Kataasraj.. The Silent Witness - 65 books and stories free download online pdf in Hindi

कटासराज... द साइलेंट विटनेस - 65

भाग 65

सलमा बोली,

"ये तो बहुत ही अच्छी बात है। दो दिन बाद हम अपने नमक वाले कारखाने चलेंगे, फिर जब वापस आयेंगे तब आप वहां का भी इंतजाम कर दीजियेगा। पर जहां तक मुझे पता है हर काम की शुरुआत शायद गणेश जी से ही होती है… क्यों उर्मिला मैं ठीक कह रही हूं ना।"

उर्मिला हंस कर बोली,

"बिलकुल सही कह रही हो आप सलमा बहन। भला आपको नही पता होगा…! तो फिर हमारी आपकी इतने बरस का सखिऔता बेकार है। हम आपके रीति रिवाज को ना जाने और आप हमारे ऐसा भला हो सकता है....!"

अशोक और उर्मिला हिंगलाज माता के दर्शन की बात सुन कर निहाल हो गए।

इसके बाद सब दैनिक क्रिया कलापों में लग गए।

उर्मिला को उस दिन शाम को सलमा गणेश भगवान के मंदिर ले गई।

अगले दिन सलमा उर्मिला को ले कर पास पड़ोस में मिलवाने ले गई। पुरवा अब तक सलमा के परिवार में घुल मिल गई थी। मुन्ना को खिलाने में उसे भी आनंद आने लगा था। गुड़िया उससे उम्र में थोड़ी सी छोटी थी पर उससे उसकी अच्छी दोस्ती हो गई थी। सीमा से भी अच्छा व्यवहार बन गया था। वो सलमा और उर्मिला के कहने पर भी उनके साथ नही गई। उसे घर में ही अच्छा लग रहा था, गुड़िया, सीमा भाभी और मुन्ना के साथ।

साजिद अशोक को ले कर अपने कारखाने, गोदाम और दुकान पर ले कर गए। जहां जहां वो जाते अपनी मोटर से अशोक को ले कर ही जाते। एक अच्छे दोस्त की तरह हमेशा अशोक को अपने करीब ही रखने की कोशिश करते। जिससे अशोक को यहां अजनबीपन ना खले।

अशोक घर छोड़ कर आया था। उसका जी चाहता था कि जल्दी से दर्शन कर के घर वापस लौट जाएं। पर साजिद और उर्मिला का अपनापन और प्यार देख कर उसकी हिम्मत नही होती थी की कहे कि हमें जल्दी दर्शन करवा दो क्योंकि हमको वापस जाना है।

चौथे दिन का कार्यक्रम तय हुआ चोवा सौदान शाह जाने का।

सलमा को घर का बहुत सारा काम देखना था पर उर्मिला अकेली पड़ जायेगी इस वजह से वो भी साथ चलने को तैयार थी।

सुबह से ही तैयारी होने लगी। साजिद के अब्बा जान को वहां पर गद्दी मिली हुई थी। और कोई तो था नहीं वहां पर, केवल बूढ़ी नानी भर वहां रहती थीं। बेटी दामाद एक हादसे में गुजर गए थे। साजिद की अम्मी की यादें यहां रची बसी थी। इस लिए साजिद के कई बार कहने पर भी इस जगह को नही छोड़ा था।

उनका बस यही आखिरी अरमान था कि जहां उनकी डोली आई थी वहीं से उनका जनाजा भी उठे। इसी हसरत में वो अकेली नौकरों के साथ रहती थीं। इस लिए उनका एक घर वहां भी था। ये कारोबार उन्के ससुर का ही था जो पहले साजिद के अब्बू संभालते थे। और अब उनके बाद साजिद संभाल रहे थे।

वहां के नमक कोह की पहाड़ियों से सेंधा नमक निकाला जाता था। जिसे कुछ मशीन से पिसवा कर कुछ खड़ा ही अलग अलग प्रदेशों में भेजा जाता था।

