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ततइया - 2

ततइया

(2)

‘शन्नो भाग गई, आखिर क्यों | कुछ दिन पहले ही तो पता चला था कि---माँ
खुशी से भरकर कोई पुरानी तावीज़ संदूक से निकाल लाई थी। उसको शन्नो के बाजू पर बाँधते हुए उसने दशहरे बाद उत्सव मनाने का कार्यक्रम बनाया था। फि़र एकाएक यह भूकंप |’
सायकिल पर सवार यु)वीर बड़े गौर से सड़क के इधर-उधर देखता आगे बढ़ रहा था। सड़क ख़ाली थी। बज़ाज़ा पट्टी की सारी दुकानें बंद थीं। ठेले पंक्तिब) खड़े थे। बड़े ऊँचे खंभे धुँधले हो गहरी गफ़ु़ाओं की तरह मुँह बाए उसे निगलने को तैयार खड़े थे। जब बाज़ार पार कर श्मशान के समीप पहुँचने लगा तो धोबीघाट तक पहुँचने से पहले उसका मन किया लौट जाए। वह अकेला क्या कर पाएगा | थोड़ी दूर जाकर वह निराश हो गया। जब वह बज़ाज़ा पट्टी दोबारा लौटा तो उसे पान के खोके के पीछे कुछ आहट लगी। बदन में भय की सिहरन दौड़ी। चौकन्ना हो उसने ग़ौर से देखा और पहचान गया।

दूधिया अँधेरा अभी फ़टा न था कि यु)वीर की साइकिल पर पीछे बैठी शन्नो लौट आई। दोनों को एक साथ घर लोटा देख बारिन की जान में जान आई। तुलसी के आगे सर नवाकर वह रसोई में जा बेटे के लिए गुुड़ और पानी से भरी लुटिया ले आई। इस बीच शन्नो सामान वाली छोटी कोठरिया में शरण ले चुकी थी।
”अपने गहने-पत्ते गिन लो माँ !“ यु)वीर इतना कह वहीं चौखट पर खड़ा रहा।
”कहाँ मिली |“ माँ ने फ़ुसफ़ुसाकर पूछा और बेटे को ऊपर से नीचे तक ऐसी टटोलती नज़र से देखा जैसे, चोट, घाव तलाश रही हो।
”बज़ाज़ा पट्टी के सामने---“ इतना कह वह अंदर आकर बैठ गया।
”यहाँ क्यों ले आया इस छिनाल को | तेरे लिए लड़कियों का अकाल पड़ गया था क्या रे |“ बारिन एकाएक दाँत पीसकर गुर्राई।
”माँ, तुम्हीं ने तो लेने भेजा था !“ माँ का रौद्र रूप देख यु)वीर सिटपिटा गया।
”भेजा था कि तू पकड़कर इसको किसी कुएँ में धकेल आता, किसी गाड़ी की पटरी पर पटक आता। इसे घर लाने को नहीं कहा था करमजले !“ माँ दोनों हाथ कमर पर रख बोली।
”माँ---!“ यु)वीर ने परेशान आँखों से इस तरह माँ को देखा जैसे उसे विश्वास न हो रहा हो कि माँ इतना कड़वा बोल सकती है।
”गई किसके साथ थी |“ माँ ने हाथ मटकाया।
”वह क्यों जाएगी किसी के साथ |“
”नहीं, नहीं, वह तो मैं गई थी---। जो गई थी फि़र आई क्यों | मैं पूछती हूँ वह कौन था |“
”पता नहीं, पहचानती नहीं---कोई शराबी था। नशे में खींचकर ले गया था।“
यु)वीर माँ का यह रूप देखकर अपमान से भर उठा।
”बच्ची थी दूध पीती जो पकड़ ले गया---पहले से कुछ लाग-लपेट होगी !“ माँ की जली-कटी सुन यु)वीर हतप्रभ रह गया।
”ऐसा कुछ भी नहीं है माँ, नशे में वह वहीं फ़ुटपाथ पर डाल गया था। यह जान बचाकर घर लौट रही थी। तभी मैं पहुँच गया।“ यु)वीर के स्वर में अब खीझ थी।
