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राजकुंवर

राजकुंवर

--“बा को आय हती रे?” छोटे महाराज ने भारी आवाज में पूछा।

--“को महाराज?” मद्दू पहलवान ने चौंककर पूछा। छोटे महाराज ने तनिक तल्खी से पीछे देखा।

--“जीसें कुंवर ने बात करी ती।“

--“बा मोड़ी, हितिया काछी की आ महाराज।“ छुट्टन पहलवान बोला।

--“जो कछिया ऐतै का करत रेलवे स्टेशन में?”

--“फल-तरकारी की ठिलिया लगाउत ऐते महाराज।“ छुट्टन फिर बोला।

--“हूंऊंऊं ……..ईके फल तो पक गये, हमें खबर लो ना भई!” छोटे महाराज फुसफुसाये, --“तोम औरे तो खाऔ पियौ

औ गर्राऔ।“ छुट्टन और मद्दू ने एक दूसरे को देखकर आंखें नीची कर लीं, फिर अपनी-अपनी बंदूक पर हाथ फेरते हुये पीछे की ओर आती खाली गाड़ी और उड़ती धूल देखने लगे। काफिला स्टेशन से भीषमपुर लौट रहा था।

बुंदेलखंड के हरपालपुर रेल्वे स्टेशन से कोई आठ मील की दूरी पर बसी रियासत भीषमपुर के छोटे महाराज रावलश्री रणवीर प्रताप सिंह जू देव अपने बेटे कुंवरश्री अहिवरण प्रताप सिंह को अपने दो कारिंदों छुट्टन और मद्दू पहलवान के साथ रेल्वे स्टेशन छोड़ने गये थे, एक गाड़ी में उनका दल व दूसरी में कुंवरश्री और उनका एक सेवक। कुंवरश्री दिल्ली के किसी नामी-गिरामी स्कूल में, जहां पुराने राजे-रजवाड़ों-रियासतदारों की बिगड़ैल औलादों को दाखिला आसानी से मिल जाता था, ग्यारहवीं जमात में पढ़ते थे। पढ़ते क्या थे, बस नाम लिखा था स्कूल में। मोटी फीस के बदले इन राजकुमारों का पास होना तय रहता था, अंग्रेजी में अलबत्ता खास ध्यान दिया जाता था। स्टेशन में गाड़ी खड़ी होते ही कुंवर की निगाह फल-सब्जी के ठेले के पीछे खड़ी लड़की पर जा टिकी, जब तक सेवक सामान-असबाब उतारता, वे उसके ठेले के पास जा पहुंचे।

--“काये, ऐतै का करतीं तोम?”

--“दद्दा को ठेला आय जो, आ जईत तनक मदद करबे कभूं-कभूं।“ लड़की ने अचानक कुंवर को सामने देख किंचित आश्चर्य मिश्रित खुशी से स्मित मुस्कान के साथ जवाब दिया।

--“पढ़बो छोड़ दओ का?” लड़की ने इस बात का कोई जवाब नहीं दिया, गर्दन तिरछी करके नजरें नीचे झुका लीं। कुंवर ने भी आगे कुछ नहीं कहा, थोड़ी देर यूं ही खामोश खड़े रहे, फिर आहिस्ता से मुड़कर हौले-हौले स्टेशन की ओर चले गये। चंदा नाम था लड़की का, चंदा काछी, हेतराम काछी की एकमात्र संतान! जब कुंवर हरपालपुर के स्कूल में पढ़ते थे, पांचवीं तक चंदा भी उनके साथ थी। हालांकि हेतराम ने छठवीं में उसका दाखिला खराब माली हालत के बहाने से नहीं कराया था पर वास्तविकता यह थी कि उस जमाने में सयानी होती बच्ची के उतनी दूर के स्कूल में जाने से सुरक्षित लौट आने की कोई गारंटी नहीं होती थी। देश स्वतंत्र हुये अभी बीस साल ही हुये थे, नियम कानून संविधान अपनी शैशव अवस्था में थे, अधिकार, जागरुकता, कानून जैसे शब्द तत्कालीन गरीब भारतीय समाज की शब्दावली से दूर थे, विशेषकर पिछड़ी व नीची जातियों की। पुलिस राजों-रजवाड़ों की कारकुन जैसे काम करती, हवेलियों-कोठियों में नियमित आमद दर्ज कराना व कथित राजाओं-जमींदारों के सामने मुजरा करना दरोगाओं की सुरक्षित नौकरी के लिये आवश्यक शर्त होती थी। किसने कौन सा अपराध किया और उस पर कौन सी धारा कायम होगी, यह हवेलियों-कोठियों में तय किया जाता, थाने मात्र उनके हुक्म की तामीली करने के लिये बने होते थे। ऐसे में हेतराम का निर्णय गलत नहीं था। थी भी चंदा चांद सी ही, झक गोरा रंग, बड़ी-बड़ी आंखें, हंसती तो गाल में गढ्ढे पड़ जाते, देखने वालों को काठ मार जाता। पंद्रह बरस की होते-होते उसके यौवन ने वह ठाठ मारी कि कुंवर तो कुंवर, छोटे महाराज भी कसमसाकर रह गये।

