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बहीखाता - 13

बहीखाता

आत्मकथा : देविन्दर कौर

अनुवाद : सुभाष नीरव

13

पीएच.डी.

एक दिन मैं यूनिवर्सिटी में आयोजित हो रहे एक सेमिनार में हिस्सा लेने गई। वहाँ जाकर देखा कि आलोचना के मामले में कितना कुछ बदल गया था। आलोचना की नई नई प्रणालियों के बारे में बातें हो रही थीं। पंजाबी साहित्य को लेकर अन्य तरह की बातें हो रही थीं। मुझे लगा मानो ये किसी परायी दुनिया की बातें हो रही हों। मुझे अपना आप आउट-डेटिड प्रतीत होने लगा। मैं तो कालेज में गिद्धे-भंगड़े में ही मशरूफ रही जैसे कुएं का मेंढ़क ही बन गई थी और यूनिवर्सिटी में तो दुनिया ही बदल गई थी। मैंने पीएच.डी. करने का फैसला कर लिया। पीएच.डी. करने से पहले मैं मेरठ यूनिवर्सिटी से अंग्रेजी में एम.ए. कर चुकी थी। अंग्रेजी में एम.ए. करने का एक कारण यह भी था कि पीएच.डी. करने के लिए बहुत सी पुस्तकें अंग्रेजी में ही पढ़नी पड़ती थीं। मैं चाहती थी कि अमृता प्रीतम पर काम करूँ। वह मेरी मनपसंद लेखिका थी। मैं इस उद्देश्य से दिल्ली यूनिवर्सिटी गई। सर्दियों के दिन थे। बहुत सारे विद्यार्थी और अध्यापक लॉन में बैठे धूप सेंका करते थे। वहाँ मुझे सतिंदर सिंह नूर मिल गए। उन्हें मैंने अपनी मंशा बताई। उन्होंने मुझे डॉ. हरिभजन सिंह के पास भेज दिया। डॉ. साहब से मैं एम.ए. में पढ़ती रही थी। वह उस समय पंजाबी विभाग के अध्यक्ष थे। वह मुझे अपने दफ्तर में बैठे हुए ही मिल गए। मैंने उन्हें अपना इरादा बताया तो वह एकदम से बोले, “ए लड़की, अब इतने वर्षों बाद पीएच.डी. करके क्या करेगी। अब तू ब्याह-शादी करवाकर सैटिल हो। अगर लड़का नहीं मिलता तो हम ढूँढ़ देते हैं। अब इतने लंबे अरसे बाद यह डिग्री प्राप्त करना तेरे वश की बात नहीं।” उनका कहने का तात्पर्य था कि मैंने सन् सत्तर में लेक्चरर की नौकरी शुरू कर ली थी और अब सन अट्ठत्तर चल रहा था। मैं आठ साल लेट हो गई थी, पर मुझे विश्वास था कि मैं यह कर सकती थी। मैं उनके पीछे पड़ गई कि मुझे हर हाल में पीएच.डी. कराओ और कोई गाइड भी खोजकर दो। काफ़ी मिन्नत करने के बाद वह माने। फिर पूछने लगे, “किस विषय पर करना चाहती है तू पीएच.डी. ?” मैंने अमृता प्रीतम का नाम लिया तो वह ज़रा तल्ख़ स्वर में बोले कि अमृता प्रीतम पर पीएच.डी. करने का अर्थ है - अंधे कुएं में पत्थर मारना। उन्होंने मुझे भाई वीरसिंह पर पीएच.डी. करने के लिए कहा। कहा क्या, आदेश दे दिया। और साथ ही, मेरा गाइड बनने के लिए भी मान गए। उस समय मैं चाहते हुए भी अमृता प्रीतम पर पीएच.डी. करने के लिए प्रवेश न ले सकी। जब मेरे गाइड ने ही कह दिया तो मैं क्या कर सकती थी। उनके सामने किसी को बोलने का साहस नहीं होता था। उन्होंने मुझे विषय दिया - ‘भाई वीरसिंह का रूप वैज्ञानिक अध्ययन’। मैंने फॉर्म भर दिया और इस प्रकार मैंने पीएच.डी के लिए दाखि़ला ले लिया। बाहर नूर साहब(सुतिंदर सिंह नूर) मिल गए। उन्हें सारी बात बताई तो उन्होंने कहा कि कोई बात नहीं। भाई वीर सिंह भी हमारे महत्वपूर्ण कवि हैं। उस समय यह महसूस हुआ कि पीएच.डी. विद्यार्थी को करनी होती है लेकिन उसे अपनी इच्छा का विषय लेने का अधिकार नहीं है। जबकि व्यवहारिक तौर पर उसे यह छूट होनी चाहिए। परंतु मेरे अंदर इतनी हिम्मत नहीं थी कि मैं अपनी इच्छा का विषय लेने के लिए अड़ सकती। मैंने सदैव की तरह यहाँ भी स्वयं को हालात के हवाले कर दिया। मैं किसी भी हालत में पीएच.डी. करके अपने आपको नई आलोचना प्रणाली से जोड़ना चाहती थी।

