कतरा भर रूमानियत
घर के सभी कामों से फुरसत पाकर चित्रा ने अपना मोबाईल उठाया और फेसबुक खोलकर बैठ गयी. पहले दोपहर भर समय काटने का साधन उपन्यास, कहानियाँ हुआ करते थे, फिर टीवी सीरियल आ गये और अब ये मोबाईल. पाँच इंच के स्क्रीन पर पूरी दुनिया समाई है. पिछले साल छोटा बेटा अमेरिका से आया था तो साधारण फोन की जगह ये स्मार्ट फोन दिलवा गया था और साथ ही फेसबुक, मेल, वाट्सएप भी इंस्टाल करके गया था दोनों फोन पर. उनके और रमेश के. दोनों के फेसबुक और वाट्सएप अकाउंट भी बना दिए और उन्हें अपनी फ्रेंड लिस्ट में भी जोड़ लिया.
“अब हम रोज़ विडिओ कॉल करके आपको देख सकेंगे और फेसबुक पर एक-दुसरे के फोटो भी देख पाएँगे.” बेटे ने बताया.
तब से दोनों नियम से अपना फेसबुक देखते हैं. देखते ही देखते घर-परिवार, जान-पहचान वाले कितने ही लोग उनसे जुड़ गये. आभासी दुनिया की निकटता ने काफी हद तक वास्तविक दुनिया की दूरियों के दर्द को मिटा दिया था. दोनों बेटों, बहुओं, पोते-पोतियों को रोज़ सामने हँसते-खेलते घर में घूमते हुए देखकर अब तो ये अहसास ही नहीं होता कि वे साथ नहीं है. सुबह-शाम खाने में क्या बना है, किसने क्या पहना है. मीनू ने क्या ड्राइंग बनाई है या मनु ने आज क्या शरारत की सब हाल पता होते. विडिओ क्रोंफेसिंग में लंदन, न्यूयोर्क और भोपाल सब पाँच इंच स्क्रीन पर एक हो जाते तो लगता जैसे एक ही ड्राइंगरूम में सब बैठे हैं. वरना तो जब तक ये फोन नहीं था आँखे टीआरएस जाती थीं बच्चों और पोते-पोतियों को देखने को और दिन काटे नहीं कटता था.
“अरे देखो तो अनुज ने अपने सिएटल प्रवास के फोटो भी डाल दिए हैं.” चित्रा ने रमेश को बताया तो वे भी अपना अकाउंट खोलकर अनुज के फोटो देखने लगे. यूँ तो वे जब भी साल दो साल में अनुज के पास अमेरिका जाते हैं अनुज उन्हें आसपास के शहरों में घुमा ही देता है लेकिन तब भी बहुत सारा अमेरिका, इंग्लेंड तो उन्होंने अनुज, मनुज के डाले फोटो या विडिओ कॉल में ही देख डाला था.
थोड़ी देर बाद रमेश तो दोपहर की झपकी लेने चले गये लेकिन चित्रा वहीं बैठी रही.
***
किसी की फ्रेंड रिक्वेस्ट थी. देखा कोई अलेक्सांद्रे था. पहचान न हो तो वे फ्रेंड रिक्वेस्ट एक्सेप्ट नहीं करती. इसे भी उन्होंने अनदेखा कर दिया. दो-एक संदेश भी थे. एक इंदौर वाली बहन का था और दुसरा अलेक्सांद्रे का. उत्सुकतावश उन्होंने संदेश पढ़ा कि एक अनजान व्यक्ति उन्हें क्यों सन्देश भेज रहा है. लिखा था ‘हेलो चित्रा कैसी हो, इतने बरसों बाद तुम्हे यहाँ देखकर अच्छा लगा. उम्मीद है मैं तुम्हे याद होऊँगा. फ्रेंड रिक्वेस्ट भेजी है प्लीज स्वीकार कर लेना. बहुत सी बातें करनी है तुमसे. संदेश का जवाब जरुर देना मैं प्रतीक्षा कर रहा हूँ.’