आषाढ़ के अमावस की अंधेरी रात थी, गहरे सन्नाटे के बीच घड़ियाल ने आठ बजाये। छोटे महाराज रोज की तरह आज अपनी गढ़ी नहीं गये, ऊपर अटारी के बाहर के बरामदे में ही बैठे-बैठे पीते रहे। आज हवा भी बिल्कुल शांत थी पर छोटे महाराज के मन के अंदर भयानक अंधड़ चल रहा था। जब मनुष्य के मन के अंदर अंधड़ चल रहा होता है, उस समय अक्सर उसका शरीर अचल सा हो जाता है, हाथ-पैर पत्थर से हो जाते हैं, यहां तक कि आंखें भी स्थिर सी हो जाती हैं। मर्दन सिंह ने दो-एक बार कुछ बोलने की कोशिश की पर आज छोटे महाराज की अजीब सी खामोशी देखकर वह चुपचाप पैग बनाने का काम करता रहा, यहां तक कि चिनिया महाराजिन की पुकार ”ब्यारी तैयार है छोटे महाराज!” पर भी छोटे महाराज मौन रहे, मर्दन सिंह की भी कुछ कहने की हिम्मत न हुई। मर्दन सिंह ने लैंप की रोशनी तेज की ही थी कि अचानक छोटे महाराज डगमगाते हुये कदमों से उठ खड़े हुये और ड्योढ़ी के पर्दे को पकड़कर मर्दन सिंह से छुट्टन और मद्दू पहलवान को बुलाने के लिये कहा। उन चारों के दरम्यान क्या बात हुई, किसी ने न सुनी पर उसके फौरन बाद छोटे महाराज अपनी जीप में बैठकर गढ़ी त्रिपालपुर रवाना हो गये, वे तीनों दिये गये सबक को पूरा करने के लिये दूसरी जीप में जा बैठे।

त्रिपालपुर घने जंगलों के बीच टेढ़े-मेढ़े रास्तों वाली भीषमपुर से कोई दस मील की दूरी पर पहाड़ की तलहटी में बसी छोटी सी बस्ती थी, इसी बस्ती के एक छोर की टौरिया पर ऊंची चारदीवारी से घिरी हुई बनी थी गढ़ी त्रिपालपुर। गढ़ी के पीछे तरफ छोटी पहाड़ी नदी अल्पा बहती थी, जो आगे जाकर केन नदी में मिल जाती थी, बाकी तीन तरफ सागौन व आंवले का घना जंगल था। आमतौर पर गढ़ी की तरफ दिन में भी कोई नहीं जाता था, रात में जंगली जानवरों और उनसे भी बढ़कर गढ़ी के ठाकुरों के आतंक के कारण उधर जाने की किसी की हिम्मत न होती थी। जंगल, एकांत, जानवरों, अंधेरे और सन्नाटे ने गढ़ी के संबंध में भय का जो भी वातावरण रचा था, गढ़ी गयी कहानियों ने उससे कहीं अधिक रच दिया था, जिनमें कुछ सच भी थीं। कुछ डेढ़ सौ साल पुरानी इस गढ़ी के पीछे की तरफ सीढ़ियों से उतरकर एक छोटे तालाब में पहुंचा जा सकता था। कभी रानियों के स्नान के लिये बने इस तालाब में अब दो मगरमच्छ पले थे जो अक्सर भोजन के लिये तरसते रहते। ज्यादातर उन्हें जिंदा बकरे मिलते, कभी-कभार इलाके के ठाकुर जब किसी अभागे का न्याय करते तो उन्हें इंसानी गोश्त भी चखने को मिल जाता।

