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आस्था के दो ध्रुव


आस्था के दो ध्रुव

भारतीय उपमहाद्वीप में हिन्दू धर्म और इस्लाम धर्म को आस्था के दो ध्रुव कहा जा सकता है । जिस प्रकार नदी के दो किनारों का परस्पर एक हो जाना संभव नहीं है , ठीक उसी प्रकार जब तक आस्था का जल विद्यमान रहेगा , इन दोनों ध्रुवों का परस्पर मिलकर एक हो जाना असंभव है । भारत में हजारों वर्षों से हिंदू और इस्लाम धर्म के अनुयायी साथ-साथ रहते रहे हैं । इस समयांतराल में भारतीय उपमहाद्वीप हिन्दू तथा इस्लामिक संस्कृति के संक्रमण का एक बड़ा केंद्र रहा है , जिसमें दोनों धर्मों के अनुयायियों की संस्कृति का परस्पर आदान-प्रदान हुआ है । यूँ भी कह सकते हैं कि भारत हजारों वर्षों तक दुनिया की दो बड़ी धार्मिक आस्थाओं - हिंदू एवं इस्लाम के पारस्परिक सांस्कृतिक आदान-प्रदान की अद्भुत प्रयोगशाला रहा है ।
हजारों वर्षों के उनके परस्पर सांस्कृतिक लेन-देन ने अथाह संभावनाओं वाली दुनिया निर्मित की है । दोनों ने मिलकर संगीत , स्थापत्य , परिधान, दृश्य-श्रव्य कलाओं में संयुक्त उपलब्धियाँ अर्जित की हैं । लेकिन , यह कहना कठिन है कि दुनिया के दो बड़े धर्मों के अनुयायियों के बीच हजारों वर्षों तक केवल रचनात्मक आदान-प्रदान ही होता रहा था और दोनों धर्मों के अनुयायियों में संघर्षपूर्ण हालात ब्रिटिश उपनिवेशवाद की 'फूट डालो शासन करो' की नीति का ही परिणाम था । सच तो यह है कि हिंदू और इस्लामिक संस्कृति की प्रकृति एक-दूसरे के नितान्त विपरीत है । अतः संघर्ष के बीज भी दोनों संस्कृतियों के भीतर बहुत गहरे तक छिपे हैं । ब्रिटिश उपनिवेशवाद ने तो उन बीजों को अंकुरित करके उसका पोषण किया था ।
यूँ तो भारतीय उपमहाद्वीप में अनेकानेक धार्मिक आस्था वाले लोग रहते हैं । इन सभी की अपनी-अपनी संस्कृति है । किंतु, उनमें से मुख्यतः हिंदू और इस्लाम दो ऐसे धर्म ; दो ऐसी संस्कृतियाँ है , जो विभिन्न मुद्दों पर दो विपरीत ध्रुव प्रतीत होते हैं । उदाहरण के रूप में आस्था के आधार परमतत्त्व के 'निर्गुण-सगुण स्वरूप और एकेश्वरवाद-बहुदेववाद' विषय को लिया जा सकता है । इस्लाम में आस्था रखने वाले लोग एकेश्वरवाद में विश्वास करते हैं और बहुदेववाद का विरोध करते हैं । इसके विपरीत हिंदू धर्म में आस्था रखने वाले लोग बहुदेववाद में विश्वास करते हैं । चूँकि वेदांत-उपनिषदों में परमतत्व एक ही माना गया है , इसलिए हिंदू धर्मानुयायी एकेश्वरवाद का भी विरोध नहीं करते हैं , फिर भी इस विषय पर हिंदू और मुस्लिम एक दूसरे के विरुद्ध खड़े दिखाई देते हैं ।
