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स्यामीज

स्यामीज

मनीषा कुलश्रेष्ठ

''अरे वाह, ये तो दो कठपुतलियां हैं, एक ही काठ के टुकडे पर आगे - पीछे बनाई गईं. भारतीय कला का बडा अद्भुत नमूना हैं यह भी ! इधर से देखो तो मानसी, उधर से देखो तो रूपसी. यूं नचाओ तो मानसी, वैसे लचकाओ तो रूपसी. क्या बताया था तुमने, रूपसी यानि 'सुन्दर स्त्री' और मानसी याने 'बुद्धिमान स्त्री'. वाह, भई वाह!'' मैं हैरान होती हूँ

''कोई कला - वला नहीं है. वो तो हमारे कठपुतली पेन्टर की गलती का कमाल है. उसने एक तरफ का चेहरा गलत पेन्ट कर दिया था. सोचता हुआ चेहरा. मुझे नहीं जंचा. पुतली सोचती हुई कहीं भली लगती है? फिर मैं ने दूसरी तरफ चेहरा बनवाया हरदम मुस्कुराता हुआ, भली हिन्दुस्तानी औरतों का - सा. बस ऐसे ही बन गईं ये दोमुंही कठपुतलियां.'' सूत्रधार खीजा सा है, मुझसे मुँह फेर कर कठपुतलियों के उलझे धागे सुलझा रहा है.

'' अच्छा!”

यह इडियट कुछ भी कहे, मुझे तो ये काठ की, दोमुंही कठपुतलियां बेहद पसन्द हैं. ये कठपुतलियां आपस में झगड़ पडती हैं. मैं ने देखा है, झांक कर. एक डोर से बंधी, एक ही काष्ठ से रची ये दो कठपुतलियां हैं कि जाने, दो स्यामीज ज़ुडवां आत्माएं! मुझे लगता है कि दोनों अलग होने की सोचा करतीं हैं मगर और उलझ जातीं हैं. दोनों के मिजाज और वजूद, ढब और चाल अलग - अलग हैं, सो जुडे होने की पीडा से हमेशा आक्रान्त रहतीं हैं. खुद को एक दूसरे से छिपातीं हैं और खुद के कुछ और ही होने का गुमान पालतीं हैं _ '' मैं यह नहीं वह हूँ, या यह नहीं होती तो वो होती, अगर तुम इस कदर साथ न जुडी होतीं तो मैं वह भी हो सकती थी. इस स्यामीज ज़ुडाव से घबरा कर, ये वक्त काटने को हर दिन, स्टूडियों के धूमिल प्रकाश में एक नया स्वांग रचती हैं. सूत्रधार इन्हें क्या खेल खिलवाता है, वह दुनियादार दुनिया के शातिर किस्से हैं. प्रस्तुतियों के दौरान हजारों दर्शकों के बीच होने वाले खेल के किस्से हैं. हमें उन किस्सों से क्या? मुझे तो यह स्टूडियो के धूमिल अंधेरों में होने वाला खेल ज्यादा पसंद है. इन दोनों कठपुतलियों के नित नए, गुमान भरे खेल की मैं अकेली दर्शक हूँ फिलहाल..

“श्शचुप्प आज का नया खेल शुरूरूरूरू..” देखें आज ये स्वयं को क्या समझ रही हैं _

मानसी : ( यह टेबललैम्प की तरफ मुंह किए लटके - लटके हिलती है, इसके काष्ठ के चेहरे पर कठपुतली बनाने वाले ने रंगों के कमाल से रचा है, सोच में डूबा हुआ भाव. यह इस काठ के चेहरे का एक स्थायी भाव है, छोटी चमकीली आंखें, टेढी मुस्कान, कटे भूरे बाल और पहनावा _ जीन्स, टी शर्ट, ठोडी पर हाथ रखे सोचने की ही मुद्रा) '' ये हमारी डायरी है. खूबसूरत है न, लैदर के कवर वाली.''