गाड़ी रुकने की आवाज सुनकर छोटे महाराज, जो आराम कुर्सी पर आंखें बंद करके धंसे हुये थे, दोनों हाथों से कुर्सी के हत्थे को पकड़कर सतर्क होकर सीधे बैठ गये। झींगुरों और जंगली सियारों के सिवा अन्य कोई आवाज सुनाई न देती थी। छोटे महाराज की अचल निगाह ऊंचे दरवाजे पर टिकी थी कि अचानक दरवाजा खुला। सामने अंधेरे में तीन आकृतियां नजर आयीं, छोटे महाराज के ओठों पर विषैली मुस्कान खेल गयी, आखिर उनकी आंखों ने उसे देख लिया था जिसने उनके अंदर सुबह से झंझावात मचा रखा था। कितना ही अंधेरा क्यों न हो, जानवर अपने शिकार को देख ही लेता है। किसी ने पीछे से उन तीनों को धक्का दिया, वे सहमकर दरवाजे के पास ही उकड़ूं बैठ गये, दरवाजा भड़ से बंद हो गया। हेतराम दोनों हाथ जोड़े बैठा था, उसके पीछे घूंघट डाले उसकी औरत और उन दोनों से दुबककर चंदा, वैसे ही जैसे हिरनी का बच्चा शिकारी को देखकर मां के पेट से चिपक जाता है। --“जोहार छोटे महाराज।“ कहकर हेतराम ने सामने की जमीन पर मत्था टेक दिया। छोटे महाराज ने पैग उठाकर एक उड़ती सी निगाह हेतराम पर डाली पर कोई जवाब नहीं दिया। सन्नाटा और भी गहरा गया था, हेतराम के लिये एक-एक पल युगों के समान भारी हो रहा था। छोटे महाराज की लाल आंखों और घनी मूंछों के नीचे तैर रही जहरीली मुस्कान देख हेतराम को लग रहा था जैसे बारगाह के बीचोबीच रखी आरामकुर्सी पर उन लोगों को कच्चा चबा जाने के लिये साक्षात यमराज बैठा हो। हेतराम को ”मम्मा साहब ने भीषमपुर कोठी में याद करो है”, कहकर गढ़ी त्रिपालपुर ले आया गया था, इससे उसकी आंखें किसी अनहोनी के अज्ञात भय से मिचमिचा रही थीं और शरीर कांप रहा था। गढ़ी त्रिपालपुर की कहानियां हेतराम ने भी सुन रखी थीं, इससे उसका गला सूख रहा था। हेतराम की औकात नहीं थी कि वह कभी इलाके के ठाकुरों को नाराज करे, न ही ऐसा कभी कोई गुनाह ही किया था पर वह नहीं जानता था कि खूबसूरत बेटी पैदा करना भी इस जमाने में एक गुनाह ही है, या तो समर्पण करो या दंड पाओ या दोनों। --“छोट्टन भइया ने कही के मम्मा साहब ने याद करो है, सो आ चले आये महाराज। कछू गलती हो गयी होय सो माफ करो जाय माईबाप।“ हेतराम रिरियाया। छोटे महाराज ने इसका जवाब फिर खामोशी से दिया, हां, गिलास टेबल पर रखकर वे और सीधे होकर बैठ गये। दीवारों पर जड़े मृत जानवरों के सिर देखकर हेतराम को लग रहा था जैसे उसे भी वहीं जड़ दिया गया हो। उसने लैंप की रोशनी पर आंख गड़ा दी, लौ की लपलपाहट से उसे चक्कर सा आने लगा। अचानक छोटे महाराज दहाड़े, --“छोट्टन।“ छुट्टन और मद्दू पहलवान ने अंदर आकर हेतराम और उसकी औरत को पकड़ लिया और घसीटकर बाहर ले जाने लगे। वे दोनों घिघिया रहे थे, किसी तरह उनकी पकड़ से छूटकर हेतराम ने दौड़कर छोटे महाराज के पैर पकड़ लिये और उनकी जूतियों में नाक रगड़ने लगा, --“जो न करौ महाराज, अनर्थ हो जैहे। जो कैहो, हम करबी, मोड़ी खां छोड़ देओ महाराज। अनर्थ न करौ, बा बड़े महाराज की बिटिया आ।“ अब चौंककर छोटे महाराज ने हेतराम को जलती आंखों से घूरा, फिर एक जोरदार लात मारी, हेतराम दरवाजे के पास जा गिरा। --“हमाये ब्याव के दिना बड़े महाराज ने हमाई औरत खां उठवा लओ तो। जा उनईं की बिटिया आ महाराज, हमने ईखां पालो भर है।“ छोटे महाराज ने छुट्टन पहलवान की ओर देखा, उसने सिर झुका लिया। अरे बाप रे, तो हेतराम सच कह रहा है? ये लड़की बड़े महाराज की संतान? छोटे महाराज घूमकर पीछे देखने लगे, उनकी आंखें लाल और मुठ्ठियां भिंची हुई थीं। उन्होंने जल्दी से गिलास उठाया और एक ही सांस में पी गये। छोटे महाराज फिर दहाड़े, --“छोट्टन।“ वे दोनों बिजली की तेजी से मां-बाप को घसीटकर बाहर ले गये। भय के अतिरेक और अचानक उद्घाटित रहस्य ने चंदा को निर्जीव कर दिया। छोटे महाराज ने चंदा को उठाया और अंदर कमरे में ले गये। उस रात चंदा की चीखों को केवल गढ़ी की दीवारों ने सुना। पर वे दीवारें काफी मजबूत बनी थीं जो यदि मासूमों की चीखों से गिरने लगतीं तो न जाने कब की गिर चुकी होतीं। गढ़ी के पीछे से आयी छपाक की आवाजों और पानी में हुई हलचल की आवाज सुनकर छोटे महाराज ने एक और गिलास जल्दी से उठाया और एक ही सांस में पी गये।

