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कंचन मृग - 6. हमें थोड़े करवेल्ल चाहिए

6. हमें थोड़े करवेल्ल चाहिए-

नगर के एक मार्ग पर अयसकार रोहित जा रहा था। दूसरी ओर से एक व्यक्ति तेज चाल से आते हुए दिखा। रोहित पूछ बैठा ‘सुना नहीं आपने ?’
‘क्या ?’
‘दशपुरवा खाली करने का आदेश दे दिया गया है।’
‘मुझे कुछ भी पता नहीं। राजा महाराजाओं के पीछे मैं नहीं रहता। कोई आता है कोई जाता है विद्या हेतु अधिकांश समय काशी रहा। हमें थोड़े कारवेल्ल चाहिए, उन्हें लेने जा रहा हूँ। पत्नी ने कहा है। उसकी इच्छा है तो कारवेल्ल लाऊँगा ही ?’
‘यह कारवेल्ल क्या है ?’
‘अरे कारवेल्ल नहीं जानते। करेला को कारवेल्ल कहा जाता है।’
‘आपका पाणिग्रहण कुछ दिन पूर्व ही हुआ है क्या ?’
‘आपने उचित ही पकड़ा। दो मास भी नहीं बीता अभी। पत्नी साक्षात् त्रिपुरसुन्दरी लगती है।
‘इसीलिए नववधू की इच्छापूर्ति हेतु आप ।’
‘सच कहा आपने। आपका विवाह नहीं हुआ क्या ?’
‘अभी यह अवसर नहीं आया।’
‘अवस्था तो विवाह योग्य हो गई है। शीघ्रता कीजिए। कहिए तो मैं प्रयास करुं।’
‘चौमासे में विवाह कहाँ होता है भाई।’
‘ओह, मुझे यह भी ध्यान नहीं रहा।’
‘मैंने पश्चिमी अश्वारोहियों के घोड़े की काठी में अयस के उत्तम पायदान लगे देखे हैं। चाहता हूँ ऐसा कार्य यदि यहाँ भी प्रारम्भ हो जाए तो ।’
‘तो तुम व्यवसायी हो ?’
‘अयसकार हूँ।’
‘इसीलिए राजा-महाराजाओं में रुचि ले रहे हो।’
‘आपका कारवेल्ल मिलना भी आज सहज नहीं है। सुना है कुछ लोगों ने पण्यशालाएँ बन्द कर रखी हैं। वे राजाज्ञा से संतुष्ट नहीं प्रतीत होते।’
‘यह सब राजाओं का खेल है। कभी किसी को घर के अन्दर प्रवेश कराते हैं कभी निष्कासित करते हैं। मुझे तो कारवेल्ल लेना ही है, मैं चला। प्रिया प्रतीक्षा कर रही होगी।’
‘क्या मैं शुभ नाम जान सकता हूँ?’
‘मुझे पारिजात कहते हैं। भट्ट हूँ।’
रोहित कुछ सोचता हुआ आगे बढ़ गया। ‘जनता को राजनीतिक उथल-पुथल का परिणाम भुगतना पड़ता है लेकिन राजनीतिक प्रक्रिया में भाग लेने का अवसर कहाँ? दो राजाओं के युद्ध में जनता का मूक दर्शक बनना बहुत संगत तो नहीं लगता। जिसने लोगों में थोड़ी चेतना जगाई थी, वह निष्कासित कर दिया गया। उसने हम अयस कारों को भी महत्त्व दिया था। वनस्पर सेना में जो भ्रातृत्व उगाया गया था उन सब का सम्मिलित परिणाम ही विजय के रूप में परिलक्षित होता था। पर राजपरिवार तो षड्यंत्र के केन्द्र होते हैं।’ थोड़ी दूर जाने पर घोड़े की टाप सुनाई दी। वह उधर ही बढ़ चला। सामने से रूपन जा रहा था। रूपन अश्व नचाने में कुशल था। उसका अश्व अब भी सधे चाल से जा रहा था। रूपन ने ही रोहित को पुकारा। वह दौड़ कर सामने खड़ा हो गया।
‘तुमने पता लगा लिया न ?’
‘हाँ।’
‘पर हम लोग तो निष्कासित कर दिए गए। उस योजना पर तत्काल कार्य करना सम्भव नहीं दीखता।’
‘मैं स्वयं यही सोचकर चिन्तित हूँ।’
‘परिस्थितियाँ संकट पूर्ण हैं, फिर मिलेंगे।’ रूपन ने एड़ लगाई और अश्व हवा से बातें करने लगा। रोहित अपने आवास की ओर चल पड़ा। उसकी खोज से अब कोई लाभ होने की सम्भावना न थी। उसका अन्तर्मन उद्वेलित था। जब आल्हा जैसे लोग निष्कासित किए जा सकते हैं तो अन्य प्रजाजनों के बारे में क्या कहा जा सकता है? रोहित अपने भविष्य को लेकर भी चिन्तित हो उठा।
थोड़ी दूर जाने पर कारवेल्ल लिए हुए पण्डित पारिजात पुनःदिखाई पड़ गए।
‘बड़ी कठिनाई से पा सका हूँ’, छूटते ही उन्होंने कहा। ‘चलो बहुत अच्छा हुआ। यह संकट की घड़ी है। इस समय कुछ भी मिलना सरल नहीं है।’
‘मैने कहा न, यह सब राजाओं की माया है। शासक जब चाहता है संकट पैदा कर देता है। वह संकट का आनन्द लेता है और निरीह प्रजा उसका परिणाम भोगती है।’