Under the green skirted trees - Neelam Kulshreshtha books and stories free download online pdf in Hindi

हरे स्कर्ट वाले पेड़ों के तले- नीलम कुलश्रेष्ठ

हरे स्कर्ट वाले पेड़ों के तले

"स्लम से लेकर रिसॉर्ट तक, धड़कते जीवन की कहानियां---"

निशा चंद्रा

ये नाम ही बहुत है कहानी संग्रह पढ़ने की उत्सुकता जगाने के लिए । जब मेरे हाथ में पार्सल आया तो खोलने पर मैं सुखद आश्चर्य से भर उठी क्योंकि, शिवना प्रकाशन से प्रकाशित इस पुस्तक की दो ही प्रतियां अभी नीलम कुलश्रेष्ठ जी के पास पहुंची थीं। उसमें से एक उन्होंने मुझे भिजवा दी।ये मेरे लिए सम्मान की बात थी । सबसे पहले एक सांस में, मैं अंतिम कहानी ' हरे स्कर्ट वाले पेड़ों के तले ' पढ़ गई । जानना चाहती थी, क्या ऐसे पेड़ भी होते हैं, जिन्हें देख कर ये आभास हो कि उन्होंने स्कर्ट पहन रखी है । बहुत कुछ है इस कहानी में.... हमें मुंबई के कॉर्पोरेट जगत की झलक मिलती है । ख़ासकर एक न भूलने वाला ब्रिटिश एग्ज़ेक्युटिव किरदार । मुंबई की गलियों में पानी पूरी खाते हुए, ज़ेनेट का हाइजिन सेंस कहां चला जाता था ? ये ब्रिटिश महिला ज़ेनेट- की अंत तक बांधे रखने वाली बातें, शनाया के साथ की उनकी टूटी फूटी हिंदी में की हुए बातें मन को गुदगुदा देती हैं, सुहाना मौसम, इतिहास के पन्नों पर अंकित हो गए कुछ किस्से । कुछ कुछ रहस्यमय सी बातें, लगता है कुछ ऐसा पढ़ रहे हैं, जो पहले कभी नहीं पढ़ा।

कहते हैं एक मुक्क़मल कहानी वो होती है,जिसमें इतिहास की धड़कनें सुनाईं दें, आधुनिकता का बोध दे, सशक्त कथानक हो. सुंदर भाषा का प्रवाह हो । शीर्षक कथा में लार्ड मैकाले के 2 फ़रवरी 1835 में दिये ब्रिटिश पार्लियामेंट में दिए लॉर्ड मैकाले के भाषण के अंशों से पता लगता है कि भारत को ग़ुलाम बनाने की कूटनीति क्या थी ? अंत तक इस कहानी ने मुझे बांधे रखा। और अंत में भी बहुत कुछ सोचने के लिए अपने साथ ले उड़ी।

इस कहानी संग्रह के शीर्षक जैसे ही कहानियों के शीर्षक बहुत आकर्षक हैं. नीलम कुलश्रेष्ठ ने कथा जगत में अपनी पहचान बिल्कुल अलग विषयों पर कहानियां लिखकर बनाई है। वे इसी तेवर में इस संग्रह में उपस्थित हैं। हर कहानी का कथानक न नया व अलग है जैसे 'आर्तनाद ',' पकड़ कर चलो --- ',कसकता असोनिया ' 'बस एक अजूबा '., 'तोड़ '. 'तोड़ ' कहानी की नायिका हीरे के शो रूम में वाली करने वाली लड़की है । इसी कहानी से मुझे पता लगा कि भारत में, सोने के गहने सबसे ज्यादा बंगला देशी मुस्लिम कारीगर काम करते हैं. एक बात चौंका देती है की इनमें से कुछ अवैध रूप से भारत में रहे कारीगरों को मालिक के शोषण बनना पड़ता है। यहां भी नीलम जी की लेखनी अपने चिर परिचित पूरे शोष के साथ उपस्थित है।

प्रथम कहानी ' पकड़ कर चलो तो--- ' की बाई सुहानी,जो एक सांस में अपनी कहानी सुनाने को व्याकुल है। मुम्बई में कानून है कि यदि कोई स्लम ख़ाली करवाकर बिल्डर बहुमंज़िली इमारत बनवाना चाहता है तो उसे स्लम में रहने वालों को इमारत बनवा कर देनी होगी। बिल्डर इमारत तो बनवा कर दे देतें हैं किन्तु इन्हें किस तरह तंग करने के हथकंडे अपनाते हैं पढ़कर हैरान रह जाना पड़ता है। 'पकड़ कर चलो --' सुहानी जो स्लम वालों की यूनियन लीडर है आपको बतायेगी कि उसके इस तकिया कलाम का या निम्न वर्ग के जीवन का दर्शन क्या है ?

संग्रह में कुल दस कहानियां हैं। सभी पृथक विषय पर आधारित। झोपड़पट्टी से लेकर रिसॉर्ट तक कि कहानियां इस संग्रह में है। ये इस संग्रह की ख़ूबसूरती है।एक एक कहानी, कहानी के पात्र, उनकी भाषा,सभी को नीलम जी ने बड़ी ख़ूबसूरती से अपने शब्दों की माला में पिरोया है।

सच कहूं तो ना तो मैं समीक्षक हूं और ना ही किसी पुस्तक की समीक्षा कर सकती हूं। बस पढ़ने के बाद अपनी भावनाओं को शब्दों का जामा पहना देती हूं और कागज पर मुखरित हो उठती हैं कुछ किरणें...कुछ किरचें...।

'' मेरा नाम रत्नागिरि की सुहानी शिंदे "

'' मैं शनाया ।"

'' मैडम, आई एम् मीरा ''

"मीरा !? तुम तो मुस्लिम हो और मीरा?"

