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दो रोटियां


सुधा रोज उस भिखारी को देखती थी। देखने मे ढीला-ढाला, बढ़ी हुई दाढ़ी, बेतरतीब बाल। आमतौर पर कोई उस पर सरसरी तौर पर भी नजर डालना पसंद नहीं करता था। पर पता नही क्यों, सुधा की नजरें उस पर चली ही जाती थीं। कारण था, उस भिखारी का समय का पाबंद होना। सुधा ठीक आठ बजे मेट्रो स्टेशन पहुंचती थी और वह उसे मेट्रो के द्वार पर निर्लिप्त भाव में बैठा मिलता था। वह हाथ नहीं फैलाता था, बस टुकुर टुकुर आने-जाने वाले को देखता रहता था। जिसकी नजर उससे मिलती, वह उसकी हालत देखकर कुछ न कुछ देकर ही आगे बढ़ता था।
एक दिन सुधा को पता नहीं क्या सूझी, अपने नाश्ते के लिए ले जा रही रोटी उसे दे दी। भिखारी ने कुछ न कहा, चुपचाप रोटी खाने लगा।
अब यह नियम बन गया। सुधा जब भी मेट्रो पकड़ने आती, उसके लिए दो रोटियां ले आती। वह भी बिना कुछ कहे लेकर खाने लगता।
आज बरसात हो रही थी, उस पर सुधा को ऑफिस जल्दी पहुंचना था। सारे काम निपटाकर उसने लंच को पैक किया, पर आज उसने भिखारी के लिए रोटियां नहीं बनाईं।
किसी तरह बारिश में ही सुधा मेट्रो स्टेशन के लिए निकली। रास्ते में कोई रिक्शा तक नहीं था। एक दो रिक्शे दिखे भी, तो उनमें पहले से सवारियां थीं। मन ही मन भुनभुनाते हुए सुधा आगे बढ़ती रही।
अचानक उसे फिर एक रिक्शा आता दिखाई दिया। उसने उतावलेपन से रिक्शे को रोकने के लिए हाथ हिलाना शुरू किया। पर रिक्शे के पास आने पर वह फिर मायूस हो गई।। उस पर कोई बैठा था।
किस्मत को कोसते हुए सुधा फिर आगे बढ़ने लगी। बारिश और तेज हो चुकी थी। अचानक आगे जाकर रिक्शा रुक गया। सुधा पास पहुंची, तो रिक्शा सवार उतर पड़ा। अरे..., यह तो वही भिखारी था।
“तुम रिक्शे पर?” सुधा को लगा, भला एक भिखारी रिक्शे पर भला कैसे बैठ सकता है?
“मैं रिक्शे पर क्यों नहीं बैठ सकता? मैं भी तो अपने काम पर जा रहा हूं।” कहते हुए वह मुसकराया। पहली बार उसके सपाट चेहरे पर सुधा ने कोई भाव देखे थे।
सुधा कुछ न बोली। फिर आगे बढ़ने लगी।
“मैडम जी। आप रिक्शे पर बैठ जाइए। आपको दूर जाना होता है। मुझे तो मेट्रो स्टेशन पर ही रहना है।”
सुधा झिझकी, फिर कुछ सोचकर रिक्शे पर बैठ गई।
“मैडम को मेट्रो स्टेशन छोड़ देना। हिसाब मेरे खाते में लिख देना।” कहकर भिखारी भीगते हुए ही तेज बरसात में आगे बढ़ने लगा।
“सुनो।” सुधा ने आवाज दी।
वह मुड़ा और सुधा की ओर देखने लगा।
“तुम भी बैठ जाओ।” कुछ सोचते हुए सुधा बोल पड़ी।
भिखारी उसकी स्थिति देख मुस्कराया, फिर बोला, “टेंशन न लो मैडम जी। आप अपने काम पर जाओ।”
सुधा ने एक पल कुछ सोचा, फिर अपना लंच पैक उसकी ओर बढा़ दिया।
भिखारी हंस पड़ा, पर उस हंसी में दुख की झलक थी। वह मजबूत स्वर में बोला, “भरोसा रखिए, यह रिक्शा आपकी रोटियों के बदले नहीं है।” कहते हुए बिना लंच पैक लिए वह आगे बढ़ गया।
बरसात अब भी हो रही थी, पर अब उसके कई रूप थे।