गहराते अंधेरे में गाड़ी तेजी से दौड़ रही थी, लंबा फासला था और मुंह अंधेरे वापस लौट आने का हुक्म भी था। आसमान में कहीं बादल तो कहीं तारे दिख रहे थे, ठंडी हवा के साथ इक्का-दुक्का बूंदें भी पड़ जातीं जो बिलाशक चंदा की फूटी तकदीर के लिये बहे किसी के आंसू नहीं थे। वह तो गाड़ी के पीछे गठरी बनी पड़ी थी, जिस्म से बहते खून से अधिक आत्मा कुचले जाने से बेजान शरीर में अब छटपटाहट भी नहीं थी। वह नहीं जानती थी कि दुर्भाग्य की तो ये शुरुआत है, असली नर्क तो अब आने वाला है। छुट्टन पहलवान ने बिना बोले ड्रायवर को पीछे से उसकारा, उसने स्पीड और बढ़ा दी। तड़के कोई तीन बजे देवेन्द्रनगर के बाहर बसी बदनाम बस्ती के एक घर के सामने गाड़ी खड़ी हुई, मद्दू पहलवान ने दरवाजा जोर से खटखटाया।

--“सबर करो, आती हूं बाबा।“ कहते हुये एक अधेड़ औरत ने हाथ में लालटेन लिये हुये दरवाजा खोला, --“अभी सो

रही हैं बच्चियां, जगाती हूं।“

--“हम हैं मद्दू और छुट्टन, जरा बात सुनो नीरा।“ औरत ने लालटेन ऊपर करके उन दोनों को करीब से देखा, --“अरे

मद्दू , आज तुम लोग इस समय, सरकार कहां हैं?”

--“छोटे महाराज नहीं आये, ये ताजा माल भेजा है, संभालो इसे।“

--“अरे वाह, ये तो बड़ी प्यारी है।“ नीरा ने लालटेन चंदा के बदन के पास लाकर कहा। --“पर सरकार को भी क्या कहें,

ऐसी भी क्या बेसबरी, नोच ही डाला फूल जैसी बच्ची को।“

--“छोटे महाराज ने कहा है ये उनकी अमानत है, बाजार में न खड़ी कर देना।“

--“हाय, हाय, सरकार से जान की अमान पाऊं। अब मैं क्या इतनी मूरख हूं कि उनसे गुस्ताखी करुं। सरकार से कहना

ये उनकी अमानत है, उन्हीं की रहेगी। अरे अमजद, बच्ची को अंदर ले जाओ।“ नीरा ने अंदर की तरफ आवाज दी। दोनों पहलवान स्टार्ट गाड़ी में बैठकर वापस चले गये। नीरा कमर पर एक हाथ रखे उन्हें जाते हुये देखती रही, अमजद चंदा को कंधे पर उठाकर अंदर ले गया। --“तुम देख लेना अमजद, भगवान के घर, और तुम्हारे यहां क्या कहते हैं, अल्लाह के घर में जब पेशी होगी तब इन हराम के जाये कमीनों को ही कोड़े पड़ेंगे। मेरा क्या, मैं तो कह दूंगी मैं क्या करती, मैंने तो इन मजलूमों को सहारा ही दिया था, यहां न बिकती, कहीं और बिकती। कीड़े पड़ेंगे इन हरामियों के, मादर …………. की औलाद।“

हेतराम के परिवार सहित गायब होने की तहकीकात हरपालपुर के थानेदार ने बड़ी जिम्मेदारी से की। किसी ने उन्हें कहीं जाते हुये भी नहीं देखा था, देखा भी होता तो बयान करने का साहस किसमें था? एक और बात, उस जमाने में तहकीकात मौके पर जाकर नहीं होती थी, हवेलियों-कोठियों में बैठकर होती थी। वहीं पर बयान लिखे जाते, तहरीर पढ़कर सुनाई जाती, लोग उस पर अंगूठा लगा देते। अब तहरीर में क्या लिखा गया और क्या पढ़ा गया, यह लिखने-पढ़ने वाले के अलावा सिर्फ ईश्वर ही जान सकता था। रोजनामचे में गुमशुदगी दर्ज हुई और बात खत्म हो गई। चूंकि हेतराम का कोई वारिस मौजूद नहीं था लिहाजा उसकी जमीन की देखभाल की जिम्मेदारी छुट्टन पहलवान को दे दी गयी। सब कुछ फिर पहले जैसा चलने लगा।

