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दलाल का एक दिन

दलाल का एक दिन

संजय कुंदन

वह एक दलाल था पर इस बात को स्वीकार नहीं करता था, दूसरे दलालों की तरह ही। वह अपने को एक शिक्षाविद कहता था जैसे कुछ दलाल अपने को पत्रकार बताते थे या सामाजिक कार्यकर्त्ता या राजनेता। जब लोग उसे ‘डॉक्टर साहब’ कहकर बुलाते तो उसे गर्व की अनुभूति होती थी। उसे लगता था, यही वह संबोधन है जो उसे उपस्थित लोगों के बीच अचानक विशिष्ट साबित कर देता है। हालांकि आज तक किसी ने उससे यह जानने की कोशिश नहीं की कि उसने पीएचडी की डिग्री कहां से और कैसे हासिल की।

वह दूसरे दलालों की तरह ही सफल लोगों में शुमार किया जाता था। दिल्ली और उसके आसपास के उपनगरों में कई मकान और प्लॉट उसके तथा उसकी पत्नी के नाम पर थे, कुछ उसके रिश्तेदारों के नाम पर भी। घर में दो लग्जरी कार थी, एक उसकी और एक उसकी पत्नी की। बेटा देहरादून के एक बड़े स्कूल में पढ़ता था। इस देश की शिक्षा के विकास के लिए और वंचित तबके को शिक्षा उपलब्ध कराने के लिए उसने कई स्वैच्छिक संगठनों की स्थापना कर रखी थी। इन संगठनों के सलाहकार मंडल में देश के शीर्ष राजनेताओं से लेकर बड़े-बड़े विद्वान और बुद्धिजीवी शामिल थे। इन संगठनों को देश से नहीं विदेश से भी खूब पैसा मिलता था।

वह बड़े-बड़े सेमिनार आयोजित करता था जिसमें दुनिया भर से लोग आते थे। वे राजधानी के फाइव स्टार में होटलों में ठहरते थे। वह बड़ी-बड़ी पार्टियां आयोजित करता था जिसमें नौकरशाह और राजनेता शामिल होते थे और उस जैसे कुछ दलाल। एक बार उन्हीं में से किसी ने नशे में उसे दलाल कह दिया था। इस पर वह बहुत भड़का था। वह गुस्से से थर-थर कांपने लगा और उसका नशा टूट गया। वह समझ नहीं सका कि उसे उस शख्स ने दलाल क्यों कहा। कुछ और कहता। लेकिन दलाल ही क्यों?

एक सेमिनार ने उसके जीवन की दिशा बदल दी थी। तब वह एक साधारण आदमी था। एक मामूली सामाजिक कार्यकर्ता और अखबारों में थोड़ा-बहुत लिख लेने वाला एक फ्रीलांसर। उसने किसी तरह दौड़-धूप करके एक संगठन खड़ा किया था। इसी संगठन की ओर से दलितों की शैक्षिक स्थिति पर उसने एक संगोष्ठी आयोजित की थी। इसी में एक युवा दलित नेता को उसने वक्ता के तौर पर आमंत्रित किया था। नेताजी राजनीति में नए थे। वह सवर्ण राजनीति का विरोध करके आगे बढ़े थे इसलिए सवर्ण नेताओं के सारे सुकर्म और कुकर्म अपनाने लगे थे। पैसे कमाना भी सीख रहे थे लेकिन ‘फाइनेंस मैनेजमेंट’ का ज्ञान नहीं था। जब सेमिनार खत्म हो गया तो नेताजी से बातचीत होने लगी। पता नहीं नेताजी ने उसमें क्या देखा, वह अपने दिल की बात उसे बताने लगे। बातों ही बातों में उन्होंने कहा, ‘देखिए न डॉक्टर साहब , समझ में नहीं आता है कि अपना पैसा कहां रखें, कहां लगाएं?’

