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बहीखाता - 11

बहीखाता

आत्मकथा : देविन्दर कौर

अनुवाद : सुभाष नीरव

11

छात्राओं जैसी लेक्चरर

मैं मैत्रेयी कालेज में लेक्चरर लग गई। अपनी आयु की लड़कियों को और कई अपने से भी बड़ी आयु की लड़कियों को पढ़ाने लग पड़ी। मेरा कोई अनुभव तो था नहीं, पर मैंने अपने अध्यापकों को पढ़ाते हुए देखा था। उन्हें ऑब्जर्व करती रही थी। यह ऑब्जर्वेशन मेरे काम आने लगी। यह मेरे लिए अनुभव भी था और चुनौती भी। कई बार मैं सोचती कि कहाँ आ फंसी हूँ। शायद यह काम मेरे वश का नहीं। मेरा सपना तो छोटे बच्चों को पढ़ाने का था, अपने हमउम्र लोगों को नहीं। कालेज के अन्य लेक्चरर मुझे अपने अध्यापकों जैसे ही लगते। मैं उनसे दूर भागती। मैं अपना अधिक समय विद्यार्थियों के साथ ही व्यतीत करती। उनके संग ही कैंटीन में जा बैठती। वे भी मुझे अपने मित्र की तरह ही समझतीं। मैं किसी भी तरह से लेक्चरर नहीं लगती थी। कई बार तो कालेज का गेटकीपर मुझे रोक लेता और अन्य विद्यार्थियों की तरह मुझसे भी आई डी दिखाने की मांग करने लगता। मुझे अजीब सा अनुभव होता। दूसरी बात यह थी कि यह कालेज हमारे घर से बहुत दूर था, पूरे 26 किलोमीटर। डेढ़-दो घंटे तो बस में ही लग जाते। मैं डाॅक्टर हरिभजन सिंह से कहती कि यह मुझे कहाँ फंसा दिया। माता सुंदरी कालेज नज़दीक पड़ता था, वहीं लगवा देते। वह कहते कि उन्होंने बहुत सोचकर यह काम किया था। माता सुंदरी कालेज की राजनीति बहुत खराब थी, लेक्चररों की बहुत बुरी हालत हुई रहती थी। उसकी अपेक्षा मैत्रेयी कालेज नया था, यहाँ स्टाफ की अधिक कद्र थी। उनकी बात सच भी थी। अब तक मैं समझ गई थी कि यह नौकरी मिलने में डाॅ. हरिभजन सिंह का बड़ा हाथ था। मैरिट के अनुसार मेरा हक़ बनता ही था, पर ऐसे अवसरों पर मैरिट को कौन पूछता है जब तक कोई जैक न हो। डॉ. हरिभजन सिंह ने मेरे अध्यापक होने का हक़ अदा कर दिया था। सिर्फ़ मुझे ही नहीं अपनी हैडशिप के दौरान उन्होंने अपने कई विद्यार्थियों को भिन्न भिन्न कालेजों में नौकरियों पर लगवाया था।

