Karm ka Vigyaan - 2 books and stories free download online pdf in Hindi

कर्म का विज्ञान - 2

संपादकीय

अकल्पित, अनिर्धारित घटनाएँ अक्सर टी.वी. अथवा अखबार से जानने को मिलती हैं। जैसे कि प्लेन क्रेश हुआ और 400 लोग मर गए, बड़ा बम ब्लास्ट हुआ, आग लगी, भूकंप, तूफ़ान आए, हजारों लोग मारे गए! कितने ही एक्सिडेन्ट में मारे गए, कुछ रोग से मरे और कुछ जन्म लेते ही मर गए! भूखमरी के कारण कुछ लोगों ने आत्महत्या कर ली! धर्मात्मा काली करतूतें करते हुए पकड़े गए, कितने ही भिखारी भूखे मर गए! जबकि संत, भक्त, ज्ञानी जैसे उच्च महात्मा निजानंद में जी रहे हैं! हर रोज़ दिल्ली के कांड पता चलते हैं, ऐसे समाचारों से हर एक मनुष्य के हृदय में एक बड़ा प्रश्न चिन्ह खड़ा हो जाता है कि इसका रहस्य क्या है? क्या इसके पीछे कोई गुह्य कारण छुपा है ? निर्दोष बालक जन्म लेते ही क्यों अपंग हुआ? हृदय द्रवित हो जाता है, खूब मंथन करने के बावजूद समाधान नहीं मिल पाता और अंत में ऐसा मानकर कि अपने-अपने कर्म हैं, असमाधान सहित भारी मन से चुप हो जाते हैं! कर्म हैं ऐसा कहते हैं, फिर भी कर्म क्या होता होगा? किस तरह से बंधता होगा? उसकी शुरुआत क्या है? पहला कर्म कहाँ से शुरू हुआ? क्या कर्मों से मुक्ति मिल सकती है? क्या कर्म के भुगतान को टाला जा सकता है? यह सब भगवान करते हैं या कर्म करवाते हैं? मृत्यु के बाद क्या ? कर्म कौन बाँधता है! भुगतता कौन है ? आत्मा या देह ?

लोग कर्म किसे कहते हैं ? काम-धंधा करें, सत्कार्य करना, दानधर्म करना, इन सभी को ‘कर्म करना’ कहते हैं। ज्ञानी इन्हें कर्म नहीं कहते लेकिन कर्मफल कहते हैं। जो पाँच इन्द्रियों से देखे जा सकते हैं, अनुभव किए जा सकते हैं, वे सभी जो स्थूल में हैं वे कर्मफल यानी कि डिस्चार्ज कर्म कहलाते हैं। पिछले जन्म में जो चार्ज किया था, वह आज डिस्चार्ज में आया, रूपक में आया और अभी जो नया कर्म चार्ज कर रहे हैं, वह तो सूक्ष्म में होता है, उस चार्जिंग पोइन्ट का किसी को भी पता नहीं चल पाता।

एक सेठ के पास एक संस्था वाले ट्रस्टी धर्मार्थ दान देने के लिए दबाव डालते हैं, इसलिए सेठ पाँच लाख रुपये दान में दे देते हैं। उसके बाद उस सेठ के मित्र सेठ से पूछते हैं कि “अरे, इन लोगों को तूने क्यों दिए? ये सब चोर हैं, खा जाएँगे तेरे पैसे।” तब सेठ कहते हैं, “उन सभी को, एक-एक को मैं अच्छी तरह पहचानता हूँ, पर क्या करूँ ? उस संस्था के चेयरमेन मेरे समधी हैं, इसलिए उनके दबाव से देने पड़े, वर्ना मैं तो ऐसा हूँ कि पाँच रुपये भी न दूँ!” अब पाँच लाख रुपये दान में दिए उससे बाहर तो लोगों को सेठ के प्रति ‘धन्य धन्य’ हो गया, लेकिन वह उनका डिस्चार्ज कर्म था और चार्ज क्या किया सेठ ने ? पाँच रुपये भी नहीं दूँ! वैसा भीतर सूक्ष्म में उल्टा चार्ज करता है। उससे अगले जन्म में पाँच रुपये भी नहीं दे सकेगा किसी को! और दूसरा गरीब आदमी उसी संस्था के लोगों को पाँच रुपये ही देता है और कहता है कि “मेरे पाँच लाख होते तो वे सभी दे देता!” जो दिल से देता है, वह अगले जन्म में पाँच लाख दे सकेगा। इस प्रकार से यह जो बाहर दिखाई देता है, वह तो फल है और भीतर सूक्ष्म में बीज डल जाते हैं, उसका किसी को भी पता नहीं चल पाता है। वह तो जब दृष्टि अंतर्मुख हो जाए, तब दिखाई देता है। अब अगर यह समझ में आ जाए तो भाव बिगड़ेंगे क्या?