पढकर चित्रा सोच में पड़ गयी. लिखने वाले के एक-एक शब्द में अपनापन और आत्मीयता झलक रही थी. जिस तरह से उसने चित्रा का नाम लेकर लिखा था उससे जाहिर था वो उसे अच्छे से पहचानता था लेकिन वह तो इस नाम के किसी व्यक्ति को जानती नहीं. कौन है यह महानुभाव. उसने उसकी प्रोफाइल खोल कर उसके फोटो देखना शुरू किये. करीब उसी की आयु का एक व्यक्ति जो कदकाठी और चेहरे से सुखी, संतुष्ट लग रहा था. आयु की एक ओजस्वी और गौरवमयी छाप थी चेहरे पर. उसके घर और परिवार के फोटो भी थे. पत्नी, तीन बच्चे, घर. लेकिन तब भी उसका चेहरा नितांत अपरिचित ही लग रहा था. याद नहीं आ रहा था कभी अनुज-मनुज के यहाँ इंग्लेंड, अमेरिका के प्रवास के दौरान ऐसे किसी भी व्यक्ति से उसकी कोई जान-पहचान हुई होगी. वह आगे और फोटो देखने लगी.
मोस्को स्टेट युनिवेर्सिटी....
और उसके बाद ही एक बीस-बाईस वर्षीय युवक का श्वेत-श्याम चित्र जिस पर नीचे लिखा था ‘अलेक्से’
चित्रा के दिल पर जैसे किसी ने एक अनजान सी दस्तक दी. एक अनूठी सी याद जो ठीक से अभी तक स्मृतियों में उभर भी नहीं पा रही थी लेकिन कुछ अस्पष्ट सी छवियाँ मन में कौंध रहीं थीं. मास्को स्टेट युनिवेर्सिटी, विंग-ए, विंग-डी. चारों तरफ फैली बर्फ की चादर. हाथ में सामान के थैले पकड़े एक तरुणी, बर्फ की चादर पर सम्भलकर पैर रखते हुए अपने विंग की ओर बढती हुई...
चित्रा ने अलेक्सांद्रे का संदेश दुबारा पढ़ा. हाँ रशियन में ही तो लिखा है. तब उन्होंने भाषा पर ध्यान ही नहीं दिया था. और तब अचानक ही बयालीस-चवालीस साल पुरानी एक स्मृति मानस पटल पर चलचित्र की भाँती चलने लगी. तब वे इक्कीस-बाईस साल की थी. उन दिनों रशियन भाषा सीखने का काफी चलन था. भोपाल में भी एक इंस्टीट्यूट था जिसमें रशियन भाषा पढ़ाई जाती थी. उसे भी रशियन भाषा सीखने का मन हुआ और उसने जिद करके इंस्टिट्यूट में प्रवेश ले लिया. कुशाग्र बुद्धि चित्रा बड़ी लगन से सीखने लगी और हर टेस्ट में अव्वल आती. जब चार साल का कोर्स पूरा हो गया तब इंस्टीट्यूट की तरफ से साल भर का डिप्लोमा कोर्स करने के लिए मास्को जाने का स्वर्णिम अवसर मिला. माँ चाहती थी कि चित्रा अब शादी करके घर बसा ले, उम्र भी बीस पार हो चुकी थी लेकिन पिताजी ने चित्रा की इच्छा का मान रखते हुए जाने की अनुमति दे दी. और चित्रा चली आई थी सैकड़ों मील दूर अनजान देश की युनिवेर्सिटी में पढाई करने. अब तो यह सब एक सपने जैसा लगता है. भाग्य से उसे रूममेट आंध्रप्रदेश की रहने वाली एक लडकी दुर्गा ही मिली. दूर पराये देश में कोई स्वदेशी मिलना तब किसी बहुत अपने, आत्मीय जन के मिलने जैसा ही सुखद लगा था दोनों को और जल्दी ही दोनों बहुत पक्की सहेलियाँ बन गयी.
चित्रा को रूम विंग-ए में मिला था और विंग-डी में कुछ दुकाने थी जहाँ ब्रेड, फल, सब्जी आदि मिल जाया करता था. हर मंजिल पर दो कोरिडोर के मध्य एक किचन था जिसमें गैस चूल्हे और कुछ बर्तन आदि रखे थे. यहाँ विद्यार्थी अपनी सुविधा से अपना खाना बना लिया करते थे. खाना अर्थात सब्जी या आमलेट और ब्रेड के साथ खा लेना. चित्रा तो अंडा खाती नहीं थी तो अपने लिए गोभी मटर कुछ बना लेती. क्लासेस के बाद वह अपनी किताब लेकर रूम की खिड़की के पास बैठ जाती और बाहर होता स्नो फॉल देखती रहती. उसे बर्फ गिरते देखना बहुत अच्छा लगता था. दुर्गा ने उसे बता दिया था कि बर्फ पर बहुत सम्भलकर चलना, जरा सा ध्यान चूका और आप फिसलकर गिरे.
