Kataasraj.. The Silent Witness - 28 books and stories free download online pdf in Hindi

कटासराज... द साइलेंट विटनेस - 28

भाग 28

उर्मिला ने सलमा और नईमा को आराम से बैठने को कहा और वो खुद अंदर चली आई। उसे पता था कि पुरवा ने सुबह से बहुत काम किया है। अब और कुछ करवाने के लिए उसे थोड़ा सा मक्खन लगाना ही पड़ेगा। इसलिए आराम से लेटी पुरवा के पास आई और बोली भरसक कोशिश कर आवाज को मीठी चाशनी से सराबोर किया और बोली,

"पुरवा..! बिटिया…! तूने खाना बहुत ही अच्छा बनाया था सब को बहुत पसंद आया। उंगलियां चाट चाट कर खाया सबने। ऐसा कर बिटिया..! रोज रोज तो मेहमान आते नही हैं। शाम हो गई है। चाय का वक्त हो गया है। पर खाली चाय देना अच्छा लगेगा क्या..? ऐसा कर तू ..चाय और उसके साथ थोड़े से पकौड़े बना ले। अच्छा लगेगा चाय के साथ देने में। अब वो दोनो अकेली पड़ जाएंगी वरना मैं ही बना लेती, तुझे परेशान नहीं करती।"

पुरवा ने घूर कर अम्मा को देखा। सुबह से इतना सारा काम करने के बाद उसके और कुछ करने की गुंजाइश नहीं बची थी। वैसे कोई और दिन होता तो वो तुरंत मना कर देती। फिर उसके बाद अम्मा चाहे जितना चिल्लाए.., गुस्सा करे.. भला बुरा कहे..। कोई फर्क नही पड़ता था। पर अम्मा इतने प्यार से कह रही थी। फिर घर में मेहमान भी थे तो.. इसलिए इज्जत रखना भी जरूरी था। उसे अम्मा की बात माननी पड़ी।

जैसे ही पुरवा उठने लगी उर्मिला ने प्यार से उसका गाल सहलाया और पुचकारते हुए बोली,

"जा.. मेरी लाडो..! जा तो.. फटाफट बना ले तो।"

पुरवा अपनी तारीफ और अम्मा का इत्ता सारा प्यार पा कर खुश हो गई थी। अब उसे चाय बनाने और पकौड़े छानने ने कोई एतराज नहीं था। फुर्ती से उठ गई और रसोई में चली गई। उर्मिला सलमा और नईमा के पास जा कर बैठ गई और बतियाने में व्यस्त हो गईं तीनों सखियां।

पुरवा रसोई में आकर अपनी सारा गुण लगा कर पकौड़े तैयार करने में जुट गई। खूब दिल लगा कर बेसन फेटा और फिर गरमा गरम तेल में पकौड़े छानने लगी।

थोड़ी ही देर में गरमा गरम आलू के, प्याज के बैगन के पकौड़े तैयार हो गए। पहले अशोक और साजिद के पास बैठक में ले कर गई और उन्हें दे कर आई। तीन जगह ले गई थी पर वहां अमन नही था। अशोक बोले,

"बिटिया…! अमन हमारे पास बात चीत करने में संकोच कर रहा था, इसलिए उसे अंदर तेरी अम्मा के पास भेज दिया। उसकी प्लेट लेती जा वहीं दे आना।

"हां.. बाऊजी! कह कर पुरवा ने प्लेट उठाया और अम्मा के पास उनके कमरे की ओर चल पड़ी।

सलमा और नईमा उर्मिला की किसी बात पर जम कर ठहाके लगा रही थीं। और अमन चुप चाप कोने में पड़े तख्ते पर लेटा उनकी बातों को सुन कर मुस्कुरा रहा था। दर असल जब अब्बू और अशोक चाचा की नीरस बातें सुन कर वो बैठे बैठे ही ऊंघने लगा तो अशोक ने उर्मिला से कहा कि उसे अंदर ले जा कर लेटने की व्यवस्था कर दे। उर्मिला ने अमन को अपने साथ उसी कमरे में लिवा कर आई। फिर तख्ते पर लेटने को बोल दिया।