पिछले जन्म में, ‘खा-पीकर मजे करने हैं, ऐसे कर्म बाँधकर लाया, वे संचित कर्म। वे सूक्ष्म में स्टॉक में होते हैं वे फल देने को सम्मुख हो जाएँ तब जंकफूड (कचरा) खाने को प्रेरित होता है और खा लेता है, वह प्रारब्ध कर्म और उसका फिर फल आता है यानी कि इफेक्ट का इफेक्ट आता है जिस की वजह से उसे पेट में मरोड़ उठते हैं, बीमार पड़ जाता है, वह क्रियमाण कर्म।

परम पूज्य दादाश्री ने कर्म के सिद्धांत से भी आगे ‘व्यवस्थित’ शक्ति को ‘जगत् नियंता’ कहा है, कर्म तो जिसका अंश मात्र कहलाता है। ‘व्यवस्थित’ में कर्म समा जाते हैं, लेकिन कर्म में ‘व्यवस्थित’ नहीं समाता। कर्म तो वे हैं जो बीज के रूप में हम पूर्वजन्म में से सूक्ष्म में बाँधकर लाए हैं। अब इतने से कुछ नहीं होता। जब उस कर्म का फल आता है तब बीज में से पेड़ बनने और फल आने तक उसमें दूसरे कितने ही संयोगों की ज़रूरत पड़ती है। बीज के लिए जमीन, पानी, खाद, ठंड, ताप, टाइम, सभी संयोगों के इकट्ठे होने के बाद फिर आम का पेड़ बनता है और आम मिलते हैं। दादाश्री ने बहुत ही सुंदर खुलासा किया है कि ये सब तो फल हैं। कर्मबीज तो भीतर सूक्ष्म में काम करते हैं।

बहुतों को यह प्रश्न होता है कि पहला कर्म किस तरह बँधा ? पहले देह या पहले कर्म? यह तो ऐसी बात हुई जैसे पहले अंडा या पहले मुर्गी? सचमुच वास्तविकता में 'पहले कर्म' जैसी कोई चीज ही नहीं है वर्ल्ड में! कर्म और आत्मा सब अनादिकाल से हैं। जिन्हें हम कर्म कहते हैं, वह जड़ तत्व का है और आत्मा चेतन तत्व है। दोनों तत्व अलग ही हैं और तत्व सनातन वस्तु कहलाती है। जो सनातन है, उसकी आदि कहाँ से है ? यह तो आत्मा और जड़ तत्व का संयोग हुआ, और उसमें आरोपित भावों का आरोपण होता ही रहा। उसका यह फल आकर खड़ा हुआ। संयोग वियोगी स्वभाव के हैं। इसलिए संयोग आते हैं और जाते हैं। इसलिए तरह-तरह की अवस्थाएँ खड़ी हो जाती हैं और चली जाती हैं। उसमें रोंग बिलीफ़ खड़ी हो जाती है कि ‘यह मैं हूँ और यह मेरा है।’ उससे यह रूपी जगत् भास्यमान होता है। यह रहस्य समझ में आ जाए, तो शुद्धात्मा और संयोग दो ही वस्तुएँ हैं जगत् में। इतना नहीं समझने से तरह-तरह की स्थूल भाषा में कर्म, नसीब, प्रारब्ध सब कहना पड़ा है। लेकिन विज्ञान इतना ही कहता है, अगर सिर्फ सभी संयोगों से पर हो जाए तो आत्मा में ही रह सकता है! तब फिर कर्म जैसा कुछ रहेगा ही नहीं।

Q. कर्म किस तरह बँधते हैं ?
A. कर्ताभाव से कर्म बँधते हैं।

Q. कर्ताभाव किसे कहते हैं ?
A. करे कोई, और मानता है कि ‘मैं कर रहा हूँ’, वह कर्ताभाव।

Q. कर्ताभाव किससे होता है ?
A. अहंकार से।

Q. अहंकार किसे कहते हैं ?
A. जो खुद नहीं है, वहाँ ‘मैं पन’ का आरोप करते हैं, वह अहंकार कहलाता है। आरोपित भाव अहंकार कहलाता है। जो ऐसा मानता है कि ‘मैं चंदूभाई (शरीर) हूँ। वही अहंकार है। वास्तव में खुद चंदूलाल है ? या चंदूलाल नाम है ? नाम को 'मैं' मानता है, शरीर को 'मैं' मानता है, मैं पति हूँ, ये सभी रोंग बिलीफें हैं। वास्तव में तो खुद आत्मा ही है, शुद्धात्मा ही है, लेकिन उसका भान नहीं है, ज्ञान नहीं है, इसलिए ऐसा मानता है कि मैं चंदूलाल हूँ, मैं ही देह हूँ। यही अज्ञानता है! और इसी से कर्म बँधते हैं।

