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बहीखाता - 12

बहीखाता

आत्मकथा : देविन्दर कौर

अनुवाद : सुभाष नीरव

12

माँ का पति

भापा जी के निधन के बाद मैं ही घर में ऐसी थी जो घर का खर्च उठा रही थी। यद्यपि भापा जी की तनख्वाह मेरे से बहुत अधिक थी और हाथ खुला था, पर अब जैसा भी था, सारा जिम्मा मेरे सिर पर ही था। मेरा भाई तब पढ़ाई कर रहा था। मेरी अपनी माँ के साथ निकटता बढ़ने लगी। माँ मेरी बात को बड़े ध्यान से सुनती, बिल्कुल वैसे ही जैसे वह भापा जी की बात को सुना करती थी। मेरी राय घर में अंतिम राय होती, पर मैं कभी भी अपनी मर्ज़ी न चलाती। मेरी माँ यद्यपि अनपढ़ थी, पर वह बहुत जीवट वाली औरत थी। भापा जी की मौत पर मुझे और मेरे भाई को अपने पास बिठाकर उसने कहा था कि उसके जीवित रहते कोई दूसरा हमारी हवा की ओर भी नहीं झांक सकता। वह जैसी भी थी, पर खुले विचारों वाली थी। मेरा कोई भी दोस्त घर में आ सकता था, लड़का हो या लड़की। जो भी आता, उसको वह खाना ज़रूर खिलाती।

मेरा भाई सुरजीत सिंह जिसको अभी भी हम काका ही कहते थे, पढ़ाई में ज़रा ढीला था। उसने अपनी पढ़ाई बीच में ही छोड़ दी और काम करने लग पड़ा। उसको इलेक्ट्रोनिक्स के काम में बहुत रुचि थी। यह काम तो जैसे उसके खून में ही था। वह नौकरी नहीं करना चाहता था और अपना ही बिजनेस करने के लिए कहता था। परंतु बिजनेस वाली चतुरता उसमें नहीं थी। फिर भी, उसने मिक्सी की मोटरो के प्रोडक्शन का काम शुरू कर लिया और शीघ्र ही आमदनी भी होनी शुरू हो गई। हमारा हाथ फिर से खुला हो गया। उसका काम अच्छा-खासा चल पड़ा था। शाहबाद से आए हमारे एक रिश्तेदार भिंदे ने उसके साथ दोस्ती गांठकर कारोबार में हिस्सेदारी भी डाल ली थी। भिंदा अधिकतर हमारे घर में ही रहता था। मैं शीघ्र ही समझ गई थी कि वह मेरे साथ विवाह करवाने का इच्छुक है, पर वह जैसा मैं चाहती थी, वैसा लड़का नहीं था। यूँ भी उसका स्वभाव, उसकी चालाकियाँ मुझे कतई अच्छी नहीं लगती थीं। किताबों ने मेरे अंदर जो रुचि पैदा कर दी थी, वह उस रुचि के आसपास भी नहीं था। भिंदे ने धीरे-धीरे सुरजीत से उसका बिजनेस छीनना प्रारंभ कर दिया। मुझे तो इसकी कोई समझ थी ही नहीं, पर इतना मुझे दिखता था कि भिंदा तेज़ बंदा था, सुरजीत की अपेक्षा बहुत तेज़ और चतुर! उसने सुरजीत के बराबर ही कारोबार शुरू कर लिया और उसके ही ग्राहक तोड़ने प्रारंभ कर दिए। आहिस्ता-आहिस्ता उसका सारा बिजनेस ही अपनी ओर खींच लिया।

अब सुरजीत की उम्र भी विवाह योग्य हो रही थी। किसी ने लड़की के बारे में बताया, या कह लो, लड़की वालों को सुरजीत के बारे में बताया गया। हमारे जैसा ही धार्मिक परिवार था। गुरद्वारे में कीर्तन करने वाले। उनका कीर्तन कोई साधारण स्तर का नहीं, बल्कि क्लासिकल तर्ज़ का बड़े उच्च स्तर का था। सुरजीत की होने वाली पत्नी ‘गुरबाणी संगीत’ की माहिर थी और उसके पापा ने उसको तेरह वर्ष की आयु में ही इस तरफ लगा दिया था। यही नहीं, उसे बड़े बड़े उस्तादों द्वारा ट्रेनिंग भी दिलवाई थी। वह उस वक्त खालसा स्कूल में ‘गुरबाणी संगीत’ की अध्यापिका लगी हुई थी। उसके पिता मेरे पिता की तरह ही उसके साथ हारमोनियम पर बैठते और उसका भाई तबले पर संगत देता। हमें यह परिवार बहुत उपयुक्त बैठता था। लड़की के पिता ने आकर सुरजीत को देख लिया और पसंद कर लिया। उसके बाद जसविंदर मुझे कहीं बाहर इंडिया गेट के निकट मिली। हमारी बहुत सारी बातें हुईं। बातों बातों में हम एक-दूजे को बहुत पसंद करने लगीं। जसविंदर ने उस समय बिना सुरजीत को देखे ही विवाह के लिए हाँ कर दी। बाद में मैंने जसविंदर से पूछा कि उसने इतना भरोसा कैसे कर लिया तो वह बोली थी कि सरदार जी(सुरजीत सिंह) अच्छे न निकलते तो वह मेरे आसरे ही ज़िन्दगी काट लेती। मैं सोच रही थी कि कमाल का भरोसा था। सुरजीत का विवाह हो गया। जसविंदर हमारे घर आ गई। वह संगीत की अध्यापिका थी। एक स्कूल में संगीत सिखाती थी। संगीत तो उसके रक्त में था। वैसे भी, वह एक सच्ची औरत थी। हमारा सबका ही बहुत ध्यान रखती। मेरी तो वह सहेली की तरह थी।

