पर भेजा था।

रॉबर्ट अक्सर उस चट्टान पर जाकर अकेला ही बैठा रहता। वहाँ की हवा की हर सांस में पारो की गूंज थी। उसका हृदय चीख उठने को होता। ...पारो ...पारो...।

वह दिन शुक्रवार था जब पारो को पत्थरों से तड़पाकर मारा गया था। वह प्रत्येक शुक्रवार अजंता के नज़दीक फरदापुर गाँव जाता, जहाँ पारो का अंतिम संस्कार हुआ था। वह घंटों पेड़ के नीचे सिर टिका कर बैठा रहता। लोग कहने लगे थे फिरंगी पारो के पीछे दिमागी संतुलन खो चुका है। लेकिन ऐसा नहीं था। वह यहाँ आकर मानसिक शांति पाता था। वह ढेर सारे गुलाब गुच्छों में लाता और पारो की कब्र के सामने रखता।

अगर वह मद्रास नहीं बुलाया जाता तो निश्चय ही पारो और उसका शिशु आज जीवित होते।

’’’

सन् 1863

समय व्यतीत हो रहा था। पारो की मृत्यु को भूल पाना उसके लिए कठिन हो रहा था। उसने अपने आप को अपने ही भीतर समेट लिया था। वह अकेला ही अब निरर्थक घोड़े पर सवार जंगल में निकल जाता। जंगलों की, पहाड़ों की और गुफाओं की फोटो खींचता और कभी-कभी लैपर्ड का शिकार भी कर लाता। अभी तक उसने 140 लैपर्डस का शिकार अपने हिस्से में दर्र्ज़ कर लिया था।

अजिंठा ग्राम में पिहू से मिलने जाता और उसके बेटे को घोड़े पर बैठाकर दूर-दूर तक घुमा लाता। पिहू का बेटा उसे ‘काका’ संबोधन देता। पिहू और उसके बेटे का सारा खर्च उसने सम्हाला हुआ था। उसे आम-जामुन के पेड़ों वाला बाग भी खरीद दिया था। जहाँ हर वर्ष उसे आम-जामुन की अच्छी कीमत मिल जाती थी। गाँव वाले पिहू और उसके बेटे का बहुत सम्मान रॉबर्ट के कारण करते। वैसा ही मेला लगता, होली और सभी त्यौहार मनाए जाते। लेकिन रॉबर्ट अब कभी भी अजिंठा ग्राम के उत्सवों में शामिल नहीं होता। कभी-कभी औरंगाबाद आदि शहरों के अंग्रेज अफसरों के कार्यक्रम में अवश्य शामिल होता।

सभी अंग्रेज अफसरों को हिन्दुस्तानी आदिवासी लड़की की प्रेम-कहानी के बारे में पता था। और यह भी कहा जाता कि ऐसा क्या था पारो में जो रॉबर्ट उससे इतना अधिक जुड़ गया।

अपनी ज़िंदगी के न जाने कितने वर्ष रॉबर्ट ने अजंता की पेन्टिंग, केव्ज़ की नाप, उनका नक्शा, उनकी देखरेख में लगा दिए। एनी को उसने अपनी सारी पेन्टिंग का सारा कलेक्शन ‘लार्ज आॅईल पेन्टिंग्ज़’ ईस्ट इंडिया कंपनी के लिए जो लंदन भिजवाया था। वह तकरीबन 25 कैनवस को लेकर सिनडम (र८ीिल्लँें) के इंडियन कोर्ट के क्रिस्टल पैलेस में प्रदर्शनी हेतु लेकर गई थी। यह 1863 की बात है जब वहाँ रॉबर्ट की अजंता केव्ज़ की पेन्टिंग लगाई गई। यह कह सकते हैं कि ब्रिटेन में अजंता केव्ज़ के पेन्टिंग की बहुत चर्चा हुई और भारत के रॉक कट मंदिरों में एक मंदिर और शामिल हो गया।

लेकिन जहाँ इस प्रदर्शनी से रॉबर्ट बहुत खुश था वहीं दूसरी ओर उसको एनी के द्वारा खबर मिली कि इस प्रदर्शनी में आग लग गई और चार पेन्टिंग्ज़ को छोड़कर सभी पेन्टिंग्ज़ आग के हवाले हो गईं।

यह क्या? वह आश्चर्यचकित था। कैसे लगी आग? उसकी बरसों की मेहनत, उसका इस कार्य के प्रति समर्पण? अगर एनी सामने होती तो वह उसे झंझोड़कर उससे पूछता कि ‘‘यह कैसे हुआ?’’ उसका हृदय रो उठा।

वह ‘जॉय’ बोलकर चिल्ला उठा। और अपने बिस्तर पर लेट गया। उसका माथा पसीने से गीला हो गया। सफेद माथे पर पसीने की बूंदें मोती जैसी चमक रही थीं।

’’’

1866 में ही उसे पुन: मद्रास बुला लिया गया। जब रॉबर्ट अजंता आया था तब ईस्ट इंडिया कंपनी का शासन था। अब ब्रिटिश राज था। रूल वही थे, लेकिन बदलाव तो थे ही। मद्रास प्रेज़िडेन्सी ब्रिटिश भारत का एक प्रशासनिक अनुमंडल था। बार-बार वापिस वहाँ बुलाया जाना ब्रिटिश सरकार के लिए ज़रूरी हो उठा था।