वह तो जैसे इसी ताक में था। वह नेताजी को एक कोने में ले जाकर कहने लगा, ‘ देखिए यह ग्लोबलाइजेशन का जमाना है। आज इन्वेस्टेमेंट के अपार मौके हैं। सवाल यह नहीं है कि पैसा कहां से आ रहा है। अगर आपके पास पैसा है तो यह बाजार आपको उस पैसे से और पैसे बनाने के मौके देता है। अब ब्लैक एंड व्हाइट का भेद खत्म हो चुका है। जो आज काला है वही कल सफेद हो जाता है।’ उसने नेताजी को कई गुर बताए। अल्प शिक्षित नेताजी को कुछ खास समझ में नहीं आया पर इतना उन्होंने जरूर ताड़ लिया कि इस डॉक्टर साहब पर भरोसा किया जा सकता है। फिर उन्होंने थोड़ा सकुचाते हुए कहा, ‘वह स्विस बैंक...।’

‘वह सब हो जाएगा। आप मेरी स्विट्जरलैंड यात्रा का प्रबंध करवाएं, वहां भी व्यवस्था करवा दूंगा।’

उसने बड़ी ईमानदारी के साथ नेताजी के उस समय की जमा पूंजी को ‘सही जगह’ पर पहुंचाया लेकिन बदले में धेला तक नहीं लिया। वह नेताजी का दिल जीतना चाहता था क्योंकि उसकी नजर भविष्य पर थी। उसका दांव सही निकला। अगले ही साल केंद्र में सत्ता बदली और नेताजी केंद्रीय मंत्री बन गए। उसकी किस्मत पलट गई। अब वह नेताजी का निजी सलाहकार बन गया। उसके संगठन को मिलने वाले फंड में लगातार बढ़ोतरी होती गई। देखते ही देखते उसने कई और संगठन खड़े कर लिए। लेकिन वह यहीं तक सीमित नहीं रहा। अब वह अधिकारियों की ट्रांसफर-पोस्टिंग भी करवाने लगा। नए प्रोजेक्ट पास करवाने में भी लोग उसकी मदद लेने लगे। वह बड़ी ईमानदारी के साथ नेताजी को कमिशन पहुंचाता था। उसने नेताजी के नाम से कुछ किताबें भी लिखीं और उनकी एक बौद्धिक छवि बनाने में जुटा रहा।

वह इस नेताजी के जरिए दूसरे नेताजी के करीब पहुंचा फिर उनके जरिए तीसरे नेताजी तक। एक समय ऐसा आया जब वह राजनीतिक गलियारे का जाना-पहचाना चेहरा बन गया। एक बार तो उसने एक पार्टी के लिए कुछ विधायकों को तोड़ने तक में भूमिका निभाई।

वह एक हरफनमौला आदमी बन चुका था। किसी को रातोंरात प्लॉट चाहिए, मकान चाहिए, वह मैनेज कर देता था। रैलियों के लिए कारों या बसों की व्यवस्था करनी है, वह हाजिर रहता था। किसी वीआईपी के रिश्तेदार को अचानक विदेश भेजना है, उसकी सेवा प्रस्तुत रहती थी। किसी नेता के घर शादी है, उसके फॉर्म हाउस तैयार रहते थे। उसका बॉलिवुड में भी संपर्क था। कई बार बार वह किसी कार्यक्रम के लिए छुटभैये हीरो-हीरोइनों को भी बुला लेता था।

लेकिन एक बात ऐसी थी जो उसे दूसरे दलालों से अलग करती थी। वह समय-समय पर अपनी जिंदगी से ऊब जाता था। अचानक उसे सारी चीजें बेमानी लगने लगती थीं। वह खिन्न मन से काम करता और हर बात पर कहता, ‘जिंदगी नरक हो गई है।’ उसकी पत्नी कहती, ‘अच्छा!’ इसमें आश्चर्य भी रहता और व्यंग्य भी। वह सोचती कि उसका पति काम के बोझ और लोगों द्वारा परेशान किए जाने से चिढ़ गया है। पर ऐसी बात नहीं थी। उसे तो यह सब झेलने की आदत पड़ गई थी। वह वाकई कभी-कभी अपने भीतर एक खालीपन महसूस करता। ऐसा लगता जैसे उसे एक कठघरे में ला पटका गया है। वह जैसे अपना बचाव करना चाहता था, सफाई देना चाहता था, पर किसे, वह समझ नहीं पाता था। जब वह दोस्तों के सामने कहता कि यह जीवन नरक है तो वे खूब हंसते और कहते, ‘अच्छा बच्चू, मुर्गे की टांग भी खींच रहे हो और कह रहे हो कि मजा नहीं आ रहा। ’