आहिस्ता आहिस्ता मैं कालेज में अपना मन लगाने का यत्न करने लगी। स्टाफ रूम में लगातार बैठने लगी। सह-लेक्चररों के साथ दोस्ती बढ़ाने लगी। कालेज की प्रिंसीपल डॉ. राव दक्षिण भारत की थी। उसे पंजाबी के साथ अधिक मोह नहीं था। यूँ तो पंजाबी के विद्यार्थी भी कम ही थे। वह मुझ पर कुछ और विद्यार्थियों को लेकर आने का दबाव डालने लगतीं। मैं विद्यार्थी कहाँ से लेकर आती। मेरी जान-पहचान तो अपने मुहल्ले में ही हो सकती थी और यह कालेज मेरे मुहल्ले से बहुत दूर था। प्रिंसीपल का मेरे प्रति व्यवहार बहुत अच्छा नहीं था, यह बात कई बार मुझे उदास कर जाती। मुझ अकेली को ही नहीं, अन्य स्टाफ को भी दौड़ाये रखती। अधिकतर लेक्चरर छोटी आयु के ही थे। फिर उसने ड्रैस कोड जारी कर दिया कि लेक्चरर लड़कियों को साड़ी पहननी पड़ेगी और जूड़ा बनाकर आना पड़ेगा। असल में तो ऐसा छात्राओं से अंतर रखने के लिए किया गया था, पर मेरे लिए कठिन प्रतीत होता था। मैं साड़ी पहनकर 26 किलोमीटर का सफ़र तय करती और पहुँचते पहुँचते गरमी में पसीने से निचुड़ जाती। फिर 26 किलोमीटर वापस घर के लिए। उस समय किसी विरले लेक्चरर के पास ही कार होती थी। आमतौर पर सभी बस में ही सफ़र किया करते थे। मैं घर में पहुँचते ही साड़ी उतारकर दूर फेेंक देती और रोने लग पड़ती। लगभग तीन वर्ष कालेज में मेरे बहुत कठिन गुज़रे। फिर वह प्रिंसीपल बदल गई। उसके स्थान पर डॉ. सीता श्रीवास्तव आ गई। वह बहुत नेक औरत थी, उसकी शख्सियत माँ जैसी थी। वह सभी से बड़े प्रेमपूर्वक पेश आती। उसने कालेज में एक कल्चरल एसोसिएशन प्रारंभ की और मुझे उसका इंचार्ज बना दिया। यह मेरा मनभावन काम था। हम कालेज में गिद्धा और भांगड़ा सिखाते। कई टीमें बनाई जाती। ये टीमें अन्य कालेजों के साथ होने वाली प्रतियोगिताओं में हिस्सा लेने जाया करती थीं। मैंने लड़कियों को प्रशिक्षण देना प्रारंभ कर दिया।

एक प्रोग्राम में मुझे बरजिंदर चैहान मिला। कुछ लड़के पटियाला से दिल्ली में व्यवस्थित होने आए हुए थे। इनमें से बरजिंदर चैहान, अवतार और प्रमोद कौल भी थे। इनके साथ बातें हुईं तो हमने कालेज की ओर से बरजिंदर चैहान और अवतार को कोच के तौर पर रख लिया। इन्होंने पहले गिद्धा तैयार करवाया और फिर भांगड़ा। पटियाला सभ्याचार का गढ़ था। वहीं से ये आए थे। इन्होंने ऐसी टिपीकल बोलियाँ सिखाईं कि सुनने-देखने वाले हैरान रह जाते। हमारी टीमें दूर-दूर तक मुकाबलों में भाग लेने जाने लगीं और बहुत बार विजयी होकर ही लौटतीं। कालेज का नाम ऊँचा होता। हमारी प्रिंसीपल को चाव चढ़ जाता। इससे मुझे बहुत प्रोत्साहन मिलता। मैं जितनी भी ग्रांट की मांग करती, प्रिंसीपल पास कर देती। मैं भी व्यस्त हो गई और इन लड़कों को भी दिल्ली में पैर जमाने के लिए मदद मिल गई। बरजिंदर ने तो हमारे कालेज की ही एक लड़की से विवाह करवा लिया। सभी हँसते हुए कहते कि वह हमारे कालेज का दामाद बन गया है। बरजिंदर को बाद में खालसा कालेज में लेक्चरर की नौकरी मिल गई और वह दिल्ली का ही होकर रह गया। प्रारंभ के दिनों में पंजाबी कल्चर को फैलाने के लिए हमारे कालेज ने काफ़ी काम किया। चैरासी के दंगों के बाद सरकार ने सिक्खों की आँखें पौंछने के लिए पंजाबी अकादेमी बना दी जिसके साथ पंजाबी कल्चर और पंजाबी भाषा को बहुत लाभ हुआ। अब तक मैं पंजाबी जुबान के साथ साथ पंजाबी साहित्य से भी पूरी तरह जुड़ चुकी थी। साहित्यिक समारोहों में भी हिस्सा लेना शुरू कर दिया था।