मद्रास में एनी को देखकर वह आश्चर्यचकित हो उठा था।

जयकिशन और मेहमूद भी बहुत खुश हुए। अब एनी मैडम सर को सम्हाल लेंगी। एनी ने बताया कि उसने औरंगाबाद अपने यहाँ होने का पत्र भी लिखा था। अब काफी समय रॉबर्ट को यहाँ रहना होगा। कुछ ज़रूरी कागज़ वह अजंता की बारादरी में भूल गया था। उन कागज़ों को लेने जयकिशन को तुरन्त औरंगाबाद आना पड़ा।

औरंगाबाद से जब वह अजंता की ओर जा रहा था तभी उसे बाजार में छोटा नागपुर (बिहार) से आए हुए जिस व्यक्ति पर नज़र पड़ी-अरे, यह तो उसके गाँव के रमन यादव हैं, जिन्हें वह रमन चाचा कहता था। इतने बरसों बाद... उसने चाचा को पहचान लिया।

वह खुशी से भर उठा। मानो बच्चा ही हो और उनसे लिपट गया।

‘‘चाचा आप तो वैसे ही हो। जबकि कितने बरस गुजर गए। हम मिले ही नहीं हैं।’’ रमन चाचा की आँखों में आँसू आ गए। बल्कि दोनों ही डबडबायी आँखों से लिपटे खड़े रहे।

जयकिशन रमन चाचा को बारादरी ले आया। रॉबर्ट से मिलना तो नहीं हुआ, लेकिन वह बहुत सारी बातें रॉबर्ट और उसके परिवार की उन्हें बताता रहा। दोनों ने बहुत बातें कीं।

रात भोजन के उपरांत रमन चाचा ने बताया-तुम्हारे जाने के बाद तुम्हारे दोनों चाचा कर्ज़ में डूब गए थे। क्योंकि लगातार सूखा पड़ा था। फसल नहीं हुई थी। वे दोनों शराब भी बहुत पीने लगे थे। घर की चीज़ें बिकने लगीं... खेत भी बेचे। घर का खर्च और शराब की लत ने बर्बादी के इस मोड़ पर लाकर उन्हें खड़ा कर दिया। वे गया (शहर) से आगे कहीं चले गए।

‘‘और बुआ...’’ उसे बुआ के बारे में जानना था।

रमन चाचा ने एक आह भरी...‘‘वह नहीं रही बेटा...’’ उन्होंने कहा।

‘‘क्या?’’ वह अचंभित होकर बिस्तर पर उठकर बैठ गया।

‘‘तेरे जाने के साल भर बाद उन दोनों भाईयों ने उसकी शादी एक उम्रदराज आदमी से कर दी। जिसके पहले ही बड़ी-बड़ी बेटियाँ थीं। वह ससुराल गई तो छोटी ही थी। सब उसके साथ बहुत मारपीट करते थे। दो साल बाद उसकी भी दो बेटियाँ हुईं। हम लोगों ने यह सुना था। तुम्हारे दोनों चाचाओं ने बुड्ढे से शादी करने के लिए रुपए लिए थे। बेटे, जिसके माता-पिता न हों, उन बच्चों को देखने वाला कौन होता है? फिर तेरी बुआ तो पेट पोंछनी (आखिरी संतान) थी। सबसे छोटी... वर्षों बाद पैदा हुई। तब तक उसके माता-पिता चल बसे थे। इन्हीं भाईयों ने भौजाइयों ने प्रताड़ना देकर बड़ा किया। चुप रहती थी, डरी-सहमी भी रहती थी।

तीसरी संतान भी बेटी हुई तो सास ने जचकी के ही दिन उसे बहुत मारा-पीटा। कमज़ोर तो थी ही, पिटती रही। सुनते हैं दाई से नवजात पैदा हुई लड़की को मरवा दिया गया। मरी लड़की पैदा हुई है ऐसा सबको बताया।

सास ने ओझा को बुलवाया। दरअसल, उन लोगों को बेटा चाहिए था और लगातार बेटियाँ ही पैदा हो रही थीं। ओझा ने कहा इस पर चुड़ैल आ गई है। इसे खाट से बांध दो। खाट खड़ी कर दी गई और चारों ओर धुआँ कर दिया गया। धुआँ इतना हुआ कि वह सांस भी नहीं ले पाई। वह घुट कर मर गई। फिर सुना उसकी मौत पर भी भाई नहीं गए। उसके पति ने फिर शादी की और फिर लड़कियाँ पैदा हुईं। अब पता नहीं वह बूढ़ा जिंदा है या मर गया। पर तेरी बुआ...

‘‘बस करो रमन चाचा...।’’ जयकिशन रो उठा।

चाचा चुप हो गए। और करवट बदल कर सो गए। जयकिशन सोचता रहा... छोटी-सी उम्र में बुआ उसकी माँ बन गई थी... उसकी दोस्त... उसकी बहन जैसी... उसकी सब कुछ। अगर वह ज़िंदगी भर किसी को याद करता रहा तो वह सिर्फ बुआ को... शादी नहीं की क्योंकि वह लड़की में बुआ की छवि ढूंढ़ता रहा... और वह बुआ? दोनों चाचाओं ने उसके साथ भी बुरा व्यवहार किया। उसे घर से निकाल दिया था।

और बुआ... एक छोटी-सी लड़की को बूढ़े से ब्याह दिया, उससे रुपये भी खा लिए। छि:! घृणा हो आई उसे अपने चाचाओं से।