--“अम्मा, ये तो पेट से है!” बिंदिया ने नीरा से फुसफुसाकर कहा। नीरा भौचक्की रह गयी, फिर अपने करम को और भीषमपुर के ठाकुरों को पानी पी-पीकर गालियां देने लगी। --“उसी साले छोटे ठाकुर रणवीरे का है। अभी दो-चार महीने तो धंधा करवाओ, फिर देखेंगे। भगवान करे, लड़की होवे, जटाशंकर मंदिर में थाल चढ़वाउंगी।“ विडंबना देखिये, आम औरतें बेटा होने की मन्नत मानती हैं, रंडियें और तवायफें बेटी होने की! चंदा ने तकदीर के आगे जल्दी ही हथियार डाल दिये थे। उसे पता था कि भीषमपुर में अब कोई नहीं बचा है, मां-बाप को मगरमच्छ खा गये और उसे छोटे महाराज। नीरा उससे खुश तो बहुत रहती, पर ऐसा न था कि चंदा पर कड़ा पहरा न हो। धंधे की सबसे बड़ी बात जो चंदा ने सीख ली थी कि हर ग्राहक को इस भरम में रखो कि वह केवल उसी की है। अतीव सुंदर तो वह थी ही, नाच के साथ-साथ पक्का गाना सीख जाने के कारण चंदा नीरा के लिये टकसाल साबित हुई। कुछ ही महीने बीते कि चंदा के अत्यंत सुंदर लड़की पैदा हुई, नीरा की मन्नत पूरी हुई, बस्ती में रात भर नाच-गाना चलता रहा, जटाशंकर मंदिर में थाल चढ़ा। इतने सितम के बाद भी वह नास्तिक नहीं थी वरना मासूम निरपराध चंदा पत्थर के जटाशंकर से थाल स्वीकारने का कारण अवश्य पूछती। चंदा ने अतीत को दफन करके वर्तमान में जीना अच्छी तरह सीख लिया था, वह एक पक्की वेश्या बन चुकी थी और अपनी बच्ची को एक अच्छी वेश्या बनाने का सपना लिये उसकी वैसी ही परिवरिश करने लगी। पर उसने यह कभी किसी ग्राहक पर, खासतौर पर छोटे महाराज पर जाहिर न होने दिया कि वह एक बच्ची की मां है। वेश्या बनने के बाद चंदा ने अपना नया नाम रखा – नारंगी!

आज भीषमपुर में उत्सव का माहौल है, छब्बीस वर्ष के हो चुके कुंवरश्री अहिवरण प्रताप सिंह का आज राजतिलक जो होना है! पूरी हवेली को दियों से दुल्हन सा सजाया गया है, हंडे व लैंप खास मेहमानों के पास रखे हैं। एक तरफ दिलदिल घोड़ी का नाच चल रहा है, दूसरी तरफ तुरही, नगड़िया और मदरला बज रहा है। गांव के साधारण लोग थोड़ी दूर पर आम के पेढ़ के नीचे दरी पर बैठाये गये हैं, उनके लिये केवल पान-सुपाड़ी का इंतजाम है। बड़े महाराज रावरावलश्री रणछोड़ प्रताप सिंह जू देव एवं छोटे महाराज रावलश्री रणवीर प्रताप सिंह जू देव घूम-घूमकर खास मेहमानों का स्वागत कर रहे हैं। आसपास के लगभग सारे जागीरदार-जमींदार उपस्थित हुये हैं, कोई बिरजिस-कोट पहने है तो कोई हैसियत के अनुसार शेरवानी-अचकन-नागरा। इत्रों की खुशबुयें पूरे माहौल में तारी थीं। शायद ही कोई सिर बिना साफे के हो, नंगा सिर ठाकुरों की तौहीन मानी जाती थी। साफा सिर पर कायम हो, फिर चाहे जितनी नंगई करो, सब माफ! एक-दूसरे को जुहार करने में लोग झुक-झुककर धनुष हुये जाते थे, पूरी सभा में सिर्फ धनुष ही धनुष दिखाई देते। धनुष बनकर पाखंडपूर्ण आदर और विनम्रता के तीर चला-चलाकर सामने वाले को चित्त कर देने की स्पर्धा हवेली के अंदर-बाहर हर जगह जारी थी। बड़ी महारानी साहब सिगरेट पीती हुई एक बड़ी कुर्सी पर विराजमान थीं, वहीं छोटी महारानी स्वयं धनुष हुई जा रही थीं। औरतों की परेशानी यह थी कि शरीर में अब कोई खाली स्थान नहीं बचा था जहां और सोना पहना जा सके। हुक्का और शराब हवेली के अंदर-बाहर दोनों जगह पूरी मुस्तैदी से मुहैया करायी जा रही थी। पंडित कई थालों में तमाम अस्त्र-शस्त्र व पूजा की सामग्री रखे हुये बड़ी महारानी साहब को दिखा रहा था जो अपनी बेहद भारी आवाज में उसे डांट रहीं थीं। खाने का भी क्या गजब इंतजाम था, हलवाई बनारस से बुलाया गया था तो झांसी से कसाई खुद चालीस बकरे लेकर आया था। अचानक शोर मच गया, तवायफें आ गयीं! फिर क्या था, सारी औरतें सोने से लदे अपने शरीरों को घसीटते हुये अटारी से लगे बरामदे में जा चढ़ीं जिसके सामने परदे का पूरा पुख्ता इंतजाम था। ठाकुरों की हवेलियों के परदे भी बाकमाल होते थे, खुलेआम शराबनोशी, बेशर्म अय्याशी व बेवफाई मर्दों की आंखों में तो मोटा परदा डाल देती पर औरतों के परदे झीने, और झीने, और झीने होते जाते। हवेलियों के अंदर की कहानियां हमाम के नंगों की तरह हो जातीं, कौन किसे नंगा कहे, इसलिये छिपी हुई प्रतीत होतीं पर न जाने कैसे वे कहानियां बिना मुंह से निकले लोगों के कान तक पहुंच जातीं। तवायफों की पूरी भीड़ थी पर लोग नारंगी को देखने के लिये पागल हो रहे थे। दस साल के लंबे अंतराल और मेकअप के कारण भीषमपुर का कोई आदमी उसे पहचान न सका सिवा छोटे महाराज के। तवायफ नारंगी ने बड़ी अदा से झुककर सबको कोर्निश की, औरत नारंगी ने आंखों की कोर से ढुलक आये आंसूओं को पोंछा, फिर तवायफ नारंगी ने तबले-हारमोनियम की संगत में तान छेड़ी, --“राजकुंवर मोरे राजाजी, सगरे जगत के राजा ………….।“ लोग मदमस्त थे। तीसरी पहर रात होने के बाद किसने क्या खाया, कौन कहां गिरा पड़ा रहा, कौन कौन है, यह किसी को होश न रहा। तब न धनुष बचे, न साफे! कुछ तवायफें हवेली के बरामदे में ही सो रहीं। नशे की हालत में बड़े महाराज रावरावलश्री रणछोड़ प्रताप सिंह जू देव के हरकारे उन्हें और नारंगी को लादकर उनकी गढ़ी की ओर चले गये तो छोटे महाराज रावलश्री रणवीर प्रताप सिंह जू देव के हरकारे किसी और तवायफ को लेकर गढ़ी त्रिपालपुर। कुंवरश्री अहिवरण प्रताप सिंह ने उस रात अपनी हवेली को ही अपना आशियाना बनाया, कौन देखने वाला था, किससे शर्म करते, उस हमाम में सभी नंगे थे। रात का तमाशा खत्म हुआ, सुबह से फिर वही साफे, फिर वही धनुष!