उन दिनों दिल्ली यूनिवर्सिटी में भारतीय भाषाओं के विभाग से पंजाबी का विभाग अलग हो गया था और इसके विभागाध्यक्ष डॉक्टर साहब बने थे। हैड बनने के बाद उनके हाथ में ताकत भी अधिक आ गई थी। वह चाहते थे कि पंजाबी साहित्य को किसी नई आलोचना प्रणाली के द्वारा परखा जाए। इस समय तक संतसिंह सेखो (पंजाबी के प्रसिद्ध कहानीकार और आलोचक) की ही आलोचना का बोलबाला चलता आ रहा था। अब डॉक्टर साहब के पास अपना नाम चमकाने के अवसर थे। साधन भी थे और उनके पास योग्यता व समझ भी थी। उन्होंने अमेरिका की नई आलोचना, रूपवाद और संरचनावाद को गंभीरता से पढ़ा और उसको पंजाबी साहित्य पर लागू करते हुए कई लेख लिखे जो बाद में पुस्तकों के रूप में भी प्रकाशित हुए। इन्हें बहुत अच्छा हुंकारा मिलने लगा। संत सिंह सेखों की माक्र्सवादी आलोचना को डॉक्टर साहब चुनौती दे रहे थे। इसके साथ ही दिल्ली स्कूल ऑफ क्रिटिसिज़्म नाम की एक टर्म भी बन गई। दिल्ली के शेष कुछ आलोचक भी इसी प्रणाली के माध्यम से रचनाओं की आलोचना करने लगे। शीघ्र ही, ऐसा समय आया कि हर लेखक अपनी रचना लिखकर दिल्ली स्कूल द्वारा उस पर प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा करने लगा। पंजाब की यूनिवर्सिटियों के पंजाबी अध्यापकों और लेखकों का दिल्ली आना-जाना बढ़ गया। हरिभजन सिंह की पंजाबी साहित्य में चढ़त होने लगी। मैं उनकी विद्यार्थी थी। मुझे तो उनका शिखर को छूना बहुत अच्छा लगता ही। मैं इस बात पर गर्व अनुभव करने लगी कि मैं पंजाबी के एक ऐसे स्काॅलर गाइड की विद्यार्थी थी जिसके मुकाबले का कोई दूसरा नहीं था।

मेरी पीएच.डी. की पढ़ाई शुरू हो गई। सुबह मैं कालेज जाती। वहाँ से पढ़ाकर यूनिवर्सिटी पहुँच जाती। अच्छी बात यह थी कि हमारे कालेज से यूनिवर्सिटी को सीधी बस जाती थी। दिनभर वहाँ रिसर्च फ्लोर पर अपना काम करती और रात को आठ बजे थकी-हारी घर पहुँचती। लेकिन अब मुझे थकावट तंग नहीं करती थी। मैं तो एक नई दुनिया में उड़ी फिरती थी। यूनिवर्सिटी जाकर मैं जैसे कहीं और ही पहुँच जाती थी। मैं लाइब्रेरी में जा बैठती या फिर रिसर्च फ्लोर पर चली जाती। वहाँ नए-नए मित्र बनने लगे। मेरे साथ बहुत सारे अन्य लोग भी पीएच.डी. कर रहे थे। मोहनजीत, मनजीत सिंह, नरिंदर सिंह और अन्य कई दोस्त यहीं पर मिले। हमारा एक बढ़िया ग्रुप बन गया था। महिंदर कौर गिल भी हमें कभी-कभी उस समय नज़र आ जातीं, जब वह डॉक्टर साहब से मिलने आई होंती। डॉ. जगबीर सिंह के विद्यार्थी भी संग ही होते। हम मिलकर बहसें करते, कविताएँ सुनते-सुनाते। मोहनजीत अपने गीतों की झड़ी लगा देता। मोहनजीत अपने तरन्नुम में जब गीत सुनाता, सभी मंत्रमुग्ध हो जाते। हमारी मेज़ों पर एक के बाद एक चाय के कप आते रहते। चाय बनाने वाले को रिसर्च फ्लोर पर ही एक कमरा मिला हुआ था। वह सभी स्कॉलरों के लिए एक बेहद ज़रूरी शख़्स बन गया था। बड़े स्कॉलर उसकी चाय पी पीकर वहाँ से पीएच.डी. करके जा चुके थे। अब ज़िन्दगी जीने का मज़ा आ रहा था। असल में तो मेरी ज़िन्दगी ही यही थी। मुझे लगता कि मुझे जहाँ पहुँचना था, वहाँ पहुँच गई थी। इन्हीं दिनों मैंने आलोचना की बहुत सारी किताबें पढ़ीं। आलोचना मुझे अच्छी लगती। अब तक मैंने साथ के साथ आलेख लिखने भी शुरू कर दिए थे जो पंजाबी की अख़बारों और पत्रिकाओं में छपने लगे थे। ‘अक्स’ मैग़जीन में मेरे किए रिव्यू छपने लगे और कई नए तथा पुराने लेखकों के साथ मेरा राब्ता बनना प्रारंभ हो गया। इसके साथ ही आकाशवाणी, दिल्ली के पंजाबी सेक्शन में नई किताबों के रिव्यू पढ़ने के निमंत्रण भी मिलने लगे और वहीं मेरी मुलाकात पंजाबी के बढ़िया शायर जसवंत दीद से हुई। दीद की एक कविता ‘पुरखों से कहो’ का मैंने जिस प्रकार विश्लेषण किया, उसको इतना पसंद आया कि उसने यहाँ तक कह दिया कि वह अपनी कविता की आलोचना मुझसे ही करवाना पसंद करेगा। यूँ एक प्रकार से मैंने आलोचना करनी आरंभ कर दी थी। घर, कालेज, यूनिवर्सिटी और घर तक की लम्बी दौड़ से बचने के लिए मैंने कालेज से दो साल की स्टडी लीव ले ली और मेरा सारा समय यूनिवर्सिटी में ही बीतने लग पड़ा।

(जारी…)