सुरजीत का मिक्सियों का काम उसके दोस्त भिंदे के कारण फेल हो गया था और अब उसने वाशिंग मशीनों की मोटरें बनाने का काम शुरू कर लिया था। उसके घर बेटी सुरप्रीत भी हो गई। हमारा सबका ध्यान सुरजीत की ब्याहता ज़िन्दगी की ओर हो गया। मेरे विवाह की जैसे सबको याद ही न रही। दुबारा मेरे लिए कोई रिश्ता भी नहीं आया। भापा जी के होते एक रिश्ता मुझे तब आया था जब मैं एम.ए. में पढ़ रही थी। वह मेरे भापा जी को पसंद था। उन्होंने लड़के और मुझे मिलवाने की तारीख भी पक्की कर दी थी लेकिन मैंने स्पष्ट शब्दों में इन्कार कर दिया था क्योंकि मैं उन दिनों एम.ए. की पढ़ाई में व्यस्त थी। फिर, भापा जी के चले जाने के बाद गगन के परिवार की ओर से आए रिश्ते को मेरे रिश्तेदारों ने सफल ही नहीं होने दिया। फिर दुबारा रिश्ते को लेकर न कोई बात हुई और न ही किसी ने परवाह की। वैसे मेरी माँ दिल से तड़पती रहती थी। कई बार मेरे साथ बात करने भी बैठ जाती, पर मैं उसकी चिंताओं को टाल जाती। जब छोटा भाई ब्याहा जाता है तो कुआंरी बैठी बड़ी बहन को लोग भी शायद दूसरी तरह की नज़र से ही देखने लग पड़ते हैं। मैं देख रही थी कि सबकुछ ठीक होते हुए भी हालात मेरे हक में नहीं थे। हालात तो मुझे मुँह चिढ़ा रहे थे। बिल्कुल वैसे ही जैसे कभी बलाकी ने थप्पड़ मारकर मुझे चुप करवा दिया था। चूचो के मामा की ज्यादती ने मुझे अपने आप में कै़द कर दिया था। इस तरह पता नहीं मेरे में हिम्मत पैदा नहीं होती थी। मैं क्यों दूसरे को अपने ऊपर अन्याय कर लेने देती थी, इसका कारण मुझे तब समझ में नहीं आ रहा था। सो, मैं चुप ही रहती रही और अपने आप को हालात के हाथों में छोड़ती रही। एकबार फिर मैं अंतर्मुखी-सी रहने लग पड़ी। वैसे तो मैं सारी खुशियों में हिस्सा लेती थी, पर जब अकेली होती तो उदासियाँ मुझे घेर लेतीं। मेरे बहुत सारे मित्र थे, पर किसी मित्र के साथ ऐसा रिश्ता न बन सका जिससे कोई उम्मींद बंधती।

सुरजीत सिंह अपने नये कारोबार में भी कमाई करने लग पड़ा था। वह घर के खर्च में पूरा हिस्सा डाल रहा था, जसविंदर की तनख्वाह भी आ रही थी लेकिन मेरी दो भतीजियाँ आ गई थीं और अब वे स्कूल भी जाने लग पड़ी थीं। सो, सुरजीत और जसविंदर दोनों के पारिवारिक खर्चे बढ़ रहे थे। मेरी तनख्वाह की भी घर में ज़रूरत थी। मेरी माँ भी मेरी तनख्वाह पर गर्व किया करती थी। घर के सभी खर्चो के बारे में वह मेरे संग सलाह किया करती। एक बात जो मुझे ज़िन्दगी में अजीब खुशी दे गई, जसविंदर ने दोनों बच्चियों को शुरू से ही मुझे अम्मी कहकर बुलाना सिखा दिया था जिससे मेरे अंदर ममता के भाव पैदा होने शुरू हो गए और मैं स्वयं को अपने भाई-भाभी के परिवार का एक अटूट हिस्सा महसूस करने लगी।

(जारी…)