वह सारी रात रुलाई में काँपता रहा। बुआ ने सच ही कहा था-मेरी मौत पर अगर कोई रोएगा तो सिर्फ तू जयकिशन... मैं तो अभागी हूँ।

रमन चाचा दो दिन रुके। जाते समय उसने चाचा को रास्ते के लिए अच्छा खाना बना कर रखा। थोड़े रुपए दिए और रॉबर्ट के दिए गरम कपड़े जो नए जैसे ही थे। वह साथ रख दिए।

घर नामक ‘शब्द’ से जुड़ा हुआ एक रिश्ता आज टूट गया था। उसके चारों तरफ एक अँधकार छा गया। पता नहीं वह कौन-सी धुन आज बाँसुरी पर बजा रहा था कि बारादरी की ऐतिहासिक दीवारें भी सन्नाटे से भर उठीं। उसने अपने आँसुओं को बह जाने दिया।

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बॉम्बे में चर्च से बाहर निकलते हुए एनी बहुत खुश थी ।

रॉबर्ट ने उसका हाथ पकड़ लिया। ‘तुम चाहती थीं ना एनी कि हमारी शादी हो...’

‘हाँ! रॉबर्ट, मैं एनी लूसी रॉबर्ट गिल के नाम से जानी जाऊं ऐसी मेरी हमेशा से इच्छा रही थी। तब से जब मद्रास में मैं तुमसे मिली थी।’

रॉबर्ट आश्चर्य से उसे देखता रह गया। ‘एनी, हम लोग यहाँ कुछ दिन रहकर अजंता जाएंगे। तुम मेरे पास रहोगी तो मैं फिर से पेंटिंग बना सकूंगा।’

एनी ने रॉबर्ट का हाथ दबाया। वह जानती थी रॉबर्ट के दु:ख को। इस तरह प्रदर्शनी में आग लग जाना। और वर्षों की मेहनत का... ‘हाँ! रॉबर्ट तुम जरूर बनाओगे पेंटिंग। तुम्हारे अंदर बार-बार उठकर खड़े हो जाने का हुनर है। कितने ही दुख आए लेकिन तुम हारोगे नहीं।’

रॉबर्ट बहुत खुश था एनी पारो सभी तो उससे खुश रहते थे। उसका साथ चाहते थे।

’’’

 

कुछ महीनों बाद पुन: वे लोग अजंता की बारादरी में आ गए। एनी गर्भवती थी। उसने एक पुत्र को जन्म दिया। लेकिन नौ महीने के पश्चात साधारण बुखार में उसकी मृत्यु हो गई। रॉबर्ट और एनी बेटे की मृत्यु के पश्चात उदास- उदास रहने लगे थे।

लेकिन एनी जानती थी रॉबर्ट ने इतने हादसे सहे हैं कि उसे उठाकर खड़ा करना अर्थात उसको उसका मिशन सौंपना अनिवार्य है।

लगातार की कोशिशों के पश्चात रॉबर्ट पुन: अजंता जाने लगा। कभी-कभी एनी भी साथ जाती। वह भी मूर्तियां बनाने में संलग्न रहने लगी। बारादरी एक बार फिर फूलों से लद गई। चारों तरफ एनी ने इतने फूलों के पेड़ लगवाए कि वातावरण खुशनुमा हो उठा। रॉबर्ट लगातार मेहनत कर रहा था। और एनी के अनुसार पेंटिंग में और भी ज्Þयादा नयापन लगने लगा था। अब दोनों दूर-दूर तक जंगलों में भटकते और राबर्ट अपनी फोटोग्राफी में भी व्यस्त रहता।

एनी ने पहले एक लड़की को जन्म दिया। इसके दो साल बाद एक लड़की और हुई। रॉबर्ट, एनी अपने कार्य के प्रति समर्पित होते हुए भी बच्चों के साथ बहुत खुश थे। एनी फिर गर्भवती थी लेकिन प्रसव पूर्व उसने अपनी दोनों लड़कियों को लंदन भिजवा दिया था। ताकि उनकी पढ़ाई ठीक ढंग से हो सकें।

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रॉबर्ट ने अजंता केव्ज़ के बहुत सारे फोटोग्राफ लिए। वह उन्हें सिलसिलेवार लगाता जाता और अपने हस्ताक्षर भी करता। उसने बुलढाणा के जंगल, पहाड़, किले आदि के भी फोटोग्राफ्स लिए। और जब एनी के साथ एलोरा घूमने गया तब भी वहाँ के फोटोग्राफ लेकर एक अलग ही संग्रह तैयार किया। एनी आश्चर्यचकित थी, इंडिया के इन मंदिरों को देखकर। वह जब मध्यभारत में थी, वहाँ पर भी वह खजुराहो आदि के मंदिर देखने गई थी।

रॉबर्ट ने दोबारा अपने को संयत किया था। अजंता केव्ज की कई पेंटिंग दोबारा बनाई थीं। एनी सभी फोटोग्राफ्स, पेंटिंग्स, रॉबर्ट का सामान सहेज कर रखती जाती थी। रॉबर्ट बीमार रहने लगा था। औरंगाबाद के चिकित्सकों द्वारा उसका इलाज चल रहा था। अब वह अधिक चल नहीं पाता था।

उसकी साँसें उखड़ने लगती थीं। चिकित्सकों ने बताया था उसे उच्च रक्तचाप रहता है। वह बुखार में भी बारादरी के बाहर के कंपाउंड में आराम कुर्सी पर हल्का सा कंबल पैरों पर डाले बैठा रहता। मच्छरों के कारण शाम को जब थोड़ा अंधेरा हो जाता तो गोबर के कंडो का धुआँ जयकिशन कर देता।