अमन को बैठे बैठे बड़ी जोर की नींद आ रही थी। पर जब कमरे में आ कर लेट गया तो उसकी नींद आंखों से फुर्र हो गई। वो लेटा रहा और अम्मी और उर्मिला और नईमा तीनो की बातें सुनने लगा।

तभी पुरवा पकौड़ों की तश्तरी ले कर आई और अम्मा के सामने रख दिया। अम्मा ने सबसे पहले अमन को उठाया और बड़े प्यार से बोली,

"अमन.. बेटा..! उठो, कुछ खाओ पियोगे या ऐसे ही पड़े रहोगे। फिर कहोगे कि अम्मी..! मुझे आपकी सहेली के यहां भूखा ही रहना पड़ा।"

अमन उर्मिला की बात सुन कर उठ कर बैठ गया और शरमाते हुए बोला,

"अरे..! ऐसी कोई बात नही…। अभी भूख नही लगी है।"

उर्मिला बोली,

"लगी कैसे नही है….! ये लो और खाओ।"

अमन चुप चाप खाने लगा।

नईमा ने सबको देने के बाद पुरवा को भी यही सब के साथ बैठ कर खाने को बोला। वैसे तो पुरवा बिना कोई भी किताब पढ़े नही खाती थी। उसे खाते वक्त कुछ भी पढ़ने से खाने का स्वाद कुछ ज्यादा ही आता था। पर जब नईमा ने बोल दिया साथ में बैठने को तो उसे फिर मन मसोस कर बैठना ही पड़ा।

मीठे का शौखीन अमन ज्यादा तीखा नही खा पाता था। पर पुरवा के बनाए पकौड़े इतने स्वादिष्ट लगे उसे कि भर भर कर मिर्ची डली होने के बावजूद वो पूरी प्लेट चट कर गया। आंखो से पानी निकल रहा था। उसे इस हालत में देख कर पुरवा को बड़ा मजा आ रहा था। नज़रे बचा कर वो मद्धिम मद्धिम मुस्कुरा रही थी। अमन भी कामखियों से ये सब देख रहा था। अपनी नाक बचाने को अमन को सब खाना ही था। किसी तरह उसने पूरा खत्म किया।

उसके बाद जब चाय पी तब जा कर राहत आई। पर तीखा स्वाद गजब का लगा उसे।

पुरवा भी अपनी नाक सुड़क रही थी।

तभी उर्मिला ने अमन से पूछा,

"बेटा…! किताबें पढ़ते हो…?"

अमन ने हां में जवाब दिया।

उर्मिला बोली,

"पुरवा …! खाली बैठे हुए और औरतों की बात सुन सुन कर अमन का जी ऊब रहा है। तू अपनी कोई किताब दे दे उसे पढ़ने को।"

पुरवा की कई सारी किताबे वहीं आलमारी में लगी हुई थीं। पर वो साड़ी के परदे से ढकी हुई थी इस लिए

अमन को नजर नही आ रही थी।

उसने निकल कर अमन को दिया।

जो अमन अब तक बैठा ऊब रहा था। किताब पाते ही उसका चेहरा बदल गया। पुरवा के हाथ से किताब ले कर उसे देखने लगा। जायसी की ये रचना वो कब से पढ़ना चाह रहा था। पर बहुत ढूंढने के बाद भी उसे ये कहीं नहीं मिली थी। उसे जरा सी भी उम्मीद नहीं थी कि पुरवा जो किताब उसे दे रही है वो वही चित्ररेखा है जिसे पढ़ने की हसरत उसे सदा से रही थी। पद्मावत तो वो कई बार पढ़ चुका था। पर चित्ररेखा ही नही मिल पाई थी। वो खुशी से बोला,

"पुरवा..! ये तुम्हारी किताब है..!"

उसने ”हां” में सर हिलाया।

अमन बोला,

"मै बता नही सकता तुमको कि मैं कितना खुश हूं..! ये… ये… किताब मेरे लिए बेशकीमती है। मेहरबानी करके ये मुझे दे दो। जाने से पहले मैं पढ़ कर तुम्हें इसे वापस कर दूंगा।"

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