”इस जूठे पातल को मैं नहीं रखने वाली---इसके हाथ-पैर तोड़ इसको गंगा जी में बहाए आओ !“ बारिन ने फ़ैसला सुनाया।
”तेरे दिल में जो आए माँ, सो कर।“ जल-गुड़ छुए बिना कुढ़ा-सा यु)वीर लोटा-बाल्टी लेकर नल की तरफ़ बढ़ा। उसका सारा उत्साह क्रोध में बदल गया था। माँ का कोसना-कलपना धीमे स्वर में चल रहा था। अंदर शन्नो बौखलाई-सी पलकें झपका रही थी।
”रावण को तो आना था एक दिन इस देहरी पर जब सब मिलकर उसे सीता जी बना रहे थे। इस जग में कोई किसी का सुख नहीं देख सकता है, जो समझो हमारे घर में आग लगी तो भगवान चाहेगा सबके घर चिता जलेगी। मुझ विधवा की हाय से सब पर बजर गिरेगा।“
दिन निकला। सूरज चढ़ा मगर नल पर अँधेरा छाया रहा। उस दिन किसी ने सजी-धजी गुजरिया को लोहे की बाल्टी लिए खड़ा न पाया। यु)वीर नहा-धो, पानी भर कुछ पहले ही बिजली घर चला गया था। यु)वीर की माँ कोठरी के आगे चबूतरे पर बैठी रोज़ की तरह पत्तल-दोने बनाने में इस तरह व्यस्त दिख रही थी जैसे कुछ हुआ ही न हो। मगर वह जानती है कि क्या हुआ है। मन में कहीं गहरे एक बात घुमड़ रही है कि यह बात कितने दिन छिपेगी | इज़्ज़त के लिए कुछ करना पड़ेगा वरना यह नाग-नागिन का खेल ख़त्म नहीं होगा।
शाम को यु)वीर बिजली घर से लौटकर वहीं चबूतरे पर बैठा रहा। खाना-पीना तो दूर कपड़े बदलने की भी इच्छा न हुई। चेहरा ऐसा निचुड़ा हुआ जैसे जान किसी ने निकाल ली हो।
”तू कब आया वीर |“ माँ ने थके स्वर में पूछा। आज उसके हाथों में रबड़ी-इमरती का दोना नहीं था।
यु)वीर ने कोई उत्तर नहीं दिया। माँ अंदर कोठरी में गई तो देखा शन्नो चूल्हे पर चाय का पानी रख रही है। यह देखकर बारिन के तन-बदन में आग लग गई। साड़ी के पल्लू से रुपए खोलते हुए एकाएक रुक कर बोलीµ
”क्यों धर्म भ्रष्ट करने पर उतारू है कलमुँही | तेरे हाथ का जल पीकर नरक जाना है क्या | जा बैठ कोप भवन में नटनी !“
यु)वीर ने जो नज़रें घुमाकर कोठरी में देखा तो शन्नो को सर झुकाए खड़ा पाया। कमर की करधनी और पैर की भारी पायल ग़ायब थी। वह तो तब से शन्नो के पास जाने का साहस नहीं जुटा पाया था जो जानता कि माँ ने कान, नाक, गले के सारे गहने छीन लिए हैं या---शन्नो को सिसकता देख, जाने क्यों वहाँ बैठा न रह सका और तेज़ी से उठ लंबे-लंबे डग भरता गायक बाबू की तरफ़ गया जो संध्या की आरती गाकर वापस आए थे।
”सब कुशल तो है |“
”हाँ चाचा । मगर माँ का क्रोध अभी शांत नहीं हुआ है।“
”समय के साथ सारे तफ़ू़ान शांत हो जाते हैं। बिरादरी का भय बहुत बुरा होता है, आखि़र वह भी क्या करे | कहावत नहीं सुनीµधोबी पर बस न चले गधे का कान उमेठे।“
”अभी चलता हूँ चाचा,“ कहकर व्याकुल-सा यु)वीर लौट आया।