देव शब्द को 'दा' (देना) धातु से निष्पन्न मानते हुए 'देव' शब्द 'देनै वाले' का अर्थ-बोध कराता है । इस अर्थ को आधार मानते हुए 'देव' संज्ञा की व्याख्या इस प्रकार की जा सकती है - हमारे अस्तित्व को बनाए रखने तथा जीवन को सुचारू रूप से संचालित करने में अनेक शक्तियों का योगदान रहता है । यथा - वायु , जल , माता-पिता , गुरु , हमारे पूर्वज , पेड़-पौधे एवं पशु-पक्षी आदि । हिन्दू धर्म-संस्कृति में ये सभी किसी न किसी संज्ञा से देव रूप में स्वीकृत हैं । उदाहरणार्थ - वायु देवता अर्थात हमारे जीवन के लिए ऑक्सीजन देने वाला , जिसके बिना प्राणी मात्र के जीवन का अस्तित्व संभव नहीं है । जल , जो वायु के पश्चात् हमारे अस्तित्व के लिए दूसरी अनिवार्यता है , उसको जल देवता की संज्ञा से अभिहित किया गया है । इसी प्रकार मनुष्य योनि में जन्मे राम , कृष्ण , गौतम बुद्ध आदि देवों की श्रेणी में गणनीय हैं । राम ने क्रूर-अत्याचारी रावण का तथा कृष्ण ने कंस का वध करके जनसामान्य के जीवन की रक्षा की थी और लोगों को भयमुक्त किया था । इसी प्रकार कालांतर में जब वर्ण व्यवस्था में आई विकृतियों के फलस्वरूप असाध्य कुष्ठ रोग रोग की भाँति समाज में छुआछूत का निरंकुश अनाचार फैला हुआ था , जिसमें सवर्णों द्वारा शूद्रों के साथ किए जाने वाले अमानवीय आचरण से शूद्र जीवन नारकीय बन रहा था , तब गौतम बुद्ध ने उस नर्क से मुक्ति का मार्ग प्रशस्त किया था , इसलिए जनमानस में वह आज भी भगवान के रूप में स्थित है ।
हिंदू धर्म , जोकि निश्चित रूप से एक जीवन पद्धति है , के अनुसार सृष्टि का कोई भी जड़-चेतन पदार्थ जो प्राणी मात्र के अस्तित्व को सुरक्षित रखने में किसी भी प्रकार का योगदान करता है , उसकी गणना देवों की श्रेणी में की जाती है और उसके समक्ष नतमस्तक होना अस्तित्वधारी का कर्तव्य माना जाता है । इस प्रकार बहुदेववाद का सत्य तथ्य है कि यह हमारे अस्तित्व को बनाए रखने के लिए बहुत कुछ देने वालों के प्रति आभार प्रकट करने की एक विशिष्ट-वैचारिक-व्यवहारिक पद्धति है । यह तथ्य हिन्दू धर्म-संस्कृति के उस वैशिष्ट को उजागर करता है , जो सह-अस्तित्व के सिद्धांत को आधार प्रदान करता है ।
इसके विपरीत इस्लाम धर्म में परमतत्व के अलावा अन्य किसी का आभार प्रकट करते हुए किसी के समक्ष नतमस्तक होना धर्म विरुद्ध माना जाता है । स्वभावतः यह व्यवहारिक रूप से सह-अस्तित्व के सिद्धांत के विरुद्ध है ।
खानपान के विषय पर विचार करें , तो हिंदू संस्कृति हिंसा एवं मांसाहार का पूर्णत निषेध करती है । इसके विपरीत इस्लामी संस्कृति में कुर्बानी के रूप में हिंसा को धार्मिक कृत्य के रूप में स्वीकृति प्राप्त है । इसके साथ ही इस्लामिक संस्कृति में मांसाहार को भोजन का महत्वपूर्ण अंग माना जाता है । उपर्युक्त विषय पर विचार करते हुए दृढ़तापूर्वक यह कहा जा सकता है निस्सन्देह हिंदू और इस्लाम आस्था के दो विपरीत ध्रुव हैं ; आस्था रूपी नदी के दो किनारे हैं , जो साथ-साथ रहते हुए भी कभी एक नहीं हो सकते । यदि इन दोनों ध्रुवों ; दोनों किनारों को एक होना है , तो दोनों को आस्था के तरल जल से बाहर निकलकर ज्ञान-विज्ञान की शुष्क भूमि पर आना पड़ेगा । ज्ञान-विज्ञान की शुष्क भूमि पर आकर दोनों धर्मों के बीच की खाई पटने की जितनी संभावना है , उतनी अन्य किसी विकल्प से नहीं ।