रूपसी : वाह! ( दरवाजे की तरफ रुख क़िए यह कठपुतली, हाथ मटका कर, गर्दन हिला कर तपाक से डायरी पकड लेती है, इसके काष्ठ - चेहरे पर चित्रांकित है _ एक लम्बी मुस्कान, बडी - बडी आँखें, देह पर सलीके की साडी, बालों में फूल)

मानसी : ( डायरी छीनते हुए) एक कलाकार की डायरी है ये, किसी घरेलू औरत की नहीं, तुम अपने घरेलू किस्से तो इससे दूर ही रखना. न इसमें अपने टसुए बहाना, न अपना फ्रस्ट्रेशन इसपर उतारना. मुझे पता है तुम बाज नहीं आओगी, हर झगडे क़े बाद इसे लेकर बैठ जाओगी. बट, प्लीज बी सेन्सीबल, यह एक बुद्धिजीवी औरत की डायरी है पति - सास की बुराई का लेखा - जोखा, घर खर्च का हिसाब, पार्टी का मेनू, धोबी के कपड़ों की लिस्ट वगैरह इससे दूर ही रखना.

रूपसी : कलाकार! ( हैरान होती है, पर मुखडे क़ा भाव वही, फटी आंखें और कर्णचुम्बी मुस्कान.)

मानसी : हां, तो नहीं क्या? (सोच में डूबी कठपुतली, हंसते में भी सोच में डूबी रहती है.)

रूपसी : इतनी कनफ्यूज्ड़ होते हैं कलाकार? तुम्हें तो ये तक नहीं पता कि तुम करने क्या जा रही हो, क्या लिखने वाली हो. कोई विषय तुम्हें स्पष्ट नहीं रहता. न तुम्हें यह पता रहता कि जो तुम प्रस्तुत कर रही हो वह समाज को क्या दिशा देगा. सामाजिक विषयों को प्रस्तुत हुए तुम्हारे हौसले पस्त हो जाते हैं. बस मानव की भीतरी परतें कुरेदकर, उनकी मनोवैज्ञानिक उलझनों या फन्तासियों को शब्दों का जामा पहना कर अपरिचित से परिवेश के कोलाज में चिपका कर बना देती हो एक प्रस्तुति. 'फ्लूक माय डियर फ्लूक' .मानसी : बेवकूफ हो तुम. मैं चाहूँ तो कोई भी विषय उठा लूं और सरपट लिख डालूं लिखा भी है. अविवाहित मांओं पर, गर्भपातों पर, युद्ध पर, आतंक पर ,बूढों की समस्याओं पर, उनके मनोविकारों पर, अकेलेपन पर .

रूपसी : (हंसी दबा कर): वो क्या कहते हैं ना! अम्म...हाँ तुम्हारा अपना ''इलेक्ट्रा कॉम्पलेक्स''. सही?

मानसी : जस्ट शटअप! ये तुम नहीं तुम्हारे अन्दर की एक आरामपसंद घरेलू औरत बोल रही है. ब्ला ब्ला ब्ला! गॉसिप! गॉसिप! गॉसिप! तुम्हारी सहेलियों का असर है यह. मुझे याद है, मैं ने तुम्हारी एक सहेली को अपनी लिखी एक कहानी पढने को दी थी अपनी सोचा था अंग्रेजी साहित्य में एम ए है. साहित्य की कुछ तो समझ होगी. कमबख्त एक पार्टी में सब के सामने कहती है ''ओ डियर, तुम्हारी कहानी पढी बहुत बोल्ड लिखती हो, एक्स्ट्रामेराइटल के फेवर में हां अं'' चलो वो तो वो, मगर तुम? मेरे पेन्टर दोस्त की एक्जीबिशन में सबके सामने तुमने यह क़यास लगा डाला कि इस पेन्टर का जरूर कोई नाजायज बच्चा होगा क्योंकि इसकी हर पेन्टिंग में..........

रूपसी : पता कर लो. गलत साबित नहीं होऊंगी मैं.

मानसी : छोड़ो भी तुम्हारी औकात से बाहर है कला और साहित्य. तुम बस सजो - संवरो, उसके साथ हर सप्ताहान्त उन बोझिल पार्टीज में जाओ, अपनी ये कठपुतलीनुमा प्लास्टिक स्माइल का स्टिकर चिपका कर. दूसरी पुतलियों से कुढ़ो. अपने सूत्रधार पर बराबर नजर रखो. वो तुम्हारे धागे संभाले न संभाले तुम उसकी उंगलियों में बंधे धागों से उसे यह अहसास जरूर कराती रहो कि तुम ही नहीं वह भी तुमसे बंधा है. न सही पूरा मगर उंगलियां तो बंधी ही हैं.