घर में बढ़ता तनाव देख यु)वीर अंदर-अंदर खौलने लगा था, जिसके कारण इस घर की शांति भंग हुई है, उसको पकड़कर पीट आए। थाने में रपट लिखवा आए। इस तरह हाथ पर हाथ धरे यह दुःख मनाने से क्या मिलेगा |
गायक चाचा उसके इस उबाल पर ठंडे पानी की छीेंटें यह कहकर डाल देते कि शुक्र कर बेटे कि इज़्ज़त पर बट्टा नहीं लगा। मान-मर्यादा सही-सलामत है। अब तो इस खड़े पानी में ढेला फ़ेंकेगा तो कीचड़ सारा बहू पर गिरेगा।---कैलाश बारी का क्या बिगड़ने वाला है, वह ठहरा लुच्चा-लफ़ंगा ! िक़स्मत अच्छी थी जो नशे के कारण उसे कुछ याद न रहा। दो दिन तक नाली में पड़ा रहा। अब जो याद दिलाने बैठोगे तो वह उसे आरोप समझेगा
---आग बुझ गई है उस पर दो लोटा पानी और डाल दे ताकि बची राख भी बह जाए।
हर पल यु)वीर संताप से गुज़र रहा था। मन की शांति के लिए हनुमान चालीसा या गायत्री मंत्र का जान करता, मगर अपने को बिलकुल अकेला पाता। कष्ट में पास रहने वाली माँ आज जाने उससे इतनी दूर क्यों चली गई थी जिससे मन की बात खुलकर नहीं कह सकता था। माँ सब कुछ जानकर भी अनजान बन रही थी। जीवन-भर लोगों से लोहा लेने वाली आज क्यों उनसे भय खा रही है | उसे अपने विवाह का दिन याद आता जब विदाई के समय सास ने रोते हुए उससे हाथ जोड़ विनती की थीµ
‘बेटा, यह तनिक मंद बुि) की है। जो सिधाई में कुछ उलटा-सीधा कर बैठे तो नादान समझकर बिसरा देना, लल्ली अभी छोटी है।’
यु)वीर मीठी यादों में खो गया। वह कितनी भोली और सीधी थी, उसे तो मुझसे भी कम संसार की समझ है। शुरू-शुरू में माँ उसके बचपने पर कितना हँसती थी ! कई-कई बार उसकी छोटी-छोटी बातें दुहराती थी। हरदम उसे सजाती-दुलारती हुई कहती थी कि मैं जवानी में विधवा हुई सो अपने सारे अरमान बहू पर पूरा करूँगी और अब
---सिहर उठा यु)वीर माँ के बदले व्यवहार पर, फि़र धीरे से बोलाµ”उसे घर लाकर मैंने अच्छा किया। ऐसी दशा में वह कहाँ जाती |“
यु)वीर का मन-मस्तिष्क तो उसी रात अनहोनी घटना से उबर चुका था। अब वह सहज जीवन पहले की तरह जीना चाहता था, मगर बारिन अभी तर्क नहीं तलाश कर पाई थी। उसको घर का सूनापन अखरता था मगर वह उस गाँठ को खोल नहीं पा रही थी जो शन्नो को लेकर उसके मन में बँध गई थी। एक तरफ़ उसे शन्नो पर दया आती और दूसरी तरफ़ क्रोध। वह ख़ुद समझ नहीं पाती थी कि इस घटना से कैसे निबटे | कभी उसके मन में शंका जन्म लेती कि शन्नो से पहले वाला प्यार-दुलार दिखाया तो वह ढीठ हो जाएगी। कच्ची उमर है( कल जो गलती करेगी दूसरों के सर मढ़ेगी और जो यूँ फ़टी-फ़टी मैं रहती हूँ तो घर की ख़ुशी-ख़ुशहाली खटाई में पड़ जाती है। क्या यह घर सदा दुःख के भँवर में फ़ँसा रहेगा | आज तीसरा दिन है मगर लगता है तीन युग बीत गए। न काम में दिल लगता है, न मोहल्लेदारी से दिल बहलता है। वह तो कहो राम जी की कृपा थी कि किसी ने देखा नहीं वरना---।