छूटे देहाध्यास तो नहीं कर्ता तू कर्म,
नहीं भोक्ता तू तेहनो ए छे धर्मनो मर्म।
—श्रीमद् राजचंद्र।

जो तू जीव तो कर्ता हरि,
जो तू शिव तो वस्तु खरी
—अखा भगत।

‘मैं चंदूलाल हूँ’ उस भान को जीवदशा कहा है और मैं चंदूलाल नहीं हूँ लेकिन वास्तव में ‘मैं तो शुद्धात्मा हूँ,' उस भान को, ज्ञान बरते उसे शिवपद कहा है। खुद ही शिव है, आत्मा ही परमात्मा है और उसका स्वभाव कोई भी संसारी चीज़ करने का नहीं है। स्वभाव से ही आत्मा अक्रिय है, असंग है। जिसे निरंतर ऐसा ध्यान में रहे कि ‘मैं आत्मा हूँ।’ और ‘मैं कुछ भी नहीं करता हूँ।’, उन्हें ज्ञानी कहा है और उसके बाद फिर एक भी नया कर्म नहीं बँधता। पुराने डिस्चार्ज कर्म फल देकर खत्म होते जाते हैं।

जो कर्मबीज पिछले जन्म में बोते हैं, उन कर्मों का फल इस जन्म में आता है। तब ये फल कौन देता है ? भगवान ? नहीं। वह कुदरत देती है। जिसे परम पूज्य दादाश्री साइन्टिफिक सरकमस्टेन्शियल एविडेन्स ‘व्यवस्थित शक्ति’ कहते हैं। जिस चार्ज का डिस्चार्ज नेचुरली और ऑटोमेटिकली होता है। उस फल को भोगते समय अज्ञानता के कारण फिर से पसंद-नापसंद व राग-द्वेष किए बगैर नहीं रहता है। जिस के कारण नए बीज डालता है। जिसका फल अगले जन्म में भोगना पड़ता है। ज्ञानी नया बीज डालने से रोकते हैं, जिससे पिछले फल पूरे होकर मोक्षपद की प्राप्ति होती है !

कोई अपना अपमान करे, नुकसान करे, वह तो निमित्त है, निर्दोष है। कारण के बिना कार्यान्वित कैसे होगा ? खुद अपमानित होने के कारण बाँधकर लाया है उसका फल, उसका इफेक्ट आकर रहता है, तब उसके लिए उसमें दूसरे कितने ही दिखनेवाले निमित्त भी होने चाहिए। सिर्फ बीज से ही फल नहीं बनता, लेकिन सारे ही निमित्त इकट्ठे हों, तब बीज में से वृक्ष बनता है और फल चखने को मिलता है। इसलिए ये जो फल आते हैं, उनमें दूसरे निमित्तों के बिना फल किस तरह आएगा ? अपमान खाने का बीज हमने ही बोया है, उसी का फल आता है। अपमान मिले, उसके लिए दूसरे निमित्त मिलने ही चाहिए। अब अज्ञानता से उन निमित्तों को दोषी देखकर कषाय करके मुनष्य नये कर्म बाँधता है। अगर यह ज्ञान हाजिर रहे कि सामनेवाला निमित्त ही है, निर्दोष है और यह जो अपमान मिल रहा है वह मेरे ही कर्म का फल है, तो नया है कर्म नहीं बँधेगा और उतना ही मुक्त रहा जा सकेगा। और सामने वाला दोषित दिख जाए तो तुरन्त ही उसे निर्दोष देखें और उसे दोषी देखा, उसके लिए शूट एट साइट प्रतिक्रमण कर लेने चाहिए ताकि बीज भुन जाएँ और उगें ही नहीं।

अन्य सभी निमित्तों के इकट्ठा होने पर खुद के डाले हुए बीज का फल आना और खुद को भुगतना पड़े, वह पूरा प्रोसेस ओन्ली साइन्टिफिक सरकमस्टेन्शियल एविडेन्स है और उसी को दादाश्री ने कहा है कि ‘व्यवस्थित शक्ति’ फल देती है।

‘ज्ञानीपुरुष’ परम पूज्य श्री दादा भगवान ने खुद के ज्ञान में अवलोकन करके दुनिया को 'कर्म का विज्ञान' दिया है, जो दादाश्री की वाणी में यहाँ संक्षिप्त में पुस्तक के रूप में रखा गया है, जो पाठक को जीवन में उलझाने वाली पहलियों के सामने समाधानकारी हल देगा! —डॉ. नीरू बहन अमीन के

जय सच्चिदानंद