मीरा नाम सुन कर मेरी आंखों में कुछ दप्प से बुझा या चमका, नहीं जानती।

' मैं मनदेवी."

राजस्थान के गाँव की मन देवी की कहानी, कहानी नहीं दरिंदगी और मानव आर्तनाद का जीता जागता वसीयतनामा. 'आर्तनाद 'कहानी की नायिका की मर्मान्तक स्थिति देखकर दिल व दिमाग़ दोनों ही आर्तनाद करने लगते हैं। हम सभी सुनते हैं कि गाँवों में स्त्री को निर्वस्त्र करके गधे पर बिठाकर जुलूस निकाला जाता है लेकिन उसके बाद क्या बीतती है उस स्त्री पर? उस पर या कहना चाहिये कि पूरे गाँव पर --इस सामाजिक अपराध का पूरा चित्रण ही कर दिया है। । इस कहानी को मैं पूरा पढ़ ही नहीं पाई। धुंधली होती दृष्टि से आखिर कोई कितना पढ़ सकता है ? कितनी मानसिक तकलीफ़ झेल सकता है ?

इस संग्रह में शामिल है एक सुंदर कहानी ' दीव के तट पर '. मेरी पढ़ी प्रथम कहानी है जिसमें केंद्र शासित द्वीपों को दी हुई सरकार की ग्रांट पर बात की गई है। यहाँ के लोगों की मानसिकता क्या है या धर्म के गुरु घंटाल किस तरह दूर दराज़ तक अपना जाल फैलाये रखते हैं।

उत्तरी पूर्वी भारत की एक लड़की की एक कहानी ' कसकता असोनिया ' में वहां की समस्या उठाने की कोशिश तो की है, लेकिन उसमें कुछ अधूरापन लगता है। लॉकडाउन के समय में ज़िंदगी को किसने ने किस तरह भुगता है. शनाया भी समस्या में घिर गई थी। 'जीवन @शटडाऊन 'की नायिका शनाया कितनी चतुर है, आज की इक्कीसवीं सदी की लड़की -ये कहानी आपको विस्मय से भर देगी।

'एल्युमिनी मीट' कहानी वॉट्स एप के संवादों से बढ़ती है। पैंतालीस वर्ष बाद जब एम. एस सी .करने वाले लड़के, लड़कियों का वॉट्स एप ग्रुप बनता है तो क्या होता है ?

'बस एक अजूबा 'की कलात्मकता ये है कि दुनियां के सात अजूबों की चर्चा करके एक सार्वभौमिक सत्य को उद्घाटित किया गया है। मानव के सारे कार्यकलाप या कलायें जींस के जेनेटिक कोड से संचालित है। नीलम जी की ये व्याख्या पढ़िये जो इस कहानी की जान है ;

' कितने अजूबे हमारी ज़िन्दगी में वैसे ही घटते रहते हैं ----नित नईं घटनायें --- नित. नए खुलते रह्स्य के पर्दे ---लेकिन हमारी इंद्रिया [या कहें जींस ]-----उनकी पसंदगी वही संग्रह करती है जो हमारे अन्दर छिपा होता है [जींस के जेनेटिक कोड में गुप चुप ]. हमें स्वयं पता नहीं होता कि यही अन्दर छिपा कुछ ही हमें कुछ करने को प्रेरित करेगा या हम कभी ना कभी इसी रास्ते पर चल पड़ेंगे. हर तरफ़ संगीत, कला गीत, सहित्य या विज्ञान के रोल मॉडल्स बिखरे होते हैं जिन्हें समाज सिर आंखों पर बिठा लेता है लेकिन उनमें से वही हमारे प्रिय होते हैं जिनके रास्ते पर चलने की हमारी दबी छिपी चाहना होती है या हम उन रास्तों पर चल चुके होते हैं ---या हम उनके फ़ैन या दर्शक भर होते हैं। '

तीस बरस पहले की पदचाप की स्त्री पुरुष संबंधों की भावभीनी संवेदनशीलता हो, सभी कहानियां अंत तक पाठक को बांधे रखने में सक्षम हैं। शिवना प्रकाशन ने ख़ूबसूरत कवर बनाकर इसे प्रकाशित किया है।प्रकाशक शहरयार जी और लेखिका नीलम कुलश्रेष्ठ जी बधाई की पात्र हैं.

कभी कभी मुझे लगता है,प्रत्येक औरत की व्यथा लगभग एक जैसी ही होती है,चाहे वह झोपड़पट्टी में रहती हो या आलीशान महल में।बस दुख व्यक्त करने की परिभाषा अलग होती है । यदि ऐसा न होता तो आंखों का खालीपन....दिल में उठती टीस...पलकों पर ठहरे मोती ... सबके एक जैसे ना होते।हवा की बारीक लहरें मेरे मन को हरे पेड़ों के तले ऐसे ना बांध लेती.....।

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समीक्षक ; निशा चंद्रा

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