रूपसी : मैं? इट्स नॉट माय कप ऑफ टी.

मानसी : वाह! क्या अंग्रेजी झाड़ने लगी हो, नौ साल में. जब नई - नई आई थीं ये, तो किसी के अंग्रेजी बोलते ही काठ हो जाती थीं. कान सुन्न पड ज़ाते थे. खिसिया कर मुस्कुराने लगती थीं. अब भी, गलत मगर फर्राटेदार अंग्रेजी बोल कर ये मत समझ लेना कि तुम अंग्रेजी दां हो. जनता मुस्कुराती है _ तुम्हारे बिहारी एक्सेन्ट में अंग्रेजी बोलने पर.

रूपसी : जनता को मुस्कुराने दो मेरी बला से. मैं किसी हीनभावना से ग्रस्त नहीं.

मानसी : हां, हां. जो कुछ हो ना वो उसकी वजह से ( धागों की तरफ इशारा करके) हो या मेरी. वरना तुममें तो आज भी किसी चीज क़ा शऊर नहीं. शुरूआत के सालों में तब भी तुम दूसरों की देखा - देखी, घर के इन्टीरियर में नये प्रयोग करती थीं, कॉन्टिनेन्टल कुकिंग सीखती थीं. इंग्लिश - इटेलियन डिनर सर्व करती थीं पार्टियों में. कॉकटेल्स के मजेदार मिश्रण सीखे थे वह खुश रहता था. अब अपने उसी फूहड ढ़र्रे पर लौट आई हो. ठूंस कर खाती हो. वजन है कि बढता ही जा रहा है, कहा है न कि वजन मत बढाओ मुझसे नहीं उठेगा तुम्हारा बोझ. तुम्हारे बोझ से मैं ही झुक जाऊंगी.

रूपसी : रहने दो, रहने दो. अपनी तरफ भी देखो जरा, उस की कमीज में एक बटन तक नहीं लगा सकतीं. वो खुद लगाता है. तुमने कभी उसकी कमीजें प्रेस नहीं की. इतनी नफीस बनती हो कि किसी दिन नौकरानी न आए तो तुम्हें डिप्रेशन हो जाऐगा और तुम जरा से बर्तन मांज देने पर बतंगड बना डालोगी. नाटक खडा कर लोगी. दिमाग में इस एक वुमन लिब के कीडे से तुम जिन्दगी की सुचारू गाडी में ऐसे कींऽऽकिच्च करके ब्रेक लगा दोगी कि फिर उसे, उसी रफ्तार पर आने में महीनों लग जाएंगे. रही मेरे वजन की बात तो(शरमा कर) इन्हें मांसलता ही पसंद है. फिर मेरे कौन से तुम्हारी तरह कलाकार किस्म के दोस्त हैं? मेरी मानो तो ऐसे प्रशसंकों, कलाकारों से दूर ही रहो. मेरी समझ से दोस्ती नाम की चिडिया नर और मादा के बीच होती ही नहीं.

मानसी : तुम मेरी बात तो छोड ही दो तुम क्या जानो बौद्धिक किस्म की खालिस दोस्ती को? और सुनो इस मांसलता वाली बात के मुगालते में रहना भी मत, हां! तुम खुद जानती हो वो छरहरी औरतों को कैसे ताकता है. तुम खुद हर पार्टी के बाद इस बात पर झगडी हो. वो तुम्हें जम कर अपने इन जुमलों से बेवकूफ बनाता है और तुम बनती हो. मसलन _ क्या करोगी डायटिंग करके? मुझे तुम यूं ही अच्छी लगती हो. साडी तो भारी नितम्बों पर फबती है. क्या करोगी कार सीख कर मेरी जान! तुम्हारे पास तो 'शोफर ड्रिवन' कार है. छोड़ो नौकरी का चक्कर, बस सज - धज कर, ठुमकती रहा करो. तुम्हें किसी चीज क़ी क्या कमी?