पास ही लकड़ी के घोड़े पर चढ़कर उसका बेटा बनी उछलता रहता।

एनी लगातार रॉबर्ट के साथ रहती। यह दिन एनी के लिए उजालों से भरे थे अथवा अंधेरे से ... वह समझ नहीं पाती।

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बारादरी के वरांडे में कतार से लगे लैंप पोस्ट में जय किशन तेल डालकर उन्हें जला रहा था। वे पंक्ति बद्ध जल रहे थे। जहाँ- जहाँ लैंप लगे थे वहाँ उन खंभों के नीचे उजाला था।

रॉबर्ट को तेज बुखार था। एनी अपने बेटे बनी को लेकर रॉबर्ट के आसपास ही घूम रही थी। वह कुछ समय के लिए भी उसे अकेला नहीं छोड़ती थी। टैरेंस को खबर कर दी गई थी। वह दो-चार दिनों में ही मुंबई पहुंचने वाला था। फिर यहाँ दो दिनों में बारादरी... जयकिशन लगातार चिकित्सक के संपर्क में रहता था। जयकिशन को चिकित्सक ने बता दिया था, अगर बुखार नहीं उतरा तो दिमाग तक पहुंच जाएगा। और फिर उन्हें बचाना मुश्किल हो जाएगा। उसने भुसावल जाने की सलाह दी थी। वहाँ अस्पताल भी है, जहाँ रॉबर्ट की अच्छे से चिकित्सा संभव है। लेकिन फिर भी हालात को देखते हुए चिकित्सक ना उम्मीद था।

न जाने क्यों बरसों से साथ रहते हुए पहली बार जयकिशन भी रॉबर्ट के लिए निराशा से भर उठा था। वह 1824 से रॉबर्ट के साथ था। यह 1879 था। वह भी बूढ़ा हो चुका था। ऐसा लगता है मानो वह रॉबर्ट के लिए ही पैदा हुआ था।

रॉबर्ट ने पूछा था -‘फ्लावर और विलियम, थॉमस और दोनों बेटियां कब आ रही हैं? क्या बेटे बेटियां पिता की बीमारी में नहीं आएंगे?’

एनी चुप थी। रॉबर्ट जानता है फ्लावर इसलिए भी नाराज थी कि अलग रहते हुए भी उसका बच्चों के प्रति कर्तव्य है।

अर्थात, वह बेटियों की शादी में नहीं आया। ऐसा नहीं था कि रॉबर्ट ने जाना नहीं चाहा था। बल्कि, परिस्थितियां ही ऐसी बन गई थीं कि वह जा नहीं सका। उसे गर्व था कि विलियम ने कितनी समझदारी से वहाँ सब कुछ संभाला था। पिछले वर्ष विलियम रॉबर्ट से मिलने आया था। वह कई बार रॉबर्ट से मिलने आ चुका था। रॉबर्ट निश्चिंत था कि विलियम अच्छी तरह अपना काम संभाल रहा है। उसने भी 19 वर्ष की आयु में वुलविच में रॉयल मिलिट्री अकादमी ज्वाइन कर ली थी। जब वह 1869 से 1871 तक भारत में एक सैन्य अधिकारी के रूप में रहा तो वह दो-तीन बार अपने डैड से मिलने आया था। अभी वह वापस ब्रिटेन में ही था। और इस समय चाहते हुए भी उसका आना नामुमकिन था। रॉबर्ट और फ्लावरड्यू के बार - बार कहने पर भी उसने शादी नहीं की थी। वह अपने ममा और डैड के बीच सकारात्मक विचारों को पहुंचाने में एक सेतु का काम करता था।

बहुत समझ नहीं थी उसको तब, लेकिन वह पारो से मिला था। अब विलियम सोचता है वह एक बुद्धिमान लड़की और उसके पिता के लिए उनके कामों के लिए मददगार (सपोर्टिव) भी साबित हुई थी। वह अक्टूबर का महीना था, जब रॉबर्ट को बुखार बार-बार घेर लेता था। ऐसा लगता था मानो वह बहुत टूट कर बिखर गया है। एनी साथ थी। बेटा बनी भी साल भर का हो रहा था।

लेकिन भीतर शरीर के तंतु लगातार टूटते जा रहे हैं। वह बार-बार अवसाद की स्थिति में चला जाता था।

एनी जब ब्रिटेन से आई थी, तो वह अपने साथ कई किताबें लाई थी। उसे ‘रहस्य’ के बारे में भी पढ़ने का शौक था। कविताएं तो वह विशेष तौर पर रॉबर्ट के ही लिए लाई थी। वह उनमें से छांटकर कुछ कविताएं रॉबर्ट को सुनाती थी। और जब रॉबर्ट उस बारे में कुछ कहता तो वह किताब में ही लिख देती। यह उसके लिए मानो एक धरोहर बनती जा रही थी... प्रेम और विश्वास की।