खा पी कर सब तैयार हो गए जाने को।

साजिद चाहते थे कि यहां का कारोबार घर चमन संभाले और सैदान शाह का कारोबार और घर अमन के जिम्मे रहे। अपने सामने ही दोनो बेटों को सब कुछ सौंप और सिखा पढ़ा दे। दोनो ही बेटे हमेशा नजरों के सामने रहे। कहीं दूर न जाना पड़े उनको रोजी रोटी के लिए।

और आगे भविष्य में दोनो भाई आपस में उलझे ना इन बातों को ले कर। इसलिए अमन को भी साथ चलने को किसी तरह तैयार कर लिया। अभी अमन खाली भी था। आज कल में ही उसका नतीजा भी आने वाले था। उसके बाद वो कहां यहां रुकने वाला था।

शायद सलमा और साजिद ऐसे अनोखे अम्मी अब्बू थे जो ये ख्वाहिश रक्खे हुए थे कि उनका बेटा अच्छे नंबर ना लाए। अगर अच्छे नंबर आ गए तो फिर वो अपना डॉक्टर बनने का इरादा कभी नही छोड़ेगा। इसका सबसे अच्छा यही उपाय नजर आ रहा था कि खुदा से दुआ करें कि इसके नंबर ही कम आएं।

करीब दो बजे तक सारा काम निपटा गया। खा पी कर सभी जाने को तैयार हो गए।

साजिद के मोटर गाड़ी में बैठ कर हॉर्न बजाते ही सलमा, उर्मिला, अशोक, पुरवा और अमन को साथ ले कर बाहर आ गई। सब के बैठते ही साजिद ने गाड़ी आगे बढ़ा दी।

चमन गोद में मुन्ना को लिए खड़ा हुआ था सभी को विदा करने के लिए। वो मचल रहा था अमन की गोद में जाने के लिए। पर जैसे ही साजिद ने मोटर आगे बढ़ाई वो जोर जोर से रोने लगा। अमन हाथ हिलाते हुए मुन्ना को बहलाने के लिए बोला कि मुन्ना रोओ मत हम अभी आ रहे है तुम्हारे लिए लेमनचुस ले कर के। पर मुन्ना कहा बहकने वाला था अमन के इस कोरे वादे से। चमन ने उसे गुड़िया को पकड़ा दिया। गुड़िया उसे बहकाने के लिए खरगोशों के दड़बे के पास ले कर चली गई।

ये सफर एक सुहाना सफर बनने वाला था सभी के लिए। अशोक पुरवा और उर्मिला पहली बार मोटर गाड़ी में बैठे थे। पुरवा को कुछ ज्यादा ही रोमांचित हुई जा रही थी इसमें बैठ कर। पर ज्यादा उछल कूद कर खुद को सब के सामने ओछी नही साबित करना चाहती थी। इस लिए अपनी प्रसन्नता और जिज्ञासा और काबू लिए हुए थी।

चकवाल के चौक से मुड़ कर मोटर कुछ देर तक सपाट रास्ते पर दौड़ती रही। करीब एक घंटे बाद पहाड़ी इलाका शुरू हो गया। ऊंची नीची पहाड़ियों पर पेड़ जैसे पंक्तियां बनाए खड़े हुए थे। गरमी की वजह से ज्यादा हरियाली तो नही थी पर मैदानी इलाके की तरह पीली रूखी सूखी घास भी नही बिछी हुई थी। कहीं कही हिरण और चीतल दिख रहे थे। पुरवा की खुशी का कोई ठिकाना नहीं था। उसने कभी ऐसी जगह नही देखी थी। जैसे जैसे चोवा सैदान शाह करीब आ रहा था हरियाली और पहाड़ और भी ज्यादा हुए जा रहे थे। दोनो ओर पहाड़ियां थीं और रास्ता बीच में उन्हें ही काट कर बनाया गया था। मोटर उन्हीं संकरे रास्तों से गुजर रही थी। सूरज ढलने लगा था। कभी ऊंची पहाड़ी के पीछे चला जाता तो कभी लाल जलते हुए गोले जैसा चमकने लगता।