एक दिन अचानक भापा जी बीमार पड़ गए। किसी समय उनकी किडनी में पत्थरी हुआ करती थी, पर देसी दवाइयों से ही वह गल गई थी। इसके अलावा उनकी सेहत ठीक थी। वह जवानों की तरह काम करते थे। उनकी तनख्वाह भी मेरे से दुगनी थी। मुझे साढ़े चार सौ रुपये मिलते थे और वह साढ़े नौ सौ रुपये महीना कमाते थे। मेरी तनख्वाह चाहे जितनी भी थी, पर जब मुझे नौकरी मिली थी तो उन्होंने इसी खुशी में पाठ और कीर्तन करवाया था और सात प्रकार की मिठाई डाली थी। उन्हें ऐसा बुखार चढ़ा कि उतरने का नाम ही नहीं लेता था। हमने उनको अस्पताल में भर्ती करवा दिया। विलिंग्टन अस्पताल अच्छे सरकारी अस्पतालों में से एक था। गगनजोत की सहायता से ही वह भर्ती हो सके थे। गगनजोत ही उनकी अधिकतर देखभाल किया करता था। कई दिन तो असल बीमारी का पता ही नहीं चला। बुखार ही नहीं उतरा। फिर, धीरे धीरे पता चला कि जिस किडनी में से पत्थरी निकली थी, वह पीछे कुछ जख़्म छोड़ गई थी। वही जख़्म अब तंग कर रहे थे। उनका सारा खून यूरिया में बदल रहा था। खून देने के बावजूद कोई फर्क़ नहीं पड़ रहा था। भापा जी सिर्फ़ अट्ठारह दिन बीमार रहे और हमें रोता हुआ छोड़कर हमेशा हमेशा के लिए चले गए।

मैं उनके बहुत करीब थी। मुझे तो विश्वास ही नहीं हो रहा था कि कोई यूँ भी जा सकता है। इस सदमे से मैं खामोश बुत बन गई। पूरा परिवार रो रहा था, पर मैं पत्थर हो गई थी। स्त्रियाँ मेरी चुप्पी को लेकर चिंता कर रही थीं। मुझे नोंच-नोंच कर रुलाने की कोशिश कर रही थीं। मुझे रोना ही नहीं आ रहा था। कई दिन बाद जाकर मेरी आँखों से आँसू निकले, मैं खूब रोई। तब जाकर मैं अपना मन हल्का कर सकी। पूरा मुहल्ला ही दुख प्रकट करने आ रहा था। भापा जी की अड़ोस-पड़ोस में ही नहीं, पूरे मुहल्ले में बहुत साख बनी हुई थी। वह दौड़ दौड़कर हर किसी के काम आते, पर बहुत कम बोलते। गुरद्वारे निरंतर जाने के कारण भी बहुत सारे लोग उन्हें जानते थे। भाई आनंद सिंह ने स्वयं उनके पाठ का भोग डाला था।

अफ़सोस के दिनों में ही कंवलजीत सिंह के परिवार द्वारा गगनजोत के बड़े भाई जगजोत के साथ मेरे रिश्ते की बात चलाई गई। गगनजोत के कहने के अनुसार अस्पताल में मेरे भापा जी द्वारा की जाने वाली मेरी चिंता को राहत देने के लिए उन्होंने उनसे यह वायदा किया था कि वह मेरी शादी की जिम्मेदारी पूरी करेगा और इसलिए उसके घर से उसके बड़े भाई के साथ मेरी शादी की पेशकश आई थी। मेरी माँ ने अपने रिश्तेदारों के साथ इस विषय में सलाह-मशवरा करना शुरू कर दिया था लेकिन मेरी कोई राय नहीं पूछी गई थी। पाँच घर तो हमारे खास रिश्तेदारों के थे ही। अन्य रिश्तेदार भी जो पाकिस्तान से आए हुए थे, पड़ोस में ही रहते थे। किसी ने इस रिश्ते को लेकर न कर दी। कारण था कि जगजोत भापों का लड़का था और हम रामगढ़िये थे। उन दिनों में जाति को लेकर कुछ अधिक ही विचार किया जाता था। यही वजह थी कि रिश्ता बीच में ही लटक गया। मुझे कंवलजीत सिंह के परिवार का हिस्सा बनना अच्छा लगता था, पर इसमें मेरा कोई वश नहीं चला था।

मैं कुछ दिन की छुट्टी के पश्चात पुनः कालेज जाने लग पड़ी। कालेज जाने के कारण मेरा ध्यान बंटने लगा और मैं भापा जी की मृत्यु के दुख में से उबरने लग पड़ी। धीरे धीरे ज़िन्दगी आम-सी हो गई। मैं पुनः अपने कालेज और कालेज की कल्चरल एसोसिएशन के कामों में व्यस्त हो गई।

(जारी…)