एनी ने अपनी छोटी-सी उम्र से रॉबर्ट को इतना प्रेम किया था कि वह सोच ही नहीं पाती थी कि रॉबर्ट अब सत्तर से भी ज्Þयादा उम्र का हो रहा है। निश्चय ही उसे रॉबर्ट के बिना ज़िंदगी बितानी पड़ेगी। उसे बस इस बात की खुशी थी कि रॉबर्ट उसका है और उसके बेटे बनी एंव दोनों बेटियों का पिता। अक्टूबर से बीमार पड़ा रॉबर्ट बहुत असहाय हो गया था। वह कहीं नहीं जाता था। बीच-बीच में बारादरी के बगीचे में आराम कुर्सी पर बैठा रहता। शायद ठंड उसकी छाती में पैबिस्त हो गई थी। पूरे चार महीने हो गए थे। जनवरी में टैरेन्स को खबर भेजी गई थी कि रॉबर्ट अधिक बीमार है। टैरेन्स ने भी खबर भेजी थी कि वह दो महीने में इंडिया पहुंच जाएगा। उसने यह भी बताया था कि छोटा बेटा किम अंकल के बड़े बेटे के पास है। वह भी सेना में जाना चाहता है। वह उसका प्रबंध करके इंडिया के लिए जहाज में बैठ जाएगा।

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अब समुद्री यात्रा में इंग्लैंड से आने के लिए कुछ शॉर्टकट रास्ते अपनाए गए हैं। जहाज भी सुखद आवश्यकताओं से युक्त हो गए हैं। वह जल्दी ही इंडिया पहुंच जाएगा। वह जानता है ‘वह’ रॉबर्ट के लिए कितना महत्वपूर्ण है। और उसके लिए रॉबर्ट।

जहाज में बैठा टेरेंस यही सोचता रहा कैसी रही रॉबर्ट की ज़िंदगी। जो चाहा वैसा मिला कहाँ? एक समर्पित चित्रकार! वर्षों की मेहनत जलकर सारी पेंटिंग्स खत्म हो गईं। सारे फोटोग्राफ जले। फ्लावरड्यू बच्चों के साथ उसे छोड़ कर चली गई। फ्लावरड्यू का तो ज़िंदगी में कोई उद्देश्य नहीं था। तो वह रॉबर्ट के उद्देश्य उसकी महत्वाकांक्षाओं के साथ आगे बढ़ती रहती। लेकिन, फ्लावर ड्यू ने तो कभी समर्पित होना जाना ही नहीं। लीसा के साथ खुश रह सकता था। लेकिन, जब उसके साथ जीने के अहम फैसले लेने थे, तब वह कमजोर पड़ गया। फ्लावरड्यू के साथ उसका प्रेम प्रसंग तो नहीं चल रहा था। सिर्फ़ सगाई ही हुई थी। वह तोड़ी जा सकती थी। वह यदि फादर से कह पाता... लेकिन वह चुप रहा। जो फादर ने कहा वह स्वीकार करता रहा। पारो की हत्या हुई। आखिर किसी इंसान में कितनी शक्ति होगी कि वह लगातार दु:खों को झेल कर भी मजबूती से खड़ा रहे। एनी से शादी एक सुखद प्रसंग है। कम से कम कोई तो है, जो उसके पास है।

न जाने क्यों टैरेंस को लग रहा है, अब इंडिया के लिए उसकी यह अंतिम यात्रा है। अब या तो वह रॉबर्ट और एनी को इंग्लैंड ला पाएगा या सब कुछ खत्म... ... खाली हाथ लौटना होगा। उसकी आँखें भर आई। समुद्र शोर मचा रहा था। उठती - गिरती लहरों में जहाज भी साथ दे रहा था। कितनी बार वह इंडिया गया और अपने भीतर प्रफ्फुलता महसूस करता रहा है। लेकिन इस बार का सफर एक अजीब सी रुलाई उसके भीतर हिलोरे लेती है। रॉबर्ट के लिए वह कोई अनहोनी सोचना नहीं चाहता। और शीघ्र ही उसके पास पहुंचना चाहता है। लेटे-लेटे कब आँख मुंद गई पता ही नहीं चला। जब नींद उचटी तो व उठा... ....डेक पर अंधेरा छाया था। समुद्र का पानी भी काला - काला। वह कितनी ही देर डेक पर खड़ा रहा। उसे उदासी ने फिर घेर लिया था।

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रात का सन्नाटा था,और टेरेंस पत्थर की मूर्ति बना राबर्ट के समक्ष बैठा था। कितने अवसादों से दोनों गुजर चुके थे। लेकिन कभी-कभी ऐसा भी होता है कि हमारे पास सांत्वना के शब्द नहीं होते। बस हम पत्थर के बुत बन जाते हैं। सामने वाले के दु:ख से दु:खी। जब रॉबर्ट अंधेरी खाई के निकट उस मुहाने (एज़) पर खड़ा था, जहाँ से चाहे जब वह गिर सकता था और अंधेरी खाई में कहीं खो जाता ... तब एनी ने उसे हाथ पकड़कर खींचा था। और नए तौर पर उजालों से परिचित कराया था।

सोचता है टेरेंस यदि एनी साथ नहीं होती तो? सचमुच एनी ने यथार्थ में उसका साथ दिया था।

‘सर, चिकित्सक आए हैं।’

जयकिशन ने टैरेन्स से कहा।

टैरेन्स उठकर कमरे से बाहर आया। चिकित्सक बलबीर सिंह ने बताया -‘मिस्टर टैरेन्स, उनकी हालत ठीक नहीं है। यहाँ इतनी सुविधाएं नहीं है। यह एक गांव है। आप उन्हें सेना के चिकित्सालय भुसावल ले जाएं। वहाँ ठीक से उनकी देखरेख हो सकेंगी।’