आज नारंगी बहुत खुश है, वह अपनी जवान हो चुकी बेटी की नथ उतराई की पूजा की तैयारी बड़े उत्साह से कर रही है। बूढ़ी नीरा ने पूछा कि बेटी की बोली के लिये कोई यहीं बस्ती में आयेगा या वह इसे कहीं बाहर ले जायेगी।

--“भीषमपुर के छोटे महाराज से मैंने इसकी बोली ले ली है।“ नारंगी बोली। सुनकर नीरा को चक्कर आ गया, वह बेहोश होते-होते बची।

--“तुम होश में तो हो नारंगी?”

--“अब तुम हमें ज्ञान मत देना अम्मा। वेश्या का न तो कोई ईमान होता, न कोई धरम, पर वह अपने दुश्मन से बदला

न ले, यह किसने कहा? उसने मेरा एक लोक बिगाड़ा, मैं उसके दोनों लोक नष्ट कर दूंगी, यही मेरा संकल्प है,

देखती जाओ। एक बात और सुन लो, मैंने भीषमपुर के बड़े महाराज से भी दो दिन बाद की इसकी बोली ले ली है

और उसके दो दिन बाद की कुंवर अहिवरण प्रताप सिंह से। तुम तो बस पैसे गिनो।“ पुरानी वेश्या नीरा ने भी न कभी ऐसा देखा-सुना था, न कभी सोचा। वह विस्मय से जड़वत होकर नारंगी को देखती रही।