”बहू रानी पीहर गई है क्या भौजी | दिखाई नहीं पड़ी दो-तीन दिन से।“ नल पर नहाती नत्थू की दादी ने पूछ लिया।
”नहीं तो।“ कहकर बारिन कोठरी में जा समाई। मन ही मन बड़बड़ाने लगीµ”कैसा टोह ले रही थी बुढ़िया !“
बाहर धूप खिली थी। चबूतरे पर पत्ते पड़े थे। सब कुछ वैसा ही छोड़ कोठरी के अँधेरे में माथा पकड़ बूढ़ी बारिन बड़बड़ाती-खीजती कुछ देर बैठी रही।
”यु)वीर की माई, ज़रा बाहर निकलो।“ सिल्लो महाराजिन की पाटदार आवाज़ गूँजी।
”क्या है री सिल्लो |“ बारिन कहती हुई बाहर आई।
”यह सब सामान समेटो और हमारे साथ घर चलो।“
”काहे | क्या हुआ फि़र |“
”वही रामायण खोलकर बैठ गए हैं गीता के ससुरे कि जब रामजी राजा होय के सीता मइया को न रख पाए तो हम तो ठहरे प्रजा, सो ले जाओ अपनी पोती को---तुम्हीं बताओ यह कहाँ का न्याय है |“ सिल्लो साड़ी समेट चबूतरे पर बैठ गई।
”हुआ क्या | कुछ बताओ तो कि बस चल पड़े |“ बारिन भी अपने टाट के टुकड़े पर बैठ चुकी थी।
”प्यास बड़ा ज़ोर पकड़े है---शन्नो रानी, ज़रा मासी को पानी दे जा।“ सिल्लो इतना कहकर मुड़ी।
”मैं लाती हूँ तू बैठ।“ बारिन झटके से उठी।
”काहे तुम लाओगी, बैठो और हमार बिपदा सुनो---तुम तो जानती हो राधे को लकवा मार गया है। गीता आई पीहर तो सुनकर वह भी चली गई बुआ के घरे। इधर उसका पति लिवाने आया कि घर पर मेहमान आए हैं रोटी बनानी है, तो गीता को वहाँ नहीं पाया। बस तब से यु) छिड़ा है कि हमारे पूछे बिना यह कई बार इधर-उधर डोलती है। जब कहकर जाती है कि भाई के घर जा रही है तो बुआ कहाँ से आ जाती है | लाख समझाओ, बताओ, मगर ई हरामी ससुरा एक ही बात रटत है---“ इतना कहकर सिल्लो ने ऊँची आवाज़ से कहाµ
”बहू पानी ला गले में काँटे चुभ रहे हैं---यह जाड़े की प्यास बड़ी बावली होती है। हाँ तो मैं कह रही थी कि वह ससुर है तो बूढ़ा मगर मन से रँगीला सियार। एक दिन गीता के साथ कुछ---ख़ैर गीता तो भय से चीख पड़ी। बात बनाई गई कि चूहे से डर गई थी। मगर तब से वह बूढ़ा उसके पीछे हाथ धोकर पड़ गया है।“
”मासी, पानी।“ शन्नो ने काँपती आवाज़ से कहा।
”ख़ूब खुश रहो।“ पानी की लुटिया ले जो सिल्लो महाराजिन ने शन्नो को देखा तो झटके में आ गई। मुड़कर बारिन को देखा फि़र शन्नो की उदास काया ताकी।
”बहू बीमार है क्या | नई सुहागिन और यह बहरूप | न पैर में, न कमर में, ऊपर से मैली-गुँजली धोती---थू---थू---मेरे मन में तो बड़ा बुरा विचार आया। जा बहू कपड़े बदल कर आ---। तुम डाँटती-डपटती नहीं हो क्या | मैं तो इस अधेड़ उम्र में खिचड़ी बाल के संग एक दिन बिंदी-काजल न लगाऊँ तो फि़र देखो कलह---सास ताना मारेगी कि हमारे लड़के का सोहाग रखने में कौन-सा हाथ घिसता है।“ कहकर हँस पड़ी सिल्लो, फि़र शन्नो की तरफ़ मुड़कर बोली |

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