मेरी प्यारी झल्लो, तुम्हें इन षडयन्त्र की बू से महकते जुमलों के पीछे छिपे अर्थ समझ नहीं आते?

पहली बात, थोडे ही सालों में अम्मां लगने लगोगी तो वो तुम्हें परदे के पीछे हमेशा के लिए लटका देगा. चिपकी रहना मुस्कुराती हुई, मूर्खता की हद तक आंखें फाडे. दूसरी बात, कार सीख लोगी तो स्वतन्त्र होकर बाहर निकलोगी. दुनिया अपनी नजर से देखोगी. आर्ट गैलेरी, किताबों की दुकानों में जाओगी, तो विद्रोह न कर बैठोगी. अपने धागे न छुडा लोगी? और तीसरी नौकरी, आर्थिक सक्षमता ही इस परतन्त्रता से निकलने का सबसे बडा माध्यम है. सिमोन ने नहीं कहा था 'पर्स की आजादी' जाओ, तुम क्या जानो सिमोन कौनसी? वह लक्मे वाली सिमोन टाटा नहीं. सिमोन द बोउवा . मैं ने देखा है तुम्हें, तुम किस - किस तरह से उससे पैसे निकलवाने के लिए नाटक करती हो. कभी पेट के रास्ते से होकर दिल तक पहुंचने की राह बनाती हो कभी पेट के नीचे....

रूपसी : हद करती हो तुम भी(हकला कर) क्... क्या मैं नहीं जानती. और रही बात मेरे आर्थिक रूप से परतन्त्र होने की बात तो, कमबख्त तुम कलाकार न होतीं, या कलाकार होने का गुमान सर चढ कर न बोला होता तो तो मैं सोचती भी अपने कुछ बनने के बारे में. मैं फैशन इण्डस्ट्री में एक सफल क्रिएटिव मेकअप आर्टिस्ट होती, तुम तो जानती हो चेहरे मुझे कैनवास लगते हैं और कॉस्मेटिक्स एक हजार रंगों वाली पैलेट. रंगों से चेहरों पर कला उकेरना मेरा प्रिय शगल है. मैं ने बताया था न तुम्हें सपनों में खूब कॉस्मेटिक्स खरीदा करती हूँ

मानसी : ये तो नहीं जानती पर ये खूब जानती हूँ कि तुम्हारी ट्रेन अकसर सपनों में छूट जाया करती थी जबसे मेरी चार किताबें छपीं हैं, तुमने सपनों में ही, ऑटो पकड क़र अगले स्टेशन पर ट्रेन पकडना शुरु कर दिया. सपनों में मोजैक़ की बनी बडी नीली मीनार से कूद कर ग्लाइडर की तरह उडना बंद किया कि नहीं?

रूपसी : छोड़ो सपनों को. हकीकत की बात करो, तुम्हारा कलाकार होना मेरे फैशन इण्डस्ट्री में, मॉडलिंग की दुनिया में होने के सपने को खा गया. मेरे नृत्यांगना होने के सपने को डंस गया.

मानसी : हो तो तुम कथक में विशारद.

रूपसी : हां, अच्छी - भली क्लासेज लिया करती थी स्टेज शोज क़रना चाहती थी.........

मानसी : ( उसी सोचती सी मुद्रा में खिलखिला कर, अपने धागों पर हिल - हिल कर) हां, वह बिदक गया तेरे टेलर मास्टर जैसे गुरु जी को देखकर. '' छि: इनके साथ घूम - घूम कर शो करोगी?'' तुम पीछे हट गयी आखिर उस की प्रतिष्ठा का सवाल था.

रूपसी : हां, उसे लगा उसकी खास दोमुंही कठपुतली का लेखिका होना, कथक डांसर होने से कहीं सेफ है. एक कोना, एक पेन और कोरे पन्नो की ढेरी. रंगा करे पन्ने जितने चाहे. दायरे से बाहर तो नहीं निकलेगी. पर तुम स्मार्ट निकलीं. निकल पडीं.

मानसी : गट्स माय डियर. गट्स!