चित्रा बहुत ध्यान रखती, सम्भलकर चलती तब भी एक दिन.... वह डी-विंग से फल-सब्जी के भरे दो बैग्स थामे अपने विंग की ओर लौट रही थी. समय देखने के लिए क्षण भर को उसने विंग के टॉवर पर लगी घड़ी की तरफ देख लिया और....
क्षण भर में ही वह फिसलकर धडाम से गिर पड़ी. हाथों से बैग्स छूट गये और फल-सब्जी सब बिखर गये. थोड़ी देर तो दर्द और शर्म से वह सुन्न सी पड़ी रही कि अचानक एक कोमल मगर मजबूत हाथ ने उसे थामकर सहारा देकर उठाया.
“आपको ज्यादा चोट तो नही आई. आप दो मिनट रुकिए मैं अभी आपका सामान समेट लेता हूँ.” एक लडके की आवाज थी यह.
वह तो हतप्रभ सी खड़ी रह गयी. उस लडके ने जल्दी-जल्दी सारा सामान बैग्स में भरा. फिर चित्रा का हाथ थामकर बोला- “आइये मैं आपको आपके कमरे तक पहुँचा दूँ.”
चित्रा यंत्रवत उसके साथ चले लगी. उसे तो यह भी नहीं मालूम था कि यह लड़का है कौन.
“अरे आपको तो चोट लग गयी है.” कमरे में उसका सामान टेबल पर रखते हुए उसने चित्रा का हाथ पकडकर सामने किया. काँच की चूड़ियाँ टूटकर कलाई में चुभ गयी थीं और खून बह रहा था.
“मेरे पास फर्स्ट-एड बॉक्स है, मैं अभी लाकर आपको पट्टी बाँध देता हूँ.” इससे पहले की चित्रा कुछ कहती वह चला गया और दो मिनट में ही वापस आकर उसके हाथ की ड्रेसिंग करने लगा. अब तक वह काफी सम्भल चुकी थी. उसे संकोच हो आया. भारतीय संस्कार, पारिवारिक रूढ़ियाँ मन को घेरने लगी. इस तरह से कमरे में अकेले एक अनजान लडके के साथ. दुर्गा भी बाहर गयी हुई थी. वह लड़का लेकिन बड़ी सहजता से उसके हाथ पर दवाई लगा रहा था. उनकी संस्कृति में इसे अजीब नजरों से नहीं देखा जाता. चित्रा उसके स्पर्श से भीतर कहीं संकोच से भरकर असहज भी हो रही थी और रोमांचित भी. पहली बार ही तो था कि किसी लडके ने उसका हाथ पकड़ा था, उसे स्पर्श किया था.
अब चित्रा ने उसे नजर भर देखा. सुनहरे घुँघराले बाल, गोरा चिट्टा रँग, लम्बा कद, सुंदर नाक-नक्श, नीली-हरी सी आँखे.
“लो हो गया. कुछ जरूरत पड़े तो मैं पीछे वाले कोरिडोर में रूम नम्बर पाँच में रहता हूँ. अरे मैंने अपना नाम तो बताया ही नहीं न, न तुम्हारा पूछा. मेरा नाम अलेक्सांद्रे है, सब लोग मुझे अलेक्से कहते हैं. तुम्हारा नाम क्या है?” अलेक्से ने पूछा.
“मेरा नाम चित्रा है.” चित्रा ने बताया.
“तुम भारतीय हो न?” अलेक्से ने उसके माथे पर लगी बिंदी को देखते हुए कहा.
“हाँ.” चित्रा ने संक्षिप्त उत्तर दिया.
“तुम बैठो मैं तुम्हारे लिए चाय बना लाता हूँ.” और इससे फलर की चित्रा उसे मना करती वह चला गया और थोड़ी देर बाद दो कप चाय और ब्रेड ले आया. चाय पीते हुए उसने थोड़ी बहुत चित्रा के घर-परिवार के बारे में बात की और एक बार फिर से अपना कमरा नम्बर बताकर चला गया. जाते हुए एक गहरी नजर से उसे देखते हुए बोला-
“कोई भी जरूरत हो तो मुझे बता देना.”