क्षेत्र में होने वाले लोकसभा के चुनाव की धूम मची हुई थी। वेश्याओं की बस्ती में भी प्रत्याशी प्रचार करने आते, वे हाथ जोड़ते, वेश्यायें ठिठोली करतीं। आज बस्ती से एक मील दूर कस्बे में बड़े महाराज रावरावलश्री रणछोड़ प्रताप सिंह जू देव, जो वृद्ध होने के बावजूद चुनाव में प्रत्याशी थे, की चुनावी जनसभा होने वाली थी। महाराज रावलश्री रणवीर प्रताप सिंह जू देव अपने बेटे कुंवरश्री अहिवरण प्रताप सिंह के साथ अपने पिता का सघन प्रचार कर रहे थे। सीधी राजशाही चली गयी तो ये लोग चोर दरवाजे से फिर से राजा बनने की फिराक में थे। भीड़ खूब थी, मंच पर इन तीनों के साथ कुछ स्थानीय लोग भी बैठे थे। नारंगी भी अपनी बस्ती वालों के साथ भीड़ में बैठी थी। अखबार के नुमाइंदे और फोटोग्राफर अपनी जगह ले चुके थे। मंच में चल रहे भाषण में बड़े महाराज को गरीबों का सच्चा हितैषी, महान त्यागी, समाज सुधारक, वचन के पक्के, उच्च चरित्रवान, संत समान, हमेशा न्याय करने वाले और न जाने क्या क्या बताया जा रहा था। तीन प्रमुख बातें जो प्रत्येक भाषण में कही गयीं वे थीं कि बड़े महाराज तो बड़े महाराज, इनके परिवार के प्रत्येक सदस्य में ये सभी गुण विद्यमान हैं, दूसरा कि इनमें से प्रत्येक सदस्य सभी को बिना फर्क किये एक समान भाव से देखता है व तीसरा कि इस क्षेत्र का प्रत्येक नागरिक बिना किसी अंतर के उनके परिवार के सदस्य के समान है। भाषण में चाहे जो कहा गया, मंच पर मात्र वे ही तीनों राजाओं जैसे बैठे थे, शेष तिपाई या दरी पर बैठे दुम हिला रहे थे। अचानक नारंगी उठ खड़ी हुई, हाथ उठाकर कहा, --“मैं भी बड़े महाराज के समर्थन में कुछ बोलना चाहती हूं।“ मंच पर सन्नाटा छा गया। अचानक उन्हें ख्याल आया कि वेश्या है तो क्या हुआ, नारंगी को नाराज नहीं किया जा सकता, उसकी बस्ती में तीन सौ से अधिक वोट हैं। बड़े महाराज, --“हां, हां, आओ, आओ, मंच पर आओ बेटी। हम लोग सभी को एक समान समझते हैं।“ अज्ञात भय की लकीरें थीं तो केवल छोटे महाराज के माथे पर, कहीं गड़बड़ न कर दे ये, वेश्या का क्या ठिकाना! छोटे महाराज ने नजरें घुमाकर छुट्टन, मद्दू और मर्दन सिंह को आंखों ही आंखों से सचेत रहने का इशारा किया। नारंगी ने मंच पर आकर सभी को प्रणाम किया, फिर माइक के सामने जा खड़ी हुई। सोचने लगी आज उसके संकल्प के पूरे होने का दिन आ ही गया। बचपन से लेकर आज तक की सारी घटनायें एक-एक करके उसकी नम आंखों में तैर गयीं, उसके गाल गीले हो गये। उसने गर्दन घुमाकर तसल्ली की कि मंच के नीचे छुट्टन, मद्दू और मर्दन सिंह, तीनों वहीं खड़े हैं। उसने शुरु किया, --“मुझे भाषण देना तो नहीं आता, फिर भी आज मैं बोलूंगी क्योंकि चुप रहने के परिणाम मैं बचपन से देख रही हूं। बड़े महाराज ने सही कहा कि ये लोग सभी को एक सा समझते हैं, यहां तक कि सभी रिश्तों को भी एक ही सा समझते हैं। आप लोगों ने सुना, इन्होंने अभी-अभी एक वेश्या को, यानी मुझे, बेटी कह कर पुकारा, पर सच्चाई यही है कि मैं वास्तव में इन्हीं की बेटी हूं। मेरी मां को इन बड़े महाराज ….. रावरावल…… श्री ….. रणछोड़….. प्रताप …… सिंह …..जू ……देव ने शादी के दिन ही उठवा लिया था, मैं बड़े महाराज की बेटी और छोटे महाराज की बहन बनकर हेतराम काछी के घर में पैदा हुई, मेरे महान बाप हेतराम ने सब कुछ जानते हुये भी छाती पर पत्थर रखकर मुझे अपनी बेटी की तरह पाला। छोटे महाराज ……रावलश्री …….रणवीर ……प्रताप ……सिंह …..जू …..देव ने यह बात अच्छी तरह जानते हुये भी मेरी अस्मत लूटकर मुझे एक रात की पत्नी बना डाला, मेरे मां-बाप को मगरमच्छों को खिला दिया, फिर मुझे बाजार में बेच दिया। उन्होंने बहन और पत्नी के रिश्तों में कोई फर्क नहीं किया, दोनों को एकसमान समझा।“ सभा में मौत सा सन्नाटा छा गया। तीनों के चेहरे लटके हुये थे, आज उनके साफे भी लाचार हो गये थे। छुट्टन और मद्दू बंदूक लेकर मंच की ओर बढ़े पर अचानक बस्ती के कई नौजवान उठकर खड़े हो गये, इशारा साफ था सो वे थम गये। अखबार के नुमाइंदों की कलमें चलने लगीं, फोटोग्राफरों के कैमरे। --“इसके बाद कुंवर के राजतिलक के दिन बड़े महाराज ने मुझे बेटी से एक रात की पत्नी बनाया तो इन कुंवर साहब ने, जो कभी मेरे साथ स्कूल में पढ़ते थे, बुआ से पत्नी! मुझे बारी-बारी से पत्नी बनाकर इन तीनों बाबा, बेटा व नाती ने अपने खुद के रिश्ते खत्म करके एकसमान कर लिये, ऐसा महान परिवार देखा है आप लोगों ने कभी? बात यहीं पर खत्म नहीं हुई, इन छोटे महाराज से मुझे एक बेटी हुई, बड़े महाराज की पोती और कुंवर की बहन। बारी-बारी से इन तीनों ने उस मासूम को भी अपनी एक-एक रात की पत्नी बनाया, माफ कीजिये, एक नहीं, कई-कई बार। मुझ जैसी सीधी-सादी गांव की लड़की को इन्होंने बाजार में खड़ा करके नंगा किया, मैंने इन्हें इनके घर में नंगा करने का बीड़ा उठाया। जब तक इन जैसे लोग रहेंगे, इस बदनाम बस्ती जैसी बस्तियां आबाद होती रहेंगी। वैसे मेरी बस्ती और इनकी हवेलियों में ज्यादा फर्क नहीं है, मैं बदनाम इसलिये हूं क्योंकि मेरे पास इनकी हवेलियों जैसे मोटे परदे नहीं हैं। मैं बरबाद हुई, मेरी बेटी बरबाद हुई, पर मुझे संतोष है कि इन कुर्बानियों से आज उन हवेलियों की मोटी दीवारों में कैद सड़ांध बाहर आ सकी, आगे शायद इससे मेरी और मेरी बेटी जैसी कुछ मासूम जिंदगियां बच जायें।“ सभा में अभूतपूर्व सन्नाटा छाया हुआ था। नारंगी ने मंच से धीरे-धीरे उतरकर बस्ती की राह पकड़ी, उसने एक बार भी पीछे मुड़कर नहीं देखा, आज उसके चेहरे पर अतीव संतोष की मुस्कान थी। उसके जाने के बाद काफी देर तक एक अजीब सी खामोशी छायी रही, फिर अचानक सभा में अभूतपूर्व भगदड़ मच गयी।