रूपसी : गट्स? या विद्रोह, अशांति, गैरजिम्मेदाराना व्यवहार. कहने को तो तुम स्वतन्त्र हो मगर वैसे तुम्हें उसकी दी प्रतिष्ठा - सुविधा छोडने का मन नहीं करता न! बडे शौक से अपनी कवि - गोष्ठियों के लिए तुमने खादी कुर्ते सिलवाए थे, लेकिन पहन कर जाओगी मेरी शिफॉन साडियां ही.वहां भी शान.

मानसी : शान! कमबख्त, एहसान देती है. तुझे यह स्टायल, यह सब चीजें पहनने का शऊर किसने दिया? हाँ, तू तो अपनी बनारसी साडियों और लम्बी बांहों के ब्लाउज में खुश थी. तू और तेरा वो बहनजीनुमा स्टायल. तेरा कायाकल्प मैं ने किया. हॉल्टरनेक ब्लाउजेज़़, ईवनिंग गाउन्स...वरना तूने तो उस के फरमान

'मुझे तुम्हारा स्लीवलैस ब्लाउज पहनना पसन्द नहीं.' के आगे सर झुका लिया था. फैशनेबल होने की पैरवी मैं ने की. तुझे विद्रोह सिखाया.

रूपसी : (रूआंसू होकर)क्या विद्रोह सिखाया! तब से हमारे और उनके बीच के सूत्र उलझे तो उलझते ही चले गये. विद्रोह के नाम पर स्वार्थ सिखाया पहले अपना दैहिक सुख, पहले अपना खर्च, पहले अपना अस्तित्व. अरे कहीं ऐसे ये नाजुक़ डोर के रिश्ते चलते हैं? वो आजकल धमकाते हैं. उस कलाकार की शह से 'वुमन लिब' का झण्डा उठाया तो तुझे यहां तो उसी के डण्डे पर टांग दूंगा.

मानसी : तुम्हीं सुना करो ये बातें, मुझे आकर मत बताया करो, जी जल जाता है मेरा तो.तुम्हारी जगह मैं होती तो निकल गयी होती कब की उसे तमाचा मार के.

रूपसी : अच्छा! तुम और इस यहां से निकलोगी? कितना कुछ तो वह सीधे - सीधे तुम्हें कह जाता है, तुम्हारी बौद्धिक दोस्तियों के नाम पर तुम्हें क्या नहीं सुनाता. तुम सुनती हो, झगड़ती हो मगर जाती तो नहीं? तुम्हीं चली जाओ तो हम सब चैन से जी सकें. पर पहली बात तो जाओगी कहाँ तुम? मुझसे अलग कैसे होओगी? और मैं उससे अलग होने से रही. हम अलग तभी हो सकेंगे जब ऑपरेशन हो, आरी चले वह ऐसा खतरा मोल नहीं लेगा. पर मुझे पता है, तब भी तुम क्यों जाने लगीं? ऐसे आराम कहां मिलेंगे तुम्हें? इतना बडा घर, अपना कोना, अपनी किताबें, अपना संगीत रौनकों की आदत हो चली है. जिसे तुम एम. सी. पी. ( मेल शॉविनिस्टिक पिग) यानि मर्दवादी सुअर कहती हो. वह हमारे कपड़ों के, मेलों के खर्चे, और कई सारे बिल चुकाने में पूरे महीने खटता है . बुद्धिजीवयों के बीच साल के चार स्वतन्त्र खेल करके, अंग्रेज और रूसी पपेटियर्स के नाटकों का हिन्दी अनुवाद करके जो तीन - चार हजार रुपल्ली मिलते हैं उन पर इतराती हो. नौकरी की बात तुम मुझसे कहती हो, तुम खुद कर लो ना. पर तुम क्यों करोगी? तुम्हारी रचनात्मकता मुरझा नहीं जाएगी? रचनात्मकता _ क्रिएटिविटी माय फुट! पूरा का पूरा महीना पडे - पडे ग़ुजार देती हो. नौ बजे उठती हो. स्टडी में पडी रहती हो. हमें सूत्रधार के रोजमर्रा की प्रस्तुतियां करनी ही होती हैं. उन्हीं से जिन्दगी चलती है.

मानसी : बहुत कडवी हो रही हो? ( गाल छूकर, छेडक़र)

रूपसी : सच्चाइयां कडवी ही होती हैं.( हाथ झटककर)

मानसी : लो, अब तुम सिखाओगी.