टैरेन्स ने जयकिशन की ओर देखा, जिसकी आँखों में भय और उदासी स्पष्ट दिख रही थी। वह चिकित्सक को बाहर छोड़ने गया। तब तक एनी टैरेन्स के सामने आकर खड़ी हो गई। कहा - ‘मिस्टर टैरेन्स, जब तक शरीर में साँसें बाकी रहती हैं तब तक प्रयत्न और विश्वास नहीं छोड़ना चाहिए। हम भुसावल चलते हैं।’

टैरेन्स ने स्वीकृति में सिर हिलाया।

जयकिशन सामान की पैकिंग में लग गया। फिटन गाड़ियों का प्रबंध कर लिया। एक गाड़ी में ऐसा प्रबंध भी कर लिया कि रॉबर्ट लेटकर यात्रा कर सकता था।साथ में एनी बैठेगी। दूसरी गाड़ी में बनी के साथ टैरेन्स और कुछ सामान। एक बैलगाड़ी जिसमें सभी लोगों का सामान और चौके का सामान,बर्तन आदि लेकर वह चलेगा। सेना के गेस्ट हाउस में इन लोगों का प्रबंध करवा दिया गया था।

होली बीत चुकी थी। पारो के जाने के बाद रॉबर्ट कभी होली के त्यौहार पर बाहर भी नहीं निकला। बरसों बरस बीतते गए ...वह किसी त्यौहार पर लेनापू गांव भी नहीं गया।

हाँ, पारो की कब्र या उसका जहाँ अंतिम संस्कार किया गया था, वहाँ वह अवश्य जाता था।

वह सोचता है क्या सचमुच पारो नहीं है । फिर यह दो बाँहें उसके गले में आकर कैसे लिपट जाती हैं। जब अकेला बैठा प्यानो में किसी धुन को बजाता था।

वह इंडिया आकर खो गया था। और एक अजीब सी धुन उस पर सवार थी कि उसे ढूंढना है अपने आपको... .... चाहे वह घोड़े पर बैठा होता तो तेज घोड़ा दौड़ाते हुए अपने होने को महसूस करना चाहता। या फिर उन गुफाओं के सामने वाली चट्टान पर लेट कर जहाँ पारो थी ... एक हवा का झोंका आता है और नदी के पास से पायलों की छुन-छुन आवाज आती है। वह नदी के पास दौड़ पड़ता था। ऐसा लगता पारो उसके साथ साथ चल रही है, कूद कूद कर पेड़ों से दवा की पत्तियां तोड़ रही है... नदी के पानी को अपने हाथों में भरकर उसकी ओर उछाल रही है। ‘रुको पारो... ....मैं भीग जाऊंगा’ कि आकाश से उतरती परी की तरह पारो उसके सीने से आ लगती।

वह अपने भीतर की गहराई में उतरने लगता है। उस गहराई में सभी अकेले हैं... अपने प्रश्नों के उत्तर तलाशते। और एक पुल बनाने की कोशिश करते कि शायद उस पार ऐसा कुछ होगा जो उसे सांत्वना दे सकें। उसका अपना होना उसके हाथों में थमा सकें। लेकिन उस पुल के पार भी वह अकेला था।

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पुल के नीचे बहती नदी की हर लहर में उसे बिखरे सपने दिखते हैं, उनके जिन्होंने उससे अपेक्षाएं की होंगी। और जब वह दूर तक देखता है तो उसके समक्ष वे वर्ष आकर खड़े हो जाते हैं, जब सामने लीसा थी। उसके क्वार्टर से दूर जाती ...मिस्टर ब्रोनी से आगे... ... उसने अपेक्षा की थी कि शायद लीसा उसे पलट कर देखेगी। लेकिन वह चली गई थी। जिसके ख्वाबों को उसने बेरहमी से कुचला था। नहीं, वैसा उसने चाहा नहीं था। लेकिन वैसा हुआ था।

सामान समेटते हुए जयकिशन ने उस पुराने किट को भी साथ रख लिया था। जिनमें शंख और सीपियां थीं। और जिनके कारण उनका झगड़ा फ्लावर मैडम के साथ हुआ था। वह जयकिशन को सामान समेटते लेटा -लेटा देखता रहा।उसने वह किट अपने बिस्तरे पर मंगवाई थी। शंख और सीपियों को पलटते हुए वह गमगीन हो उठा। इसमें लीसा के सपने थे। ये सपने शताब्दियों तक उसमें कैद रहेंगे। जिन्हें बहुत खुश होकर उसने व्हाइट टापू से बटोरा था। छोटी बड़ी सीपियां,शंख, ब्राउन ब्लैक काले चिट्टेदार सीपियां जिनमें अभी भी समुद्र की आवाज गूंज रही थी। उसमें उसने रॉबर्ट के साथ एक घर की कल्पना की होगी। एक साथ रहने के सपने संजोए थे। और जैसे ही उसने किट में वापिस शंख और सीपियां रखीं कि सीपियों की आँखें बंद हो गईं। और लीसा के सपने भी... फिर टूट कर उसका वहाँ से जाना।

लीसा निश्चय ही जानती थी कि अब नहीं लौटेगी इन पगडंडियों पर ...अजनबी हो उठीं पगडंडियां... अजनबी हो उठा रॉबर्ट... न जाने कितनी बार उसने इन बातों को अपने भीतर महसूसा है। और अपने छलक आए आंसुओं को अपने भीतर जज्ब किया है क्या यही ‘प्रेम’ होता है ...लीसा। ... पारो और फिर उससे बेतहाशा प्रेम करती एनी।