चित्रा उसकी नजर से सिहर गयी, उसने हाँ में सर हिला दिया. दुर्गा दो दिन के लिए बाहर गयी थी. दो दिन अलेक्से ही उसके लिए सुबह की चाय बना लाता, ब्रेड सेंक देता. दोपहर और रात में उसके लिए मक्खन और नमक डालकर फूलगोभी उबाल देता ताकि वह ब्रेड के साथ खा सके. और खुद भी उसके साथ ही उसके कमरे में ही खा लेता. उसे हाथ पकडकर क्लास में पहुँचा आता और शाम को वापस कमरे में छोड़ देता. चित्रा सोचती इस देश के लोगों के लिए यह सब कितना सहज है. न कोई उन्हें गलत निगाह से देखता है न टोकता है. यही वे दोनों अगर भारत में होते तो अब तक तो उन्हें लेकर न जाने कितनी बातें बन गयी होतीं, न जाने कितने पहरे लग गये होते दोनों पर.
तमाम पारम्परिक, संस्कारित रूढियों के बंधन में बंधे होने के बाद भी मन में न जाने कब अलेक्से के प्रति एक रूमानियत का बीज पनप गया. चित्रा ने मगर उसे सींचा नहीं, अंकुरित नहीं होने दिया. तटस्थता की रुखी-सूखी जमीन पर उसे पटक रखा. वह अपने घर-समाज की वर्जनाएँ जानती थी. और उसमें उन वर्जनाओं के बंधनों को तोड़ने का, अपने पिता के विश्वास को तोड़ने का साहस नहीं था. और न ही कभी अलेक्से ने अपनी सीमाओं का उल्लंघन करके ऐसी कोई बात ही कही. किन्तु क्या उसकी आँखों में कभी कुछ दिखाई नहीं दिया चित्रा को? चित्रा के मन की भीतरी परतों में यदि रूमानियत का एक बीज उत्पन्न हो गया था अलेक्से के प्रति तो अलेक्से की आँखों में भी तो कतरा भर रूमानियत लहरा जाती थी चित्रा के प्रति. लेकिन शायद वह भी भारतीय समाज से परिचित होगा अथवा उसमें भी अपने परिवार में एक विदेशी लडकी को बसा देने का साहस न होगा. अलेक्से की आँखों में लहराता रूमानियत का कतरा कभी शब्द बनकर होठों तक नही आया.
उसका स्पर्श लेकिन चित्रा के जिस्म पर वर्षों तक छाया रहा. मन में प्रेम का पहला अहसास तो उसी ने जगाया था. कोर्स पूरा होने पर चित्रा भारत वापस आ गयी और आनन-फानन में माँ ने उसका विवाह करवा दिया. वह स्कूल में रशियन भाषा की शिक्षिका बन गयी. नौकरी, पति, बच्चे. घर-गृहस्थी की व्यस्तता में चित्रा ऐसी उलझी कि नीली-हरी आँखों की वह उजास भरी रूमानियत का बीज न जाने किन अंधेरों में गुम हो गया. फिर भी जीवन की कुछ रुखी वास्तविकताओं के बीच एक अनजान कोमल स्पर्श उसे सहला जाता. तब चित्रा को कभी मालूम ही नहीं पड़ा, लेकिन आज वह समझ पाई है. यह वही अलेक्से की आँखों में लहराती कतरा भर रूमानियत का भीगा-सा अहसास ही था जिसने चित्रा का मन जीवन के इस तपते बंजर मरुस्थल में भी भीतर से हमेशा हरा रखा. वरना आम भारतीय पतियों की तरह ही रमेश के लिए भी पति-पत्नी का रिश्ता बंद, अँधेरे कमरे में मात्र देह की संतुष्टि तक ही सिमित था. उसमें किसी सुकुमार, कोमल भावना की जगह ही कहाँ रही कभी जिसके लिए वह उम्र भर तरसती रही.
लेकिन चाहे हजारों मील दूर ही सही, उसके अनजाने ही सही एक पुरुष के मन में उसके लिए कभी कतरा भर रूमानियत रही थी और शायद अब भी है, तभी वह अभी तक भी चित्रा को भूला नही है. यह अहसास ही कितना सुखद है, इस उम्र में भी. अब प्रेमी या पति रूप में न सही मगर इस अहसास को सच्ची दोस्ती के रूप में तो सहेज ही सकती है, निभा भी सकती है. और चित्रा ने मुस्कुराते हुए अलेक्से की फ्रेंड रिक्वेस्ट एक्सेप्ट कर ली और उसके संदेश का जवाब देने लगी.
डॉ विनीता राहुरीकर