रूपसी : हां क्यों नहीं, कोई भी किसी को भी सिखा सकता है. अच्छा हुआ आज बात छिड़ ही गयी. मुझे तुमसे जरूरी बात करनी थी.

मानसी : क्या? ( लापरवाही से, मगर सशंकित होकर)

रूपसी : वो उस तेरे कलाकार, रूसी पपेटियर से मुलाकातों की इन्हें भनक है. उसे लगता है, देसी शो करते - करते तू रूसी सर्कस की कठपुतली न बन जाए. बडा उलट - पुलट कर देखता है वह रूसी कठपुतली कलाकार तुझे. उखड़ रहे थे. कह रहे थे _ बहुत उड़ रही है, पर काटने होंगे.

मानसी : तू कहीं जलने तो नहीं लगी मुझसे, उसकी तरह? वो तो 'अभिमान' वाला अमिताभ बच्चन साबित हो रहा पर पर तू तो मेरी अपनी है, मेरी अवियोज्य जुडवां, स्यामीज टि्वन. याद है मेरी अथाह प्रतिभा और तेरे घरघुस्सुपने और भीरूपने के चलते हमें मनोश्चिकित्सक की लम्बी कुर्सी पर लेटना पडा था.

'' इनमें आत्मविश्वास की भयंकर कमी है, जीने की इच्छा मर चुकी है. इन्हें बाहर निकलने दें. मनचाहा काम करने दें. इनकी प्रतिभा को बढावा दें.''

रूपसी : मनोचिकित्सक! उनका क्या! उनकी आमदनी का मुख्य स्त्रोत आजकल हम ही रह गई हैं. तुम और तुम्हारी महत्वाकांक्षा ले डूबेगी हमें.

मानसी : गलत, गलत गलत. मैं महत्वाकांक्षी कतई नहीं हूँ पर मेरी आत्मा सजग है, मैं कलाकार हूँ मैं अपनी आत्मा की तुष्टि के लिए अपनी कला को माध्यम बना कर इस संसार से कुछ कहना चाहती हूँ बस, अपना एक स्वतन्त्र अस्तित्व चाहती हूँ बस और क्या? इस खेल का मतलब यह नहीं कि कठपुतली बस बर्तन खटकाए और मम्मी - पापा का स्वांग रचे.

रूपसी : तू यह दोष उसे मत दे. तुझे विशुद्ध कला की दुनिया में जाने के लिए उसने कब रोका? बल्कि मुझसे ज्यादा तुझे प्रोत्साहित किया. उसने बुद्धिजीवी, संवेदनशील दर्शकों के बीच मेरे घरेलू चेहरे को पीछे कर तेरे कलाकाराना रूख क़ो मंच पर आगे किया, और खुद भी प्रशंसा पाई और तुझे भी दिलवाई. चाहे वह मोहन राकेश का 'लहरों के राजहंस' की 'सुन्दरी' हो कि विजय तेण्डुलकर के नाटकों के महत्वपूर्ण स्त्री - पात्र हों. तुझे ही तवज्जोह दी है उसने. हम तो आम जन तक पहुंचने वाली रोजमर्रा की लोक - कला का प्रदर्शन मात्र बन कर रह गए हैं.

'' बोल री कठपुतली डोरी कौन संग बांधी, सच बतला तू नाचे किसके लिए!''

मानसी : हाँऽऽहाँ. मुझे कब इनकार है. तू उसका इतना पक्ष क्यों ले रही है? तू मान न मान, वह मेरे स्वतन्त्र होते चले जाने से कभी बुझ जाता है, कभी जल जाता है. तुझसे ज्यादा मैं जानती हूँ . अतिरिक्त संवेदनशील होने के नाते मैं ने महसूस किया है. लेकिन डियर, उसकी यह दस प्रतिशत जलन मेरे फेवर में रहती है. इसके चलते वह सदा मुझसे आकर्षित रहेगा. तेरे 'सौ प्रतिशत समर्पण' के फार्मूले को अधिकतर सूत्रधार लिजलिजी ऊब मान लेते हैं. तभी तो सुनती हो तुम '' कठपुतली हो कठपुतली की तरह रहा करो.'' या ''हर जगह क्या इन काठ की पुतलियों को ले जाना. आखिर हमारी भी कोई जिंदगी है.हमारी उंगलियां भी तो कभी - कभी धागों से आजादी चाहती हैं.'' जानती तुम भी सब कुछ हो, पर अनदेखा करती हो.