सोचता है रॉबर्ट मेरी अमानत में था ही क्या... बचपन से अभी तक के सफर में एक दराज भर कर यादों के पुलिन्दे।

‘कितने अफसोस रह जाते हैं न टैरेन्स ज़िंदगी में? चाहकर भी हम कुछ वापिस नहीं ला सकते।’

टैरेन्स चुपचाप रॉबर्ट की ओर देखता रहा।

रॉबर्ट समझ गया है, भुसावल जाकर भी क्या होगा? सिर्फ़ मानसिक शांति की शायद रॉबर्ट ठीक हो जाए।

टैरेन्स जानता है ‘रॉबर्ट ठीक है’ ऐसा वह अभिनय कर रहा है। लेकिन वह सचमुच बीमार है। बुखार उतरता नहीं है कभी-कभी ज्Þयादा तेज हो जाता है।

वह मार्च का अंतिम सप्ताह था जब भुसावल जाने को वे लोग निकले। बंद गाड़ी में लेटा हुआ रॉबर्ट ठंड से कांप जाता था। दो सौ मील से ज्Þयादा की दूरी थी भुसावल तक की। सारा दिन सारी रात सफर करना होगा। अगर रात कहीं रुके तो दिन में और तीन चार घंटे का सफर।

रात अंग्रेजों के लिए बनाए गए गेस्ट हाऊस में,जहाँ मच्छरों का भयंकर प्रकोप था, रुकना पड़ा। मच्छरों को हटाने के लिए कोई व्यवस्था नहीं थी। टैरेन्स रात भर जागता रहा। जबकि फिटन के ड्राइवर मुंह पर चादर ओढ़ कर सो गए। एनी रॉबर्ट और बनी की रात भर मच्छरों से रक्षा करती रही। जय किशन भी बहुत थका था, वह सोता-जागता रहा। यहाँ रुकना बहुत दुखदाई था। लगता था सभी मलेरिया बुखार से पीड़ित हो जाएंगे। सुबह गेस्ट हाउस के रसोइए के साथ मिलकर जयकिशन ने रॉबर्ट के लिए परहेज वाला खाना बनाया और वे लोग फिर आगे की सफर के लिए निकल गए। रास्ते में एक अंग्रेज परिवार, जो मुंबई की तरफ जा रहे था, मिला। हाथी पर जो स्त्री बैठी थी, उसने हाथी रुकवाया और टैरेन्स से पूछा ‘यह कौन है?’

उसने फिटन की लकड़ी की खिड़की से अंदर देखते हुए पूछा।

‘यह रिटायर्ड मेजर रॉबर्ट गिल हैं।’

‘क्या!रॉबर्ट गिल जो मद्रास में थे।’ वह आश्चर्य से बोलते हुए हाथी से उतर गई। वह फिटन के नजदीक आ गई। दरवाजा खोलकर एनी उतरी।

‘आप?’

‘मैं मीना हूँ। मेरा रॉबर्ट सर से मद्रास समुद्र तट पर कई बार मिली हूँ। वे एक लड़की का इंतजार करते थे। फिर उसके चित्र बनाते थे।’

एनी शरमा गई। कहा - ‘मैं वही लड़की हूँ।’

मीना और एनी लिपट गईं। एनी ने बताया ‘भुसावल के अस्पताल ले जा रहे हैं।’

तभी रॉबर्ट ने आँखें खोलीं। संभवत वह बातें सुन रहा था ...बोला- ‘मीना मोटी हो गई हो। लेकिन इतने बरस याद कैसे रखा मुझे?’

‘अरे रॉबर्ट सर, आप को कौन नहीं जानता? अजंता केव्ज़ की खोज किसने की, किसने बनवाई थी। यह सब अलग बात है। लेकिन चित्रों के माध्यम से अजंता केव्स को आप ही सामने लाए। मेरे हस्बैंड ने सिडनेहम (२८ीिल्लँें) में वह एग्जिबिशन देखा था। लेकिन वेरी सैड वहाँ आग लग गई थी।’

एनी ने चुप रहने का इशारा किया। वह चुप हो गई। उसने रॉबर्ट का हाथ पकड़ा और चूम लिया। ‘रॉबर्ट सर, आप ठीक हो जाएंगे। फिर मैं अपने हस्बैंड के साथ अजंता केव्स देखने आऊंगी।’ रॉबर्ट ने आँखें मूंद लीं। एक कोमल मुस्कान उसके होठों पर तैर रही थी। फिटन चल पड़ी थी। रॉबर्ट ने सोचा सभी मिलते जा रहे हैं क्या फ्लावर नहीं मिलेगी?

मीना ने जयशंकर की गाड़ी में ढेरों फल और खाने-पीने की चीजें रख दी थीं। वह आगरा से लौट रही थी। उसके दोनों बेटे ब्रिटिश सरकार की सेना में उच्च पद पर थे।

भुसावल पहुंचकर वहाँ के अस्पताल में रॉबर्ट का इलाज शुरू हो गया था। वह घर पर ही रहना चाहता था। ताकि एनी, बनी, टेरेंस उसके सामने हों। यह कठिन समय था, जब रॉबर्ट को तेज बुखार होता तो वह न जाने क्या क्या बोलने लगता था। रॉबर्ट अधिकतर पिछली ज़िंदगी में पहुंच जाता। तब एनी उसके माथे पर गीली पट्टी रखती... बुखार कुछ कम होने पर वह टैरेन्स और एनी से बातें करता रहता। भुसावल के चिकित्सकों ने टैरेन्स को नाउम्मीदी से अवगत कराया था। उसने एनी को नहीं बताया था लेकिन कहीं ना कहीं एनी समझ चुकी थी।