उसकी ऊब यह साबित करती थी कि उसके भीतर अब भी थोड़ा मनुष्य बचा हुआ था। वह सिर्फ एक दलाल बनकर नहीं रह गया था। वह अपनी ऊब मिटाने के लिए तरह-तरह के उपाय करता। पार्टियां आयोजित करता और पीकर नाचता, खूब गालियां बकता। कभी कमरे में बंद होकर कुछ खास दोस्तों के साथ ब्लू फिल्में देखता। कई बार वह पत्नी के साथ तो कई बार भाड़े की प्रेमिकाओं के साथ विदेश हो आया था। लेकिन ये सारे उपाय अब बेअसर साबित हो रहे थे। प्राय: उसकी नींद उड़ी रहती थी।

एक दिन अपनी ऊब खत्म करने के लिए उसने एक नायाब तरीका सोचा। वह सुबह-सुबह बिना किसी को बताए घर से निकल पड़ा। उसने अपनी गाड़ी घर पर ही छोड़ दी, मोबाइल स्विच ऑफ कर दिया। वह बस स्टॉप पर पहुंचा। वहां उसे सब कुछ बड़ा रोमांचक लगा। बस में कितने सालों के बाद वह बैठा था। खिड़की के किनारे बैठकर बाहर का दृश्य देखना अच्छा लग रहा था उसे। वह दिन भर यूं ही भटकता रहा। ठेले से खरीदकर छोले-कुल्चे खाते हुए उसे पुराने दिन याद आ गए जब वह नया-नया इस महानगर में आया था। उसे याद आया कि वह अक्सर जंतर-मंतर में बैठता था। उसके लॉन में धूप में बैठकर वह भावी जीवन के सपने देखता था और उदास हो जाता था।

वह बस पकड़कर जंतर-मंतर पहुंच गया। यहां आते ही उसे पुराने दिनों की कई बातें याद आने लगीं। एक बार वह इसकी सीढ़ियों पर बैठकर रोया था। उसके बाद से आज तक वह अपने जीवन में कभी रोया नहीं। कई बार उसने रोने की कोशिश भी की थी पर पता नहीं क्यों, रो नहीं पाया, यहां तक पिता की मौत पर भी नहीं। उसके पिता की मौत यहीं हुई थी। उनके मरने की खबर सुनते ही उसके घर में वीआईपी लोगों का आना शुरू हो गया और वह इस बात का हिसाब-किताब करने में लग गया कि उसके संपर्क का तार कितना मजबूत हुआ है। वह उत्सुकतापूर्वक इस बात की प्रतीक्षा करता कि अब मातमपुर्सी करने कौन वीआईपी आता है। जब कोई मंत्री पहुंचता तो वह अंदर ही अंदर झूम उठता और पिता की लाश से मन ही मन कहता-एक आपका जीवन था और एक मेरा जीवन है...।

पिता की याद आते ही उसकी आंखों से आंसू टप-टप गिरने लगे। वह जंतर-मंतर की सीढ़ियों पर चढ़ने लगा। वह अपने आंसू छुपाना चाहता था पर आंसू रुकने का नाम नहीं ले रहे थे। फिर न जाने क्यों उसे अपनी बहनें याद आने लगीं। फिर उसे अपने शहर का पुराना घर याद आ गया। उसकी हिचकियां बंध गईं। वह दोनों हथेलियों से चेहरा ढांपकर रोने लगा। ऐसा लगा जैसे उसके भीतर कुछ दरकता चला जा रहा हो। एक बंधन सा खुल रहा हो। आंसू की धारा उसे कहीं बहाकर ले जाना चाहती थी।

तभी अचानक किसी ने उसकी पीठ पर हाथ रखा। वह घूमा तो देखा एक पुलिसवाला खड़ा था। पुलिस वाले ने कहा, ‘अरे सर आप। आप तो डॉक्टर साहब हैं न। कई बार मंत्री जी के घर आपको देखा है। क्या हुआ आपको?’

उसने जल्दी-जल्दी अपने आंसू पोंछे। वह समझ नहीं पा रहा था कि पुलिस वाले की बात का क्या जवाब दे। उसकी जुबान ही नहीं खुल पा रही थी। पुलिस वाले ने उसे ऊपर से नीचे तक देखा फिर कुछ समझने की कोशिश की और कहा, ‘आइए सर, घर चलिए।’ वह चुपचाप उसके पीछे चलने लगा जैसे गिरफ्तार होकर जा रहा हो, उसी जिंदगी में जिसे कभी-कभी वह नरक कहा करता था।