रूपसी : हां - हां, जानती हूँ साथ तो मुझे रहना होता है दिन - रात. अनदेखा न करूं तो रोज मंच और नेपथ्य दोनों युद्ध का मैदान बन जाएं. मैं तो थक गई हूँ अब इस लडाई से. तुम तो लडाई के मुद्दे छेड क़र गायब हो जाती हो, अपनी किताबों में, कलाओं की छायाओं में विलीन हो जाती होया फिर अपनी किसी कहानी के पात्र में उतर जाती हो. इसकी सारी सामाजिक प्रस्तुतियों की जिम्मेदारी मेरे सर.

मानसी : सामाजिक प्रस्तुतियां क्या? पार्टियों में जाना! क्लब, ऑफिसों के आयोजनों में चश्मा लगा कर पल्लू समेट कर सोफों पर अपने - अपने सूत्रधारों की बगल में बैठ जाना? ये 'सोशल ऑब्लीगशन्स'. असल में तो 'बीवियों को व्यस्त रखो' अभियान का हिस्सा हैं ये.

रूपसी : जो भी.

मानसी : याद है शुरु में वह खीजता था कि 'तुम कब तक मुझ पर डिपेन्डेन्ट रहोगी? यह सब अपने आप करना सीखो. मुझे अकसर दिनों - दिन बाहर रहना होता है.'

रूपसी : हो तो गयी इंडिपेन्डेन्ट!

मानसी : हां, अकेले सफर करने लगी हो. उसकी अनुपस्थिति में बाल - गोपालों को लेकर कहीं भी आ - जा लेती हो.

रूपसी : तो

मानसी : तो क्या? तुमने देखा नहीं कि वह इससे भी खुश नहीं.

रूपसी : हां, ताना देते हैं, '' अब क्या अब तो तुम खुदमुख्तार हो गयी हो. उस की शह में पर लग गये हैं.'' पर मैं बुरा नहीं मानती.

मानसी : मैं ने देखा है, आदमी हमेशा चाहता है कि औरत मूर्खा सी बनी उस पर निर्भर रहे. बैंक में चैक लिखे तो 'बेवकूफ कहीं की, अब ये भी मुझे करना पडेग़ा' कहके छीन ले. रेल्वेस्टेशन पर खोई - सी गठरी बनी उसके पीछे चले. तो वह खुश है. बेहद खुश.

रूपसी : यह तो हर औरत का किस्सा है, जिसे मंच पर निभाती हैं हम कठपुतलियां. घर चलाना है तो सहना सीखना होगा. सुनो जरा ये डायरी देना, हिसाब लिखना था ( बडी मुस्कान वाली कठपुतली डायरी झपटती है)

मानसी : ( डायरी वाला हाथ पीछे करके) नहीं, फिर शुरु हो जाओगी तुम? मैं ने कहा था न इस डायरी में यह घरेलू बकवास न घुसाना.

रूपसी : तुम्हारी कहानियां - कविताएं, चित्रकलाएं और नाटक कौनसे अछूते हैं इन घरेलू बकवासों से? यही घरेलू बकवासें, घर, समाज की इकाई हैं. समाज के बिना कैसा साहित्य? समाज न होता तो हम कठपुतलियां, मानव की नकल क्या करतीं? हमारी मानवजीवन को दर्शाती काष्ठ प्रजाति मंच पर क्या नाटक दिखाती? यहां भी तो वही नर और मादा, सम्बन्धों का उलझा गुंजल. दांपत्य,आर्थिक परेशानियां, स्त्री - पुरुष, परिवार - समाज इससे उबर कर कुछ नया प्रस्तुत कर सको तो जानूं!