‘सुनो टैरेन्स, मैंने असंख्य गुनाह किए हैं। मैं लीजा का गुनहगार हूँ ... मैं उसकी संतान का गुनहगार हूँ ...मैं फ्लावरड्यू का गुनहगार हूँ ... रॉबर्ट ने आँखें मूंद लीं। एनी झपटकर उठी। उसने पसीने से भीगे रॉबर्ट के माथे को सहलाया और फिर उसकी दाढ़ी सहलाने लगी। ‘रॉबर्ट, तुम किसी के गुनहगार नहीं हो। जो होता गया तुम स्वीकार करते गए। तुम एक नेक दिल इंसान हो। प्यार से भरे या ऐसे कहो सबको प्यार देते हुए ... प्यार से ओतप्रोत...उजालों से तुम्हें खींचकर मैं वापस अंधेरे में नहीं जाने दूंगी।

‘रॉबर्ट तुम्हें जीना होगा, मेरे लिए। अपने इस बेटे के लिए।’

इतने वर्ष तक ज़िंदगी से लड़ते हुए जीते हुए ...मानो अब रोशनी चुक रही थी। वह तपते जिस्म से बड़बड़ा उठता था। रॉबर्ट के पास रखी कुर्सी पर एनी, टैरेन्स बैठे थे। रॉबर्ट फिर कुछ कह रहा था। वह अवचेतनावस्था में था। लीजा़... देखो कितनी बर्फ पेड़ों पर अटकी है। अभी कल ही तो कितनी पत्तियां झर रही थीं। आज और बर्फ गिरेगी ...हवा ठहर गई है... पत्तियां निश्चल हैं... आकाश स्थिर है... तुम्हारे बालों में यह कैसी रोशनी है ...लीसा रुको... सूरज को उगने तो दो... ओह टैरेन्स.. ...टैरेन्स... टैरेन्स ने रॉबर्ट का हाथ पकड़ लिया।

‘तुम सो जाओ रॉबर्ट।’

जय किशन दरवाजे पर झूलते पर्दे से टिका खड़ा था। आँखें आंसुओं से डबडबाई हुई थीं। टैरेन्स... मैं तुम्हारा भी गुनहगार हूँ। फादर,मैं कन्फेस करने आया हूँ... टैरेन्स, जानते हो मिस्टर ब्रोनी से मैंने तुम्हारी मदर, किम अंकल सभी के बारे में सब कुछ जान लिया था। कैसी उत्सुकता थी ...टैरेन्स, मैंने क्यों तुम्हारी फैमिली की लाइफ में घुसपैठ की ... वह छोटे - छोटे पर्चे जिसे मैंने इंडिया आते समय जहाज में पढ़ा था। मैं सिर्फ़ प्रेम ढूंढता था टैरेन्स .... मैं तुम्हारा और अगाथा आंट का भी दोषी हूँ।

‘प्लीज चुप हो जाओ रॉबर्ट ...मुझे मिस्टर ब्रोनी ने सब कुछ बता दिया था।’

‘क्या लीसा जीवित है, टैरेन्स?’

रॉबर्ट ने फिर आँखें मूंद लीं।

‘जानता हूँ, वह अब नहीं है... नहीं तो वह यहाँ अवश्य आती। वह मुझे प्रेम करती थी... ट्रू लव... तभी तो उसने शादी नहीं की।’

टैरेन्स अवाक रह गया। रॉबर्ट को यह कैसे पता? मैंने तो कभी नहीं बताया कि बच्चा पैदा होते समय लीसा को पर्याप्त सांस नहीं जा रही थी... उसके बाद लीसा इतनी कमजोर हुई ...बच्चा भी नहीं जी पाया। और लीसा कुछ ही वर्ष जीवित रही।

रॉबर्ट सो गया था।

जयकिशन चूल्हे में लकड़ी जलाते वक्त रो पड़ा ...समझ गया था कि रॉबर्ट सर साथ छोड़ रहे हैं। कहाँ जाएगा वह? उनके सिवा तो कोई उसका है ही नहीं। वह बिछड़ रहा था रॉबर्ट सर से... क्या वह यह हादसा सहन कर पाएगा।

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महमूद छह-सात महीने पहले ही हैदराबाद लौट गया था। वहाँ उसका परिवार है। पत्नी है, बेटियां हैं जो ब्याह दी गई हैं। बेटों ने कोई ना कोई व्यापार छोटा-सा सम्हाल लिया है। रॉबर्ट ने महमूद की पत्नी के लिए सोने की चेन और मीना जड़ा लॉकेट दिया है। उसका वेतन भी रॉबर्ट के पास इतना जमा हो गया था कि वह हैदराबाद जाकर अपना छोटा ही सही कोई काम शुरू कर सकता था। उसे एक ठेला खरीदने की इच्छा थी, जिस पर अंगीठी रखकर वह चावल चिकन वाला बनाएगा। वह जमा रुपयों को देखकर बहुत गदगद हुआ था... उसने रॉबर्ट के पैर ही पकड़ लिए। रॉबर्ट ने उसे उठाकर उसके कंधे थपथपाए। अपने विदेशी कपड़े भी उसे दिए। वह रॉबर्ट की तमाम यादों के साथ हैदराबाद चला गया।