बाद में सुना गया, एक दिन भीषमपुर और आसपास के लोगों ने हवेलियों व गढ़ियों में अचानक हमला बोल दिया। कुछ लोग भाग पाये, कुछ मारे गये। हरपालपुर के थानेदार ने मामले की तफ़्तीश की और अज्ञात हमलावरों के खिलाफ मामला दर्ज कर कुछ दिनों बाद खात्मा लगा दिया। भारत के बड़े समाजसुधारकों के नामों के बीच नारंगी वेश्या का छोटा नाम जरुर कहीं दब गया पर वह भी नींव का पत्थर बनकर अमर हो गयी।

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बुंदेली-खड़ी हिंदी अनुवाद :

” बा को आय हती रे?” ”वह कौन थी?”

” को महाराज?” ” कौन महाराज?”

”सें कुंवर ने बात करी ती।“ ” जिससे कुंवर ने बात की थी।“

” बा मोड़ी, हितिया काछी की आ महाराज।” ” वो लड़की, हेतराम काछी की है महाराज।“

” जो कछिया एैते का करत रेलवे स्टेशन में?” ” ये काछी यहां रेल्वे स्टेशन में क्या करता है?”

” फल-तरकारी की ठिलिया लगाउत ऐते महाराज।“ ” यहां फल-सब्जी का ठेला लगाता है महाराज।“

” ईके फल तो पक गये, हमें खबर लो ना भई!” ” इसके फल तो पक गये, हमें खबर भी न हुई!”

” तोम औरे तो खाऔ पियौ औ गर्राऔ।“ ”तुम लोग तो खाओ, पियो और गर्राहट दिखाओ (मस्ती करो)।“

” काये, ऐतै का करतीं तोम?” ” क्यों, तुम यहां क्या करती हो?”

” दद्दा को ठेला आय जो, आ जईत तनक मदद ” ये दद्दा का ठेला है, आ जाती हूं कभी-कभी थोड़ी मदद करने।“

करबे कभूं-कभूं।“

” पढ़बो छोड़ दओ का?” ” पढ़ना छोड़ दिया क्या?”

” ब्यारी तैयार है छोटे महाराज” ” रात का खाना तैयार है छोटे महाराज”

टौरिया - छोटी पहाड़ी

” जोहार छोटे महाराज।” ” नमस्कार छोटे महाराज।”

” मम्मा साहब ने भीषमपुर कोठी में याद करो है” ” मम्मा साहब ने भीषमपुर कोठी में याद किया है”

” छोट्टन भइया ने कही के मम्मा साहब ने याद करो है, ” छुट्टन भैया ने कहा कि मम्मा साहब ने याद किया है,

सो आ चले आये महाराज। कछू गलती हो गयी इसलिये चले आये महाराज। कुछ गल्ती हो गयी हो तो

होय सो माफ करो जाय माईबाप।” माफ किया जाये माईबाप।“

” जो न करौ महाराज, अनर्थ हो जैहे। जो कैहो, हम ” ये न करें महाराज, अनर्थ हो जायेगा। जो कहेंगे, हम

करबी, मोड़ी खां छोड़ देओ महाराज। अनर्थ न करौ, करेंगे, लड़की को छोड़ दीजिये। अनर्थ न कीजिये, वह

बा बड़े महाराज की बिटिया आ।” बड़े महाराज की बेटी है।“

” हमाये ब्याव के दिना बड़े महाराज ने हमाई हमारे ब्याह के दिन बड़े महाराज ने हमारी औरत

औरत खां उठवा लओ तो। जा उनईं की बिटिया आ को उठवा लिया था। ये उन्हीं की बेटी है महाराज, महाराज,हमने ईखां पालो भर है।“ हमने इसे पाला भर है।“

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