मानसी: जाओ भी, तुम्हारी तरह आत्मकेन्द्रित कठपुतली नहीं हूं सामाजिक हूँ, उस पर कलाकार. हरेक की उलझन, मेरी अपनी उलझन. ये जो अपने लोक - कलामण्डल के कठपुतलियों वाले कमरे में रखी कठपुतलियां हैं ना _ बडी - बडी मुस्कानों वाली, फटी - फटी आंखों वाली, मोटी - पतली, रानी - मालिन देसी कठपुतलियां, श्रीलंकाई छायापुतलियां, सर्कस वाली रूसी कठपुतलियां, मलेशियाई पुतलियां, सब की सब, भीतर से बहुत उदास हैं. हमारे तो दो चेहरे आगे - पीछे बने हैं. मगर इनके भीतर जाने कितने चेहरे हैं, जिनका इनको खुद नहीं पता. इनकी भाषा इनकी नहीं, सूत्रधार की है. इनके स्पन्दन - भाव तक इनके नहीं. इनके धागे टूटें तो ये मुस्काती हैं. इनका वस्त्र फटे तो भी मुस्काती हैं. अंग टूटे तो भी. इन्हें फालतू समझ कर इनका सूत्रधार इन्हें आग के हवाले कर दे तो भी ये, चेहरा जलने तक मुस्कुराती हुई ही दिखती हैं.

रूपसी : उफ! क्या - क्या सोचती है तू. मैं भी लगातार तेरे साथ बनी रहती हूँ, मुझे क्यों नहीं सूझता यह सब?

मानसी : '' मैं ने कहा था न कलाकार हूँ मैं, तीसरी आंख दी है भगवान ने.''

रूपसी : फिर वही, कलाकार ! कलाकार! अरी कम्बख्त, असली कलाकार तो हमारा सूत्रधार है कुछ भी कह ले _ तू, है तो कठपुतली. काठ की गुडिया, सोचती हुई मुद्रा में दर्शकों को मूर्ख बना सकती है तू! लेकिन सूत्रधार को, और मुझे तू मूर्ख नहीं बना सकती. पगली, हम क्या सोचेंगी ? इस काठ के खोपडे से? अपनी तो जमीन तक नहीं है जिस पर पूरा टिक सकें. हमारे आधार तो धागे ही धागे हैं, जिन पर हम लटकी - सी रहती हैं _ त्रिशंकु की तरह, न जमीन की न आसमान की.

(यह कहते ही रूपसी - मानसी जुडवां कठपुतलियां धागों की खींचतान करती हुई धप्प से कठपुतलियों के ढेर पर जा गिरती हैं.)

मेरी कोट की जेब में पड़ा फोन घनघनाया, एक भन्नाई आवाज़ ने एक बन्द “पैराबोला” खोल दिया. मैं ज़मीन पर..धप्प! उफ्फ!

“हो कहाँ? फोन क्यों नहीं उठा रही थीं? पहले देर तक ‘बिज़ी’ आया फिर ‘आउट ऑफ कवरेज एरिया’ अब रिंग जा रही थी तो...तुम... क्या? कहाँ गईं थीं? आर्ट गैलेरी? मुझे ऑफिस में देर हो तभी तुम्हें अपना मनोरंजन सूझता है, सलोनी को लेने तुम्हें जाना होगा,मुझे वक्त नहीं मिलेगा. समझीं.सुन रही हो न? जवाब क्यों नहीं दे रही? ......क्या? भाड़ में जाओ.”

फोन बन्द हो गया था मगर धागे हिल रहे थे आहिस्ता - आहिस्ता हाथों के.. मैंने हाथ हिला कर देखा, धागे दिख तो नहीं रहे थे मगर खिंच रहे थे. जाने दो, मगर ये रूपसी – मानसी कौन थीं, कौन चीख - चीख कर संवाद बोल रहा था, मेरे भीतर ये कौनसा नया मंच बना था?

गाड़ी धौलाकुँआ से आगे निकल गई थी.

“ड्राईवर, घर नहीं, बेबी के स्कूल चलिए.”

(*शारीरिक हिस्सों से जुडे हुए अवियोज्य जुडवां, स्याम प्रदेश में ऐसा पहला किस्सा खबर में आया था, तभी से ऐसे जुडवांओं को 'स्यामीज' टि्वन कहा जाने लगा.)

***